आतंकवाद विरोधी राजनैतिक कांफ्रेंस
बटवारे के जिम्मेदार नहीं थे हम। फिर भी हम पर यह आरोप लगाया गया और हम सहन करते रहे। इस लिए के मोहम्मद अली जिन्नाह ज़मीन का एक टुकडा लेकर अपने लिए एक नई दुन्या बसा चुके थे। पाकिस्तान की शकल में उन्हें तो एक देश मिला, राज पाठ मिला, कायदे आज़म का खिताब मिला। परन्तु हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों को क्या मिला? दामन पर बटवारे के दाग, दिल में अपनों से बिछड़ जाने का दुःख, आंखों में खौफनाक भविष्य की तस्वीर, शर्म से झुकी गर्दन।
हाँ! यह भी सच है के अकेले जिम्मेदार नहीं थे मोहम्मद अली जिन्नाह, देश के बटवारे के लिए, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी इस अपराध में पूरी तरह जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद सब के राज चाहिए था। काश के मोहम्मद अली जिन्नाह ने उस के होने वाले परिणामों का भी अनुमान लगा लिया होता। उन्हें यह ख़याल आगया होता के मुस्लमान दो टुकडों में बट जायेंगे तो उन की राजनैतिक परिस्थिति क्या होगी, उन का बल क्या होगा? मुसलमानों का भविष्य क्या होगा? वो उन की राजनैतिक चाल को समझ जाते, अलग पाकिस्तान का ख़याल दिल में न लाते, ऐसे किसी भी प्रस्ताव को कुबूल न करते।
जातिवाद के जिम्मेदार नहीं हैं हम, मुस्लमान न जातिवादी हैं न जातिवादआधार पर मुसलमानों ने राजनीती की है। स्वतंत्र हिंदुस्तान के इतिहास में १९५२ में हुए पहले संसद चुनाव से २००४ में हुए सामान्य चुनाव तक मुसलमानों ने किसी एक मुस्लिम लीडर को अपना रहनुमा मान कर अपने भविष्य को उस से नहीं जोड़ा। बटवारे के बाद भी मुसलमानों ने मोहम्मद अली जिन्नाह के सामने पंडित जवाहर लाल को चुना, रहना पसंद किया हिंदुस्तान में, वो नहीं गया पाकिस्तान मोहम्मद अली जिन्नाह को अपना कायद मानते हुए। उस ने पूर्ण विशवास और सच्चे दिल से पंडित नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्र शेखर, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती तक सभी के नेतृत्व को स्वीकार किया।
उस ने कभी यह नहीं सोचा के पंडितों, ठाकुरों, जाटों, यादवों, या दलितों को अपना लीडर स्वीकार न करें और जिस प्रकार अन्य जाती से सम्बन्ध रखने वालों ने अपने बीच से नेतृत्व का जनम किया, उसे शक्ति दी, इसी प्रकार हम भी राष्ट्रिय स्तर पर किसी को अपना नेता चुनें और फिर उस की रहनुमाई में अपनी कौम की भलाई के बारे में सोचें। कारण उस के प्रतिनिधियों ने अपने अपने लाभ के कारण जिस पार्टी या लीडर से जुड़ जाना पसंद किया, वो उसी के साथ जुड़ गया। कौम टुकडों में बट गई। वो सब अपनी अपनी स्थिति बनाने में सफल हुए।
एक मोहम्मद अली जिन्नाह तो अपने हिस्से का पाकिस्तान लेकर अलग हो गए और बाकी सब ने अपने अपने हिस्से का पाकिस्तान हिंदुस्तान में रह कर ही प्राप्त कर लिया। नहीं! कहने का यह उद्देश्य नहीं के वो एकांक पसंद मानसिकता रखते थे, या हैं। कहने का उद्देश्य यह भी नहीं के वो देश के निष्ठावान नहीं रहे। कहने का उद्देश्य केवल इतना है के वो इतने व्यापक मन और व्यापक ह्रदय नहीं रहे के सम्पूर्ण हिंदुस्तान के मुसलमानों के बारे में, उन के भविष्य के बारे में एक हो कर सोचते और कोई निर्णय लेते, बस जिस को जो मिला वो उसी को लेकर खुश हो गया, अब कौम रोती है तो रोया करे।
