आज बात राजनीति पर! नहीं अभी विषय से हटने का कोई इरादा नहीं है। बात तो दारुलउलूम देवबंद के संदर्भ में ही है, बस जाविया बदल गया है। जैसा कि मैंने आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया था कि दारुलउलूम देवबंद के ताज़ा मसले पर हम अपने विचार उसी समय सामने रखेंगे, जब पूरी सूरतेहाल स्पष्ट कर दी जाए। विभिन्न दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करने वालों के विचार सामने रख दिए जाएं। अभी यह सिलसिला जारी है और उस मंज़िल के निकट आने में भी अभी इतना समय बाक़ी है कि विभिन्न पहलुओं से पूरी सूरतेहाल को पाठकों की सेवा में पेश किया जा सके। 23 फरवरी का निर्णायक दिन आने से पूर्व प्रतिदिन संबद्ध व्यक्तियों के पास विचार-विमर्श का अवसर हो और फिर जब वह किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बैठक करने जा रहे हों तो बहुत सी बातें उनके सामने आईने की तरह साफ़ हों। साथ ही हमारे पाठक भी अवगत रहें कि आख़िर मुहतमिम का प्रश्न और कितने प्रश्नों से जुड़ा है। अगर कोई विरोधी है तो क्यों, अगर कोई समर्थक है तो उसका कारण दारुलउलूम की उन्नति ही है या पृष्टभूमि में कुछ और भी।
दारुलउलूम देवबंद राजनीति से अछूता नहीं है। शायद अब इसमें किसी संदेह की गुंजाइश भी नहीं है। जानबूझकर इस वाक्य को इस तरह नहीं लिखा गया कि दारुलउलूम देवबंद अब राजनीति से अछूता नहीं रह गया है, इसलिए कि इस महान धार्मिक शिक्षण संस्थान के 145 वर्षीय इतिहास पर नज़र रखने वालों, समीक्षा करने वालों के पास ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं कि कब-कब, किस किसने, किन-किन उद्देश्यों के लिए, किस-किस राजनीतिक दल के लिए दारुलउलूम देवबंद का प्रयोग किया। अगर पिछले कुछ वर्षों पर नज़र डालें तो दारुलउलूम देवबंद और जमीअत उलेमा-ए-हिंद में घनिष्ट संबंध रहा है और आज भी यह संबंध नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मौलाना असद मदनी आलिमे दीन थे और राजनीति में भी सक्रिय रहे। कांग्रेस के टिकट पर ऊपरी सदन के सदस्य रहे। मौलाना अरशद मदनी कांग्रेस के निकट हैं, अक्सर यह बात कही जाती रही है। मौलाना महमूद मदनी लोकदल के टिकट पर संसद सदस्य हैं। मौलाना वस्तानवी के विषय पर मौलाना बदरुद्दीन अजमल साहब से पैदा हुआ मौलाना अरशद मदनी का मतभेद राजनीतिक कारणों पर आधारित था, इससे इनकार करना भी कठिन होगा। मौलाना बदरुद्दीन अजमल असम से लोकसभा सदस्य हैं। उन्होंने अपनी पार्टी यूडीएफ़ गठित की जिसके टिकट पर उन्हें सफलता प्राप्त हुई। असम विधानसभा में उनके दल के 10 सदस्य हैं और निकट भविष्य में असम में होने वाले विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी पहले से बेहतर प्रदर्शन का इरादा रखती है। जमीअत उलेमा-ए-हिंद मौलाना अरशद मदनी ग्रूप के राज्य अध्यक्ष होने के नाते उन्हें इसका लाभ मिलने की भारी संभावना थी। राजनीतिक दृष्टि से वैचारिक मतभेदों ने उन्हें यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया कि वह मौलाना महमूद मदनी के साथ जा खडे़ हों और जमीअत उलेमा-ए-हिंद मौलाना महमूद मदनी ग्रूप में