Friday, March 20, 2009

कांग्रेस एहसास कमतरी के दौर से बाहर तो निकले

कुछ तो निरंतर सफर ने लिखने का मौक़ा ही नहीं दिया और कुछ राजनैतिक दृश्यावली भी साफ़ नहीं थी. आज भी कुछ कहना मुश्किल है. कल फिर तस्वीर बदल सकती है. जहाँ तक अत्याचार और नाइंसाफी पर कलम उठाने की बात है तो इस सम्बन्ध में लिखने के लिए इतना बाकी है के ज़िन्दगी कम है. सुलतान पूर में एक छोटी सी बात पर हुए हिंसा की दास्ताँ लिखी हम ने और अखबार में उन ऍफ़ आई आर को छापा जिन्हें आरोपी स्थानीय थाने में दर्ज कराना चाहते थे, परन्तु नहीं करा सके थे, ठीक ठाक प्रभाव भी हुआ. पुलिस कप्तान को हटाया गया. उत्तर परदेश माइनोरिटी कमीशन के चेयरमैन ने २ सप्ताह के भीतर इन्कुँएरी की रिपोर्ट उन के सामने पेश करने के आदेश जारी किए. अनुमान हुआ के निराशा का दौर समाप्त हो सकता है. बस आवाज़ उठाने का हौसला चाहिए. जिस समय मैं झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के सरहदी इलाके अब्दुल्लाह नगर में मदरसा नदवातुल इस्लाह के पचास वर्षीय जशन में शामिल होने के लिए जारहा था, उसी समय नांदेड से मुझे मेरे मोबाइल फोन पर एक मेसेज मिला के जो कुछ मैंने सुल्तानपुर में देखा और लिखा है, उस सब से कहीं अधिक अफसोसनाक हालात हैं नांदेड (महाराष्ट्र) में. आप आइये यहाँ के हालात देखिये और लिखिए. मैं जाना चाहता था, परन्तु इस लंबे चौडे देश के एक किनारे से दूसरे किनारे तक दौड़ते दौड़ते घर और दफ्तर दोनों से ही संपर्क टूट सा गया था, इस लिए आवयशक था के कुछ समय दिल्ली में बैठ कर राजनैतिक हालात को देखा जाए और आने वाले संसदीय चुनाव पर लिखा जाए. इस लिए नांदेड के लिए एक दूसरी टीम भेजी और मैं उस राजनैतिक केन्द्र तक पहुँच गया, जहाँ आने वाले पाँच वर्षों के लिए देश की राजनीती की बिसात बिछाई जा रही थी. हालांके इस समय भी पिछले महीने आजाद मैदान मुंबई में महाराष्ट्र मुख्य मंत्री अशोक चौहान का भाषण मेरे कानों में गूँज रहा था और मैं यह भी जानता था के उन का सम्बन्ध नांदेड से है. अपने एलान के अनुसार श्री कृष्ण कमीशन में बताये गए अपराधियों को दंड दिलाने की बात तो दूर, न तो वो उस विवादित सी डी पर कोई प्रतिबन्ध लगा सके, जिस के कारण नांदेड में यह जातिवादी हिंसा पैदा हुई और न ही मुसलमानों पर होने वाले एकतरफा ज़ुल्म को रोकने की कोई कोशिश. क्या यह ठीक नहीं होता के हमारे जिन धार्मिक और राजनैतिक प्रतिनिधियों ने अपने स्टेज पर बुलाकर उन की तारीफ़ कितनी, अब उन्हें यह एहसास भी दिलाते के आखिर उन के रहते यह ज़ुल्म क्यूँ हो रहा है? विशेषकर हमारे वो प्रतिनिधि जिन्होंने ने मीडिया की मौजूदगी में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को खामोश करते हुए कहा था के हम अपने अंदरूनी मामलात को हल करने की योग्यता रखते हैं, आप को इन मामलात में बोलने की आव्यशकता नहीं है. हाँ यह ठीक है परन्तु जो अधिकार परवेज़ मुशर्रफ़ को नहीं है, वो भूत काल में कोन्दोलीज़ा राईस और जोर्ज वाकर बुश को क्यूँ था? और आज बराक हुसैन ओबामा को क्यूँ है? खैर यह एक बड़ा शीर्षक है, जिस पर बात फिर कभी. फिलहाल बस इतना ही के कम से कम उन्हें तो नांदेड के ताजा हालत पर महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री को उन का कर्तव्य याद दिलाना चाहिए था. अगर उत्तर परदेश में सुलतानपुर के एक मामूली सी घटना पर उत्तर परदेश माइनोरिटी कमीशन के चेयरमैन की दिलचस्पी लेने का असर हो सकता है तो फिर महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री के दिलचस्पी लेने से क्या नहीं हो सकता……? नांदेड से रोजनामा राष्ट्रीय सहारा की टीम ने पूरी जानकारियां प्राप्त की हैं, जिन्हें जल्दी ही हम सब के सामने लायेंगे और महाराष्ट्र सरकार को सभी हालत की और आकर्षित भी करेंगे, परन्तु अब बात मौजूदा राजनैतिक दृश्यावली की. यु पी ऐ, एन डी ऐ और तीसरा मोर्चा कम से कम यह ३ लाइंस हैं जो १५वेन लोक सभा के चुनाव के बाद राज की दावेदारी के लिए अपनी अपनी कोशिशों में व्यस्त हैं. यु पी ऐ की अन्तिम सूरत क्या होगी, पूर्ण विशवास के साथ अभी यु पी ऐ में शामिल लीडर कुछ नहीं कह सकते। नयूक्लेअर डील पर अन्तिम मोहर लगने से पहले तक कम्युनिस्ट पार्टियां कांग्रेस के साथ थीं, परन्तु अब नहीं हैं। समाजवादी पार्टी उस समय तक यु पी ऐ का हिस्सा नहीं थी, परन्तु अब है। इस बीच संबंधों में कड़वाहट भी रही और आज वातावरण सुखद भी है, परन्तु कब तक? यह कहा नहीं जा सकता।

