Monday, February 14, 2011

दारुल उलूम देवबंद-तख़रीबी सियासत के शिकन्जे में
अज़ीज़ बर्नी

दुनिया में मुसलमानों की आबादी लगभग 125 करोड़ है। 50 से अधिक देशों को इस्लामी देश या मुसलमानों का देश होने का गौरव प्राप्त है। इनके अलावा दर्जनों अन्य देशों में भी मुसलमान अच्छी ख़ासी संख्या में रहते हैं, जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा जैसे देश भी शामिल हैं। गत दिनों जब भारत के प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह के साथ जर्मनी और बैल्जियम की यात्रा पर जाने का अवसर मिला तो देखा एक बड़ी मार्किट अरब शैली की है, अरबी वस्त्र, बुर्क़ापोश महिलाएं बहुलता से नज़र आईं, दुकानों के बोर्ड भी अरबी भाषा में थे इतना ही नहीं जब अस्थाई निवास स्थान शेरेटन होटल (place charles Rogiers, 3, 1210, Brussels, Belgium) होटल से कुछ फ़ासले पर एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का अवसर मिला तो यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि सैकड़ों की संख्या में नमाज़ी मौजूद थे। बहरहाल मैं इस समय चर्चा करने जा रहा हूं दारुल उलूम देवबंद की और यह आरंभिक कुछ वाक्य केवल इसलिए थे कि यह स्पष्ट किया जा सके कि दुनिया में मुसलमानों की इतनी बड़ी संख्या के लिए अगर सबसे अधिक सम्मानजनक और लोकप्रिय धार्मिक शिक्षण संस्थानों की सूचि बनाई जाए तो उनमें सर्वोपरि जामिआ अज़हर क़ाहिरा और दारुल उलूम देवबंद का ही नाम होगा अर्थात भारत को यह गौरव प्राप्त है कि दारुल उलूम देवबंद की गणना दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक शिक्षण संस्थानों में ऊपरी स्थान पर है बावजूद इसके कि 50 से अधिक मुसलमानों के देश हैं परंतु शेष सभी शिक्षण संस्थानों की चर्चा जामिआ अज़हर क़ाहिरा और दारुल उलूम देवबंद के बाद ही आती है। इन वास्तविकताओं की रोशनी में अंदाज़ा किया जा सकता है कि दारुल उलूम देवबंद का महत्व का। मुसलमानों की कितनी बड़ी संख्या इस धार्मिक शिक्षण संस्थान से शिक्षा की रोशनी प्राप्त करती है और कितने देशों में। यहां मैं यह भी स्पष्ट करता चलूं कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के बाद से ही अंग्रेज़ों ने भलीभांति समझ लिया था कि अगर उनकी राह में कोई सबसे बड़ी रुकावट है तो वह मुसलमान हैं और उनमें भी आलिमे दीन। उसके बाद 1947 आज़ादी की लड़ाई में देवबंद और जमीअत-उलेमा-ए-हिंद की क्या भूमिका रही, इस विषय पर कई बार लिखा गया और लिखा जाता रहेगा। हमारे द्वारा ही नहीं हर उस व्यक्ति के द्वारा जो स्वतंत्र भारत का इतिहास लिखने का इरादा रखता है या दीनी मदरसों की भारत की स्वतंत्रता में क्या भूमिका रही, इस विषय पर क़लम उठाना चाहता है।
दारुल उलूम देवबंद के मौजूदा हालात पर लिखने की ज़रूरत का एहसास पिछले कई दिनांें से बड़ी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा था लेकिन हर बार स्वयं को रोकता रहा और सोचता रहा कि क्या मुझे इस विषय पर क़लम उठाना चाहिए। बावजूद इस अख़लाक़ी दबाव के कि पाठक विशेषरूप से दारुल उलूम देवबंद के छात्र इस विषय पर मेरे लेख की प्रतीक्षा में हैं और लगातार मांग कर रहे थे कि मुझे लिखना चाहिए। स्वयं को रोकने का कारण यह था कि उलेमा-ए-दीन का मामला है, चर्चा का विषय दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम स्वयं एक बड़े आलिमें दीन हैं, उनका चयन करने वाले सबके सब भारत के मायानाज़ उलेमा-ए-दीन हैं और दुर्भाग्य से विवाद में शामिल देने वाले महान व्यक्तिगण भी आलिम-फ़ाज़िल हैं। अब कोई कुछ कहे तो क्या कहे, लिखे तो क्या लिखे। फिर भी