Wednesday, February 4, 2009

कब तक उलझन में रहेगी कांग्रेस?


कांग्रेस के सीनियर लीडर और उत्तर प्रदेश के निगरान दिग्विजय सिंह ने कहा के हम कल्याण सिंह के साथ किसी भी मंच से भाषण नहीं करेंगे। कांग्रेस के ही एक दूसरे लीडर सत्यवृत चतुर्वेदी ने कहा, कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी से रिश्ते बन्ने के बाद कांग्रेस का उस के साथ जाने पर प्रभाव होगा। सत्यवृत चतुर्वेदी के इस बयान पर कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा के यह सत्यवृत चतुर्वेदी की व्यक्तिगत राय है, पार्टी का इरादा नहीं।


कांग्रेस के तीन अलग अलग लीडर के यह तीन बयान इस बात की निशानदही करते हैं के समाजवादी पार्टी और कल्याण सिंह की नजदीकी का कांग्रेस गहराई से असर महसूस कर रही है। वो एक ओर तो समाजवादी पार्टी से अपने रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहती, शायद यह सोच कर के अगर चुनाव के बाद सरकार बनाने की कोशिश में समाजवादी पार्टी की आव्यशकता पड़ी तो आज के यह ख़राब रिश्ते उस समय हानिकारक साबित हो सकते हैं। इसलिए कांग्रेस की इस परेशानी को समझा जा सकता है, साथ ही अब वो समाजवादी पार्टी के साथ इलेक्शन में जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही है।


अगर इस सिलसिले में उसे बार बार सोचने के लिए मजबूर न होना पड़ता तो कोई कारन नहीं था के अब तक कांग्रेस और समाजवादी पार्टी इलेक्शन में साथ साथ जाने का एलान कर देते और बाक़ी बची सीटों पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उमीदवारों का एलान हो जाता। इसलिए के ८० में से ५२ सीटों पर अपने उमीदवारों का एलान समाजवादी पार्टी पहले ही कर चुकी है, बाक़ी बची २८ सीटों में से अब कितनी कांग्रेस के हिस्से में आती हैं और कितनी समाजवादी पार्टी के हिस्से में सिर्फ़ यह निर्णय होना बाक़ी है।


कल्याण फैक्टर से पहले जो सुनने में आरहा था, वो यह के कांग्रेस उत्तर परदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ की सूरत में २५ सीटों पर इलेक्शन लड़ना चाहती है जबके समाजवादी पार्टी किसी भी सूरत में उसे १५ से अधिक सीटें देने के लिए राज़ी नहीं थी, परन्तु अब हालात बहुत बदल गए हैं। अगर कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी के साथ आजाने पर उस के सेकुलरिज्म पर प्रश्न्चिंंह लगता नज़र आरहा है, जो के अब तक समाजवादी पार्टी की सब से बड़ी जमा पूँजी थी तो उसे बरक़रार रखने के लिए अब शायद वो कुछ सीटों को अना का प्रशन न बनाये।


अगर कांग्रेस हर हाल में समाजवादी पार्टी के साथ इलेक्शन में जाना चाहती है तो इस के लिए उस प्रकार से तो हालात ठीक हो गए हैं के पहले के मुकाबले अब वो अधिक सीटों पर अपनी दावेदारी पेश कर सकती है और यह भी सम्भव है के एक हद तक उस की दावेदारी को मान भी लिया जाए क्युनके समाजवादी पार्टी के साथ अगर कांग्रेस मिल कर इलेक्शन लड़ती है तो कल्याण सिंह के शामिल होने पर आज जो प्रशन उठाये जा रहे हैं, उन में स्पष्ट रूप से कमी आने का अनुमान है। वो कह सकती है, अब सेकुलर कौन है कांग्रेस भी तो हमारे साथ है। अगर कल्याण के कारन नाराज़गी हम से है तो कांग्रेस से क्यूँ नहीं? इस सूरत में बहुजन समाज पार्टी को एकतरफा लाभ होगा। एक सूरत यह भी बन सकती है के आज अगर कल्याण सिंह के कारन समाजवादी पार्टी के सेकुलरिज्म पर प्रश्न्चिंंह लग रहा है तो कल उस का प्रभाव कांग्रेस पार्टी पर भी पड़े और उसे भी समाजवादी पार्टी की तरह कल्याण फैक्टर का नुकसान उठाना पड़े।


