Wednesday, October 13, 2010

देखा! आ गई ‘हिन्दू महासभा’ अपने रंग में
अज़ीज़ बर्नी

अपने पिछले लेख में जिसका शीर्षक था ‘‘अब सब एक राय हों, सुप्रीम कोर्ट, समझौता या उस फ़ैसले पर अमल!’’ जो कि 11 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित किया गया था, के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के संबंध में कुछ दिन तक कुछ भी लिखने का इरादा नहीं था, लेकिन इस विषय पर अध्य्यन का सिलसला जारी था, जारी है और शायद देर तक जारी रहेगा। क़ानून की जानकारी नहीं है, परंतु बाबरी मस्जिद मुक़दमे से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ लगातार अध्य्यन में हैं। ‘‘सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड’’ की ओर से पैरोकार जनाब ज़फ़रयाब जीलानी की रिपोर्ट भी और उनके द्वारा अदालत में की गई बहस के प्रमुख बिंदु भी, जो सैकड़ों पृष्ठों पर आधारित हैं। इस समय मेरे सामने हैं और देश के अन्य प्रमुख क़ानून विशेषज्ञ भी सम्पर्क में हैं। सभी बहुत गंभीरता से चिंतित हैं और प्रयत्नशील हैं कि सर्वोच्च न्यायालय जाने की स्थिति में किस प्रकार की तैयारी हो कि सफलता को निश्चित बनाया जा सके। कई महत्वपूर्ण लेख जो विभिन्न समाचार पत्रों मंें प्रकाशित हुए वह भी नज़र से गुज़रे, लेकिन मेरे अनुरोध पर जनाब प्रशांत भूषण ने अपना जो लेख मुझे मेरे ई-मेल पर भेजा, शायद अब तक का सबसे मूल्यवान लेख है, जिसमें क़ानून की रोशनी में कम से कम शब्दों में बहुत दूर तक प्रभाव डालने वाली बातें लिखी गई हैं। मैं अपने आजके इस संक्षिप्त लेख के साथ प्रशांत भूषण साहब का यह लेख भी प्रकाशित करने जा रहा हूं। परंतु पहले कुछ वाक्य इस समय तक की वस्तुस्थिति पर। यह तो 30 सितम्बर 2010 को ही साफ़ नज़र आने लगा था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला सबके लिए स्वीकार्य नहीं होगा और सर्वोच्च न्यायालय जाएगा ही। फिर भी अपना विचार व्यक्त करते समय मैंने अपने पहले लेख में ही यह लिख दिया था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में बाबरी मस्जिद का पुनर्निमाण भी संभव है और राम मंदिर भी, इसलिए इस निर्णय को स्वीकार करने पर विचार किया जाए। अंदाज़ा उस समय भी यही था कि इस समय योजनानुसार प्रसन्नता प्रकट करने वाले शीघ्र ही अपने वास्तविक रंग में दिखाई देंगे और मुसलमानों की चंद रोज़ की ख़ामोशी या इस फ़ैसले को स्वीकार करने का इरादा उनकी योजनाओं को विफल बना देगा, उन्हें मुसलमानों पर यह आरोप लगाने का अवसर नहीं मिलेगा कि वे इस समस्या का समाधान नहीं चाहते। मुसलमानों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले को अस्वीकार कर और अधिक वर्षों के लिए इस विवाद को जीवित रखने और माहौल को तनावपूर्ण बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन अब जबकि बाक़ायदा सभी समाचार पत्रों में यह समाचार आ चुका है कि ‘हिंदू महासभा’ ने अयोध्या मसले पर केविएट दायर कर दी है, अर्थात उनकी ओर से आगे की कार्यवाही के लिए एक गंभीर पहल की जा चुकी है, जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वह इस फ़ैसले को अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने का इरादा रखते हैं, इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय जाने के लिए मुसलमानों की कोई भी तैयारी उनकी ओर से पहल नहीं ठहराई जा सकती। अखिल भारतीय हिंदू महासभा द्वारा दायर की गई केविएट का पूरा ब्योरा इस समय मेरे सामने है, जिसमें कहा गया है कि अयोध्या पर किसी भी पक्ष के आवेदन पर फ़ैसला करने से पूर्व अदालत को हिंदू महासभा के स्टैंड को सुनना होगा। हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वामी चक्रपानी ने कहा है कि महासभा सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की तैयारी कर रही है और इस संबंध में न्यायिक विचार विमर्श जारी है। हिंदू महासभा के राज्य