वही या उससे बेहतर स्थान प्राप्त कर ले, जो उनके पास मौलाना अरशद मदनी के साथ रहने पर था। राजनीतिक दृष्टि से मौलाना महमूद मदनी के लिए भी मौलाना बदरुद्दीन अजमल का साथ लाभदायक हो सकता है। जहां एक ओर केंद्रीय राजनीति में उनका महत्व बढ़ जाएगा, वहीं दूसरी ओर मौलाना बदरुद्दीन अजमल और मौलाना महमूद मदनी मिलकर असम के विधानसभा चुनावों में पहले से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। स्पष्ट हो कि मौलाना महमूद मदनी ने अपनी राजनीति के लिए सबसे पहले जिस भूमि का चयन किया था वह असम ही थी, जहां से उन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा था। मौलाना ग़्ाुलाम मुहम्मद वस्तानवी दारुलउलूम देवबंद और जमीअत उलेमा-ए-हिंद के राजनीतिक महत्व को न समझते हों, यह संभावना से परे है। एक आलिम-ए-दीन होने के साथ साथ वह आधुनिक शिक्षा से भी सुसज्जित हैं। दुनियावी समझ और राजनीतिक दूरदृष्टि भी उनके साथ निश्चय ही मौजूद है, इसलिए उन्हें किस राह पर चलना है, इसका फैसला भी उन्होंने दारुलउलूम देवबंद का मुहतमिम बनने से पूर्व ही कर लिया होगा। अतिसंभव है कि दारुलउलूम देवबंद का मुहतमिम बन जाने के बाद और नुमायां सफलता प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा के इज़हार का फैसला किया हो। अगर उनकी ज़्ाुबान से निकलने वाले वाक्य ज़्ाुबान से फिसल जाने, बेख़याली में कह दिए गए थे तो वह न केवल बहुत स्पष्ट अंदाज़ में अपने शब्दों का ख़ुलासा सामने रख कर बात समाप्त कर देते। उन्होंने इतनी दृढ़ता के साथ प्रयास नहीं किया या उनके प्रयास में कोई कमी नहीं रही परंतु राई का पहाड़ बनाकर पेश करने वालों ने बात समाप्त नहीं होने दी या फिर उन्होंने अपनी राजनीति के लिए अपने से पहले मौलाना असद मदनी या जमीअत उलेमा-ए-हिंद के नेताओं मौलाना अरशद मदनी और मौलाना महमूद मदनी की लीक पर लेकिन ज़रा हट कर अपना राजनीतिक दृष्टिकोण सामने लाने का इरादा किया हो तो यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। और अगर ऐसा नहीं है, जानबूझकर उन्होंने ऐसा कोई वाक्य नहीं कहा था और अगर उनके वाक्य का ग़लत भाव चला भी गया था तो उनके भरपूर स्पष्टीकरण को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए था। दारुलउलूम देवबंद को किसी विवाद का शिकार नहीं होना चाहिए था, फिर भी अगर हुआ तो कहीं यह भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञों का मौक़े से फाएदा उठाने का प्रयास तो नहीं है क्योंकि जितना इस एक वाक्य के बाद मौलाना ग़्ाुलाम वस्तानवी को उनका समर्थन प्राप्त हुआ, यह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है।
यह उल्लेख नकारात्मक परिदृश्य में नहीं, धर्म का राजनीति से अगर संबंध हो तो इसमें बुराई क्या है। यह पहले भी होता रहा है। हां, इस विषय पर सबको अपने विचार पेश करने का अधिकार है कि वह किसके साथ संलंग्नता को किस रूप में देखते हैं। अगर वाक़ई अब वह समय आ गया है कि उलेमा-ए-दीन खुलकर राजनीति में भाग लें तो फिर झिझक कैसी। घोषणा करके यह कह दिया जाए कि हम धार्मिक ज़िम्मेदारियों के साथ साथ राजनीतिक ज़िम्मेदारियां भी निभाना चाहते है और इसके योग्य हैं। हो सकता है आज़ादी के बाद से मुस्लिम नेतृत्व का जो अभाव इस क़ौम के अंदर है, वह पूरा हो जाए।
