Friday, October 1, 2010

क्या ज़रूरी है उच्चतम न्यायालय जाना-ज़रा ग़ौर करें......!
अज़ीज़ बर्नी

30 सितम्बर 2010 एक अत्यंत कठिन दिन था, भारत की जनता के लिए और सरकारों के लिए भी, केन्द्रीय और राज्य सरकारों सहित! जिन्होंने 6 दिसम्बर 1992 देखा है, वह भली भांति इस बात का अंदाज़ा कर सकते थे, कि इस दिन,अर्थात 30 सितम्बर 2010 को कुछ भी हो सकता था। जिस तरह की तैयारियांे की बातें फिज़ाओं में गर्दिश करती रही थीं वह किसी से ढकी-छुपी नहीं। पाठकों को याद होगा, हमने अपने इसी काॅलम में 20 सितम्बर को ‘‘6 दिसम्बर न बनें 24 सितम्बर यह ख़याल रहे...!’’ के शीर्षक से लिखे गये लेख के माध्यम से प्रदेश में 10 हजार हिन्दू योद्धाओं की भर्ती के मामले को सामने रखा था और बाबरी मस्जिद के सिलसिले में उच्च नयायालय में चल रहे मुकदमें के फैसले को दृष्टिगत रखते हुए अपनी चिंता प्रकट की थी। हमारे लेख के प्रकाशन के तुरंत बाद राज्य सरकार ने कार्रवाई की और भर्ती करने वालों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (छै।) के तहत गिरफ्तार कर लिया। ऐसे मामले और भी हो सकते थे, जो हमारे सामने नहीं आए। अतः यह स्थिति चिंता का एहसास तो कराती ही थी। अयोध्या विवाद को लेकर ही गुजरात में हुए दंगों को हम सब ने अपनी आंखों से देखा है। किस तरह साबरमती एक्सप्रेस में सवार कुछ लोगों की नारेबाजी में पूरे राज्य को साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में ला दिया। शायद भारत का इतिहास भी इसे कभी भुला नहीं पाए।
6 दिसम्बर 1992 के बाद देश को किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, महाराष्ट्र में किस तरह एक सम्प्रदाय विशेष का नरसंहार किया गया, जस्टिस श्री कृष्ण आयोग की रिपोर्ट में आज भी वे सभी तथ्य स्पष्ट शब्दों में दर्ज हैं। गत कुछ सप्ताह से हर व्यक्ति भयभीत था कि बाबरी मस्जिद मिल्कियत के विवाद को लेकर 24सितम्बर को जो फैसला होना है उसके बाद पूरे देश के हालात क्या होंगे। विदेशों में बसे या रोज़गार की तलाश में रह रहे भारतीयों ने प्रायः फोन पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए सम्पर्क स्थापित किया। फिर यह तारीख परिवर्तित हुई,और 30 सितम्बर का दिन निर्धारित किया गया। सरकारी स्तर पर जिस प्रकार की तैयारियां थी, उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने जिस तरह बार-बार चिंता जताई, श्रीमती सोनिया गांधी, देश के प्रधानमंत्री डाॅक्टर मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने जिस प्रकार शांति एवं एकता बनाये रखने की बार बार अपीलें की, उससे स्पष्ट होता था कि आम भारतीय ही नहीं सरकार भी चिंतित है कि फैसले के बाद देश किन परिस्थितियों से गुजर सकता है। आज इस समय जब मैं यह लेख लिख रहा हूं ,फैसले को आये 24 घंटे से ज्यादा का वक़्त गुजर चुका है। अल्लाह का करम है, कहीं से किसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है।