मैंने अपने कल के लेख में महाराजा हरि सिंह ’ द्वारा सरदार पटेल के नाम लिखे पत्र के उन बिंदुओं पर बात करनी शुरू की थी, जिन्हें अंडर लाइन किया गया था। सबसे पहले मैंने उस पत्र के लिखे जाने की तिथि 31 जनवरी 1948 अर्थात महात्मा गांधी की हत्या के ठीक अगले दिन को सामने रखा और उस दिन के हालात को भी जो मौलाना आज़ाद ने काफ़ी विस्तार के साथ अपनी पुस्तक में लिखे हैं। उसके बाद कई ऐसे बिंदु हैं, जिन्हें चर्चा में लाया जा सकता है, लेकिन मैं गुफ़्तगू को बहुत तूल देना नहीं चाहता, इसलिए केवल उन बिंदुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रहा हूं जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जैसे:
महाराजा हरि सिंह ने अपने पत्र में लिखाः
न केवल मुझे बल्कि तमाम हिंदुओं और सिखों के साथ राज्य के वह लोग जो नेशनल कान्फ्ऱेंस से संबंध रखते हैं, के लिए अनिश्चितता की स्थिति’ बन गयी है और उलझाव पैदा हो रहा है। यह भावनाएं सुदृढ़ होने का औचित्य प्राप्त कर रहा है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ग़लत फैसला करेगी और आख़िरकार राज्य का पाकिस्तान के साथ विलय हो जाएगा। ऐसे में हिंदु और सिख जनता ने राज्य से बाहर निकलना शुरू कर दिया है। नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेता भी ऐसा ही महसूस करते हैं कि अंततः संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के फैसले को स्वीकार करने में उनको निराशा होगी और यह किसी बड़ी दुघर्टना से कम नहीं होगी।
महाराजा हरि सिंह के पत्र की उपरोक्त पंक्तियां जिन्हें एक बार फिर मैंने पाठकों के सामने रखा, दो प्रमुख पहलुआंे की ओर इशारा करती हैं।
पहला यह कि संयुक्त राष्ट्र के फैसले को लेकर उस समय की स्थिति यह थी कि महाराजा हरि सिंह, कश्मीर राज्य के हिंदू और सिख तथा नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेता ऐसा महसूस करते थे कि फैसला पाकिस्तान के साथ विलय के रूप में सामने आएगा। इस फैसले को लेकर केवल महाराजा हरि सिंह ही परेशान नहीं थे बल्कि जम्मू व कश्मीर राज्य की जनता भी परेशान थी। परेशानी का आलम यह था कि राज्य के हिंदू और सिख घाटी छोड़ कर जाने लगे थे, इतना ही नहीं इस पत्र के अनुसार नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेता भी इस फै़सले को लेकर निराशा प्रकट कर रहे थे और इसे किसी बड़ी दुर्घटना के रूप में देख रहे थे। अगर हम 1989 के बाद के हालात पर विचार करें तो बड़ी संख्या में राज्य के हिंदू कश्मीर छोड़ने को मजबूर हुए और उसकी सीधी ज़िम्मेदारी कश्मीर के मुसलमानों पर डाल दी गई। इसे यूं भी कह सकते हैं कि कश्मीर के अलगाववादियों पर डाल दी गई। मैं उनके बचाव में कुछ भी नहीं कहना चाहूंगा, लेकिन इतना अवश्य कहना चाहता हूं कि देश के विभाजन के बाद से ही जम्मू व कश्मीर विशेष रूप से कश्मीर के हिंदू और सिखों ने राज्य को छोड़ने का मन बना लिया था और इस पत्र की इबारत से भी यह भी स्पष्ट होता है कि संयुक्त राष्ट्र के फैसले के अनुमान को लेकर आबादी के इस पलायन में और तेज़ी आई थी, क्योंकि उन्हें यह अंदाज़ा हो गया था कि जम्मू व कश्मीर का विलय पाकिस्तान के साथ हो सकता है, इसलिए आज यह आरोप लगाना पूरी तरह अनुचित होगा कि राज्य के हिंदुओं या सिखों को घाटी छोड़ने के लिए मुसलमानों ने मजबूर किया, बकिल देश के विभाजन के बाद जो हालात पैदा हुए, उनमें हिंदू हों या मुसलमान, उन्हें यही अधिक उचित लगा कि जहां वह अत्यंत अल्पसंख्या में हैं, वह क्षेत्र छोड़ कर उस ओर पलायन कर जाएं, जहां उनके अपने समुदाय या धर्म के लोग अधिक हैं।
