Saturday, November 7, 2009

यह हमारी क़ौम के मुस्तक़बिल का सवाल है




शायद आप नहीं पहचानते होंगे कि यह तस्वीर किस ख़ूबसूरत युवक की है और उसकी गोद में बैठी मासूम बच्ची कौन है। आज अधिक समय नहीं है मेरे पास इसलिए न तो इसका विस्तृत परिचय पेश कर सकता हूं और न ही इसकी दर्दनाक कहानी बयान कर सकता हूं, इसलिए कि जमीअत उलमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किए गए प्रस्ताव पर मेरा क़िस्तवार लेख जारी है और जिस 16वें प्रस्ताव पर मैं अपने समुदाय और भारत सरकार से बातचीत करना चाहता हूं, वो अत्यन्त महत्वपूर्ण है और केवल इतना ही नहीं बल्कि यह कहा जा सकता है कि इस प्रस्ताव का संबंध हमारे समुदाय के भविष्य से है, हमारी आने वाली पीढ़ियों से है, भारत में हमारे भविष्य से है, इसलिए न तो इसकी अन्देखी की जा सकती है और न ही सरसरी तौर पर लिया जा सकता है, फिर भी इससे पहले कि मैं इस प्रस्ताव पर बात आरंभ करूं कुछ वाक्य एक संक्षिप्त परन्तु यादगार मुलाक़ात पर अवश्य लिखना चाहता हूँ।

यह तस्वीर इरशाद की है और उसकी गोद में है उसकी सबसे छोटी बेटी। वह इरशाद जो कई बरस से तिहाड़ जेल में बंद था और वहीं से उसने अपनी दास्तान लिखकर हमें भेजी थी, जिसे हमने रोज़्ानामा राष्ट्रीय सहारा के पृष्ठों पर कई बार प्रकाशित किया तथा भारत सरकार का ध्यान अब उस सच्चाई की ओर दिलाया जो हमें उस के पत्र द्वारा प्राप्त हुई थी, जिसमें स्पष्ट रूप से यह सच्चाई बयान की गई थी कि किस प्रकार दो निर्दोष मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बना कर पेश किया गया था। अल्लाह का करम है कि हमारी कोशिश बेकार नहीं गई और परिणाम आज अल्लाह के एक बड़े ईनाम की शक्ल में हमारे सामने था।

इरशाद और मआरिफ़ को तिहाड़ जेल की लोहे की सलाख़ो से बाहर आने का अवसर मिला और अपने जिन बच्चों की सूरत देखने के लिए तरस गया था आज वह उन्हें अपनी गोद में लिए बैठा था। मेरी ख़ुशी का अंदाजा लगाना शायद आसान नहीं होगा, जिस तरह एक माली को अपने लगाए हुए पौधों पर फूल आते देख कर ख़ुशी होती है, उससे भी कहीं बढ़कर ख़ुशी मेरी आंखों में थी। जिस तरह मेरे कार्यालय आकर वह मेरे गले लगा और अहसास दिलाया जैसे उसे एक नया जीवन मिल गया हो तो मुझे लगा शायद ये ज़िन्दगी केवल उसको ही नहीं मिली बल्कि उर्दू पत्रकारिता को भी मिली है, वरना यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि किसी अख़बार द्वारा चलाया जाने वाला अभियान जेल की सलाख़ों के पीछे ठूंस दिए गए बेगुनाहों को आज़ादी भी दिला सकता है।

उन्हें फिर खुली हवा में सांस लेने का अवसर भी प्रदान कर सकती है उनके दामन से बेगुनाही का दाग् मिटा सकती है, उन्हें फिर अपने परिवार के साथ सिर उठ कर सम्मान के साथ जीने की राह हमवार कर सकती है। लेकन यह कोई ख़्वाब या ख़याल नहीं था, जिंदा हक़ीक़त मेरे सामने थी। ऐसी ही घटना रोज़्ानामा राष्ट्रीय सहारा के प्रयासों से कानपुर के वासिफ़ हैदर के साथ घटित हुई, उसे भी जेल से रिहाई मिली। और भी कई घटनाएं हैं जिनका आज उल्लेख केवल इसलिए नहीं करना संभव नहीं है कि हम अपना पूरा ध्यान जमीअत उलमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में प्रस्तुत किए गए उस 16वें प्रस्ताव पर केन्द्रित करना चाहते हैं।