यह इस फैसले की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है, निश्चित रूप से। हमारे पाठकों को याद होगा, मैंने अपने पिछले लेख में लिखा था कि ‘फैसला तो आये मगर फासला न बढ़ने पाये’,(21.09.2010), उसके बाद न चाहते हुए भी लगातार लिखने का सिलसिला रोकना पड़ा। दरअसल इस बीच दिल्ली में शांति एवं एकता बनाये रखने और साम्प्रदायिक सद्भावना का संदेश देने के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें मैंने विचार व्यक्त करते हुए कुछ विशेष व्यक्तियों का नाम लेकर यह कहा कि अगर इस समय ये और इन जैसे लोग खामोश रहें तो बेहतर होगा। इसका कारण अतीत के कड़ुवे अनुभव थे। यद्यपि इस बार सभी ने बड़ी सावधानी से काम लिया। फिर मुझे लगा कि अगर अपने इस वाक्य के बाद इस विषय पर लिखने का सिलसिला जारी रखता हूं तो नैतिक रूप से यह उचित नहीं होगा कि मैं अन्य लोगों से यह अपील करूं कि कानून को अपनी राह चलने दें, इस विषय पर अपने विचारों की अधिक अभिव्यक्ति न करें और स्वंय हर दिन लिखता रहूं। बहरहाल आज मैं परवरदिगार-ए- आलम के बाद भारत की जनता और भारत सरकार का शुक्रिया अदा करता हूं ,जज साहेबान को बधाई देता हूं कि एक ऐतिहासिक निर्णय जो क़ानून से अधिक आस्था और भावनाओं को सामने रख कर दिया गया फैसला है। फिर भी इसकी पसंद-नापसंद से बढ़कर इस वास्ताविकता को स्वीकार करने से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश की शांति और एकता बनी रही, जो वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी।
न्यायिक दृष्टिकोण से अभी इस निर्णय पर बात करने की काफी गुंजाईश है। अदालती कार्रवाई का रास्ता भी खुला है। तीन महीने के अन्दर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है। लगभग 8 हजार पृष्ठों पर आधारित इस निर्णय का अभी तक हमारे और हमारी टीम द्वारा अध्ययन नहीं किया जा सका है और चन्द दिनों में यह संभव भी नहीं है। जो कुछ जितना भी मीडिया और इंटरनेट द्वारा सामने लाया गया है, वह भी बात को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कम नहीं है। हमारे धार्मिक और राष्ट्रीय नेताओं की जो प्रतिक्रियाऐं सामने आई हैं, उनकी रौशनी में भी एक पत्रकार के तौर पर अपने विचारों को प्रकट किया जा सकता है, मगर मैं अपने इस लेख के माध्यम से अपने पाठकों से जो निवेदन करना चाहता हूं, वह भी मेरे लिए उतना ही मुश्किल फैसला है, जितना कि यह ऐतिहासिक निर्णय देने वाले जस्टिस एस.यू खान, जस्टिस धर्मवीर शर्मा और जस्टिस सुधीर अग्रवाल के लिए मुशिकल रहा होगा।
‘‘बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मिल्कियत’’ मुकदमे के वकील मोहतरम जफरयाब जीलानी सहित अन्य सभी मुस्लिम नेता और उलेमा-ए-किराम का आभार प्रकट किया जाना चाहिए कि आज जो भी फैसला हमारे सामने है, यह उनकी रणनीति, संघर्ष और दुआओं का परिणाम है। जफरयाब जिलानी साहब का इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट जाने का बयान मुकदमे से जुड़े एक वकील का स्वभाविक बयान है। उच्च न्यायालय के बाद उच्चतम न्यायालय जाने की गुंजाइश लगभग सभी मुकदमों में बाकी रहती है, लेकिन क्या इस मामले में ऐसा किया जाये? हमारे कई धार्मिक नेताओं ने भी उच्चतम न्यायालय जाने की राय प्रकट की है। मुसलमानों की राजनीति करने वाले कुछ राजनीतिक नेताओं ने भी इस फैसले से असंतुष्टि प्रकट करते हुए कहा है कि यह निर्णय तथ्यों पर नहीं, आस्था की बुनियाद पर दिया गया है। मैं अत्यंत सम्मानपूर्वक यह अनुरोध करना चाहता हूं कि खुदा के लिए अब इस विषय पर