मौलाना अबुल कलम आजाद के दौर तक तो यह बात नहीं कही जा सकती। इस लिए के बटवारे के बाद वो अकेले मुसलमानों के लीडर थे, मगर पिछले लगभग ५० वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर कुछ पार्टियाँ बना कर या कुछ पार्टियों से जुड़ कर कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने तो अपने हिस्से में आई ज़मीन को जन्नत बना लिया, लेकिन बाकी मुसलमानों के लिए जहन्नुम जैसे हालात बन गए।
बटवारे के आरोप का शिकार हुआ तो सामान्य मुस्लमान, जाती वादी होने की गाली सहन की तो सामान्य मुस्लमान ने। आतंकवादी कह कर ज़लील किया गया, जेलों में डाला गया, झूठे एनकाउंटर में मारा गया तो भी वो सामान्य मुस्लमान था। बम धमाके के बाद भयभीत हुआ तो सामान्य मुस्लमान। भविष्य अंधेर हुआ तो सामान्य मुसलमानों के बच्चों का। जाहिल गंवार और शिक्षा से दूर होने का आरोप सहा तो सामान्य मुसलमानों ने और जब उस ने पेट पर पत्थर रख कर अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने से दूर भेजा तो आतंकवाद का आरोप भी लगा उसी सामान्य मुस्लमान पर।
पचास वर्षों तक हम यह सिद्ध करने के संघर्ष में लगे रहे के हिंदुस्तान हमारा देश है। हम अपने प्रीय हिंदुस्तान के बटवारे के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हमारे पुश्तों ने स्वतंत्रता के युद्ध में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है और स्वतंत्रता के बाद भी पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में जीत दिलाने वाला शहीद अब्दुल हमीद हमारे बीच से था। कारगिल के युद्ध में कैप्टेन हनिफुद्दीन ने अपनी शहादत पेश करके बताया के कश्मीर का मसला हो या पाकिस्तान से युद्ध हो, हम देश प्रेमी हैं, अपने देश की आन बान शान पर मर मिटना जानते हैं। मिजाइल मेन का खिताब मिला तो ऐ पी जे अब्दुल कलाम को। फिर इस कौम का सर गर्व से ऊंचा हुआ के हम अपने देश को अन्तरराष्ट्रिय ताकत बनाने में हिस्सेदार हैं, परन्तु इस सब के बावजूद आतंकवाद का आरोप बार बार लगा तो इस कौम पर, हर बार लगा तो इस कौम पर और दुर्भाग्यवर्श अब यह आतंकवाद कारोबार बना तो भी हमारे काँधे का प्रयोग हुआ।
मैं लिख रहा था निरंतर अपनी कौम का दर्द सीने में लिए कभी किसी शीर्षक के बिना तो कभी विभिन्न शीर्षकों के हवाले से। लग भाग एक महीने तक लिखा ९/११ का सच, अंग्रेज़ी और उर्दू में। फिर ९ अगस्त अर्थात अगस्त क्रांति से १५ अगस्त स्वतंत्रता देवास तक। इस के बाद एक निरंतर लेख " मुसलमानाने हिंद, माजी, हाल और मुस्तकबिल??? के शीर्षक से जिस की १०० कडियाँ आप की नज़रों से गुजरीं। उन में से कुछ लेख उर्दू के साथ हिन्दी या अंग्रेज़ी में भी रहे। सराहना मिली। कुछ सुकून मिला के जिस जागृकता की मुहीम पर काम करना शुरू किया है उस का प्रभाव तो है।
