राज़ क्या है इन विषैले भाषणों का?
हिंदुस्तान दुन्या का एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ स्पष्ट रूप से हिंदू बहुसंख्यक हैं। देश में लगभग ८० प्रतिशत हिंदू होने के बावजूद देश का प्रधानमंत्री एक सिख (अल्पसंख्यक वर्ग से) देश की सब से शक्तिशाली महिला सत्ताधारी गठबंधन यु पी ऐ की चेयरपरसन श्रीमती सोनिया गाँधी और उन के बाद सब से शक्तिशाली राजनितिक व्यक्तित्व अहमद पटेल। तीनों का ही सम्बन्ध देश के विभिन्न अल्पसंख्यक वर्गों से। कुछ दिन पहले तक देश के राष्ट्रपति ऐ पी जे अबदुलकलाम भी अल्पसंख्यक वर्ग से सम्बन्ध रखते थे और आज देश के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी साहब का सम्बन्ध भी अल्पसंख्यक वर्ग से है। ऐसा अनोखा उदहारण विश्व के किसी अन्य देश से नहीं मिल सकता। यह इस देश की लोकतंत्र में आस्था और सांप्रदायिक सोहार्द का सब से बड़ा उदहारण है। यदि किसी राजनितिक दल को यह ग़लतफहमी है की वो हिंदुस्तान के सभी हिन्दुओं या हिन्दुओं की बहुसंख्या की प्रतिनिधित्व करता है तो यह भ्रम है। यदि इस देश का हिंदू नहीं चाहता तो राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे पदों पर किसी मुस्लमान की नियुक्ति उन्हें सहन नहीं होती। न वो एक सिख का प्रधानमंत्री बनना स्वीकार करते और न ही एक ईसाई महिला का देश का सब से बड़ा शक्तिशाली व्यक्तित्व बन पाना सम्भव हो पता।
क्या भारतीय जनता पार्टी और उस के संकेत पर चुनावी सभाओं में विषैले भाषण देने वाले बताएँगे की पिछले लगभग पाँच वर्षों में कितने हिंदू संघटनों ने इस बात पर आपत्ति की है के यह प्रमुख पद अल्पसंख्यकों के पास न हों। देश चलाने का उत्तरदायित्व ऐसे लोगों को न सोंपा जाए जिसका सम्बन्ध बहुसंख्यक वर्ग से न हो। क्या कोई धरना प्रदर्शन, विरोध, जलसा,जुलूस,रैली इस मुद्दे को लेकर आयोजित किया गया? यदि नहीं तो अब चुनाव का समय आते ही भारतीय जनता पार्टी को राम मन्दिर और हिन्दुओं की याद क्यूँ आगई? अपनी राजनीति और महत्त्वकांक्षा के लिए १८ वर्ष तक श्री राम के नाम का प्रयोग करने के बाद भी क्या अपना चेहरा उन्हें आईने में दिखाई नहीं देता। मासूम हिन्दुओं को कारसेवा के नाम पर साम्प्रदायिक दंगों की भेंट चढा देना, हिंदू और मुसलमानों को लड़ा देश को घृणा की आग में झोंक देना क्या हिंदूवादी होने का तर्क करार दिया जा सकता है? क्या इसे हिन्दुओं से प्रेम और उन के अधिकारों की सुरक्षा की प्रक्रिया करार दी जा सकती है?