राजनीति बन्द कर दें। और हम जो सुप्रीम कोर्ट जाने का इरादा रखते हैं, एक बार फिर इस इरादे पर पुनर्विचार करें, अपने इस फैसले पर और गौर करके देखें और फैसला जो 30 सितम्बर को उच्च न्यायालय के जज साहेबान द्वारा सुनाया गया, उस पर अत्यंत गंभीरता के साथ यह भी विचार करें कि अगर यह फैसला नहीं होता और वह होता जो हम चाहते थे, बल्कि स्पष्ट शब्दों में अगर कहें कि उस स्थानविशेष, जिसे आस्था की बुनियाद पर रामजन्म भूमि कहा जाता है और अदालत ने भी इसी को बुनियाद मानते हुए निर्णय दिया है, जबकि मुसलमानों का मानना है कि यह वह स्थान है, जिस जगह पर मस्जिद मौजूद थी और यह जगह मुसलमानों को ही मिलनी चाहिए थी, भले ही वह समस्त भूमि का एक तिहाई भाग ही क्यों न होती तो इस फैसले के बाद देश की स्थिति क्या हो सकती थी, बहुसंख्यक जनता की प्रतिक्रिया क्या हो सकती थी। अगर हम इसे भी सरकार की जिम्मेदारी मान लें कि निर्णय को लागू कराना और शांति स्थापित रखना तो सरकारों का काम है तो भी क्या यह संभव था कि वहां नये सिरे से उसी स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया जा सकता? हां, यह हो सकता था कि फिर एक नये विवाद के साथ यह मामला एक लंबे समय के लिए विवाद का कारण बना रहता और हर दिन नफरतों में वृद्धि करता रहता फिर वर्षों बीत जाने के बाद भी जब यह फैसला आता तो हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भय और आतंक का वातावरण पैदा कर देता। अब अगर हम सुप्रीम कोर्ट में जाने का इरादा रखते हैं तो किस निर्णय की उम्मीद में, किस फैसले की चाहत में, वही न जिसका उल्लेख मैंने अपनी उपरोक्त कुछ पक्तियों में किया है। इसके विपरीत अगर हम यह तय करते हैं कि अदालत ने जो भी फैसला दिया है हम उसे खुशी के साथ स्वीकार करते हैं, सुप्रीम कोर्ट जाने का इरादा भी छोड़ देते हैं, हिन्दू भाईयों से अपील करते हैं कि एक भव्य मंदिर का निर्माण करें, उस भूमि पर जो न्यायालय द्वारा उन्हें दी गई है, हम उनके सहयोगी साबित होंगे और हम मस्जिद का निर्माण करते हैं, उस जगह पर जो अदालत ने मस्जिद के लिए निर्धारित की है। एक ही जगह खड़े ये दो धार्मिक स्थल मंदिर और मस्जिद के रूप में आने वाली पीढ़ियों के लिए संदेश देंगे कि ये हमारे देश की उस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक हैं, जिनके लिए हमारा देश पूरी दुनिया में एक अलग पहचान रखता है और यही वह ज़ज़्बा है जिसने हज़रत इमाम हुसैन को कर्बला के मैदान से भारत की तरफ चले आने की इच्छा को व्यक्त कराया था और इसके विपरीत अगर हम यह निर्णय करते हैं कि नहीं, हमें तो सुप्रीम कोर्ट जाना ही है, नतीजा कुछ भी हो तो इसका मतलब हम मौजूदा फैसले को नामंजूर करते हैैं। हमें अदालत द्वारा दी गई भूमि पर मस्जिद और मंदिर का निर्माण मंजूर नहीं है। क्या इसका सकारात्मक संदेश जायेगा? क्या फिर से एक नये विवाद की शुरूआत नहीं होगी? हम फिर से उसी भय और आतंक की स्थिति में नहीं पहुंच जायेंगे, जिसमें 30 सितम्बर से पहले थे। फिर यह तीन महीने की अवधि तो सुप्रीम कोर्ट मंे अपील दायर करने के लिए है। सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला सुनाने के लिए कितना समय चाहिये होगा, हमें इसका अंदाज़ा कर लेना चाहिए। यह फैसला 