Monday, November 9, 2009

यह थप्पड़ अबू आसिम आज़मी पर नहीं राष्ट्रभाषा पर है

बातचीत जारी थी जमीअतुल उलमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किए गए 16वें प्रस्ताव पर, जिसका संबंध प्रारम्भिक शिक्षा और संस्थानों की स्थापना से था। यह एक नाजुक मसला था और मैं कोई शिक्षाविद्ध नहीं, इसलिए सम्पर्क किया कुछ ऐसे विद्वानों से जो इस सिलसिले में मार्गदर्शन कर सकें उनमें जामिआ मिलिया इस्लामिया के इस्लामिक स्टडीज़् विभाग के अध्यक्ष प्रो॰ अख़तरुल वासे का नाम भी शामिल है, उनके द्वारा दी गई जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण परन्तु विस्तृत थी, लिहाज़ा अपने लेख में उनकी राय को चंद जुमलों तक सीमित करने की बजाए इस क़िस्तवार कालम में एक मुकम्मल लेख की शक्ल में शाया करना ज़रूरी लगा।

आज भी इस 30वें इजलास के हवाले से ही कुछ आगे लिखना था मगर जिस तरह आज महाराष्ट्र असम्बली में राष्ट्र भाषा हिन्दी की तौहीन की गई और समाजवादी पार्टी के लीडर अबू आसिम आज़्ामी के साथ मार-पीट हुई इस शर्मनाक घटना को अनदेखा नहीं किया जा सकता था, अतः आज का यह लेख, इस अफ़सोसनाक हादसे पर, फिर बात, 30वें अधिवेशन पर।

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

बदक़िस्मती से आज मुसलमानों की हालत कुछ ऐसी ही बना दी गई है जिसको ऊपर लिखे शेर के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है।

जंग के मैदान में जब मुल्क की आबरू ख़तरे में होती है तो सामने आता है वीर अब्दुल हमीद, जो अपनी जान पर खेल कर दुशमनों के दाँत खट्टे करता है और जब आबरू ख़तरे में होती है मुल्क की क़ौमी ज़बान हिन्दी की, तो अपने ही मुल्क की एक रियासती असम्बली में कार्रवाई के दौरान हिन्दी भाषा में शपथ लेने की सज़ा के तौर पर मार खाता है अबू आसिम आज़मी।

जमीअतुल उलमा-ए-हिन्द के 30वें इजलास में ‘‘वंदे मातृम’’ का ज़िक्र क्या आया मुल्क में एक तूफ़ान बरपा हो गया। हालांकि हम अपने पिछले लेखों में यह लिख चुके हैं कि इस मौक़े पर वंदे मातृम का ज़िक्र न किया जाता तो बेहतर था, फिर भी इस समय हमें यह कहना ज़रूरी महसूस हो रहा है कि वंदे मातृम का ज़िक्र और उस पर की जाने वाली बहस न तो इस क़दर क़ाबिले ऐतेराज़् थी और न ही शर्मनाक, जिस पर तूफ़ान बरपा किया गया, जबकि महाराष्ट्र असम्बली में अबू आसिम आज़मी के हिन्दी में शपथ लेने पर सदन के अन्दर और बाहर जो कुछ हुआ, वह बेहद शर्मनाक भी है और क़ाबिले अफ़सोस भी।

क़ाबिले अफ़सोस और शर्मनाक सिर्फ़ इसलिए नहीं कि यह एक चुने गए मिम्बर असम्बली की तौहीन है, बल्कि इसलिए कि यह क़ौमी ज़्ाबान हिन्दी की तौहीन है। कहां गए उधव ठाकरे, जिन्होंने दारुल उलूम देवबन्द में राष्ट्रगीत का प्रश्न उठाए जाने पर कहा था कि जो राष्ट्रीय गीत का विरोध करते हैं उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए, ऐसे गद्दारों के लिए यहां कोई जगह नहीं है। क्या राष्ट्र भाषा का विरोध करने वालों के लिए वह इसी तरह की भाषा का प्रयोग करेंगे? क्या उनके लिए गद्दार जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने की हिम्मत करेंगे? सवाल राष्ट्र गीत का हो या राष्ट्र भाषा का दोनों में फ़र्क़ कितना है, फिर दारुल उलूम देवबन्द या जमीअतुल उलमा-ए-हिन्द ने तो राष्ट्र गीत की तौहीन की ही नहीं, सिर्फ़ अपना औचित्य सामने रखा।

यह पूछना होगा अपने आप से और उधव ठाकरे, बाल ठाकरे और उनकी पार्टी के मिम्बरान को, जिनकी आँखों के सामने महाराष्ट्र असम्ली में राष्ट्र भाषा की तौहीन हुई, दरअसल हमारा मानना है कि यह थप्पड़ अबू आसिम आज़मी के मुंह पर नहीं, मुल्क की राष्ट्र भाषा पर है, मुल्क की साल्मियत पर है, राष्ट्रीय एकता पर है।


सुब्रामण्यम स्वामी ने वन्दे मातृम के प्रश्न पर कहा कि देवबंद मदरसे में हुए समारोह में मुसलमानों को वन्दे मातृम ख़ारिज करने के निर्देश देते फ़तवे की प्रकृति में आए प्रस्ताव का पारित होना संविधान का उल्लंघन है और इसके लिए भारतीय दण्ड सहिंता के अन्र्तगत कार्रवाई की जा सकती है।