अध्यक्ष कमलेश तिवारी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि एक तिहाई भूमि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को दिए जाने का हिंदू महासभा विरोध करती है तथा अयोध्या आन्दोलन के लिए नई शुरूआत करेंगे। उनका दावा है कि संपूर्ण विवादित भूमि पर राम लला का अधिकार है। हिंदू महासभा द्वारा व्यापक स्तर पर ‘जन आन्दोलन’ चलाने के लिए सभी ज़िलों का दौरा करके ज़िला इकाइयों को निर्देष दिए जा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायालय के बाहर वह किसी भी समझौते के विरुद्ध हैं और उसका संवैधानिक हल ही चाहते हैं। हिंदू महा सभा की महासचिव इंदिरा तिवारी ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि हम किसी भी क़ीमत पर विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण चाहते हैं।
यह सभी बयानात, इरादे, तैयारियां और उनको अमली जामा पहनाने का सिलसिला पूरी तरह साफ़ कर देता है कि हिंदू महासभा की योजना क्या है। अब कम से कम सभी शांति प्रिय नागरिकों और सरकार को समझ लेना चाहिए कि वह कौन वह हैं, जो शांति तथा एकता की ख़ातिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले पर भी विचार कर रहे थे, जिसे स्पष्ट शब्दों में सभी क़ानून विदों ने क़ानून के विरुद्ध दिया गया फ़ैसला घोषित कर दिया था और जिसमंे मुसलमानों को न्याय न मिलने की बात बहुत ही प्रभावित ढंग से कही गई थी। भारतीय लोकतंत्र, क़ानून का वर्चस्व जैसे प्रश्न केवल मुसलमानों ने ही नहीं, बल्कि देश के न्याय प्रिय ग़ैर मुस्लिमों ने बहुत प्रभावित ढंग से उठाए थे। अब बावजूद इस सबके प्रशंसा करनी होगी बाबरी मस्जिद स्वामित्व मामले में मुसलमानों की ओर से पेटिशनर सैंट्रल सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की कि उसने फ़ैसला पक्ष में न आने की स्थिति में भी संयम तथा धैर्य से काम लिया और तुरंत सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात नहीं कही, बल्कि बोर्ड के अध्यक्ष ज़फ़र अहमद फ़ारूक़ी ने अपने वकील ज़फ़रयाब जीलानी के सर्वोच्च न्यायालय जाने के बयान को उनका निजी विचार क़रार दिया, जब उन्होंने निर्णय आने के तुरंत बाद उच्चतमन्यायालय जाने की बात कही। इरादों के इस अंतर की यहां इसलिए चर्चा की गई कि यह हक़ीक़त इतिहास के पन्नों में दर्ज रहे।
अब जैसा कि अंदाज़ा है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस मुक़दमें के चले जाने के बाद पूरी सुनवाई नए सिरे से होगी, इसलिए जितना समय सर्वोच्च न्यायालय में इस मुक़दमें में लगा लगभग उतना ही समय या उससे अधिक ही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने में लग सकता है। वह फ़ैसला क्या होगा किस हद तक क़ानून की रोशनी में होगा और क्या उसे अमली जामा पहनाया जा सकेगा, यह सब बहुत बाद की बातें हैं। लेकिन आजके हालात से और हिंदू महासभा की इस पहल से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि जो फैसला उनके पक्ष में है अगर वह उससे भी संतुष्ट नहीं हैं, ‘जन आन्दोलन’ चलाने की तैयारी कर रहे हैं, ज़िला स्तर पर उसकी शुरूआत की जा चुकी है और फिर वह आन्दोलन क्या और कैसा होगा, उसकी तैयारी के परिणाम क्या हो सकते हैं, भारत सरकार अच्छी तरह समझ सकती है, इसलिए उसको इस ओर मुख्य रूप से ध्यान देना होगा। इसलिए कि पिछले सभी कटु अनुभव हमारे सामने हैं हमने हमेशा ही कहा कि हम क़ानून का महत्व स्वीकार करते हैं। हमने अतीत में भी क़ानून का सम्मान किया है और इसके बावजूद कि यह फैसला क़ानून के जानकारों की राय में क़ानून के अनुसार नहीं था, मुसलमानों ने कोई सख़्त प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, अगर फ़ैसलों को ले कर विभिन्न विचार भी सामने आएं तो न्यायालय के सम्मान के साथ अपनी बात को इस तरह कहने का प्रयास किया गया कि हर हालत में देश की शांति तथा एकता क़ायम रहे। हालांकि न्यायालय