यादगार लम्हा, इमाम-ए-हरम की इक़्ितदा में नमाज़ पढ़ने का सौभाग्य, नमाज़े इशा, स्थान 28 अकबर रोड, मक़ाम रिहाइश जनाब के॰ रहमान, डिप्टी चेयरमैन राज्य सभा, तारीख़ 27 मार्च 2011 तदानुसार 22 रबीउस्सानी 1432 हिजरी। यह उल्लेख इसलिए कि यह ऐतिहासिक क्षण था, लिहाज़ा दिल चाहता है कि इसे इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया जाए कि गत तीन दिनों में कई बार फ़रज़ंदान-ए-तौहीद को भारत की धरती पर इमाम-ए-हरम की इमामत में नमाज़ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उनमें लेखक भी शामिल था। नमाज़ से फ़ारिग़ होने के बाद जब सामना हुआ जस्टिस फ़ख़रुद्दीन अहमद और दिल्ली विधानसभा में जामा मस्जिद क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक हाजी मुहम्मद शुऐब इक़बाल से तो चर्चा हुई रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित होने वाले मेरे सिलसिलेवार लेखों की, दिलों पर इसके प्रभाव की और फिर शिकवा यह भी कि आख़िर यह सिलसिला रुक क्यों गया है। जब उनके इस प्रश्न को मैंने स्वयं अपने आप से किया तो आवश्यक लगा कि जो उत्तर मुझे मेरे दिल व दिमाग़ ने दिया, वह पूरी ईमानदारी के साथ आपके सामने रख दूं, इस बीच मैं स्वयं अपने लेख को पढ़ता रहा हूं। बदलते परिदृश्य पर उन लेखों का प्रभाव देखता रहा हूं। बहुत उत्साहवर्धक है परंतु कहीं कुछ प्यास का एहसास भी है। कभी-कभी तो कुछ ऐसा लगता है जैसे अंधेरी रातों में एक पहरेदार अपने एक हाथ में मद्धिम सी रोशनी की लालटेन और दूसरे हाथ में एक मोटा सा डंडा लिए आवाज़ लगाता जाता है ‘‘जागते रहो’’ और बस्ती के लोग गहरी नींद में सो जाते हैं। उसके क़दमों की आहट, कानों को जानी पहचानी उसके डंडे के ज़मीन के टकराने की आवाज़ और बस उसके अपने अस्तित्व के दायरे में सिमट कर रह जाने वाली उसकी लालटेन की रोशनी न जाने क्यों भयानक अंधेरी रातों में भी हमें यह एहसास दिलाती है कि अब कोई ख़तरा नहीं है, हम गहरी नींद में सो सकते हैं। जबकि वह बेचारा ग़रीब तो हर क्षण चीख़-चीख़ कर कह रहा होता है ‘‘जागते रहो’’। फिर हम सो क्यों जाते हैं। कहीं मेरा क़लम उस डंडे की भांति कानों को परिचित एक आवाज़ मात्र बन कर रह गया है, कहीं मेरा संदेश उस मद्धिम सी रोशनी वाली लालटेन का रूप तो धारण नहीं कर गया है। जिसकी रोशनी बस उसके अस्तित्व तक सिमट कर रह गई है जिसके वह हाथ में है उसकी आवाज़ जगाने के प्रतीक के बजाए गहरी नींद में सोे जाने का संदेश तो नहीं बन गई है। अगर ऐसा है तो कुछ दिन के लिए इस पहरेदार के क़दमों की आहट रोक देते हैं शायद अब बस्ती के लोग ख़ुद जागने की ज़रूरत महसूस करने लगें, उस बस्ती के पहरेदार के क़दमों की आहट क्यों रुक गई इस पर विचार करने लगें और यह क्षण उन्हें सर जोड़ कर बैठने के लिए आमादा कर दे। जस्टिस फ़ख़रुद्दीन अहमद और हाजी शुऐब इक़बाल की गुफ़्तुगू मुझे सिर जोड़ कर बैठने का एक प्रयास नज़र आया। शायद अब हम अपने और आसपास के हालात पर विचार करने की आवश्यकता महसूस करने लगे हैं। माना कि वह बस्ती ज़रा दूर है जो इस समय ख़तरे में है, परंतु यह ख़तरा कल हमारी चैखट तक नहीं पहुंचेगा इसकी क्या गारंटी है। अगर हम आज उसकी मदद के लिए आगे नहीं आएंगे जिसे हमारी मदद की आवश्यकता है तो फिर कल हमारी मदद के लिए कौन