शायद इन्हीं प्रशनों में उलझी कांग्रेस अभी तक किसी परिणाम तक नहीं पहुँची है, वैसे अभी भी उसे बहुत देर हो चुकी है, इस लिए के जहाँ उत्तर परदेश में इलेक्शन में लड़ने वाली लगभग सभी बड़ी पार्टियों ने अपने उमीदवारों का एलान शुरू कर दिया है, वहां अभी तक कांग्रेस पार्टी एक सीट पर भी अपने उमीदवार का एलान नहीं कर पाई है। कांग्रेस की इस उलझन का सब से बड़ा फायदा उठाया है बहुजन समाज पार्टी ने, जिस ने पहले के मुकाबले में अधिक मात्रा में मुस्लिम उमीदवारों को टिकट देकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं।


समाजवादी पार्टी तो फिर भी बड़ी हद तक अपने उमीदवारों का एलान कर चुकी है, जिस में कई मुस्लिम उमीदवार भी हैं परन्तु कांग्रेस के सामने उलझन यह है के अब अगर वो समझौते में जाती है और १५-२० सीटों पर इलेक्शन लड़ती है तो उन में से जो निर्णयमई मात्रा में मुस्लिम वोटर्स वाली सीटें हैं, वहां से उसे गठजोड़ का नुकसान उठाने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना पड़ेगा और अगर वो यह निर्णय लेती है के समाजवादी पार्टी की सेकुलर इमेज को अगर कल्याण सिंह के साथ खड़े होने का इतना बड़ा नुकसान हो रहा है के उन्हें बार बार सफाई देनी पड़ रही है के कल्याण सिंह से उन के रिश्ते क्या हैं और क्यूँ हैं? बार बार अपने बयानात की सफाई देने की आव्यशकता क्यूँ महसूस हो रही है। एक बार फिर कम्युनिस्टों से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने का सिलसिला शुरू करना पड़ रहा है। मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए दीनी मदारिस से संपर्क किया जारहा है तो कहीं ऐसा न हो के यही परिस्थिति कांग्रेस के सामने भी पैदा हो जाए।


समाजवादी पार्टी को तो अनपेक्षित रूप से इन हालात का सामना करना पड़ रहा है। उसे यह अनुमान नहीं रहा होगा के जो कल्याण एक बार उस के साथ आकर वापस जा चुके हैं, इस बार उन के आने पर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। (दोनों बार के हालात में अन्तर क्या है, इस पर बात इस निरन्तर लेख की आने वाली कड़ियों में करेंगे) परन्तु कांग्रेस अब सब कुछ अपनी आंखों से देख चुकी है। सारे हालात उस के सामने हैं, मुसलमानों की नाराजगी भी, समाजवादी पार्टी की परेशानी भी फिर उस का दायरा उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है, उसे पूरे हिंदुस्तान में इलेक्शन लड़ना है और अभी तक के हालात जिस बात का इशारा कर रहे हैं, वो कुछ इस प्रकार हैं के कल्याण फैक्टर केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित न रहे क्यूंकि मुसलमानों का वोट केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है और न ही बाबरी मस्जिद का मामला उत्तर प्रदेश तक सीमित है। अगर कल हिंदुस्तान में इस बात को लेकर मुसलमानों में नाराजगी पैदा होती है तो शायद उत्तर प्रदेश के बाहर भी कांग्रेस को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।


यह सारी दुशवारियाँ और उलझनें बेशक कांग्रेस के साथ हो सकती हैं, शायद इसी लिए उस के सीनियर लीडर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ के लिए एक राय नहीं हैं। सत्यवृत चतुर्वेदी अगर खुल कर तो दबे शब्दों में दिगविजय सिंह और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस की प्रमुख रीता बहुगुना बहुत हद तक अकेले इलेक्शन में जाने का इरादा रखते हैं और अगर वो यह राय रखते हैं तो उन की राय एक दम से रोके जाने के योग्य भी नहीं है। इस लिए के १५-२० सीटों पर इलेक्शन लड़ कर कितनी सीटें जीती जा सकती हैं और अगर सभी ८० सीटों पर इलेक्शन लड़ा जाए तो किस हद तक सफलता प्राप्त की जासकती है, इन दोनों प्रशनों का उत्तर बेशक अभी देना मुश्किल होगा परन्तु कांग्रेस को आज जहाँ ८० में से केवल ९ सीटें ही प्राप्त हो पायीं।