यु पी ऐ में सोनिया गाँधी के सब से बड़े फेन लालू प्रसाद यादव हुआ करते थे, अब ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह स्थान अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह ने ले लिया है। उन के पास भी यह स्थान कब तक रहेगा, कोई ज्योतिषी भी इस प्रशन का ठीक उत्तर नहीं दे सकता। शरद पवार साथ रहेंगे या अलग हो जायेंगे, कहा नहीं जा सकता।

परन्तु इन सब बातों के बावजूद एक इशारा अवश्य मिलता है और वो यह के बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद यह पहला मौका है जब मुसलमानों के सम्बन्ध में हवा की दिशा कुछ हद तक कांग्रेस के हक़ में नज़र आती है। ऐसा कोई ठीक कारण नहीं है के कांग्रेस के हक़ में लहर पैदा हो जाए। नियुक्लियर डील को लेकर मुस्लमान खुश नहीं था, परन्तु यह अकेले उस का मामला नहीं था। पूरे देश के भविष्य का मामला था और जब बहुमत बलके कम या अधिक पूरा हिंदुस्तान डील के हक़ में खड़ा हो तो मुसलमानों की आवाज़ नक्कारखाने में तोती की आवाज़ से अधिक क्या समझी जा सकती थी। इसलिए वो अपनी बात कह कर खामोश हो गया। बटला हाउस के मामले में कांग्रेस विशेष कर केन्द्रीय मंत्री शिवराज पाटिल को लेकर मुसलमानों में बहुत नाराज़गी थी, परन्तु मालेगाँव बम धमाकों की छानबीन जैसे जैसे आगे बढ़ी और आतंकवाद का एक नया चेहरा सामने आने लगा, उस नाराजगी ने कांग्रेस की जगह भारतीय जनता पार्टी को उस स्थान पर ला खड़ा किया। अगर २६/११ को मुंबई में आतंकवादी हमला न हुआ होता और उसी समय संसदीय चुनाव हो गए होते तो मुसलमानों की एक बहुत बड़ी मात्रा पूरे जोश के साथ कांग्रेस के हक़ में खड़ी हो जाती। क्यूंकि इस आतंकवादी हमले का सम्बन्ध पाकिस्तान से जुडा, इसलिए हिन्दुस्तानी मुस्लमान के लिए यह बात तो चिंताजनक रही के आतंकवाद पर किस तरह काबू पाया जाए और इस दिशा में देश और कौम के लिए उस का रोल क्या हो, परन्तु इस बार वो आरोप के घेरे में न आने पर राहत भी महसूस कर रहा था। अगर मालेगाँव बम धमाकों की जांच का काम और आगे बढ़ा होता, शहीद हेमंत करकरे ने आतंकवादियों के जो चेहरे दिखाए थे, उन्हें अंजाम तक पहुँचाया जा सकता या उन की जगह लेने वाले महाराष्ट्र ऐ टी एस के प्रस्तुत चीफ मिस्टर रघुवंशी ने उसी अंदाज़ में काम को आगे बढाया होता तो शायद हालात कांग्रेस के हक़ में और भी अच्छे होते, देश के लिए क्यूंकि सेकुलर ताकतों का मज़बूत होना अतिआवश्यक है। सर्व धर्म समभाव और देश की भलाई के लिए केन्द्र में सेकुलर सरकार का बनना आवश्यक है और यह कांग्रेस के बिना सम्भव नहीं लगता। इसलिए सभी कमियों के बावजूद कांग्रेस पहले से कुछ ठीक हालत में नज़र आती है। अब देखना यह है के कांग्रेस अपने हक़ में हालात के इस बदलाव को किस हद तक वोट में बदल पाती है।