आयगा। इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान की तबाही ने हमें जागरुक क्यों नहीं किया। मिस्र, लीबिया और बहरीन के हालात हमें सोचने के लिए मजबूर क्यों नहीं करते, एक-एक करके मुस्लिम देश तबाह होते जाएंगे और हम सब केवल तमाशा देखते रह जाएंगे, फिर यह आग हमारे दामन तक पहुंचेगी और हम उसे बुझा नहीं पाएंगे। इस्लाम पर कहीं तानाशाही के हवाले से हमलें, कहीं आतंकवाद के हवाले से है तो कहीं कट्टरपंथ को बहाना बनाकर है और हम ह्न और हम बस अपने दायरे में गुम हैं। पहरेदार का काम है वह आवाज़ लगाए ‘‘जागते रहो’’ और हमारा काम है
मैंने एक बार फिर पन्ने पलटे उन लेखों के, जहां से यह सिलसिला टूटा था। अगर अन्य विषयों पर लिखे गए लेखों की चर्चा इस समय न करूं तो लीबिया, मिस्र तथा बहरीन के हालात पर लिखे गए दो लेख ‘‘मिस्र, लीबिया, बहरीन, जमहूरी अमल या अमेरिकी दख़ल’’ (25 फ़रवरी 2011 क़िस्त न॰ 215) और ‘‘क्या कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी का अंजाम भी सद्दाम हुसैन की तरह ह्न’’ (26 फ़रवरी 2011, क़िस्त न॰216) का उल्लेख करना आवश्यक लगात है। क्योंकि यह कुछ सोचने पर मजबूर करते थे एक आन्दोलन चलाने पर आमादा करते थे परंतु क्या ऐसा हुआ ह्न? लिखा इसके बाद भी परंतु वह ऐसे विषय हैं जिन पर हम बाद में भी विचार कर सकते हैं लेकिन लीबिया!
लगभग एक महीने की अवधि बीत गई लीबिया तथा बहरीन के हालात हमाने सामने हैं। मुझे आवश्यक लगता है कि इस सिलसिले में लिखे अपने दोनों लेखों की कुछ पंक्तियां एक बार फिर पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करूं और उनसे यह निवेदन करूं कि इस बीच प्रकट होने वाली परिस्थितियों पर एक नज़र डालें। क्या जो आशंकाएं हमने अपने लेख में व्यक्त की थीं, वह दुरुस्त साबित नहीं हुईं। फिर एक प्रश्न अपने आप से करें कि अगर हमने समय रहते ध्यान दिया होता, इन आशंकाओं को ध्यान में रख कर आंदोलन चलाने का फ़ैसला कर लिया होता तो शायद ‘लीबिया’ आज ‘इराक’़ जैसे हालात से न गुज़र रहा होता। यही कहा था मैंने जनाब मुहम्मद शुऐब इक़बाल से और केवल उनसे ही नहीं, बल्कि अपने लेखों द्वारा अपने सभी पाठकों से भी कि क्या पर्याप्त है ऐसे नाज़्ाुक हालात में केवल मेरा लिख देना और आपका पढ़ लेना। क्या ज़रूरी नहीं है कि हम एक ऐसा आन्दोलन चलाएं, जिससे कि इस्लाम विरोधी ताक़तें अपने हर उस क़दम के बारे में सौ बार सोचने पर मजबूर हों कि जो मुस्लिम देशों की तबाही की दिशा में उठाने का इरादा रखते हों।
निश्चय ही यह एक सुखद संदेश है। भारत के इतिहास में पिछले तीन दिनों की घटनाएं गवाह रहेंगी कि भारत की धरती पर इमाम-ए-हरम के आगमन ने जो भावनात्मक स्थिति पैदा की वह पिछले सैकड़ों बरसों में इस धरती पर क़दम रखने वाले किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन पर नहीं हुई। यह स्पष्ट इशारा है हमारी धार्मिक भावनाओं का। बस इसी हवाले से यह कुछ पंक्तियां लिखने का साहस कर रहा हूं कि हम अपनी इस भावना को क़ायम रखें। ऐसे सभी अवसरों के लिए भी और पूरी दुनिया में कहीं भी अगर मानवता पर अत्याचार हो रहा हो या इस्लाम विरोधी ताक़तें मुस्लिम देशों पर आक्रमण कर रही हों तो हम इसी भावना और उत्साह का प्रदर्शन करें। अभी भी समय है, अगर हम लेख को लेख