फिर दास्ताने हिंद,,,माजी, हाल और मुस्तकबिल??? के शीर्षक से लिखना शुरू किया। इस दौरान जनता के बीच जाकर वही सब बोलने की कोशिश भी की, जो लिख रहा था। इस लिए के सब लोग तो उर्दू पढ़ते नहीं और जो नहीं पढ़ते उन सच्चाइयों का उन तक पहुंचना भी आवयशक है। यह दोनों सिलसिले जारी थे के पहले मेरा लिखना प्रभावित हुआ जब दारुल उलूम देवबंद में आदरणीय मौलाना अरशद मदनी साहब ने एक बहुत ही नाज़ुक अवसर पर एक राजनेता लीडर की सराहना की, उन से एकांक में बात की। वो चाहे जो कारन पेश करें, वो जो चाहें कहें पर कौम के बीच जो छाप पड़ी, वो अपनी जगह। मुझे इस समय इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना। मैं लिखने के लिए फिर उचित समय का इंतज़ार करने लगा। सोचता था हमारी कौम के रहनुमा पिछले ६१ वर्षों के हालात पर गौर करने के बाद शायद इस परिणाम पर पहुँच जाएँ के एकता समय की सब से बड़ी आव्यशकता है और हमें आज तक जो भी हानि पहुँची है, वो बिखराव के कारण पहुँची है, किसी दूसरे की राजनीती, हक़ तलफी या संकीर्ण दृष्टी से कहीं अधिक हम अपनों की ख़ुद परस्ती के शिकार हुए हैं।
मैं नहीं चाहता था के मेरे लिखने से कोई ऐसा संदेस जाए के एकता की राह में रोड़ा आए। इस लिए समय और हालात की आव्यशकता के सामने अतीत को कुरेदने के बजाये अच्छे भविष्य का सपना देखता रहा। लिखने के साथ साथ बोलने पर ध्यान दिया और बोलने के लिए भी केवल उन्हीं तीन विषयों का चुनाव किया के मुस्लमान बटवारे का जिम्मेदार नहीं है, जाती वादी नहीं है, आतंकवादी नहीं है। मैं पूरे हिंदुस्तान में सीधे हिंदू और मुस्लमान के बीच पहुँच कर उन एतिहासिक सच्चाइयों को सामने रखना चाहता था और चाहता हूँ, जिस से यह के सिद्ध हो सके के मुस्लिम कौम पर लगाये जाने वाले यह आरोप असल में राजनेताओं की राजनैतिक कर्यप्रनाली के सिवा कुछ भी नहीं, परन्तु जब मैंने अपनी इस कोशिश को भी राजनीती की नजर होते देखा तो मजबूरन यह निर्णय लेना पड़ा के अब कम से कम चुनाव का नतीजा आने तक तो जनता के बीच जाकर बोलने का सिलसिला बंद करना होगा या फिर बात राजनीती पर होगी तो राजनैतिक प्लेट फॉर्म पर ही होगी, इस के बाद इंशाअल्लाह यह सफर जारी रहेगा।
हाँ! परन्तु तब तक कलम का सफर उसी रफ्तार से जारी रहेगा, जिस प्रकार मुसलमानाने हिंद, माजी, हाल और मुस्तकबिल के दौरान हमारे पाठकों ने महसूस किया था।
आज अर्थात १६ फ़रवरी शाम ६ बजे हज हाउस मुंबई में मुझे तामीर व मुल्क व मिल्लत के शीर्षक पर भाषण करना था, परन्तु मुंबई में रहने के बावजूद इस जलसे में शामिल नहीं हो पाऊंगा। कारण बीते हुए कल अर्थात १४ फ़रवरी को आजाद मैदान में आतंकवाद विरोधी कांफ्रेंस का तल्ख़ तजरुबा। जिस समय जलसा गाह में हाज़िर हुआ, महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री अशोक चौहान भाषण कर रहे थे। उन्होंने कुछ बहुत ख़ूबसूरत वादे किए, जिस के लिए मैं मुख्य मंत्री के साथ साथ आयोजक को भी मुबारकबाद पेश करता हूँ। खुदा करे के यह वादे वफ़ा हो जाएँ। आतंकवाद के शीर्षक से की जाने वाली इस कांफ्रेंस में मुसलमानों की बड़ी भीड़ मौजूद थी।
यह वो लोग थे, जो सभी व्यस्त होने के बावजूद शाम से रात तक इस लिए वहां आए थे के सिद्ध करना चाहते थे के हम आतंकवाद के विरोधी हैं और हमारी मौजूदगी इस बात की अलामत है के इस्लाम में दहशत गर्दी के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं और हम इकट्ठे हो कर यह संदेश देना चाहते हैं के हिंदुस्तान का मुस्लमान आतंकवाद के विरुद्ध जिहाद के लिए तैयार है। यह कोई राजनैतिक जलसा नहीं था। यह वो लोग नहीं थे जो किसी इलेक्शन के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं के ज़रिये आजाद मैदान तक लाये गए हों। इन का उद्देश्य किसी राजनैतिक पार्टी का सहयोग या विरोध करना नहीं था। शीर्षक था आतंकवाद के विरुद्ध एक होने का इरादा।