नहीं, बिल्कुल नहीं, कौन देशवासी हिंदू इस बात को स्वीकार करेगा के स्वतंत्रता के मसीहा मोहनदास करमचंद गाँधी की हत्या करने वाला नाथू राम गोडसे हिन्दुओं का प्रतिनिधि था, हिन्दुओं के अधिकारों की सुरक्षा की भावना रखता था, हिंदूवादी था, हिन्दुओं का मित्र था, नहीं! वह मानवता का शत्रु था, भारतीयता का शत्रु था, देश की स्वतंत्रता का शत्रु था, मुसलमानों का ही नहीं हिन्दुओं का भी शत्रु था और ऐसे शत्रु हैं वह सब जो नाथू राम गोडसे जैसी मानसिकता रखते हैं। यदि कुछ लोगों को वरुण गाँधी, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, योगी आदित्यनाथ और साध्वी प्राची जैसे लोगों में नाथूराम गोडसे की छवि दिखाई देती है तो उन्हें इस देश और इस देश के निवसियों का मित्र या हमदर्द स्वीकार नहीं किया जा सकता।
हमने नहीं लिखा वरुण गांधी के चुनावी सभाओं में दिए गए विषैले भाषण पर, हमने नहीं लिखा साध्वी प्राची के अनुत्तार्दायित्व्पूर्ण (गैरजिम्मेदाराना) भाषण पर, हम नहीं लिखते आज भी इस विषय पर, इसलिए की इन भडकाव बातों का उल्लेख घृणा में बढोतरी करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करेगा।
परन्तु लिखना पड़ा क्यूंकि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव आयोग के एक उचित सुझाव को मानने से इंकार कर दिया। इसे विचार करने योग्य भी नहीं समझा। वरुण गाँधी की उमीदवारी या चुनावी मुहीम से हटाना तो दूर, उनका उत्साहवर्धन किया जाने लगा। हर क्षेत्र में वरुण गाँधी की मांग है, यह ढिंढोरा पीटा जाने लगा।
क्या वरुण गाँधी का यह कहना ठीक था की सभी हिन्दुओं को एक पंक्ति में खड़े हो जाना चाहिए और बाकी लोगों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए। हमने बार बार अपने लेखों में अपने भाषणों में इस एतिहासिक सच को सामने रखा है की देश के विभाजन के लिए मुस्लमान नहीं इस देश की राजनीती जिम्मेदार है।
१४ अगस्त १९४७ को देश नहीं बंटा बलके मुसलमानों को बांटने का षड़यंत्र रचा गया था और उसके बाद देश के विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार करार देने का प्रचार इसलिए किया गया की वह हीन भावना का शिकार रहें, स्वयं को अपराधी समझें और उन्हें दूसरी श्रेणी का नागरिक बना कर पेश किया जाए और यही बात आज वरुण गाँधी कह रहे हैं जो उस समय की सम्प्रदयिम मानसिकता की सोच थी तथा देश के विभाजन की नींव बनी।
क्या भारतीय जनता पार्टी एक सोची समझी योजना के तहत वरुण गाँधी का चेहरा सामने रख कर देश के एक और विभाजन की नींव डाल रही है? क्या वह अपने देश विरोधी षड्यंत्रों को इतिहास के पन्नों में इस प्रकार दर्ज करना चाहते हैं की १९४७ में जब देश बंटा, तब भी नेहरू परिवार जिम्मेदार था और १९४७ के पशचात जब देश बंटा; तब भी नेहरू परिवार का ही एक सदस्य जिम्मेदार था। अन्तर यह है के पहला विभाजन पंडित जवाहर लाल नेहरू के दौर में हुआ या पहले विभाजन का कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू बने और उसके पशचात विभाजन का कारण वरुण गाँधी बने।
वरुण गाँधी का सम्बन्ध जिस परिवार से है, उस परिवार ने इस देश की जनता और इस देश की सुरक्षा के लिए अपना खून बहाया है। अपने प्राणों की आहुति दी है। इस परिवार से यदि आज कोई रक्तपात की बात कर रहा है तो उसे न तो अनदेखा किया जा सकता है, न उसे हलके तौर पर लिया जा सकता है। देश की सम्पूर्ण जनता के बिना धर्म व जाती के भेदभाव के बिना मिल बैठ कर यह सोचना होगा के कौन है वह जो वरुण गांधी की यह मानसिकता बना रहे हैं?