२००४ में हुए चुनाव का परिणाम हमारे सामने है तो फिर दोनों ही सूरतों में अगर इस में २-४ सीटों की बढोतरी के हालात पैदा होते हैं तो पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में किसी बड़े फायदे या नुकसान की सूरत नहीं पैदा होती। हाँ, अगर कल्याण फैक्टर को लेकर मुसलमानों की नाराजगी निरंतर बढती चली गई और बहुजन समाज पार्टी के पिछले किरदार को जिस प्रकार समाजवादी पार्टी लीडरों ने लाना शुरू कर दिया है, उस का प्रभाव भी मुसलमानों पर देखने को मिला और उन्हें उत्तर प्रदेश के मैदान में अकेली सब से अच्छी पार्टी कांग्रेस नज़र आई तो कांग्रेस के लिए यह किसी लोटरी के खुलने जैसा भी हो सकता है। इस सूरत में अगर कांग्रेस एक चौथाई अर्थात ८० में से २० सीटें भी जीत लेती है तो भी अधिक बड़ा लाभ पूरे हिंदुस्तान में मुसलमानों को आकर्षित करने की सूरत में प्राप्त होगा, इस लिए के वो कह सकेगी की देखो हम ने एक अच्छे मित्र को खोदिया, इस लिए के नरसिम्हा राव के दौर में हुई गलती को हम दोहराना नहीं चाहते थे और तब शायद बाकी बचे राज्यों में कांग्रेस को अपनी इस दलील का बड़ा फायदा मिल जाए।


जो भी हो, आज लगभग उत्तर प्रदेश की जनता विशेषकर मुस्लमान बहुत बेचैनी के साथ कांग्रेस के निर्णय का इंतज़ार कर रहे हैं, इस लिए के उस की जो भी कार्यप्रणाली होगी, वो कांग्रेस का निर्णय आने के बाद होगी। पिछले दिन दिल्ली में बदरुद्दीन अजमल ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस के दौरान इस बात का एलान किया के अब वो आसाम तक सीमित नहीं रहेंगे, अब वो अन्य मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों में इलेक्शन लड़ने का इरादा रखते हैं। इस प्रेस कांफ्रेंस में उन के साथ उन की पार्टी के १० एम् एल ऐ भी थे। मौलाना बदरुद्दीन अजमल, मौलाना अरशद मदनी के बहुत करीबी हैं। जमियत उल्माए हिंद के सम्बन्ध से मौलाना अरशद मदनी का अन्य राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश में भी काफ़ी प्रभाव है। कई सान्सदय क्षेत्रों पर उन का सहमति या विरोधी होना अर्थ रखता है।


यूँ तो मौलाना अरशद मदनी कांग्रेस के करीब रहे हैं, समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेटरी और प्रवक्ता अमर सिंह जी ने भी उन से भेंट की है, उन का निर्णय किस के हक़ में होता है या वो तटस्त रहते हैं, यह देखना अभी शेष है, परन्तु जिस प्रकार जमियत उल्माए हिंद के लीडर और मेम्बर पार्लिमेंट मौलाना महमूद मदनी के भाई और उन के करीबी मौलाना हसीब साहब बहुजन सामज पार्टी में शामिल होचुके हैं और मौलाना मौदूद मदनी का अमरोहा से बी एस पी के टिकट पर इलेक्शन लड़ने का एलान हो चुका है।


अगर ऐसी सूरत में मौलाना अरशद मदनी यह निर्णय लेते हैं के उन्हें भी किसी न किसी पार्टी की सहमति का निर्णय करना होगा और क्यूंकि मौलाना महमूद मदनी के करीबी लोग बी एस पी के करीब हैं और उन के लोग वहां नहीं जाना चाहेंगे जहाँ मौलाना महमूद मदनी साहब के करीबी........(यह सब सोच है, परन्तु बिना किसी कारण के नहीं, इस लिए के लाख प्रयास के बावजूद भी जमियत उल्माए हिंद के यह दोनों ऊंचे कायद एक स्थान पर एक नहीं हो सके हैं) परन्तु वो जमियत का अंदरूनी मामला था, यह भी हो सकता है के राजनैतिक मामलात में वो एक राय हो जाएँ, खैर उत्तर प्रदेश में अभी बहुत उलझनें हैं, विशेष कर मुसलमानों को लेकर।