60 साल की जद्दोजेहद और हजारों बेगुनाहों की जानें चली जाने के बाद आया है। अरबों रूपये की समपत्ती नष्ट होने, करोड़ों भारतवासियों को खून के आंसू रूलाने के बाद आया है, फिर अगर ऐसे ही नफरत का माहौल पैदा हो और 15-20 वर्ष तक मुकदमा चलता रहे, अर्थात बाबरी मस्जिद की शहादत 6 दिसम्बर 1992 के 18 साल बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची, जो आज हमारे सामने है। अब 8 हजार पृष्ठों पर आधारित इस निर्णय का सुप्रीम कोर्ट अध्ययन करे, जिसके लिए उसे वर्षों का समय चाहिए होगा, अर्थात फिर 15-20 वर्ष यह विवाद ज़िन्दा रहेगा (यह अवधि कम या और भी अधिक हो सकती है) फिर एक नई पीढ़ी उन परिस्थतियों का सामना करने के लिए विवश होगी, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उत्पन्न हो सकती है। फिर अगर अदालत (सुप्रीम कोर्ट)ने इसी फैसले को उचित करार दिया या इस जैसा ही कोई फैसला सामने रखा तो उस परिस्थिति में हम क्या करेंगे। इस सारी जद्दोजेहद के दौरान हिन्दू भाईयों तक यह संदेश तो चला ही जायेगा कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी हम एक लंबी अवधि तक अर्थात सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने की अवधि तक राम मन्दिर के निर्माण में रूकावट बने रहे। हमें उनकी भावनाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं है और अब जो भी कुछ हमारे हक़ में हुआ है, वह न्यायालय (उच्चतम न्यायालय) का निर्णय है, जिसमें मुसलमानों की सौहार्द की भावना शामिल नहीं है। दूसरी स्थिति में निर्णय यदि स्पष्ट रूप से मुसलमानों के पक्ष में आ जाता है तो फिर वही समस्या जिससे आने वाली पीढ़ियों को किन परिस्थितियों से झूझना पड़ेगा। क्या हमारे लिए यह विवेकपूर्ण निर्णय होगा कि हम आज की इस समस्या को अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाऐं और फिर हमें यह भी ज़हन में रखना चाहिए कि हम सिर्फ और सिर्फ इससे बेहतर निर्णय की उम्मीद ही क्यों करें। यदि निर्णय इससे बुरा हुआ तो.................... अभी इस निर्णय में मुसलमानों के लिए जो गुंजाइश रखी गई है, वह भी न रही तो.................. जो सामने है, वह भी गया और कड़ुवाहट अलग से।
अतः क्या यह उचित नहीं होगा कि सार्वजनिक स्तर पर मुख्यतः मुसलमानों के अंदर इस बात पर विचार विमर्श का सिलसिला आरम्भ हो कि हम इस स्थान पर जो न्यायालय द्वारा मस्जिद के लिए निर्धारित की गई है, एक शानदार मस्जिद (जिसमें प्रतिदिन नमाज़ भी अदा की जाती रहे) का निमार्ण करें और मंदिर को दिए जाने वाले स्थान पर खुशी-खुशी राम मंदिर के निर्माण में पहल करने की भावना प्रकट करें। और यह भी ज़हन में रखें कि श्रीराम जन्मभूमि एक ही हो सकती है, हम दूसरी मस्जिदों के लिए इस मामले को उदाहरण क्यों समझें। फिर भी अगर यह शंका हो तो इस दिशा में उचित क़दम उठायेें। इन शंकाओं को दूर किया जाए। आज पैदा होने वाले बेहतर वातावरण में यह संभव है। जिस तरह वे मुसलमान भाईयों से अपील कर रहे हैं, उसी तरह अपनी शंकाओं को सामने रख कर मुसलमान हिन्दू भाईयों से अपील करें और ऐसे विवादों को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर दें, जो कल फिर हमारे दिलों में नफरत की दीवारें खड़ी कर सकते हैं।