उत्तर परदेश में कांग्रेस का कोई विशेष स्थान नहीं था। पिछले संसदीय चुनाव में ८० में से केवल ९ सीटें उस के हिस्से में आई थीं और इस बार सीटें भी बरक़रार रहेंगी, ऐसा लगता नहीं था, परन्तु कुछ तो कल्याण सिंह फैक्टर ने समाजवादी पार्टी को परेशानी में डाला और कुछ राज्य के ताज़ा हालात ने बहुजन समाज पार्टी के बढ़ते क़दमों को रोकने के हालात पैदा किए, इस से कांग्रेस डूबते डूबते फिर उभरने की हालत में आगई। समाजवादी पार्टी जो उसे १०-१२ सीटों से अधिक देने को तैयार नहीं थी, वो कांग्रेस पार्टी के ज़रिये २४ उमीदवारों के एलान के बाद भी उस की शान में कसीदे पढ़ती नज़र आने लगी है और अब नाराज़गी जताने के बजाये दोस्ताना लड़ाई की बात करती है, कांग्रेस को सेकुलरिज्म का केन्द्र मानती है, जबके उसे अनुमान है के कांग्रेस अभी उत्तर परदेश में और भी सीटों पर अपने उमीदवार उतार सकती है।

कांग्रेस ने निर्णय लेने में देर न लगायी होती और ज़रा सा भी अकलमंदी से काम लिया होता तो उस की हालत और अच्छी हो सकती थी। उस के पास न तो देश के सब से बड़े राज्य उत्तर परदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं का मज़बूत नेटवर्क था और न ही सभी ८० सीटों पर लड़ने के योग्य उमीदवार। मुसलमानों के दृष्टिकोण से इस के हक़ में बदलाव तो था, परन्तु ऐसा भी नहीं था के कोई लहर चल पड़ी हो। उस ने अन्य सेकुलर पार्टियों की तरह मुसलमानों के नज़दीक जाने में रूचि दिखाई होती और उमीदवारों का एलान करने में देर न की होती तो बात ही कुछ और होती- साथ ही अगर कांग्रेस ने पीस पार्टी के चेयरमैन डॉक्टर अय्यूब, उल्माए कोन्सेल के सरबराह मौलाना आमिर रुश्हैद, यु डी ऍफ़ के सदर मौलाना बदरुद्दीन अजमल, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और अजीत सिंह के लोक दल से नाराज़ चल रहे या बागी लीडरों का दामन थाम लिया होता तो एक लंबे समय के बाद यह पहला अवसर होता जब कांग्रेस इसी तरह चोंका देने वाले परिणाम सामने ला सकती थी, जिस तरह पिछले राज्य चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने दिखाए थे।

उल्माए कोन्सेल की प्रतिष्ठा की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इलेक्शन जीतना हारना अलग बात है, परन्तु उस ने जिस इशु पर जनता का विश्वास प्राप्त किया है, उस की अनदेखी नहीं की जा सकती, अगर आज़म गढ़ और आस पास की एक दो सीटों पर उस का अच्छा असर है, वहां से उस के उमीदवार जीत सकते हैं और वो ऐ टी एस की जियादती के इशु को पार्लिमेंट के बाहर जिस तरह उठा रहे हैं, इसी तरह पार्लिमेंट के अन्दर भी उठाने का इरादा रखते हैं, तो इस में बुरा क्या है? यह आवाज़ किसी एक पार्टी के विरुद्ध नहीं है, किसी विशेष लीडर के विरुद्ध नहीं है। दिल्ली, उत्तर परदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में जो जियादातियाँ हुईं हैं, वो सब तो इतिहास के पन्नों में लिखित हैं। हम ख़ुद उन समस्याओं को अपने अखबार के माध्यम से उठाते रहे हैं और चाहते हैं के पार्लिमेंट में भी यह आवाज़ उठे। बार बार हमारे अखबार की कापियां लहराई भी गई हैं और अगर मेंबर पार्लिमेंट इल्यास आज़मी का आरोप सही है तो उन्हें और अकबर अहमद डम्पी को मायावती के ज़रिये इसी अपराध का दंड मिला और उन्हें टिकट से वंचित कर दिया गया।