दूसरा जो विचारणीय पहलू है, वह यह कि नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेता पाकिस्तान के साथ विलय की कल्पना से ही निराश थे, यानी वह उसे नापसंद करते थे। उस समय नेशनल कान्फ्ऱेंस के मुखिया और राज्य के प्रधानमंत्री शेख़ मुहम्मद अब्दुल्लाह थे और आज जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री उनके पोते उमर अब्दुल्लाह हैं, यानी नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेतागण उस समय भी भारत के साथ ही रहना चाहते थे और आज भी। अब रहा प्रश्न कश्मीरी जनता का तो आजकी बदली हुई स्थिति की जो सच्चाई है, उस पर गुफ़्तगू इस लेख की अगली क़िस्तों में की जाएगी, लेकिन उस समय कश्मीरी जनता यानी मुसलमानों का फैसला भी वही था जो नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेताओं का था, यानी वह भारत के साथ ही रहना चाहते थे, पाकिस्तान के साथ विलय की कल्पना भी उन्हें गवारा नहीं थी। मैं इस पर विशेष ध्यान इसलिए दिलाना चाहता हूं कि आज अगर कुछ पृथकतावादी तत्व सक्रिय हैं और वह भारत के साथ नहीं रहना चाहते तो उसे सब का फैसला माना नहीं जा सकता। साथ ही ध्यान इस बात पर भी देना होगा कि आख़िर उनका मन पृथकतावादी क्यों बना। जब हम नक्सलाइट मूवमेंट के कारणों पर विचार करने का मन रखते हैं तो क्या हमें कश्मीर के वर्तमान हालात को मन में रखते हुए इस अलगाववादी मिज़ाज के कारणों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
महाराजा हरि सिंह अपने इसी पत्र में आगे लिखते हैंः
इस मामले में मेरी स्थिति चिंताजनक है। आप जानते हैं कि मैं निश्चित रूप से भारत के साथ विलय करूंगा, इस विचार के साथ कि भारत मुझे मुसीबत में नहीं छोड़ेगा और मेरी स्थिति और मेरे शाही रुतबे सुरक्षित रहेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि आंतरिक व्यवस्था के मामले में मैंने भारत सरकार के सुझाव को स्वीकार किया है।
इस ऐतिहासिक पत्र की उपरोक्त पंक्तियां स्पष्ट रूप में यह इशारा करती हैं कि महाराजा हरि सिंह ने निजी स्वार्थों के मद्देनज़र उस समय भारत सरकार के साथ जम्मू व कश्मीर की जनता की क़ीमत पर एक सौदा किया था और इस सौदेबाज़ी में जहां जम्मू व कश्मीर का विलय भारत के पक्ष में करने का फैसला था, वहीं दूसरी ओर भारत सरकार की ओर से उनके शाही रुतबे की सुरक्षा भी मांगी गयी थी। यानी इस विलय में उन्हें इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं थी कि राज्य की जनता क्या चाहती है? उसकी इच्छा क्या है? यह अलग बात है कि क़बाइलियों की ओर से कश्मीर पर किए गए आक्रमण को लेकर राज्य की जनता ख़ुद पास्कितान से नाराज़ थी और उसके साथ विलय नहीं चाहती थी, इसलिए कि वह मानती थी कि कश्मीर पर क़बाइलियों का हमला पाकिस्तान की शह पर है औन उन्हें पाकिस्तान से सहयोग प्राप्त हो रहा है, लेकिन इन सबसे हट कर स्वयं महाराजा हरि सिंह के अपने ही पत्र से उनकी नियत स्पष्ट हो रही है, जो पत्र देश की आज़ादी या देश के विभाजन के दिन मात्र 5 माह 15 दिन महीने बाद ही लिखा गया था।
अपने इस पत्र में महाराजा हरि सिंह आगे लिखते हैं:
कई बार मुझे लगता है कि भारत के साथ विलय की प्रक्रिया को वापस ले लेना चाहिए। भारतीय संघ ने अंतरिम रूप से विलय को स्वीकार किया है और अगर संघ हमारे क्षेत्र को हमें वापस नहीं कर सकता है और सुरक्षा परिषद के फैसले को स्वीकार करने जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप हमें पाकिस्तान को हस्तांतरित किया जा सकता है तो ऐसे में भारत के साथ विलय पर क़ायम रहने का कोई अर्थ नहीं है।
मेरे पास एक सम्भावित विकल्प है और वह यह कि विलय के फैसले को वापस ले लिया जाए ताकि संयुक्त राष्ट्र रेफ्ऱेंस का मामला समाप्त हो जाए क्योंकि भारतीय संघ को इस कार्यवाही को जारी रखने का कोई अधिकार नहीं है, अगर विलय के फैसले को वापस ले लिया जाए, उसका परिणाम यह होगा कि राज्य विलय से पहले के हालात में पहंुच जाएगा।