अगर यह साहस किया जा रहा है तो कारण बस इतना सा है कि आज ये विवाद केवल दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम के पद तक सीमित नहीं रह गया है और बहस भी केवल संबद्ध लोगों तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि इस बहस में अब वह लोग भी शामिल नज़र आ रहे हैं जिनका दूर-दूर तक इस ऐतिहासिक शिक्षण संस्थान से कोई संबंध नहीं। अगर उनके सम्मिलित होने के अर्थों को न समझा गया इसके दूरगामी परिणामों पर विचार न किया गया तो शायद हमें अपूर्णनीय नुक़्सान का सामना करना पड़ेगा। 1857 और उसके बाद के हालात का उल्लेख इसीलिए किया गया।
145 वर्ष के इतिहास में ऐसा अवसर कभी नहीं आया कि दारुलउलूम देवबंद के प्रांगण में मुहतमिम के सवाल पर गोलियां चली हों। आपसी टकराव यहां तक पहुंचा हो कि छात्र घायल होकर अस्पताल ले जाए गए और सच यह भी है कि इससे पहले ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि दारुल उलूम देवबंद को हमारे राष्ट्रीय मीडिया में हर रोज़ इतनी जगह मिली हो जितनी कि आज मिल रही है। उस समय भी नहीं जब पूरा देश आतंकवाद का शिकर था और यह आवाज़ दारुल उलूम देवबंद के तत्वाधान से बुलंद की गई थी। देश व्यापी स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध आंदोलन चलाया जा रहा था, तब भी हमारे राष्ट्रीय मीडिया ने उन समाचारों को उतना स्थान नहीं दिया जितना कि आज दिया जा रहा है। हालांकि उस समय आज से कहीं अधिक उन समाचारों को स्थान देने की आवश्यकता थी जबकि आज केवल इतना ही नहीं समाचारों के अलावा विभिन्न वैबसाइट पर टिप्पणी की जा रही हैं और एक विशेष राय क़ायम करने की मुहिम चलाई जा रही है। अपने इस लेख की कड़ी में मैं वैबसाइट का हवाला और लेख का सारांश भी पेश करूंगा। लेकिन पहले एक संक्षिप्त परिचय उन उलेमा-ए-किराम का जो मौलाना वस्तानवी से पूर्व दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम के पद पर रहे।
1. हज़रत सैयद हाजी आबिद हुसैनः दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक और प्रथम मुहतमिम रहे हैं, निहायत बुज़्ाुर्ग इन्सान थे। दारुल उलूम की स्थापना से पहले भी उनकी बुज़्ाुर्गी के चर्चे दूर-दूर थे। दो चरणों में दस वर्ष तक संस्था के मुहतमिम रहे।
2. हज़रत शाह रफ़ीउद्दीन: देवबंद से संबंध रखते थे, उनकी बुज़्ाुर्गी और दीनदारी जग ज़ाहिर थी। उच्च प्रबंधन क्षमताओं के मालिक थे। दारुल उलूम के विस्तार के लिए अपनी पूरी भूमि दारुल उलूम के नाम कर दी और 19 वर्ष तक मुहतमिम के रूप में दारुल उलूम की सेवा करते रहे। उनके दौर में दारुल उलूम ने उदाहर्णीय विकास किया।
3. हज़रत मौलाना फ़ज़ले हक़: ‘‘एक बहुत बड़े आलिमे दीन थे और पूरे क्षेत्र में बड़े सम्मान तथा आदर की दृष्टि से देखे जाते थे।’’ केवल एक वर्ष के लिए दारुल उलूम के मुहतमिम के पद पर रहे।
4. हज़रत मौलाना मुहम्मद मुनीर अहमद नानोतवी: दारुल उलूम के दूसरे संस्थापक हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानोत्वी रह॰ के नगर नानौता में हज़रत मौलाना लुत्फ़ अली नानौत्वी एक बुज़ुर्ग आलिमे दीन थे, मौलाना मुनीर अहमद उन्हीं के सुपुत्र थे। यह भी अल्पअवधि के लिए दारुल उलूम के मुहतमिम के रूप में सेवा करते रहे।
5. हज़रत मौलाना मुहम्मद अहमद नानौतवी: हज़रत मौलाना दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक (द्वितीय) हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानौत्वी रह॰ के सुपुत्र थे। अपने ज्ञान तथा परहेज़गारी के लिए जाने जाते थे। 34 साल की लंबी अवधि तक दारुल उलूम के मुहतमिम रहे उनके समय में दारुल उलूम ने तीव्र गाति से तरक़्क़ी की और उप महाद्वीप भारत-पाक में एक उच्च स्थान प्राप्त किया।