पर क्या आतंकवाद के तालुक से वो बातें की जा सकीं जिन की कम से कम मुंबई में सब से अधिक आव्यशकता थी। क्या वो प्रशन कांग्रेस की मुख्य मंत्री के सामने रखे जा सके जो केंद्रीय मंत्री अब्दुर रहमान अंतुले ने पार्लिमेंट में रखा था.........क्या मुख्य मंत्री के सामने यह हकीकत बयान की गई के आप नांदेड से चुने गए हैं और आप जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां बजरंग दल और शिव सेना के कार्यकर्ता बम बनते हुए पकड़े गए। इस पूरे मामले को रफा दफा करने वाले मुंबई ऐ टी एस के वर्तमान अध्यक्ष के पी रघुवंशी थे। क्या उस से यह आशा की जा सकती है के मालेगाँव बम धमाकों की छानबीन जो शहीद हेमंत करकरे कर रहे थे, उसे पूरी ईमानदारी के साथ आगे बढाया जा सकेगा?
क्या किसी ने कहा जिस व्यक्ति की जानिबदारी पहले ही साफ़ हो चुकी है उसे इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से हटाया जाए और किसी ईमानदार अफसर को तैनात किया जाए..........क्या किसी ने कहा के मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले की ईमानदारी से छानबीन की जाए , विशेष कर उन हालात का पता लगाया जाए जिन में शहीद हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालसकर की मृत्यु हुई.......क्या किसी ने कहा के नरीमन हाउस में सौ किलो मांस, २५ हज़ार रूपये की शराब मँगाए जाने का कारण क्या था, राज्य सरकार इस का पता लगाये। लगभग ५ घंटे तक नरीमन हाउस से अम्रीका और इस्राइल टेलेफोन पर आतंकवादियों की बात क्यूँ होती रही? इस बात चीत का उद्देश्य क्या था.......मिस्टर रघुवंशी उस समय मोबाइल पर बात कर रहे थे या किसी को एस एम् एस कर रहे थे, जब हेमंत करकरे सी एस टी से कामा हॉस्पिटल की ओर गए, उन का मोबाइल रिकॉर्ड क्या है ?किस से और क्या बात हुई? ताज ओबेरॉय में ठहरे हुए मेहमानों की लिस्ट कहाँ है, उन के मोबाइल फोन का रिकॉर्ड कहाँ है?
बुधवार पार्क पर जहाँ आतंकवादी रबर की कश्तियों से पहुंचे थे, उन की एकमात्र चश्मदीद गवाह अनीता उदैय्या को अमेरिका क्यूँ ले जाया गया? अगर कोई जानकारी प्राप्त की जानी थी तो यह काम हिन्दुस्तानी पुलिस अफसरों का था। पुलिस कमिश्नर को उस के अमेरिका दौरे के सम्बन्ध में उसे झूठा क्यूँ करार देना पड़ा? अगर वो कलीदी गवाह नहीं थी तो उसे लाशों की शनाख्त के लिए क्यूँ बुलाया गया?
नरीमन हाउस में रब्बी की खादमा सेंड्रा सामुएल जो अब इस्राइल में है, उसे वापस हिंदुस्तान क्यूँ नहीं लाया गया, क्यूंकि वो नरीमन हाउस हादसे की चश्मदीद गवाह है। वो बता सकती है के शहीद हेमंत करकरे की मौत की ख़बर सुनने के बाद नरीमन हाउस में खुशियाँ मानाने वाले कौन थे? और वहां हुए हादसे की सच्चाई क्या है? हमारे चश्मदीद गवाहों से अमेरिका या इस्राइल का क्या सम्बन्ध है? क्या वो किसी धौंस, दबाव या लालच के ज़रिये सच्चाई के सामने न आने देने के प्रयास में व्यस्त हैं?