अंतिम चंद पंक्तियों को इस पत्र के जवाब में रद्द करते हुए भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जो पत्र लिखा था वह अपने इस मुसलसल लेख की अगली क़िस्तों में प्रकाशित किया जाएगा। फ़िलहाल इन पंक्तियों के उल्लेख का मतलब केवल इतना है कि महाराजा हरि सिंह लगातार असमंजस की स्थिति में थे और वह केवल अपने बारे में ही सोच रहे थे। वह भारत के साथ विलय के फैसले पर भी पुनरविचार कर रहे थे और भारत सरकार के साथ उन्होंने उन हालात में जो विलय का फैसला किया था वह भी कुछ शर्तों पर आधारित था। अगर राज्य की जनता के हितों पर इस समय बहस न करें तो स्पष्ट रूप से यह बात सामने आती है कि उनका बुनियादी उद्देश्य अपने रुतबे की रक्षा था और जब जब उन्हंे यह महसूस होता था कि भारत सरकार उनके अधिकारों की रक्षा नहीं कर पा रही है या ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है कि उनका शासन ख़तरे में पड़ जाए तो वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे।
महाराजा हरि सिंह के इस पत्र की कुछ अंतिम पंक्तियां जिन्हें मैंने प्रमुख रूप से सामने रखा था, निम्नलिखित हैं:
मैं अपने वर्तमान जीवन से दुखी हो गया हूं और यह मेरे लिए बेहतर होगा कि लड़ते हुए अपनी जान न्यौछावर कर दूं। इसके मुक़ाबले कि अपने लोगों की कठिनाइयों को असहाय देखता रहूं।
महाराजा हरि सिंह की निराशा इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप में नज़र आती है। अगर उनका मतलब यह समझा जाए कि अपने अधिकारों की सुरक्षा न होने की स्थिति में वह आत्महत्या तक करने पर उतारू थे तो अंदाज़ा किया जा सकता है कि आज इस राज्य की जनता जिस रास्ते पर चल पड़ी है, इस स्थिति में उनके पास कितने विकल्प मौजूद हैं। यानी जिस तरह हालात अनुकूल नज़र न आने पर वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे इसी तरह आज इस राज्य की जनता हालात अपने अनुकूल न देख कर किसी हद तक जाती नज़र आ रही है।
हमें इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ को सामने रखने की आवश्यकता केवल इसलिए महसूस हुई ताकि हम देश के ज़िम्मेदारों को यह बता सकें, उनसे यह निवेदन कर सकें कि कश्मीर के हालात केवल आज या पिछले कुछ वर्षों से ख़राब नहीं हैं, बल्कि लगभग देश के विभाजन के बाद से ही उन्हें इन हालात का सामना करना पड़े उन्हें, बार-बार पीड़ादायक स्थितियों से गुज़रना पड़ा है। उन्हांेंने बड़े विश्वास के साथ पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत को वरीयता दी थी, आज अगर उनमें से कुछ लोग भी इससे अलग हट कर सोचने लगे हैं तो हमें यह समझना होगा कि अपने अनुकूल हालात न देख कर पुनर्विचार का फैसला तो महाराजा हरि सिंह ने भी किया था। क्या हम उन्हें किसी क्षण भी इस श्रेणी में रखा है, जिस श्रेणी में हम आज पुनर्विचार करने वालों को रखते हैं? यह अंतिम कुछ वाक्य लिखने का कारण केवल इतना है कि सारी परिस्थितियों पर सहानुभूतिपूर्ण तथा गंभीरता के साथ विचार किया जाए, नफ़रत का जवाब नफ़रत, समस्या का समाधान नहीं हो सकता। बहरहाल कश्मीर समस्या पर अभी बहुत कुछ लिखना और प्रस्तुत करना बाक़ी है। चूंकि महाराजा हरि सिंह के इस पत्र की इबारत और हमारे विष्लेशण के बाद यह आवश्यक है कि हम सरदार पटेल की ओर से दिए गए उत्तर का अंश भी पाठकों के सामने प्रस्तुत करें, जिसका उल्लेख हमने आजके इस लेख में किया है।
इस पत्र का उत्तर सरदार पटेल ने 9 फरवरी 1948 को दिया और अपने उत्तर में लिखा:
मुझे अंदाज़ा है कि आप कितने चिंताजनक समय से गुज़र रहे हैं। मैं आपको संतोष दिलाना चाहूंगा, मैं भी कश्मीर के हालात और जो कुछ संयुक्त राष्ट्र में हो रहा है, उस पर कम परेशान नहीं हूं, लेकिन जो भी वर्तमान परिस्थितियां हों निराशा के सुझाव का प्रश्न ही नहीं उठता है।
अपने इस संक्षिप्त उत्तर में सरदार पटेल ने केवल हल्की सी सांत्वना देकर बात समाप्त कर दी उन सभी बिंदुओं पर कोई उचित उत्तर नहीं दिया जो महाराजा हरि सिंह ने सामने रखे थे। हमारा अध्ययन जारी है अगर कहीं इस से अधिक विवरण प्राप्त होता है तो वह भी प्रकाशित किया जाएगा।
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Thursday, July 15, 2010
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