5 comments:

आपका अख्तर खान अकेला said...

बरनी साहब आदाब आप सही कहते हें लेकिन दस्तावेजी साक्ष्यों को निगल कर अपने इस देश में अगर ऐसे राजीनामे वाले फेसले होने लगें तो फिर कानून क्या रह जाएगा जनाब जब मुकदमा हुआ हे तो आणुनी किताबों और गवाही से इसे तय करना चाहिए और जब फेसला कानून के सभी सिद्धानतों को ताक में रख क्र दिया गया लगता हे तो इन्साफ के लियें अगर कोई सुप्रीम कोर्ट जाना चाहता हे तो कोई दिक्कत किसी को नहीं होना चाहिए हाँ इससे हाईकोर्ट के फेसले की सही स्थिति जनता के सामने आ सकेगी लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट कोई फेसला देता हे तो फिर इसको मानना चाहिए बर्नी साहब फेसला और उस फेसले में तय किये जाने वाले बिंदु और सम्बन्धित कानून और फिर दस्तावेजी साक्ष्य जरुर देख लें देश जानता हे के फेसला क्या होना चाहिए था और फेसला क्या दिया गया हे लेकिन चलो फेसले का सब सम्मान करें और कानूनी तरीके से इसके लियें सुप्रीम कोर्ट में इसे अंतिम रूप से निप्त्वायें फिर भाई चारा बनाये रखें वेसे हदीस हे के काबे से इन्सान की जिंदगी बेहतर हे लेकिन यहाँ अभी ऐसे स्थिति नहीं हे हमें हिन्दुस्तान के कानून और सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा करना चाहिए लेकिन अगर मालिकाना हक सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास कानूनी रूप से अत हे तो उसे भी फराख दिली दिखा कर इसे मन्दिर निर्माण के लियें खुद दान में दे देना चाहिए यह जज्बात या धर्म की लड़ाई नहीं यह न्याय की लड़ाई हे और इंशा अल्लाह सुप्रीम कोर्ट का फेसला सच्चा होगा . अकह्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

Debi Prasad Choudhary said...

Here is my suggestion. If you build a mosque at that place, only few people use it. There will not be any economic advantage either for muslims not for hindus. So, let us assume we plan to make ram temple purely from economic considerations. Let us say Hindus buy the one third land from Muslim board for some 150 million dollars. The Muslim board spends it to create shops and hotels in Ayodhya that are given to local muslims. Promote this place as religious tourism. This will actually help a lots of families, I think

HUSAINICHANNEL said...

DEAR BURMEY SIR,
I AGREE WITH THE VERDICT, I THINK THE SUNNI WAQF BOARD SHOULD TAKE THE 1 3RD OF ITS LAND AND START BUILDING MOSQUE...WE SHOULD ALSO SUPPORT MANDIR IN ITS CONSTRUCTION...@DEBI SINGH JI, I TOTALLY DISAGREE WITH YOUR SUGGESSTION, YOU ARE WATCHING YOUR AASTHA ONLY MUSLIMS DO HAVE AASTHA IN THEIR MASJID, THEY CAN ALSO GIVE U 500 MILLION DOLLARS TO LEAVE 2 3RD OF THE PLACE FOR MASJID, BUT THIS WILL NOT BE THE RIGHT MESSAGE...WE HAVE TO GIVE A BETTER FUTURE TO OUR NEXT GENERATION...WE WILL HAVE TO GIVE THEM THEIR OWN RIGHTS..AND SHOW THEM THAT HOW WE LIVED AND TEACH THEM THE MESSAGE OF PEACE....THERE SHOULD BE BOTH MANDIR AND MASJID...THANKS! WE INDIANS LOVE EACH OTHER
KEEP IT UP BURNEY SAHAB

Shaan said...

MOHTARAM AZIZ BHAI SAHAB, AADAB, MAI BHI AAPKI SAARI BAATON SE PURI TARAH ITEFAQ RAKHTA HUN,MAGAR HAMARI IS DARYA DILI KO GAIR HAMARI KAMZORI NA SAMJHEN BAS,ALLAH HUM SAB KO AMAN KI RAAH PE CHALAYE (AAMIN)

Unknown said...

ye adalat ka nhi sarkaar ka faisla he is faisle se congres ne bjp ki raajniti khatam kardi he lekin humare sath insaaf hona chahiye tha kyoki jab humne mandir nhi toda to wo jagah humari he or jajo ne kaha ki wahan masjid hone ke sabut bhi nhi he jabki masjid duniya jaanti he wahan mojud thi aaj fir is raajniti ne humara istemal apne fayede ke liye kar liya ab zarurat raajniti me hissedari ki he jo fir humare sath nainsafi na ho sake