‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘हिंदू आतंक’ जैसा कुछ भी नहीं है, इस शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। हमें भी नहीं करना चाहिए था। हम क्षमा चाहते हैं कि औरों की तरह हम भी इस शब्द का प्रयोग करने की ग़लती कर बैठे। दरअसल कोई भी धर्म आतंकवादी नहीं होता, न आतंकवाद की शिक्षा देता है। किसी भी धर्म से जोड़ कर इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। इस्लामी आतंकवाद या मुस्लिम आतंकवाद जैसा भी कुछ नहीं है, इस शब्द का प्रयोग भी नहीं होना चाहिए, जो भी करते रहे हैं ग़लत करते रहे हैं, उन्हें भी नहीं करना चाहिए था, आज इस बात को हम बख़ूबी समझ सकते हैं और समझा सकते हैं। निःसंदेह कुछ बम धमाकों में ऐसे कुछ लोगों के नाम सामने आए हैं, जिनका संबंध हिंदू धर्म से है और इसी प्रकार अतीत में कुछ ऐसे लोगों के नाम सामने आते रहे हैं, जिनका संबंघ बज़ाहिर इस्लाम धर्म से नज़र आता था। वे सबके सब स्वयं अपने-अपने कार्य के लिए ज़िम्मेदार हैं, उनका धर्म नहीं है, फिर उनके द्वारा किए गए गुनाह का दाग़ उनके धर्म के नाम पर क्यों हो। आज यह हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। विशेष रूप से उनके लिए जो जानबूझ कर आतंकवाद को धर्म के चश्मे से देखने के आदी थे।
हमने अपने कल के लेख में कुछ बम धमाकों के उल्लेख द्वारा एक हकीकत सामने रखकर कुछ कहने का प्रयास किया। आज भी उसी बात को आगे बढ़ाने जा रहे हैं। हमने न तो गत 15-20 वर्षों में विशेषरूप से बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद हुए सभी बम धमाकों का विवरण पेश किया और न हताहतों तथा घायलों की संख्या का उल्लेख किया, क्योंकि 18 वर्ष की अवधि में देश व्यापी स्तर पर कितने बम धमाके हुए, कितनी जानें गईं, कितने लोग घायल हुए, कितनी सम्पत्ति नष्ट हुई, इस सबसे अलग हट कर जिस सच्चाई की ओर हमें विचार करना है वह यह है कि इस बीच 100 करोड़ से अधिक भारतीय किन हालात से गुज़रे। मृत्यु तो कुछ हज़ार लोगों की हुई, प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होने वालों की संख्या भी लाख, दो लाख, चार लाख से अधिक नहीं रही होगी। परंतु 100 करोड़ से अधिक भारतीय भयभीत रहे। 20 करोड़ से अधिक भारतीय भय व आतंक का शिकार रहे। यह 18 वर्ष उन्होंने अपने दामन पर लगे दाग़ धोने में बिताए। वह हर क्षण अपने पड़ोसी, अपने देश बंधुओं से संबंध ठीक करने में लगे रहे। 80 करोड़ भारतीय यह सोच-सोच कर परेशान रहे कि अगर हमें अपने ही देश की इतनी बड़ी संख्या से अपनी जान, माल तथ भविष्य का ख़तरा है तो हम शांतिपूर्ण जीवन कैसे जी सकते हैं। इसलिए घृणाएं बढ़ती चली गईं, विश्वास का रिश्ता टूट गया, मुहब्बत का दामन सिकुड़ता चला गया। हम जिन चेहरों में अपने प्रति मुहब्बत का इज़हार देखते थे, वहां घृणा तथा अविश्वास दिखाई देने लगा। देश का विकास रुक गया और हमारे देश की राजनीति केवल और केवल धर्म तथा आतंकवाद तक सिमट कर रह गई। हमारी इच्छा थी, हमारा प्रयास था और है कि यह सिलसिला पूरी तरह समाप्त हो जाए। हमने अपने कल के लेख में अजमेर बम धमाकों के तुरंत बाद लिखा गया सम्पादकीय एक बार फिर इसलिए प्रकाशित किया क्योंकि हम यह स्पष्ट करना चाहते थे कि हमने इन धमाकों के तुरंत बाद ही यह महसूस कर लिया था कि इस आतंकवाद के पीछे, इन बम धमाकों के पीछे