इससे पहले कि मैं इस प्रस्ताव के हवाले से बात आरम्भ करूं, पाठकों की सेवा में यह प्रस्तुत कर देना चाहता हूं कि इरशाद ने दरभंगा के दीनी मदरसा में शिक्षा प्राप्त की थी और अपनी रिहाई के संबंध में संघर्ष के दौरान ऐसे सभी दरवाजों पर दस्तक दी, जहां से उसे आशा थी। हम उन दरवाजों का उल्लेख जानबूझ कर नहीं कर रहे हैं, मगर इस अपील के साथ इस विषय पर अपनी बात पूरी करते हैं कि आज वह अपने दो बच्चों की शिक्षा तथा पालन-पोषण के लिए चिंतित है, चाहता है कि किसी हास्टिल में रहकर उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल जाए। क्या कोई धार्मिक अथवा सामाजिक संस्था इस दायित्व को स्वीकार करने के लिए आगे आती है? अगर हां तो उस युवक की अपने बच्चों के भविष्य से संबंधित चिंता दूर हो सकती है और यह नन्हे चिराग आगे चलकर अपना घर रोशन कर सकते हैं।

आइये अब चर्चा करते हैं उस 16वें प्रस्ताव की जिसको मैंने अत्यंत महत्वपूर्ण और क़ौम के भविष्य से संबंध रखने वाला प्रस्ताव क़रार दिया है। किसी भी टिप्पणी से पहले एक नज़र इस प्रस्ताव परः

जमीअत उलमा-ए-हिन्द का यह अधिवेशन गंभीरतापूर्वक महसूस करता है कि आधुनिक शिक्षा तथा कलाओं में मुसलमान बहुत पीछे हैं और इस मैदान में उनका पिछड़ापन हद से अधिक बढ़ा हुआ है। इससे सीधे तौर पर से मुसलमानों की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। इसके साथ मुसलमानों का जो समुदाय सरकारी तथा निजी संस्थानों में इन शिक्षाओं तथा कलाओं की प्राप्ति के लिए प्रवेश प्राप्त करते हैं उन संस्थानों के धर्म विरोधी वातावरण में आमतौर पर धर्म से अनभिज्ञ तथा बेगाने हो जाते हैं इसलिए यह अधिवेशन मुसलमानों विशेष रूप से उनके ख़ुशहाल लोगों को सुझाव देते हुए अपील करता है किः

1. आवश्यकता अनुसार आधुनिक शिक्षा के लिए प्राइमरी स्कूल, हायर सेकण्डरी स्कूल और कालिजिज़ क़ायम करें।

2. कामर्स, इन्जीनियरिंग, टेक्निकल और मेडिकल इंस्टीट्यूट क़ायम करें, इस दिशा में संसाधनों के अनुसार जमीअत उलमा-ए-हिंद आगे बढ़ रही है, टीचर ट्रेनिंग कालेज, महिला पी टी सी कालेज, मदनी गल्ज़ हास्टिल, शाह ज़कारिया वोकेशनल ट्रेनिंग सेन्टर, हाजी पीर इंगलिश मीडियम स्कूल, कालेज आफ़ फ़ार्मेसी क़ायम हो चुके हैं और शिक्षा आरंभ हो चुकी है।

3. इन संस्थानों में शिक्षा तो प्रचलित पाठ्य क्रम के अनुसार दी जाए मगर बच्चों का प्रशिक्षण, वेशभूषा, रीतियों और इबादतों में इस्लामी जीवनशैली को विशेष रूप से सुरक्षित रखा जाए, जिसके लिए अध्यापकों के प्रशिक्षण की अलग से भी व्यवस्था की जाए। वरना इन संस्थानों का जो उद्देश्य है वह समाप्त हो जाएगा।

4. बच्चियों की धार्मिक आधुनिक शिक्षा की ख़ातिर गैर आवासीय इन्सटीट्यूट क़ायम किए जाएं और उनके लिए उचित पाठ्यक्रम तैयार किया जाए, और शरीअत की सीमाओं तथा परदे की पूरी पाबंदी के साथ ही उनके लिए शिक्षा व्यवस्था हो तथा लड़के-लड़कियों की एक साथ शिक्षा से पूरी तरह बचा जाए वरना फ़ाएदे से अधिक नुक़सान की सम्भावना है।

जमीअत उलमा-ए-हिन्द के इस 30वें अधिवेशन में प्रस्तुत किए गए उपरोक्त प्रस्ताव को मैं इसलिए अपनी क़ौम के भविष्य से जोड़ कर देखता हूं क्योंकि उसमें तमाम सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थानों को धर्म विरोधी वातावरण या दीन से अनभिज्ञ व बेजार कर देने वाला घोषित किया गया है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? मैं केवल अपनी बात नहीं करता, मगर आज भारत सरकार में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले माननीय उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, मंत्रीगण श्रीमान गुलाम नबी आजाद, श्री डा॰ फ़ारूक़ अब्दुल्ला, श्रीमान सलमान ख़ुरशीद ऐसे ही संस्थानों से शिक्षा प्राप्त कर सरकार में हमारी क़ौम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जहां उन्हें सरकारी या गैर सरकारी यानी दीन विरोधी वातावरण में शिक्षा प्राप्त करनी पड़ी।