भारतीय जनता पार्टी के लीडर कलराज मिश्र ने कहा कि वन्दे मातृम का विरोध करना दागदार मानसिकता ज़ाहिर करता है, और उसमें देशद्रोही की गन्ध आती है। क्या कहेंगे कलराज मिश्र, आज महाराष्ट्र असम्बली में राष्ट्र भाषा की तौहीन किए जाने के बाद। जो कुछ राज ठाकरे के मिम्बरान असम्ली ने किया, अगर वही किसी मुसलमान एमएलए ने किया होता तो क्या यह राष्ट्र विरोधी मानसिकता नहीं कही जाती। क्या अब भी वह ऐसा ही कहेंगे? श्री मिश्र ने वन्दे मातृम को भारत माता की वन्दना क़रार देते हुए कहा था कि यह मुल्क परस्ती को मजबूती प्रदान करने वाला है। उन्होंने कहा था कि यह फ़तवा देश के अन्दर अलगाव वादी ताक़तों को बढ़ावा देगा।

आज हम कह रहे हैं कि महाराष्ट्र असम्बली में जो कुछ हुआ यह हिन्दुस्तान के अन्दर अलगाववादी ताक़तों को बढ़ावा देने वाला है। बेशक कि चार एमएलए को निलंबित कर दिया गया, मगर जो भाषा अबू आसिम आज़मी पर हाथ उठाने वाले राम कदम और राज ठाकरे ने इस्तेमाल की है इससे अलगाव वाद का साफ़ इशारा मिलता है। क्या बोलेंगे मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़्ाहर उगलने वाले यह कुछ लोग?

इतना ही नहीं देश के प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ‘‘पंजाब केसरी ने 5 नवम्बर को सम्पादकीय में लिखा ‘‘आज आजाद हिन्दुस्तान में इसका (देवबन्द अधिवेशन का) यह काम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाला ही कहा जाएगा और हद तो उस समय हो गई जब अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित होने वाला दैनिक ‘‘पायनियर’’ ने अपने सम्पादकीय में लिखाः

“The Community as backward-looking and refusing change the times.”(यह क़ौम पिछड़ी सोच वाली है और यह लोग समय के साथ बदलना नहीं चाहते।)

“In Brief, the Jamiat Ulama-e-Hind wants a separate state within the Indian state which will be ruled by mullas.”(संक्षिप्त में जमीअत उलमा-ए-हिन्द देश के अंदर एक अलग प्रदेश चाहती है जिसमें मुल्लाओं की हुकूमत हो।)

Now let me say Mr। Editor who wants separate state with in the Indian state either Jamiat Ulama-e-Hind or this separatist Raj Thakre and his gundaas. Will you say something now?
मिस्टर एडिटर अब मुझे कहने दीजिए कि देश में पृथक राज्य कौन चाहता है, जमीअत उलमा-ए-हिन्द या अलगाव वादी राज ठाकरे और उसके गुंडे , क्या अब कुछ कहेंगे आप?

सिर्फ़ इतना ही नहीं प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ साथ विभिन्न राजनैतिक, समाजिक संस्थाओं ने वन्दे मातृ को बहाना बना कर जिस तरह जमीअत उलमा-ए-हिन्द, दारुल उलूम देवबंद और मुसलमानों पर छींटाकशी की वह बेहद अफ़सोसनाक है। यहां तक कि विभिन्न अवसरों पर उन्हें ग़द्दारे वतन तक कहने की कोशिश की, जिन्होंने आज़ादी की जंग कांधे से कांधा मिलाकर लड़ी। महात्मा गांधी को चंदा दिया ताकि अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा मिल सके। आज राष्ट्र भाषा हिन्दी की तौहीन के सवाल पर वह क्या कहेंगे?

तमाम लोग क्या उनमें इतनी हिम्मत है कि अब कहें कि राज ठाकरे और उसके मिम्बरान असम्बली वतन के गद्दार हैं और राष्ट्र भाषा की तौहीन सिर्फ़ एक ज़बान की तौहीन नहीं, बल्कि मुल्क की तौहीन है और अगर यही हरकत किसी मुसलमान के ज़रिये अमल में आई होती, तब क्या वह ख़ामोश रहते? क्या इसे देशद्रोही सिद्ध करने की कोशिश नहीं की जाती? अत्यंत आश्चर्य की बात यह है कि उस समय एक टेली विजन चैनल जब महाराष्ट्र असम्बली में हुए इस शर्मनाक घटना की ख़बर दिखा रहा था उसी समय वह अबू आसिम आज़मी की पिछली ज़िन्दगी को दागदार साबित करने की कोशिश भी करता चला जा रहा था।

वह अपनी ख़बर को संतुलित करने की कोशिश में यह प्रकट करने की कोशिश कर रहा था कि अगर ‘‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मिम्बराने असम्बली ने ग़लती की है, हाथा पाई की है तो अबू आसिम आज़मी भी दूध के धुले नहीं हैं, मतलब अबू आसिम आज़मी के साथ हिन्दी में शपथ लेने के मौक़े पर जो कुछ भी हुआ वह ग़लत तो था मगर वह कोई बहुत अच्छे आदमी नहीं हैं, बल्कि वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी पिछली जिंदगी बेदाग़ नहीं रही है। सम्भव है चैनल के जिम्मेदारों को मेरी यह टिप्पणी क़ाबिले ऐतेराज़् लगे, मगर उस समय क्या उन तमाम बातों को अबू आसिम आज़मी के हवाले से ख़बर का हिस्सा बनाने की आवश्यकता थी?

जबकि वह महाराष्ट्र के दो-दो असम्बली क्षेत्रों से चुन कर सदन में पहुँचे थे और अपनी राष्ट्रभाषा में शपथ ले रहे थे। उनका यह कार्य प्रशंसनीय था न कि आलोचना योग्य। .............................(जारी)

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