के इस फ़ैसले को स्वीकार करने की राय देने वालों को कुछ क्षेत्रों में आलोचना का निशाना भी बनना पड़ा, परंतु देश की सुरक्षा के मद्देनज़र यह सब भी नज़रअंदाज़ किया गया, लेकिन अब चूंकि दूसरे पक्षकारों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय जाने की मंशा साफ़ ज़ाहिर हो चुकी है तो सुन्नी सैंट्रल वक़्फ़ बोर्ड, मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड, जमीअत उलेमा-ए-हिंद तथा अन्य संगठन भी सर्वोच्च न्यायालय जाने की कार्यवाही पर विचार करें तो अब यह बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा इसलिए कि पहल दूसरी ओर से की जा रही है। बहरहाल अब इस विषय में और अधिक लिखने के बजाए चाहता हूं कि अपने पाठकों की सेवा में श्री प्रशांत भूषण का वह लेख प्रस्तुत करूं, जिसकी चर्चा मैंने आज के इस लेख के आरंभ में ही की थी। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हमें क्यों सर्वोच्च न्यायालय जाना चाहिए और वह क्या कारण हैं, जिनके आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला सर्वोच्च न्यायालय में प्रथम दृष्टि में ही अपना महत्व खो सकता है, रद्द किए जाने योग्य समझा जा सकता है, साफ़ शब्दों में श्री प्रशांत भूषण के द्वारा इन बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है।
‘‘अयोध्या फ़ैसले पर प्रशांत भूषण’’
बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला न केवल न्यायिक दृष्टि से अस्वस्थ तथा असंतुलित है बल्कि राष्ट्र के धर्मनिर्पेक्ष ताने-बाने को भी बाधित करने वाला है। फ़ैसले में न्यायिक त्रुटियाँ पूरी तरह मौजूद हैं। अदालत ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा दायर 1961 की अर्ज़ी को हदबंदी के आधार पर ख़ारिज कर दिया, लेकिन बाल भगवान, राम लला द्वारा दायर 1989 की अर्ज़ी को समय के साथ बरक़रार रखा। 2 जजों (अग्रवाल और शर्मा) का कहना है कि वह यह नहीं कह सकते कि बाबरी मस्जिद का निर्माण कब किया गया और किसने किया। लेकिन इसके साथ ही वह यह कह सकते हैं कि बाबरी मस्जिद मंदिर ध्वस्त करके निर्माण की गई। जस्टिस शर्मा ने यह माना कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर विशाल मंदिर था और यही राम के पिता दशरथ का महल था। उनके लिए एएसआई की 1988 की रिपोर्ट भी आश्चर्यजनक है जिसमें यह कहा गया है कि दो हज़ार वर्ष से पूर्व अयोध्या में मानव कंकालों का वजूद नहीं था और राम का जन्म यह बताता है कि लाखों वर्ष पूर्व उन्होंने अपना स्थान बनाया। यहां तक कि पुराने मंदिर की मौजूदगी एएसआई की 2003 की रिपोर्ट के आधार पर मान ली गई, जिसमें इसका कोई ब्योरा नहीं है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर ध्वस्त करके किया गया। बल्कि इसमें यह कहा गया है कि मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर के अवशेष और मल्बे मिले हैं। सर्वे रिपोर्ट में इसका कोई विवरण नहीं है और न ही उसने इस सच को स्वीकार किया है कि मस्जिद की भूमि के नीचे मिलने वाले मलबे से उसकी पुष्टि होती है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर ध्वस्त करके किया गया। मस्जिद के नीचे मलबे में पशुओं की अस्थियां भी मिलीं जिस पर गारा चूना इत्यादि भी हिंदुओं के मंदिर को नकारता है उसी प्रकार मस्जिद के निर्माण की पुष्टि करता है।
सबसे अधिक चैंकाने वाली बात यह है कि फ़ैसले में बाबरी मस्जिद के गंुबद वाली ज़मीन पर राम लला के स्वामित्व को मान लिया (जिसका अर्थ है कि वीएचपी गार्जियन है) इसलिए कि जजों ने हिंदुओं को यह अधिकार दे दिया कि गंुबद के नीचे राम के जन्म स्थान पर धार्मिक प्रार्थना करे। जजों ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया कि गुंबद के नीचे राम का जन्म स्थान है। क्या सर्वे रिपोर्ट हिंदुओं की इस कल्पना का समर्थन करती है? हम यह नहीं मान सकते हैं कि हिंदुओं की अक्सरियत इसको स्वीकार करेगी। दरअसल हिंदू 1955 से मस्जिद परिसर में धार्मिक प्रार्थनाएं करते आए हैं।