तक सीमित न रहने दें, बल्कि उसे आंदोलन का रूप दे दें तो आज लीबिया और बहरीन को बचाया जा सकता है और आने वाले कल में इस सूचि में शामिल हो सकने वाले अन्य देशों को भी बचाया जा सकता है। दरअसल अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ की तबाही के बाद ही हमें यह सबक़ सीख लेना चाहिए था और जब मिस्र में बग़ावत के हालात पैदा हुए तो समझ लेना चाहिए था कि इस बग़ावत का कारण क्या वही है जो नज़र आ रहा है या परदे के पीछे षड़यंत्र कुछ और भी है। हम यह नहीं चाहते कि मुस्लिम देशों में लोकतंत्र मज़बूत न हो, अवश्य हो, परंतु यह अमेरिकी हस्तक्षेप के बिना हो। हम इस दिशा में गहराई से न सोच कर एक बहुत बड़े ख़तरे को दावत दे रहे हैं। मैं निराश तो नहीं हूं, हां परंतु यह एहसास अवश्य है कि बावजूद क़दम-क़दम पर सराहे जाने के अभी भी इन लेखों में वह बात पैदा नहीं कर पाया हूं कि यह आन्दोलन का रूप धारण कर सकें। मेरे सामने है पिछले एक माह में लीबिया के हालात और मेरे वह दो लेख भी, जिनका उल्लेख मैंने अपने इस लेख के आरंभ में किया था। मैं चाहता हूँ कि अपने पाठकों के सामने संक्षिप्तरूप से आज के हालात भी रख दूं और इस सिलसिले में लिखे गए अपने लेखों के कुछ अंश भी, ताकि यह यक़ीन दिला सकूं कि जो कुछ आज हम देख रहे हैं इसका अंदाज़ा बहुत पहले ही कर लिया गया था और आपके सामने रख भी दिया गया था। काश उसी समय हमने लीबिया को अमेरिकी शिकंजे से बचाने का फै़सला कर लिया होता।
मिस्र, लीबिया, बहरीन, जम्हूरी अमल या अमेरिकी दख़ल
25 फरवरी 2011, क़िस्त 215
सद्दाम हुसैन-हुसनी मुबारक - कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी अपने-अपने देश की पहचान माने जाते रहे हैं और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह सभी अत्यंत शक्तिशाली शासक रहे हैं। सद्दाम हुसैन ने 24 वर्ष इराक़ पर शासन किया, हुसनी मुबारक ने 30 वर्ष और कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी ने 41 वर्ष। सद्दाम हुसैन की हत्या, हुसनी मुबारक की सत्ता से बेदख़ली और कर्नल क़ज़्ज़्ााफ़ी के विरूद्ध बग़ावत। शाह अब्दुल्ला बिन अब्दुल अज़ीज़ पर अमेरिकी नियंत्रण, कुवैत की अर्थ व्यवस्था पर अमेरिकी क़ब्ज़ा, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी कठपुतली शासक, ईरान में महमूद अहमदी नज़ाद सरकार को निरंतर धमकियां और जाॅर्डन जैसे देश अमेरिकी काॅलोनी का रूप धारण कर चुके हैं। बहरीन के हालात अब किसी से छुपे नहीं हैं। फ़लस्तीन की तबाही हमारी निगाहों के सामने है। रक्त रंजित पाकिस्तान अब इतना निर्बल तथा विवश हो चुका है कि अपने नागरिकों के हत्यारे रेमंड डेविस को किसी भी तरह की सज़ा देना तो दूर इस अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के एजेंट के विरुद्ध ज़ुबान खोलने के जुर्म में अपने विदेश मंत्री शाह मुहमूद क़ुरैशी को उनके पद से हटाने के लिए मजबूर हो चुका है। बंग्लादेश जो कभी भारत का हिस्सा था, आज एक बेहैसियत देश बन कर रह गया है और इन सबके पीछे है केवल और केवल एक ताक़त अमेरिका। हम सब जानते हैं, परंतु ख़ामोश हैं, लाचार तथा बेबस हैं। अगर किसी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाए तो एक ही उत्तर मिलता है आख़िर हम कर ही क्या सकते हैं?