6. हज़रत मौलाना हबीबुर्रेहमान उस्मानी: दारुल उलूम देवबंद के प्रतिष्ठित शिक्षक और इस्लामी जगत के प्रसिद्ध उलेमा में उनकी गिनती होती थी। 1300 हिजरी में उन्होंने दारुल उलूम से शिक्षा सम्पन्न की और 1347 हिजरी में दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम बनाए गए और 1348 हिजरी तक मुहतमिम के पद पर विराजमान रहे।
7. हज़रत मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी देवबंदी: प्रसिद्ध मुफ़स्सिर हैं हज़रत शैख़ुलहिंद रह॰ के विशेष शिष्यों में उनकी गिनती होती है। दारुल उलूम से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और 1354 हिजरी में दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम बनाए गए। 8 वर्ष की अवधि तक उन्होंने मुहतमिम का पद संभाले रखा।
8. हज़रत मौलाना क़ारी मुहम्मद तैयब: हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम साहब नानौत्वी रह॰ के सगे पोते थे और दारुल उलूम देवबंद के मसलकी मिज़ाज और शिक्षा पद्धति तथा रुझान से भलीभांति अवगत थे। आपने दारुल उलूम के इतिहास में सबसे अधिक यह ज़िम्मेदारी संभाली। 55 वर्ष तक उन्होंने दारुल उलूम देवबंद का प्रबंध संभाला। उनके दौर में दारुल उलूम देवबंद ने विश्व ख्याति प्राप्त की।
9. हज़रत मौलाना मरग़्ाूबुर्रेहमान बिजनौरी: 1981 में दारुल उलूम देवबंद के सहायक मुहतमिम बनाए गए और 1982 में उनको दारुल उलूम देवबंद का नियमित मुहतमिम नियुक्त किया गया। उनके समय में दारुल उलूम देवबंद के निर्माण में एक इन्क़लाब आया। उन्होंने दारुल उलूम देवबंद में शैक्षणिक दृष्टि से भी अच्छे परिवर्तन किए उन्हीं के दौर में दारुल उलूम में कम्पयूटर क्लासिस, इंगलिश कोर्सिस तथा पत्रकारिता की शिक्षा तथा प्रशिक्षण जैसे परिवर्तन सामने आए। 1 मुहर्रम 1432 हिजरी को उनका इंतिक़ाल हुआ और अंतिम समय तक आप मुहतमिम के रूप में सेवा प्रदान करते रहे।
बेशक मौलाना ग़्ाुलाम मुहम्मद वस्तानवी एक योग्य आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं लेकिन उनसे पूर्व इस ज़िम्मेदारी पर रहने वाले किसी भी आलिमे दीन की योग्यता, क्षमता तथा धार्मिक ज्ञान पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता और न ही कोई तुलना करने की आवश्यकता है। मुहतमिम की हैसियत से दारुल उलूम देवबंद की ज़िम्मेदारी अंजाम देने के लिए उन्हें जो शिक्षा दरकार थी वह उनके पास थी और बहुत अच्छी थी। हां परंतु राजनीति की बात ज़रा कम करते थे।
हम इस बहस में शामिल नहीं हो रहे हैं कि मौलाना वस्तानवी अपने पद पर रहते हैं या नहीं, हमारी रुचि इसमें भी नहीं है कि मौलाना बदरुद्दीन अजमल, मौलाना अरशद मदनी साहब के साथ रहते हैं या मौलाना महमूद मदनी साहब के साथ। हमें इससे भी कोई ग़्ारज़ नहीं कि इनमें से कौन किस धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिक दल के साथ है। हमारी चिंता तो बस इतनी सी है कि दारुल उलूम देवबंद के सम्मान पर आंच न आए। वह जिन महान उद्देश्यों के लिए स्थापित किया गया था वह क़ायम रहे और दारुल उलूम किसी भी तरह के ऐसे वैचारिक बटवारे का शिकार भी न हो जैसा कि सियासी सोच रखने वालों की मन्शा हो सकती है। हमें याद रखना होगा कि किस-किस तरह हमारे शिक्षण संस्थानों को राजनीति का शिकार बनाने का प्रयास किया जाता रहा है। किस प्रकार धार्मिक मदरसों को आतंकवाद से जोड़ा जाता रहा है। इस समय सोचना यह है कि कोई भी राजनीतिज्ञ अपने ऐसे किसी भी उद्देश्य में कामयाब न हो। अब एक नज़र इस समाचार और हवाले पर जिसकी चर्चा मैंने उपरोक्त पंक्तियों में की थी।