जहाँ तक उल्माए कोन्सेल का सम्बन्ध है, उसे भी तो इस सच्चाई को समझना होगा के २-३ सीटों के बाहर जाकर उल्माए कोन्सेल भी सिवाय मुसलमानों के वोट बांटने के कुछ विशेष कर पाएगी, ऐसा नहीं लगता।

इसी तरह डॉक्टर अय्यूब की पीस पार्टी पूर्ण राज्य में न सही, परन्तु पूर्वी उत्तर परदेश के कुछ शहरों में अपना असर रखती है। कांग्रेस इन सीटों पर डॉक्टर अय्यूब, मौलाना आमिर रुशेद से बात कर के कुछ सीटें उन के लिए छोड़ सकती है। मौलाना बदरुद्दीन अजमल तो शायद एक सीट पर ही मान जाते और कांग्रेस को इस का फायदा आसाम में मिल सकता था। मुसलमानों के लिए अपनी आवाज़ उठाने वालों को, जो अब राजनैतिक मैदान में कूद पड़े हैं, कांग्रेस अपने अलाइंस का हिस्सा बना लेती तो उसे बड़ा फायदा हो सकता था।

कांग्रेस को सब से बड़ा झटका लगा बिहार में, जहाँ लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान ने उसे बहैसियत मान कर सिर्फ़ ३ सीटों के योग्य समझा, हालांके लालू और पासवान की इस डील के तुंरत बाद कांग्रेस से अधिक बेचैनी राष्ट्रीय जनता दल और लोक जन शक्ति पार्टी के खेमे में दिखाई दी। लालू प्रसाद यादव के बिरादर निसबती साधू यादव और एल जे पी के मेंबर पार्लिमेंट मोहम्मद साबिर बगावत पर उतर आए और यह केवल दो ही नहीं हैं, विभिन्न ऐसे लीडर जो अपनी अपनी पार्टियों से टिकट के दावेदार थे, कांग्रेस के दरवाज़े पर दस्तक देते दिखाई देने लगे और फिर जो उत्तर परदेश में हुआ, उसी के आसार बिहार में भी पैदा हो गए। उत्तर परदेश में दिग्विजय सिंह के ज़रिये २४ उमीदवारों के एलान ने मुर्दा हालत में पड़ी कांग्रेस को नई ज़िन्दगी दी तो बिहार में सुशिल कुमार शिंदे ने २५ सीटों पर लड़ने की बात कह कर बिहार कांग्रेस को ताकत दी। कांग्रेस अगर स्वयं को कमी के एहसास से बाहर निकाल कर देखना शुरू कर दे, उडीसा में नविन पटनायक के एन डी ऐ से बाहर जाने का अर्थ समझ ले, बिहार में नीतिश कुमार को लालू और पासवान का विकल्प मान कर चले और जय ललिता को तीसरे मोर्चे से अलग कर के देखे तो आने वाले संसदीय चुनाव के बाद उस की हालत आज से कहीं अच्छी नज़र आ सकती है।