यह आतंकवादी पाकिस्तान के हैं, षड़यंत्र पाकिस्तान में रचा गया, जिम्मेदार पाकिस्तान है, हमें इस सब पर कुछ नहीं कहना। यह दो सरकारों के बीच का मामला है। परन्तु इस आतंकवादी हमले के पूर्ण सत्य को जानना हमारे लिए अत्यावश्यक है। हमारे देश की शान्ति के लिए अत्यावश्यक है। हिंदुस्तान की सौ करोड़ जनता के लिए अत्यावश्यक है।
हेमंत करेकारे ने अपनी छानबीन के ज़रिये यह साफ़ किया के इन्द्रेश जो संघ परिवार के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं, उन्होंने तीन करोड़ रुपया आई एस आई से लिया था। मान लीजिये के हेमंत करकरे की छानबीन का परिणाम यह होता के इन्द्रेश ने नहीं किसी दीन मोहम्मद ने तीन करोड़ रुपया लिया था आई एस आई से, तो आज पूरी मुस्लिम कौम किन हालात से गुज़र रही होती। तब यह बात केवल पाकिस्तानी आतंकवादियों तक सिमित नहीं होती। ऐसे हजारों जलसे करने के बाद भी हम शायद यह साबित नहीं कर पाते के हम निर्दोष हैं, अगर अपराध है तो केवल एक दीन मोहम्मद का, आप उसे फांसी पर फ्हधा दो। आज इन्द्रेश के आई एस आई से संबंधों के प्रशन पर यह चुप्पी क्यूँ?
मेरे पास बोलने के लिए केवल तीन मिनट का समय था। इस लिए के जलसे को दस बजे समाप्त होना था और नौ बज कर ५७ मिनट पर मुझे बोलने की दावत दी गई थी। यह अलग बात है के इस के बाद भी जलसे की कार्यवाही चलती रही। बहारहाल उस समय भी मैंने कुछ प्रशन उठाये परन्तु सभी प्रशनों का उठाया जाना तीन मिनट में सम्भव नहीं था। मैंने इसी ८ फ़रवरी को ज़कारिया स्ट्रीट कोल्कता में अपने दो घंटे से अधिक भाषण में आतंकवाद और मुस्लमान के शीर्षक पर बात की थी और यह सभी प्रशन उठाये थे। उस के अगले दिन अर्थात ९ फ़रवरी को कमलहट्टी में भी मेरे भाषण का शीर्षक यही था, जहाँ एक घंटे से अधिक मैंने इन्हीं बातों पर रौशनी डाली, जो ऊपर बयान की गई हैं।
१२ और १३ फ़रवरी को कर्नाटक के शहर बंगलौर और हुबली में आयोजित किए गए पाँच अलग अलग जलसों में भी मैंने इसी शीर्षक पर बात की। १४ फ़रवरी को भटकल (कर्नाटक) के बजाये मैंने बोलने के लिए मुंबई के आजाद मैदान में होने वाले आतंकवादी विरोधी जलसे को चुना। इस लिए हिंदुस्तान का ९/११ कहा जाने वाला २६/११ में होने वाला आतंकवादी हमला इसी शहर से सम्बन्ध रखता था और इसी शहर में उस से जुड़ी सच्चाइयों को बेहतर तरीके से रखा जा सकता था। परन्तु मुझे बेहद अफ़सोस हुआ के यह अजीमुस्शान जलसा एक विशेष पार्टी के लीडर का राजनैतिक प्लेट फॉर्म बन गया। उन्हें ख़ूबसूरत वादों के जाल में फंसा कर मुसलमानों को आकर्षित करने का अवसर मिल गया।