अरब देशों की सबसे बड़ी ताक़त है पैट्रोल जो परवरदिगारे आलम का एक वरदान है। बहुत तेज़ी से अब इस दौलत पर अमेरिका का क़ब्ज़ा होता जा रहा है परंतु सब चुप हैं कोई अमेरिका के विरुद्ध बोलने का साहस करता ही नहीं।
अमेरिका अपने राजनयिकों की आड़ में सीआईए का एक सशक्त जाल बिछा रहा है। इस ओर अगर समय रहते ध्यान न दिया गया तो अतिशीघ्र अमेरिकी शासन का दायरा इतना बढ़ जाएगा कि जिन्हें आज आप मुस्लिम देशों के रूप में देख रहे हैं, वह सब आने वाले कल में अमेरिका और ब्रिटेन की छोटी-छोटी कालोनियां होंगी। कल अरब के पैट्रोल पर इन बड़ी ताक़तों का क़ब्ज़ा होगा। पाकिस्तान जैसे देश अपना अस्तित्व खो देंगे और भारत जिसे आतंकवाद द्वारा गृहयुद्ध का शिकार बनाया जा रहा है, कमज़ोर से कमज़ोर होता चला जाएगा। अगर हम रेमंड डेविस (पाकिस्तान में), डेविड कोलमैन हैडली (हिन्दुस्तान में) जैसे सीआईए/एफ़बीआई के एजेंटों की गतिविधियों को सरसरीतौर पर लेना बंद कर दें, तालिबान और लशकर-ए-तैय्यबा से उनके संबंधों की तह तक जाने का प्रयास करें, सीआईए का तालिबान और एफ़बीआई का लशकर-ए-तैय्यबा से कितना घनिष्ट संबंध है, या कितने अलग-अलग संगठन हैं और आंतरिकरूप से इनमें कितना घन्ष्टि संबंध है, अगर इस सच को जान लें तो शायद हम अरब देशों पर बढ़ते अमेरिकी क़ब्ज़े को भी रोक सकेंगे पाकिस्तान को और अधिक तबाही से बचा सकेंगे और इस सबके बाद भारत को संभावित ख़तरे से भी छुटकारा पा सकेंगे।
ब्रिटेन के एक अख़बार के अनुसार डेविड रेमंड अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए का एजेंट है। ईरान के प्रेस टीवी के अनुसार वह न केवल सी.आई.ए का एजेंट था बल्कि उसके तालिबान से भी संबंध हैं और वह पाकिस्तान में तोड़-फोड़ मिशन याने सरकार को अस्थिर करने के इरादे से भेजा गया था।
क्या कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी का अंजाम भी सद्दाम हुसैन की तरह......
26 फरवरी 2011, 216
अमेरिका में अब एक नया ड्रामा शुरू हो चुका है जैसा कि इराक़ के संदर्भ में हुआ था। आपको याद होगा, पहले इराक़ पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए जिससे वहां की जनता का जीना दूभर हो गया, फिर सद्दाम हुसैन को तानाशाह डिक्लेयर किया गया, विनाशकारी हथियारों के ज़ख़ीरे का आरोप लगाया गया, जो कि बरामद न होने पर बाद में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जाॅर्ज वाकर बुश के द्वारा माफ़ी मांगी गई, लेकिन इस बीच इराक़ के हज़ारों बेगुनाह क़त्ल किए जा चुके थे, लाखों बेघर हो चुके थे और इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी दी जा चुकी थी। इस सबके जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की माफ़ी और बस। अब फिर अमेरिका में यह माहौल पैदा किया जा रहा है जैसे अमेरिकी सरकार दबाव में है, उसे अमेरिकी मूल्यों का ध्यान रखना है। उसे लीबिया में जनता के ऊपर होने वाली ज़्यादतियों को नज़रअंदाज़ नहीं करना है, अतः लीबिया पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने की ज़रूरत है। अर्थात वही जो इराक़ के साथ हुआ था अब लीबिया के साथ किए जाने का माहौल तैयार किया जा रहा है।
किसको किस तरह का रोल अदा करना है। किसे माहौल साज़ी करनी है, किसे दबाव बनाना है, फिर किसे कार्रवाई को अंजाम देना है ताकि अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ की तरह कठपुतली सरकारें बिठाई जा सकें और यह सब कुछ पहले से तय है। हो सकता है फिर कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी पर भी सद्दाम हुसैन की तरह अमेरिकी इशारे पर क़ायम की गई एक अदालत में मुक़दमा चले और उन्हें भी फांसी की सज़ा सुना दी जाए। विश्व बिरादरी क्या इसी तरह अमेेरिका को खुली छूट देने की हामी है कि उसे किसी भी देश में अपनी मर्ज़ी से, अपने अंदाज़ में हस्तक्षेप का अधिकार है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हज़ारों बेगुनाह इराक़ियों और अफ़ग़ानियों के क़त्ल के जुर्म में जार्ज वाकर बुश पर मुक़दमा चलाए जाने की बात किसी ने नहीं की। क्या अपनी ग़लती को मान लेना और माफ़ी मांग लेना ही काफ़ी है।
इस बीच लीबिया पर गठबंधन सेनाओं का हमला हो चुका है। बड़ी संख्या में लीबियाई नागरिक हताहत और बेघर हो चुके हैं। कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी के एक बेटे की मृत्यु हो चुकी है। संक्षिप्त में हम लीबिया में इराक़ की कहानी दोहराई जाते देख रहे हैं और चुप हैं। आख़िर हमारी ज़्ाुबानों पर यह ताले किसने लगा दिए हैं। क्या यह प्रश्न करेंगे हम अपने आप से।
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