जहाँ तक तीसरे मोर्चे का सम्बन्ध है तो उस से कांग्रेस को बिल्कुल घबराने की आव्यशकता नहीं है। हाँ, चिंता की बात अवश्य है और यह चिंता केवल कांग्रेस के लिए ही नहीं, बलके सेकुलर वोटर्स के लिए भी है। कुछ राज्यों में ही सही तीसरा मोर्चा सेकुलर वोट की बाँट का कारण बनेगा, परन्तु अपने अपने वजूद के साथ अपनी पार्टियों को जीवित रखने वाले इस के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते के वो चुनावी मैदान में उतरें, कुछ सीटें जीतें और उस के बाद सरकार में हिस्सेदारी का दावा करें। क्यूंकि उन्होंने पिछले दो दशक में जो देखा है वो यह के नंबर गेम में सरकार बनवाने के लिए किसी भी पार्टी के दो चार कार्यकर्ताओं की भी यह हैसियत होती है के वो अपनी शर्तों पर सपोर्ट देते हैं और मंत्रिपद प्राप्त करना उन के लिए बहुत आसन रहता है। साथ ही कुछ सिनीयर लीडर यह आशा भी क्यूँ छोड़ना चाहेंगे के अगर चौधरी चरण सिंह, चन्द्र शेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, एच डी देवे गोडा और इन्द्र कुमार गुजराल की सूरत में ऐसे लीडर को भी प्रधान मंत्री बन्ने का अवसर मिला, जिन की पार्टी के पास मेम्बरों की मात्रा बहुत अधिक नहीं थी तो फिर एक बार ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता।

अब अगर एक बार फिर देवे गोडा, शरद पवार, राम विलास पासवान और मायावती ऐसा सोच रहे हैं तो यह कोई बहुत आशचर्यजनक बात नहीं है, परन्तु इतना तो यह सभी जानते हैं के केन्द्र में कोई भी सेकुलर सरकार कांग्रेस के बिना किस प्रकार वजूद में आ सकती है? यह १० पार्टियाँ जिन के मौजूदा मेम्बरों की मात्रा कुल ८४ है और सरकार बनाने के लिए आव्यशकता होगी २७३ मेम्बेर्स की। इस लिए अगर उन की मात्रा बढ़ कर ८० से १०० या १२० भी हो जाए तो भी कांग्रेस के बगैर सरकार नहीं बनेगी। कांग्रेस अगर अपने प्रस्तुत इत्तेहदियों के साथ बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती तो भी उस के खेमे में कोई नई पार्टी शामिल नहीं होगी, इस बात की क्या ग्यारंटी है। अगर प्रस्तुत इत्तेहादी लालू और पासवान इस समय आँखें दिखा सकते हैं तो कल अलग भी हो सकते हैं। नविन पटनायक अगर आज एन डी ऐ का साथ छोड़ सकते हैं तो कल नीतिश कुमार भी अलग हो सकते हैं। कम से कम मायावती तीसरे मोर्चे में सब के लिए स्वीकारणीय होंगी। इस के अनुमान नज़र नहीं आते और मायावती के लिए कोई और स्वीकारणीय होगा, इस की भी आशा नहीं है। वैसे भी सब जानते हैं, यह तीसरा मोर्चा मौसमी मोर्चा होता है। जब जब संसदीय चुनाव नज़दीक आते हैं, यह वजूद में आजाता है और चुनाव के बाद जिसका जिस से मोल भाव तै हो जाता है वो उसी के साथ शामिल हो जाता है। इस बात के इमकान हैं के इस बार भी ऐसा ही होगा। अपनी अपनी ताकत दिखाने की कोशिश में उन स्थानीय पार्टियों के लीडर मिलेंगे, बैठेंगे, एक साथ खड़े हो कर हाथ मिलायेंगे, फोटो खिंचवायेंगे और फिर हाथ धो कर एक दूसरे के पीछे पड़ जायेंगे।

कांग्रेस को चाहिए के जिस प्रकार उत्तर परदेश में मिलकर इलेक्शन न लड़ पाने की सूरत में भी कोई मातमी माहोल नहीं है तो इसी प्रकार बिहार के चुनावी मैदान में जाने में झिझक कैसी और तीसरे मोर्चे के वजूद को लेकर ही उदासी क्यूँ? उस से टक्कर लेने के लिए तो अकेली मायावती ही काफ़ी हैं। न वो सब के साथ जा पाएँगी, न सब उन के साथ आ पाएंगे। यह समय है अपनी ताकत को समेट कर ऊंचे इरादों के साथ मैदान में उतरने का। अगर पूर्ण विशवास के साथ पार्टी चुनाव लड़ती है और परिणाम थोड़े भी अच्छे होते हैं तो बाकी काम एकविचार ज़रूरतमंद पार्टियाँ आसन कर देंगी। आख़िर राजपाट की चाह किसे नहीं होती और राज से दूर रह कर कौन नई नई मुसीबतों को दावत देना चाहेगा? हो सकता है आज जो आँखें दिखा रहे हैं, वो भी कल दोस्ती का हाथ बढ़ाते नज़र आयें........

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