अब यह अलग बात है कि दारुलउलूम देवबंद के राजनीतिक प्रयोग से जुड़े राजनीतिज्ञों को क्या मिलेगा और दारुलउलूम देवबंद को क्या प्राप्त होगा। आइये अब ज़रा इस राजनीति के एक और पहलू पर विचार कर लिया जाए। मौलाना वस्तानवी का समर्थन या विरोध क्या केवल उनके इस बयान के कारण है जो नरेंद्र मोदी के संदर्भ में था या उसके पीछे भी कोई राजनीति काम कर रही है। राजनीति दोनों मामलों में संभावना से परे नहीं है, सर्मथन में भी और विरोध में भी। आज जो भी, जितने भी मौलाना ग़्ाुलाम मुहम्मद वस्तानवी के बयान और व्यवहार पर टिप्पणी कर रहे हैं, क्या उन सबके पीछे उनकी धार्मिक तथा क़ौमी चिंता है या फिर एक कारण यह भी है कि इस आधार पर मौलाना वस्तानवी को इस पद से हटाने का मार्ग प्रशस्त हो जाए। माहौल ऐसा बने कि वह स्वयं त्यागपत्र दे दें या फिर माहौल ऐसा बन जाए कि उनसे त्यागपत्र मांग लिया जाए, अर्थात हालात ऐसे पैदा हो जाएं कि उनके विरुद्ध मोर्चा खोल कर उन्हें इस पद पर न रहने दिया जाए और फिर कोई ऐसा व्यक्ति जो प्रतिद्वंदियों के राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने में रुकावट न हो उसे इस पद पर बैठा दिया जाए। इसी प्रकार समर्थन भी राजनीति संभावना से परे नहीं है। क्या भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और उससे जुड़े व्यक्ति इसलिए भरपूर समर्थन पर उतारू हैं कि वह अपने प्रिय व्यक्ति को दारुलउलूम देवबंद का मुहतमिम देखना चाहते हैं ताकि उन्हें अपने राजनीतिक उद्दश्यों में लाभ हासिल हो। बहरहाल दारुलउलूम देवबंद की इस हैसियत से कौन इनकार कर सकता है कि इस संस्था से उठने वाली आवाज़ का देश व्यापि स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभाव होता है। अगर कांग्रेस इसकी क़ायल नहीं है, उससे जुड़े अपने हितों की सुरक्षा करने वाले को राज्यसभा से सम्मानित करती रही है, अगर लोकदल के अजीत सिंह को इसके महत्व का अंदाज़ा है और मौलाना महमूद असद मदनी को राज्यसभा में ला सकते हैं तो फिर इस महत्व का अंदाज़ा किसी और को क्यों नहीं हो सकता।
एक और पहलू। क्या वह सभी लोग जो मौलाना वस्तानवी का समर्थन कर रहे हैं, उसके पीछे कारण केवल इतना है कि उन्हें मौलाना महोदय के बयान में कोई ऐसी बात दिखाई नहीं दी जिसके लिए आलोचना का निशाना बनाया जाए या समय और हालात ने उन्हें यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया है कि बंद कमरे में बैठकर इस विवादास्पद बयान या उनके व्यवहार पर बात हो जाएगी, परंतु जहां तक मुहतमिम के रूप में उनकी नियुक्ति का प्रश्न है तो इस पर कोई आंच न आए, इसलिए उनका समर्थन किया जाए और ऐसे समर्थन करने वालों पर यह आरोप लगा देना भी उचित नहीं होगा कि वह भारतीय जनता पार्टी से कोई निकटता रखते हैं, उन्हें मोदी से लगाव है, उन्हें मौलाना वस्तानवी के बयान पर कोई आपत्ति नहीं है या फिर वह उस बयान का समर्थन करते हैं, उनके इस समर्थन का कारण यह भी तो हो सकता