जिस नवयुवक का सम्बन्ध एक शांतिप्रिय परिवार से हो, उसे क्यूँ आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है? किसी के हाथ काट डालने की बात कराकर उस की कौनसी छवि पेश की जा रही है? क्या करीमुल्लाह, मज्हरुल्लाह जैसे नामों को वरुण गाँधी की ज़बान से कहलवाकर उस की छवि एक मुस्लिम विरोधी के तरह पेश करना एक षड़यंत्र नहीं है? क्या वरुण गाँधी द्वारा सिखों का मजाक उड़ना, उनको पागल कहलवाना, देश के प्रधानमंत्री और एक विशेष वर्ग का अपमान नहीं है?
वरुण गाँधी एक नवयुवक हैं। राजनीती के मैदान में उन का यह पहला कदम है, नया खून, नया जोश, नई उमंगें, शायद उन्हें इतना समय ही न मिला हो के इन बातों पर गहराई से विचार कर सकें, इन चालों को समझ सकें, जान सकें के यह शातिर मानसिकता के राजनीतिग्य उन्हें एक खतरनाक हथ्यार के रूप में प्रयोग कर परदे के पीछे लाभ उठाना चाहते हैं, क्या वरुण गाँधी नहीं जानते के उनकी माँ का सम्बन्ध किस समुदाय से है ? क्या वरुण गाँधी नहीं जानते के उन के दादा का नाम फिरोज़ गांधी था? यदि हम यह कहें के वरुण गाँधी तुम वह हो, जिसकी शिराओं में एक पारसी का खून भी है। तुम तो सांप्रदायिक सोहार्द का जीता जागता उदहारण हो, तुम्हें देख कर तो हिंदुस्तान के बहुसंख्यक यह कह सकते हैं के हाँ तुम्हारे प्रतिनिधित्व पर गर्व हो सकता है, काश के तुम्हें इसी रूप में पेश किया जाता, परन्तु यह हो न सका।
हम जानते हैं जलन एक विद्रोही मानसिकता बनाने में मुख्य भूमिका अदा करती है और उच्च परिवारों के शत्रु ऐसे नवयुवकों का प्रयोग बहुत आसानी से कर लेते हैं, जो ईर्षा या हीन भावना की आग में जल रहे हों। हो सकता है के यह कहकर भ्रमित किया गया हो की यदि तुम्हारे ही भाई राहुल गांधी को आने वाले कल का प्रधान मंत्री करार दिया जा सकता है तो तुम्हें क्यूँ नहीं और यह काम हम करेंगे, और बस झांसे में एक मासूम मानसिकता इस षड़यंत्र का शिकार हो गई। जिसके चेहरे पर मासूमियत टपकनी चाहिए थी, वह क्यूँ मित्रों को भी शत्रु बनने पर उतारू होगया। वह क्यूँ भाई को भाई से लड़ाने का दाग अपने दामन पर लेने को मजबूर हो गया? सोचना होगा........वरुण गाँधी को भी, उस की माँ को भी और हम सब को भी। यदि हम खामोश रहे तो अपनी राजनीती के लिए सांप्रदायिक मानसिकता रखने वाले यह लोग एक एक करके प्रत्येक परिवार को प्रत्येक नवयुवक को नफरतों की आग में झोंक देंगे। यह देश जहाँ दूध की नदिया बहती थीं, वहां खून की नदिया बहती नज़र आएँगी, जो एकता व शान्ति का प्रतीक था, वहां नफरतों का ज्वालामुखी नज़र आएगा। क्या हम चुनाव जीतने के लिए कुछ लोगों की सत्ता की चाहत पूरी करने के लिए अपने देश को तबाही के गढे में जाते हुए देखते रहेंगे। नहीं, बिल्कुल नहीं, यह ज़िम्मेदारी हम पर भी आती है। हमें केवल वोट नहीं देना है बलके ऐसी विषैली सोच के नेताओं को सबक सिखाना है........... ।
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