इतना ही नहीं विभिन्न विभागों में चाहे हम पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का उल्लेख करें या बेरिस्टर अब्दुर्रेहमान अन्तुले का या जस्टिस ए॰एम॰ अहमदी, सैयद हामिद जैसी शख़्सियतें, क्या यह सब ऐसे ही दीनी विरोधी वातावरण में शिक्षा व प्रशिक्षण के बाद ऐसे पदों तक पहुँचे? फिर हमें प्रश्न करना होगा भारत सरकार के गृहमंत्री श्री पी॰ चिदम्बरम से और शिक्षा मंत्री श्री कपिल सिब्बल से कि क्या वह स्वीकार करते हैं कि हमारी सरकारी और गैर सरकारी शिक्षा संस्थानों में धर्म (इस्लाम) विरोधी वातावरण है और वहां शिक्षा प्राप्त करने पर दीन से अनभिज्ञ और बेजार हो जाने का ख़तरा बना रहता है।

श्रीमान कपिल सिब्बल से यह प्रश्न इसलिए कि यह उनके मंत्रालय का मामला है, अगर जमीअत उलमा-ए-हिन्द का यह आरोप सही है तो मुस्लिम क़ौम से संबंधित शिक्षा प्राप्त करने वाले लाखों करोड़ों छात्र-छात्रायें जो सरकारी और गैर सरकारी पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उनके इस्लाम धर्म से अनभिज्ञ हो जाने का ख़तरा बना हुआ है? और गृहमंत्री पी॰ चिदम्बरम से इसलिए कि क्या उन्होंने इस कार्यक्रम में शामिल होने से पहले यह जानकारी प्राप्त कर ली थी कि इस 30वें अधिवेशन का ऐजंडा क्या है? और अगर उसमें कुछ प्रस्ताव पेश किए जा रहे हैं तो वह क्या हैं? अगर हां तो क्या वह स्वीकार करते हैं कि भारत सरकार की शिक्षा व्यवस्था धर्म (इस्लाम) की दुशमनी पर आधारित है और अगर नहीं तो यह सब जाने बिना उस कार्यक्रम में शामिल होना क्या उचित ठहराया जा सकता है?

क्या उन्हें अंदाजा नहीं था कि इस अधिवेशन के कर्ताधर्ता का संबंध साम्प्रदायिक राजनीतिक दल बीजेपी की सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल पार्टी से है और यह मुस्लिम विरोधी सोच रखने वाली पार्टी बी.जे.पी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है, किसी व्यक्ति का भी प्रयोग कर सकती है। क्या उन्हें याद नहीं कि अगर पूर्व गृहमंत्री से केवल इसलिए उनके त्याग पत्र की मांग की गई थी कि उन्होंने एक नजुक मौक़े पर एक ही दिन में तीन बार सूट बदले तो क्या यह मामला उस बी.जे.पी के लिए एक राजनीतिक हथकंडा नहीं हो सकता। क्या वंदे मातृम पर यह हंगामा उनकी सोची-समझी प्लानिंग का हिस्सा नहीं लगता?

क्या उन्हें नहीं चाहिए था कि इस अधिवेशन में जाने से पूर्व वह इस बात की पुष्टि कर लेते कि किन-किन विषयों पर इस सभा में चर्चा की जानी है, क्या-क्या प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाने हैं और क्या वह भारत सरकार के किसी मंत्री को शामिल होने की अनुमति देते हैं। अभी उनसे संबंधित ‘वंदे मातृम’ के नाम पर हंगामा है, मगर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है शिक्षा की वह तालिबानी व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास है, कमोबेश जिसको जमीअत उलमा-ए-हिन्द के इस प्रस्ताव में सामने रखा गया है। क्या भारत सरकार इसका समर्थन करती है? जगह कम है, बहुत विस्तार से इस पर बात नहीं की जा सकती, मगर यह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि इसपर बहस का सिलसिला जारी रहेगा।

हमने आज का यह लेख लिखने से पहले कई विश्वविद्यालयों के वरिष्ठों प्रोफ़ेसर्स से बात-चीत की, जिनमें जामिआ मिल्लिया इस्लामिया के दीनयात विभाग के अध्यक्ष प्रो॰ अख़तरुलवासे का नाम भी शामिल है। हम अपने कल के लेख में उनका दृष्टिकोण भी सामने रखेंगे और आइंदा दस्तावेज़ भी इसी विषय पर होगा कि तमाम युनिवर्सिटियों सहित क्या सरकारी और गैर सरकारी सेक्टर के शिक्षण संस्थान धर्म (इस्लाम) दुशमनी पर आधारित हैं।

जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने से पूर्व निश्चित रूप से इस पहलू पर भी विचार किया होगा और बहुत सोच-समझ कर अध्ययन और विचार-विमर्श के बाद ही यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया होगा।..........................................................................(जारी

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