मुहतमिम दारुल उलूम देवबंद मौलाना ग़्ाुलाम मुहम्मद वस्तानवी से संबंधित आईपीएफ़ थिंक टैंक (http://.indiapolicyfoundation.org) के विचारः
27 जनवरी 2011
वस्तानवी एक नापाक मुहिम का शिकार हो रहे हैं और उनके बयान पर उठा तूफ़ान दरअसल कट्टरपंथी मुस्लिम राजनीति और उलेमा की मसलकी सोच और पैसों का खेल है। उन्हें दारुल उलूम देवबंद के मुहतमिम के रूप में अपना काम जारी रखना चाहिए। अल्प संख्यक मामलों का मंत्रालय, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक और इन सबसे अधिक भारतीय बुद्धिजीवियों की आश्चर्यचकित चुप्पी स्पष्ट संकेत है कि वह केवल ‘चुनिंदा धर्मनिर्पेक्षता में विश्वास रखते हैं।
वस्तानवी का विरोध न केवल लोकतान्त्रिक और फासीवादी है बल्कि देश की बहुआयामी सभ्यता के भी विरुद्ध है। फ़ासीवाद प्रकट करने के लिए उचित अवसर का विरोध करता है और व्यक्तित्व का विरोध करता है। वस्तानवी के साथ यही हुआ। वह दारुल उलूम की उच्चस्तरीय समिति शूरा द्वारा 10 जनवरी 2011 को उपकुलपति चुने गए। इस बैठक में 18 सदस्यों में से 14 उपस्थित थे और केवल 4 अनुपस्थित थे वस्तानवी को उन 14 सदस्यों में से 8 लोगों ने वोट दिए जबकि 4 सदस्यों ने मौलाना अरशद मदनी का समर्थन किया 2 सदस्यों ने मौलाना मद्रासी के पक्ष में वोट डाले, फिर भी अब लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने मुहतमिम को फासी वादी साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा विवश किया जा रहा है कि वह अपनी कुर्सी छोड़ दें।
जब कट्टर तथा उदावादी मुस्लिम नेतृत्व उनके विरुद्ध संगठित हो गया तो वस्तानवी ने स्वयं को बुद्धिजीवियों तथा राजनैतिक क्षेत्रों में अकेला पाया। शैक्षणिक जाग्रता मुहिम के विशिष्ट व्यक्ति के विरुद्ध जिसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे भारतीय सिविल सोसायटी, इसके संविधान और इसी बहुआयामी सभ्यता के विरुद्ध माना जाए, इनके विरुद्ध इस प्रकार की मुहिम धर्मनिर्पेक्ष लोकतांत्रिक देश में विडम्बनापूर्ण है। दिलचस्प बात यह है कि प्रसिद्ध बुद्धिजीवीगण जो विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता के विरुद्ध हमेशा आवाज़ बुलंद करते रहते हैं, वह भी इस मुद्दे पर आश्चर्यचकित ढंग से मौन धारण किए हुए हैं।
और अब इस लेख को समाप्त करने से पहले एक सादर निवेदन मोहतरम मौलाना ग़्ाुलाम वस्तानवी साहब से। कृपया ग़ौर फरमाएं आज के हालात पर, उनके कारणों पर क्या प्रसन्न तथा संतुष्ट हैं आप! युद्ध जीतना एक बात है, उद्देश्य को जीतना दूसरी बात। इस समय परिस्थितियों की मांग क्या है। हालांकि हम सब जानते हैं बीता हुआ समय कभी वापस आता नहीं। इस बीच दारुल उलूम जिन हालात से गुज़रा, जिस विवाद का शिकार रहा, क्या उसकी भरपाई हो सकती है, यदि हां तो किस तरह। शायद हमें बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी देकर भी इस ऐतिहासिक संस्था के सम्मान को बचाना चाहिए। जो लोग राजनीति कीटाणुओं से वातावरण को दूषित कर रहे हैं हमें उनसे सावधान रहना चाहिए। शायद आपसे बेहतर कोई और इस मसले का हल तलाश नहीं कर सकता। 23 फरवरी के सभी अंदेशों को केवल आप समाप्त कर सकते हैं। शायद आप इस अफ़सोसनाक राजनीति को समाप्त कर सकते हैं। ख़ुदा करे कि ऐसा कोई रास्ता आपके मन मस्तिष्क में आ जाए कि यह विवाद बस यहीं समाप्त हो जाए।

1 comment:

DR. ANWER JAMAL said...

आपने सच कहा है कि वस्तानवी एक नापाक मुहिम का शिकार हो रहे हैं और मैं बताता हैं कि इसे चाचा भतीजे चला रहे हैं जो देवबंद में ही रहते हैं ।