शायद वो अपनी या अपनी पार्टी की दावत पर इतनी बड़ी मात्रा में मुसलमानों को अपनी बात कहने के लिए किसी एक जगह नहीं बुला सकते थे और हम शायद उन के ख़ूबसूरत वादों को सुनने के इरादे से भी वहां जमा नहीं हुए थे, इसलिए के इलेक्शन के माहोल में यह सब तो होता ही रहता है। खैर, उसी समय मैंने निर्णय लिया के अगली सुबह अर्थात १५ फ़रवरी कालीकट में की गई कांफ्रेंस में अब मेरी शिरकत नहीं होगी। वैसे मुझे १५ फ़रवरी की सुबह ०८.२० पर इंडियन एयरलाइन्स के ज़रिये १०.०० बजे कोजीकोड (कालीकट) पहुंचना था। मैं माफ़ी चाहता हूँ पोपुलर फ्रंट के आयोजनकर्ताओं से के मैं उस कांफ्रेंस में शरीक नहीं हो सका। मैं उस तीन दिवसीय कांफ्रेंस की पूरी कार्यवाही को सामने रख कर अपनी बातें सिर्फ़ केरला की जनता तक ही नहीं बलके बाकी हिंदुस्तान में भी अपने पाठकों तक पहुँचने का प्रयास अवश्य करूंगा।
इसी प्रकार आज अर्थात १६ फ़रवरी को मुझे मुंबई के हज हाउस में आल इंडिया दीनी मदारिस बोर्ड के जरिया आयोजित कारवाने तामीर मुल्क व मिल्लत के एक जलसे में भी शरीक होना था। मैं इस समय मुंबई में हूँ, परन्तु मैं इस जलसे में भी शरीक नहीं हो पाऊंगा और उस के बाद १७ फ़रवरी को बस्ती, १८ फ़रवरी को आज़म गढ़ १९ फ़रवरी को बढ़नी, २० फ़रवरी को प्रताप गढ़, २१ फ़रवरी को सीता मढ़ी (बिहार), २३ फ़रवरी को कछोछा शरीफ, २५ फ़रवरी को लखनऊ, २६ फ़रवरी को कटक (उडीसा), २८ फ़रवरी को सीवान, १ मार्च को पूना, यानी के इलेक्शन तक ऐसे किसी भी जलसे में शिरकत अब सम्भव नहीं हो पायेगा, इस लिए के आतंकवाद के विरुद्ध या शान्ति के नाम पर की जाने वाली कांफ्रेंसें राजनेताओं के लिए प्लेट फॉर्म बन जाएँ। तो न शीर्षक के साथ न्याय हो पायेगा, न शिरकत करने वालों के साथ और यह भरम भी जाता रहेगा के हम शान्ति के और एकता के लिए बेचैन हैं या आतंकवाद के विरुद्ध कोई आन्दोलन चला रहे हैं।
हाँ! अगर राजनीती पर ही बात कर्णi है, मुसलमानों की राजनैतिक कार्यप्रणाली क्या हो, उस पर बात करनी है या किसी पार्टी या उमीदवार के हक़ में कोई बात करना है तो फिर सीधे सीधे उसी शीर्षक पर उन के साथ खड़े हो कर बात की जा सकती है। अगर हमारा दिल दिमाग यह कहे के फलां व्यक्ति मुसलमानों का विरोधी नहीं है, उस का अतीत दाग्दार नहीं है और भविष्य में उस से आशाएं जोड़ी जा सकती हैं तो फिर राजनैतिक प्लेट फॉर्म पर खड़े होने में झिझक कैसी। हाँ! परन्तु यह किसी और उद्देश्य के लिए बुलाए गए जलसे के परदे में न हो।
कौन नहीं जानता, मौलाना महमूद असद मदनी राज्य सभा के सदस्य हैं और उन का सम्बन्ध चौधरी अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल से है, जो लगातार भारतीय जनता पार्टी के साथ उत्तर परदेश में गठजोड़ की कोशिशों में व्यस्त रहे हैं। कौन नहीं जनता के समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेट्री और प्रवक्ता ने देवबंद जा कर यह कहा के अगर महमूद मदनी राज्य सभा में हैं, तो हमारी बदोलत हैं, इस लिए के हम ने उन्हें वोट दिया था और उन दोनों ही बातों के जवाब में आली जनाब मौलाना महमूद मदनी साहब का कोई बयान नहीं आया। न तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और अजीत सिंह के रिश्तों पर कभी कोई बात की और न ही उन्होंने यह कहा के उन के चुनाव में समाजवादी पार्टी का कोई रोल नहीं है।