अगर मौलाना बदरुद्दीन की ऐ यु डी ऍफ़ उत्तर प्रदेश में भी अपने उमीदवार खड़े करती है, मौलाना अरशद मदनी और अगर मौलाना महमूद मदनी के साथ साथ उन के साथ होते हैं और कल्याण फैक्टर से नाराज़ मुस्लमान समाजवादी पार्टी और उस के साथ मिल कर इलेक्शन लड़ने की सूरत में कांग्रेस दोनों से नाराज़ होते हैं तो फिर उन के सामने बी एस पी के बाद मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एक विकल्प के रूप में सामने हो सकती है और जिस प्रकार कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आपस में एक होने की शुरुआत की है, अगर डॉक्टर अय्यूब सहित कुछ और महत्त्वपूर्ण राजनेता मौलाना बदरुद्दीन अजमल अर्थात यह सब एक प्लेट फार्म पर खड़े होते हैं, तो इन सब की ताकत की उपेक्षा नहीं की जासकती।


आज जिस प्रकार समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव और उन की पार्टी के जनरल सेक्रेटरी ठाकुर अमर सिंह मुसलमानों से अपनी नाराज़गी दूर करने की कोशिशों में व्यस्त हैं, इस का असर क्या होता है, यह भी महत्त्वपूर्ण होगा, परन्तु कांग्रेस के पास इतना मौका नहीं है के वो इस असर का इंतज़ार करे। उसे तो यह निर्णय लेना ही होगा के उसे समाजवादी पार्टी के साथ जाना है या अकेले इलेक्शन के मैदान में उतरना है।


इसी प्रकार मुसलमानों को भी बहुत लंबे समय तक दुविधा का शिकार नहीं रहना है, उन्हें भी जल्दी कोई निर्णय लेना होगा, अगर कांग्रेस की तरह वो भी मानसिक उलझन का शिकार रहे तो उन का वोट विभिन्न पार्टियों के बीच बंट जायेगा, फिर उन के वोट का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जायेगा। अगर वो मुस्लिम उमीदवारों के नाम पर उन के साथ गए तो यह उन पार्टियों की कार्यप्रणाली की जीत होगी, न तो उसे मुसलमानों की कार्यप्रणाली की सफलता करार दिया जा सकेगा और न ही वो कोई राजनैतिक ताकत बन पायेंगे।


इस लिए हम कल के अपने लेख का हवाला देते हुए आज अपनी बात यहीं समाप्त करदेना चाहेंगे, कल जिन मुस्लिम पार्टियों और प्रतिनिधियों की बात की थी, वो सभी उत्तर प्रदेश में महत्त्व रखते हैं। अगर वो सब आपस में मिलकर एक राय हो जाएँ तो बहुत अच्छा है वरना फिर यह ज़िम्मेदारी मुस्लमान स्वीकार करें, इस लिए के अगर पार्टियों के उमीदवारों का एलान किए जाने के इंतज़ार में वो बैठे रहेंगे तो बहुत देर हो जायेगी। ऐसी सूरत में वो कोई राजनैतिक ताकत नहीं बना पायेंगे, वोट बंट जायेगा और यह संघर्ष परिणाम-विहीन हो जायेगा, जैसा के सामान्य रूप में अब तक होता रहा है।
वोट डालने के पहले तक तो बहुत बातें होती हैं, बहुत प्लानिंग होती हैं, बहुत ज़बानी जमा खर्च होता है, हर दिन एक नई कार्यप्रणाली पर गौर होता है और जब वोट डालने का समय आता है तो फिर वही मायूसी और लाचारी भरा प्रशन के अब क्या करें? इतनी कोशिश की, सब एक हो ही नहीं पाये, चलो किसी न किसी तो वोट देना ही है, एक बार इसी को आजमा कर देख लेते हैं। अब चाहे वो पार्टी हो या उमीदवार अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है और आप की सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं। फिर एक बार वो परिणाम आपके सामने होता है, जिसे देख कर आप हाथ मलते रह जाते हैं।

2 comments:

Bazmewafa said...

Muhtarmi Aziz Burney sahib
Assalamoalaykum(W.B.)
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Talibe dooa
Muhammedaali

expiredream(aslansary) said...

SIR,
AZIZ BURNY
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14 FEB 2009 .
till now i only read you at papers but first time i heard your words came out your lips.
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i have made your distance students.
thanks