यह इतिहास इसके विरुद्ध है कि 1949 में मस्जिद के गंुबद के नीचे राम लला पैदा हुए। इसके बावजूद दिसम्बर 1949 में गंुबद के नीचे श्री राम की मूर्ति रख दी गई। फिर राम जन्म भूमि लिब्रेशन मूवमेंट हिंदुओं से सहयोग के लिए सामने आया। इस आंदोलन से राम के नाम पर अधिकतर वह लोग जुड़े जिनके अंदर कट्टरता तथा धार्मिक उनमाद पाया जाता था और मुस्लिम शासकों के प्रति प्रतिशोध की भावना काम कर रही थी, लेकिन क्या राम के उस स्थान पर जन्म के बारे में हिंदुओं की आस्था होना काफ़ी है। अगर ऐसा हो भी जाए तो क़ानूनी आधार पर ‘राम लला और उनके गार्जियन वीएचपी’ को विवादित भूमि नहीं दी जा सकती है। किसी की आस्था के आधार पर विवादित सम्पत्ति का विभाजन किया जा सकता है, अगर ऐसा होता है तो यह बहुत ही ख़तरनाक है। विशेषरूप से हमारे देश के भीतर जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। अगर देश में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता इसी तरह स्थान पाती रही तो बहुसंख्यक वर्ग, बलवान लोग निर्बलों की सम्पत्तियों तथा जायदादों पर आस्था को आधार बनाकर क़ब्ज़ा करते रहेंगे। क्या यह फ़ैसला ऐसा नहीं है कि जिसमें बहुसंख्यकों का ध्यान रखते हुए तथा अल्पसंख्यक वर्ग को दलित तथा आदिवासी मानते हुए किया गया। जैसा कि बृहमणवादियों के समय में हुआ करता था।
फ़ैसले का एक भाग क्या समझौते का आधार बन सकता है। फ़ैसले के उस भाग में जिसमें यह कहा गया है कि हिंदू-मुस्लिम दोनों 1955 से ही विवादित स्थल पर धार्मिक प्रार्थनाएं करते आए हैं क्या एक परिसर में संयुक्त रूप से दोनों समुदायों के लोग पूजा कर सकते हैं? तो दोनों समुदाय के लोगों को संयुक्त रूप से भूमि विभाजित कर दी जाए। लेकिन राम लला के जन्म स्थान को राम जन्म भूमि लिब्रेशन मूवमेंट के मद्दे नज़र राम लला को दे दी जाए, इस प्रकार का फ़ैसला क़ानून और शिष्टाचार की दृष्टि में चिंताजनक है, जिससे धार्मिक उनमाद को सर उभारने का अवसर मिलेगा और वह मुस्लिम विरोधी भावनाओं के तहत उनके अन्य पूजा स्थलों पर भी क़ब्ज़े की कोशिश करेंगे और फिर मामला न्यायालय में जाएगा और फ़ैसला आस्था के आधार पर उनके पक्ष में दे दिया जाएगा।
कुछ समझदार लोग यह कह रहे हैं कि मुसलमानों को इस फ़ैसले को स्वीकार कर लेना चाहिए। शायद उन्हें यह मालूम नहीं कि यह एक चापलूसी है और इससे धार्मिक उनमाद और साम्प्रदायिकता उसे एक विजय के रूप में लेगी और आगे भी अन्य पूजा स्थलों पर क़ब्ज़े के लिए मार्ग प्रशस्त कर लेगी। फासीवादी शक्तियों की मँुह भराई करके अन्याय की क़ीमत पर शांति नहीं ख़रीदी जा सकती। क्योंकि वह बहुत अधिक समय तक क़ायम नहीं रह सकती। हमें यह याद रखना चाहिए कि इतिहास का एक पार्ट उदाहरण बन जाता है। कुछ पश्चिमी देशों का प्रयास हिटलर के रास्ते में विफल हुआ यह मामला भी इसी के समान है। इसलिए हम यह महसूस करते हैं कि इस फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सभी समुदाय के लोगों के लिए स्वीकारीय होगा। हम यह भी समझते हैं कि अगर सर्वोच्च न्यायालय फ़ैसले में संशोधन करके सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को उसकी भूमि सुपुर्द करेगा तो यह भाईचारे का संकेत होगा जिसमें भूमि मस्जिद की होगी और साइड में मंदिर होगा। यहां भूमि का महत्व नहीं है बल्कि सिद्धांत का महत्व है। क्या हमारा देश धर्मनिर्पेक्ष कानून द्वारा चलाया जाएगा अथवा आस्था और अराजकता द्वारा। यह ऐसा मामला है जिसमें सब परेशान हैं।

1 comment:

आपका अख्तर खान अकेला said...

aziz bhayi hmne to phle hi khaa thaa kutte ki dum kitne hi din nli men rkho tedi ki tedi hi rhegi kher aap smjh gye ab allah inhen bhi smjhaa degaa nhin smjhe to desh or desh kaa vqt khud inhen smjhaa degaa. akhtar khan akela kota rajthan