राजनीति का हाथ हो सकता है और आज होने वाले रहस्योदघाटनों से यही सच सिद्ध होता नज़र आ रहा है। हमने उसी समय भारत सरकार से निवेदन किया था कि जांच के दायरे को अन्य सम्भावनाओं की रोशनी में आगे बढ़ाए, वे जिनकी ओर हम इशारा कर रहे हैं। हम आभारी हैं अपनी ख़ु़िफ़या एजेंसियों तथा भारत सरकार के कि उसने ध्यान दिया और अब परिणाम हमारे सामने है। इसी प्रकार 30 सितम्बर 2010 को बाबरी मस्जिद की भूमि के स्वामित्व से संबंधित इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले पर अपने विचार व्यक्त करते हुए हमने लिखा था कि निःसंदेह यह क़ानून के अनुसार दिया गया फ़ैसला नहीं है, परंतु इसे स्वीकार करने पर विचार किया जाए, इसलिए कि इस फ़ैसले से शांति तथा एकता क़ायम रह सकती है, मंदिर-मस्जिद का विवाद हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो सकता है। धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए भावनाओं से खेलने का दौर समाप्त हो सकता है और सबसे बड़ी बात यह कि इस फ़ैसले में मस्जिद बनने की संभावना भी है और मंदिर बनने की भी। अर्थात न तो मुसलमानों को मस्जिद से दस्तबरदार होने की आवश्यकता है और न मंदिर बनाने वालों के रास्ते में अब मंदिर बनाने की कोई रुकावट है। इस विषय पर हम अपने पिछले लेखों में काफ़ी कुछ लिख चुके हैं और अपने अगले किसी लेख में इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि हमने ऐसा क्यों लिखा था। चूंकि आजका लेख अजमेर बम धमाकों के बाद होने वाले ताज़ा रहस्योदघाटनों के सिलसिले की एक कड़ी है इसलिए इस विषय को वहीं तक सीमित रखना चाहते हैं।
इसे किसी प्रकार भी प्रसन्नता अथवा संतोष की बात नहीं ठहराया जा सकता कि मालेगांव बम धमाकों की जांच के बाद से जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनमें लगभग सभी नाम हिंदू साम्प्रदाय से संबंध रखने वालों के हैं। यहां कुछ क्षण रुक कर हमें धर्म से ऊपर उठकर यह विचार करने की आवश्यकता है कि आख़िर वह कौन लोग हैं, किस मानसिकता के लोग हैं, उनका पोषण करने वाले कौन हैं, किसने उन्हें घृणा के इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार किया है? आख़िर वह कौनसी मानसिकता है, जो बेगुनाह भारतीयों की जान लेने पर उतारू है? अगर इस सबके पीछे हम कोई ऐसी राजनीतिक मानसिकता देख रहे हैं, जो विध्वंसक राजनीति कर रहा है, भारत को भारतीयों केे रक्त से रक्तरंजित कर देना चाहता है, अपनी राजनीति के लिए दिलों में दीवारें खड़ी कर देना चाहता है तो हमें उन चेहरों को भी पहचानना होगा, उनकी राजनीति को भी पहचानना होगा, उनके भयावह और घातक इरादों को भी समझना होगा, मैंने अपने लेख के आरंभ में लिखा था कि आतंकवाद से हिंदू धर्म को जोड़ना ग़लत है। ऐसी कोई भी बात मन में रखने वाले को इस सच्चाई को भी समझना होगा कि शहीद हेमंत करकरे से लेकर आज जांच करने वालों तक सब के सब हिन्दू हैं। इन सभी घटनाओं की तह तक जाने वाले और मीडिया द्वारा इसे सामने लाने वाले लगभग सब के सब हिन्दू हैं। वे अदालतें जिन्होंने मालेगांव बम ब्लास्ट की रोशनी में सामने आए चेहरों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया, वे सब के सब हिन्दू हैं। सरकारी वकील के रूप में जेल की सलाखों तक पहंचाने का मार्ग प्रशस्त करने वाले अधिवकता हिन्दू थे और अगर प्रशासन और सरकार की बात