है कि वह दारुलउलूम देवबंद के प्रबंध में बदलाव चाहते हैं। उन्हें शिकायत इस संस्था का प्रबंध चलाने वालों से रही है और अब अवसर मिलने पर किसी भी हालत में वह दारुलउलूम का प्रबंध उन हाथों में नहीं देना चाहते जिन हाथों में पिछले वर्षों में रहा है और उन्हें मौलाना वस्तानवी के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिल गया जो उनकी वर्षों पुरानी मनोकामना को पूरा कर सकता है। इसलिए अब वह इस सिलसिले में कुछ और नहीं करना चाहते।
एक और बात जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, क्या विवाद पारिवारिक विरासत के प्रश्न को लेकर भी है। मेरे सामने है इस समय मासिक यादगारे अस्लाफ़ का ताज़ा अंक (फरवरी 2011) जिसका सम्पादकीय इसी विषय पर है। इसलिए इस सिलसिले में स्वयं कुछ न लिख कर उचित समझता हूं कि इसकी कुछ पंक्तियां पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर दूं ताकि विवाद का यह पहलू भी उनके मन में रहे।
दारुलउलूम देवबंद का प्रबंधन ह्न और ह्न मजलिस-ए-शूरा का इम्तिहान
दारुलउलूम देवबंद पर एक बार फिर घने बादल छाए और कुछ समय के लिए इनसानों को थोड़ी तक्लीफ़ भी पहुंची। 1982 में जब मजलिस-ए-शूरा का वर्चस्व तस्लीम किया गया और उसके वर्चस्व को स्वीकार करते हुए दारुलउलूम देवबंद में मजलिस-ए-शूरा का समर्थन करने वालों की जीत हुई तो उसके मुहतमिम हकीमुलइस्लाम जनाब हज़रत मौलाना क़ारी मुहम्मद तैय्यब साहब रह॰ और उनके परिवार और उनसे जुड़े लोगों को अंदर से बाहर निकाल खड़ा कर दिया गया, यह जंग शूरा का वर्चस्व और पारिवारिक विरासत के बीच क़रार दी गई जिसका फ़ैसला आया तो फिर ’क़ास्मी’ ख़ानदान के लिए दारुलउलूम का दरवाज़ा बंद कर लिया गया, 60 वर्ष तक दारुलउलूम को हर प्रकार से ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले अत्यंत पीड़ा और बेचैनी की अवस्था में एक तरफ़ होकर बैठ गए।
दारुलउलूम देवबंद की यह जंग भी जो इस भव्य संस्था को पारिवारिक विरासत बनाने का नारा देकर क़ास्मी परिवार के विरुद्ध लड़ी गई, उसके फ़ैसले के बाद दारुलउलूम देवबंद को शूरा ने जिन हाथों में दिया, वह उस समय के शूरा के सदस्य हज़रत मौलाना मरग़्ाूबुर्रेहमान रह॰ थे। मरहूम के वालिद बुज़ुर्गवार भी श्ूारा के सदस्य रह चुके थे। मौलाना मरग़्ाूबुर्रेहमान साहब रह॰ ने अपने ज़माने में जिस दियानतदारी और हिकमत-ए-अमली से प्रबंधन कार्यों को अंजाम दिया वह किसी से छुपा नहीं है। मरहूम ने हर संभव इस संस्था को विकास की ऊंचाइयों तक पहुंचाया और अंतिम सांस तक वह इस तरह जीवन व्यतीत करते रहें कि किसी को उंगली उठाने तक की गंुजाइश का मौक़ा नहीं दिया। उन्होंने अगर्चे अपने रिश्तेदारों के उन आयोजनों में अवश्य भाग लिया, जो उनकी नज़र में दारुलउलूम से बाहर की बात थी, लेकिन कुछ शिक्षक एक विशेष परिवार से सल्लंग्नता जताने के लिए उनके कार्यक्रमों में भाग लेते रहे।
दारुलउलूम देवबंद के कारकूनान तथा शिक्षकगण के मन में यह बात रही कि यह लड़ाई जमीअत के लोगांें ने लड़कर क़ास्मी परिवार से आज़ाद कराया है।
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