यह भी सब जानते हैं के उन के भाई मौलाना मौदूद मदनी साहब बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर अमरोहा की सीट से संसदीय चुनाव लड़ने जा रहे हैं, और मायावती की पार्टी में शामिल हो चुके हैं। जहाँ से 200४ के इलेक्शन में वो ख़ुद अजीत सिंह के पार्टी के उमीदवार थे। कांग्रेस से उन के करीबी रिश्ते हैं। इस से इनकार भी उन्होंने कभी नहीं किया और मौलाना अरशद मदनी साहब ने तो साफ़ तौर पर यह इकरार किया के कांग्रेस से उन के पुराने रिश्ते हैं। उल्माए कराम का राजनीती में शामिल होना, उन का इलेक्शन लड़ना, किसी राजनैतिक पार्टी को सहयोग देना या विरोध करना, ग़लत करार नहीं दिया जा सकता। यह उन का अपना फ़ैसला है के वो आलम दीं के साथ साथ राजनेता के तौर पर भी पहचाने जाएँ और किसी भी पार्टी में शामिल हो सकें, उलझन और परेशानी का शिकार होता है तो बेचारा आम मुस्लमान जो दोस्त किसी का नहीं बन पता और दुश्मन हर इलेक्शन में किसी न किसी का बन जाता है क्यूंकि वो जो अपने आप को अपने प्रतिनिधियों से जुड़ा हुआ महसूस करता है।
अगर वो कांग्रेस में है तो उस की मजबूरी है के एक मुश्त न सही बड़ी मात्रा में कांग्रेस के लिए भी वोट पोल करता है। इस आम मुस्लमान का प्रतिनिधि अगर बहुजन समाज पार्टी में है तो वो उसे भी वोट देता है। अगर वो अपने प्रतिनिधियों को समाजवादी पार्टी या अजीत सिंह के नज़दीक देखता है तो उन्हें भी वोट देता है। अगर कहीं किसी के दिल में भारतीय जनता पार्टी के लिए कोई दानिस्ता या न दानिस्ता नर्म गोशा है तो छोटी मात्रा में ही सही , वोट उस को भी जाता है। कुछ मुस्लिम प्रतिनिधि अकेले भी सामने होते हैं। मुसलमानों की और से मायूसी उन्हें भी नहीं होती। इस लिए के उन के बुलंग बांग दावे मुसलमानों की एक विशेष मात्रा को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं। परिणाम स्वरुप इस बटवारे के बाद एक आम मुस्लमान का वोट इस लिहाज़ से बेकार हो जाता है, मगर उस के प्रतिनिधि हर हाल में सफल रहते हैं।
अगर उन की कोशिशों से कोई पार्टी जीतती है तो भी, कोई पार्टी हारती है तो भी। हार और जीत दोनों ही राजनीती में बड़ा महत्त्व रखती हैं। इस महत्त्व की भी कीमत कम नहीं होती। कम से कम इतना तो केवल मुस्लिम प्रतिनिधि ही नहीं सभी राजनेता अच्छी तरह जानते हैं। हमारा एतराज़ उल्माए कराम या दानिशवरों की राजनीती में शामिल होने पर नहीं है। हमारी दरखास्त केवल इतनी है के जो भी हो आईने की तरह साफ़ हो ताके मुस्लिम कौम बेचैनी का शिकार न रहे, वो जो भी निर्णय ले उसे कम से कम सोच समझ कर निर्णय लेने का अवसर तो हो.........
Wednesday, February 25, 2009
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2 comments:
very good article. I liked it very much. The truth of u r voice is good but u should continue u r journey for muslim's welfare. Allah will take care of u.
Sir Ji Siyasat(MP/MLA/Minister) me kabhi mat jaanaa warna usi din se logo k dilo se Aapki mohabbat nikal jayegi
Aur kahein k nahi rahenge
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