करें तो उनके प्रमुख भी हिन्दू हैं। क्या ये सभी तथ्यों को सामने रखकर अपराधियों को उनके अंजाम तक पहंुचाने के लिए काम नहीं कर रहे थे? अगर हां, तो हमें किसी भी आतंकवादी को धर्म से जोड़कर धर्म को कटघरे में नहीं खड़ा करना चाहिए, बल्कि बहुत खुले शब्दों में कहें तो जिस प्रकार विश्व स्तर पर एक ‘जिहादी’ मानसिकता दिखाई देती रही है, जो भय तथा आतंक के माध्यम से अपनी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने का इरादा रखती है, इसी प्रकार हमारे देश में ‘संघी’ मानसिकता अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए आतंकवादी मानसिकता रखती है। यह दोनों ही मानसिकतायें मानवता विरोधी हैं। ताजा रहस्योदधटन जो प्रकट करते हैं, उनकी रोशनी में कहा जा सकता है कि हमारा देश संघी मानसिकता के ग़लत प्रशिक्षण का शिकार है। और अफ़सोस का स्थान यह भी है कि एक बड़ा और सशक्त राजनीतिक दल हर क्षण उसके संरक्षण के लिए मौजूद रहता है, जो उनके गुनाहों पर परदा डालने, उन्हें बेगुनाह सिद्ध करने, सरकार, प्रशासन तथा न्यायपालिका पर दबाव बनाने में लगा रहता है। ऐसा करते समय वह कभी यह नहीं सोचते कि इसका परिणाम कितना भयानक होगा। वह अपने प्रभाव, पहुंच तथा शक्ति के आधार पर अगर अपराधियों को बचाने तथा बेगुनाहों को आरोपित ठहराने में सफलता प्राप्त कर भी लेंगे तो क्या इससे देश आतंकवाद की महामारी से पाक हो पाएगा? भारत विकास कर पाएगा? शांति तथा एकता का माहौल बन पाएगा? अगर नहीं तो उनका यह प्रयास देश तथा समाज के लिए कितना ख़तरनाक है, इसका अंदाज़ा करना होगा। अगर राजनीतिज्ञ अपनी राजनीतिक रणनीति के मद्देनज़र इस दिशा में सोचने का इरादा नहीं रखते तो अब वह समय आ गया है कि हिंदू और मुसलमान सहित भारतीय जनता इस वास्तविकता को समझे। पिछले कुछ वर्षों में पैदा हुई घृणा को दिल से निकाले और देश को आतंकवाद की महामारी से छुटकारा दिलाए ह्न ह्न
अफ़सोस कि जिस समय यह लेख लिख रहा हूं, कानपुर में हुए धमाके का समाचार लगभग सभी न्यूज़ चैनलों पर दिखाया जा रहा है। इस दौरान कानपुर के हमारे प्रतिनिधि ने डीआईजी प्रेम प्रकाश से बात की। डीआईजी प्रेम प्रकाश ने बताया कि आरंभिक जांच में मल्बे से बारूद की गंध मिली तथा जगह जगह सुतली के गुच्छे मिले, जिससे ऐसा अनुमान होता है कि बम बनाया जा रहा था। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि जिस तरह से यह धमाका हुआ है उससे लगता है कि यह विस्फोट शक्तिशाली था। बहरहाल पूर्ण वास्तविकता क्या है यह तो जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन इस समय मेरे सामने 25, 26, 27 अगस्त 2008 के समाचारपत्र भी हैं, जिनमें 23 अगस्त 2008 को कानपुर में होने वाले बम धमाकों का वह समाचार भी है। जिनमें दो लोग बम बनाते हुए मारे गए थे। मरने वालों में बजरंग दल का पूर्व नगर संयोजक भी शामिल था और इस अवसर पर मीडिया से बातचीत करते हुए कानपुर के आईजी एसएनसिंह ने कहा था कि टाइमर डिवाइस से यह बात पक्की है कि शहर में सीरियल धमाका करके तबाही मचाने का षड़यंत्र था लेकिन बम बनाते समय धमाका हो गया। मरने वालों के किसी आतंवादी संगठन के साथ संबंधों की जानकारी नहीं है, उनकी कोई आपराधिक पृष्ठभूमि भी नहीं मिली है। घटना स्थल से राजीव मिश्रा तथा भूपेंद्र सिंह के मोबाइल फ़ोन मिले हैं, उनकी जांच की जा रही है। स्थानीय ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा जांच करके उनके गिरोह से जुड़े लोगों तक पहुंचने का प्रयास किया जाएगा। ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ एटीएस की टीम भी जांच में शामिल है। समाचार के अनुसार आईजी एसएन सिंह ने जिस घटना को ख़ुफ़िया एजेंसियों की बड़ी चूक माना, प्रश्न यह पैदा होता है कि 2 वर्ष पहले हुई इस घटना, जिसे कानपुर के आईजी ने ख़ुफ़िया एजेंसियों की चूक माना और जांच जारी रखने की बात कही, क्या बाद में उनके गिरोह(नेटवर्क) तक पहुंचने में सफलता प्राप्त हुई। वह बम किनके लिए बना रहे थे, किसके इशारे पर बना रहे थे, उनका प्रयोग कहां होना था, बाद की जांच में क्या यह सच्चाई सामने आई? या पुलिस ने कुछ कारणों के आधार पर वह फाइल बंद कर दी। इस दिशा में सच्चाई का पता लगाने का प्रयास ही नहीं किया या सच्चाई को सामने लाना उनके लिए संभव नहीं हो सका। आज की दुर्घटना के बाद यह प्रश्न ज़रूर उठेंग, इसलिए कि पिछले बम धमाकों के बाद विभिन्न समाचारपत्रों ने जो समाचार प्रकाशित किए थे, उनमें देसी ग्रिनेड, टाइमर, स्पिलिंटर्स और बारूद का ढेर बरामद होने की भी पुष्टि हुई थी। एटीएस टीम ने घटना स्थल पर भूपेंद्र के घर से महत्वपूर्ण दस्तावेज़ ज़्ाब्त किए थे। वह दस्तावेज़ क्या थे? बम बनाने वालों के इरादे कितनी तबाही फैलाने वाले थे? क्या बाद में उसका ख़ुलासा पुलिस द्वारा मीडिया के सामने पेश किया गया? इस घटना का समाचार लिखने वाले अनुप बाजपाई के अनुसार धमाका भयानक तो था ही, परंतु उससे अधिक चैंकाने वाला था घटना स्थल का दृश्य। सेना जैसे दिखने वाले 11 ग्रेनेड तथा बारहवां ग्रेनेड टाइमर डिवाइस से जुड़ा हुआ था। साथ ही हर वह सामग्री जिससे बेगुनाहों का जीवन छीन लिया जाता है, मौजूद था। मरने वालों में दोनों के हिंदू संगठनों से संबंध थे, शायद यही कारण है कि प्रशासन को भारतीय जनता पार्टी के विधायक की उपस्थिति के बावजूद विश्व हिंदू परिषद के नेता अवध बिहारी को घटना स्थल पर बुलाना पड़ा। दुर्घटना के चार दिन बाद अर्थात 27 अगस्त 2008 को प्रकाशित समाचार के अनुसार बजरंग दल नेता के घर के निकट कानपुर में और विस्फोटक सामग्री बरामद। घटना स्थल से फ़िरोज़ाबाद का नक़्शा मिला। नक़्शे में रेलवे स्टेशन तथा तहसील पर चिन्ह लगे थे, जिसे देख कर पुलिस के होश उड़ गए, परंतु बाद में क्या हुआ। महाराष्ट्र के नगर नानदेढ़ में हुए बम धमाके भी बजरंग दल कार्यकर्ताओं की ऐसी ही आतंकी कार्रवाई के परिणाम थे, जहां से नक़ली दाढ़ी, टोपी और मस्जिद के नक़्शे बरामद हुए थे।
काश कि हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियां तथा अन्य ज़िम्मेदार दुर्घटना के तुरंत बाद जितनी चुस्ती फुर्ती दिखाते हैं, बाद में भी उसे क़ायम रखें, अपराधियों के अपराध की तह तक पहुंचें, उनसे जुड़े अन्य व्यक्तियों का पता लगाएं और उनमें जो भी सज़ा के पात्र हैं, उन्हें जेल की सलाख़ों के पीछे भेजने से चूक न करें तो इस प्रकार की घटनाओं पर रोक लग सकती है, वरना एक कानपुर क्या देश के न जाने कितने शहर ऐसी तबाही के निशाने पर नज़र आ सकते हैं, जिनसे छुटकारा पाने के प्रयास के रूप में आजके इस लेख का आरंभ किया गया था मगर अफ़सोस कि समापन तक पहुंचते-पहुंचते फिर ऐसी ही एक घटना से गुज़रना पड़ा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment