Thursday, July 1, 2010

हर नाकामी का जवाज़ है ‘‘लश्कर-ए-तैयबा’’
अज़ीज़ बर्नी

शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के इस एतिहासिक भाषण को कल के लेख में जिस जगह छोड़ा था, वह संविधान बनाने की पेचीदगी की बात कर रहे थे और आज जहां से हम शुरू कर रहे हैं, वह जम्मू व कश्मीर के भारत के साथ शामिल होने के लाभ बयान कर रहे हैं, अपने भरोसे को प्रकट कर रहे हैं, यदि इस समय जम्मू व कश्मीर के प्रधानमंत्री के इस भाषण को जनता के दिल की आवाज़ भी माना जाए तो समझा जा सकता है कि उनकी भावनाएं क्या थीं। आज अगर उनमें कोई बदलाव है तो कम से कम हमें गंभीरता से यह तो सोचना ही होगा कि आख़ि ऐसा क्या हुआ कि वह कश्मीरी जनता जिसने देश विभाजन के बाद प्रसन्नता पूर्वक विलय स्वीकार किया था, आज शुष्क व्यवहार का प्रदर्शन क्यों कर रही है? क्योंकि मुझे ऐसे सभी बिंदूओं पर विस्तार से लिखना है, इसलिए बिना देर किए गृहमंत्री पी. चिदम्बरम से इतना कह देना आवश्यक है कि कश्मीर के मौजूदा हालात के लिए अगर वह लश्कर-ए-तैयबा को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं तो बेशक हमें यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है, मगर लश्कर-ए-तैयबा अपने ग़लत इरादों में कामयाब क्यों है? इतनी जवाबदेही तो बनती है कि आख़िर हमारी खुफिया एजेंसियां और फौज लश्कर-ए-तैयबा को नाकाम क्यों नहीं बना पा रही हैं। हम कश्मीर के हालात को शांतिपूर्ण क्यों नहीं बना पा रहे हैं?

और अब भाषण का बाक़ी हिस्साः

बिना किसी ग़लतफ़हमी के आप सभी लोग भारत के साथ हमारे संवैधानिक संबंधों से बाख़बर हैं। हमे भारत के साथ अपने संबंधों पर गर्व है और जनता व सरकार का पूरा समर्थन हमें प्राप्त है। भारतीय संविधान फेड्रल यूनियन स्थापित करता है और उसने दूसरे ब्वदेजपजनमदजे से स्वयातता की ताक़त के मामले में हमारे साथ अलग बर्ताव रखा है। इन्स्ट्रूमेंट आॅफ एक्सेशन में रक्षा, बाहरी मामले और संचार को छोड़ कर बाक़ी हमें अपने संविधान को बनाने की पूरी स्वतंत्रता है। अच्छे पड़ोसी की तरह जीने और तरक़्क़ी करने और अपनी जनता के भलाई के लिए समान संर्घष में मेरा मश्विरा होगा, अपने स्वायतता की पूरी तरह रक्षा करते हुए अपने देश की स्थापना, अपनी बेहतरीन परम्पराओं और जनता की अच्छी सोच के साथ स्थापित कर सकते हैं और लाभकारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत यूनियन के साथ हम इस महान कार्य में फेड्रल सहयोग प्राप्त करने के लिए ज़ोर दे सकते हैं और साथ ही यूनियन को अपनी भरपूर सहायता और सहयोग दे सकते हैं।

यद्यपि आप सभी के लिए यह आसान होगा कि क़ानून और व्यवस्था के लिए एक ऐसा दस्तावेज़ तैयार करें और साथ ही शहरियों के लिए कर्तव्य और अधिकारों का दस्तावेज़ भी जिस तरह से हम राज्य की तेज़ी के साथ तरक़्क़ी करने के सुझाव और राष्ट्रीय आय की उनके बीच बराबरी के साथ बांटने जिनसे हमने वादा किया है, इस मज़बूत फैसले के लिए बहुत मेहनत की ज़रूरत होगी। हमारी नेशनल कान्फ्ऱेंस का इस सिद्धांत पर पूरा विश्वास है कि बग़ैर किसी रंग व नस्ल के भेदभाव सभी लोगों में बराबरी है और उनमें जो एक बीमारी जम्मू व कश्मीर की जनता की जड़ें खोखली कर रही है वह है बेइंतिहा ग़रीबी और यदि हम केवल उनकी राजनीतिक आज़ादी की सुरक्षा प्रदान कर दें तो यह उनके आर्थिक जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं डालेगी, जब तक हम आर्थिक और सामाजिक न्याय की गारंटी न दे दें। नए कश्मीर में हमारा सामाजिक पाॅलीसी के उद्देश्य के बारे में एक लेख है यह एक छवि पेश करता है कि हम जम्मू व कश्मीर की जनता का जीवन किस तरह बनाना चाहते हैं और किस प्रकार देश के आर्थिक संगठन इस सिलसिले में काम करेंगे ताकि उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके, जो राजनैतिक ढांचा आप बनाने जा रहे हैं, वह मिसाली होना चाहिए।

जिस जम्मू व कश्मीर के भविष्य के लिए जिस राजनैतिक ढांचे को आप तय करने जा रहे हैं उसमें हमारे राज्य में दूसरे सभी ैनइ. छंजपवदंस ळतवनच के अस्तित्व को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। हालांकि सांस्कृतिक तौर पर मिले-जुले इतिहास में हमारे बीच एक एकता अवश्य स्थापित किया है। वह सभी एक ही आशाओं और अभिलाषाओं पर धड़कती हैं और एक दूसरे के सुखदुख बांटते हैं। राज्य की इस बुनियादी ढांचे की एकता को क़ायम रखने की गारंटी के बीच हमारा संविधान किसी विशेष ग्रूप या क्षेत्र के हाथों में सत्ता और विशेष अधिकार देने की आज्ञा नहीं देनी चाहिए बल्कि तमाम ग्रूप को अपना सांस्कृतिक पहचान के साथ और राज्य की एकता को बनाये रखते हुए तरक़्क़ी के बेहतरीन अवसर प्राप्त होने चाहिएं। यह हमारे सामाजिक और आर्थिक पाॅलीसी की भी ज़रूरत होनी चाहिए।

आइये अब एक ऐसी समस्या लेते हैं जो बुनियादी महत्व लिए हुए है और जिसमें राज्य का बुनियादी चरित्र भी शामिल होता है। अपना न्याय स्वयं करने वाली जनता की मर्ज़ी के साधन के तौर पर संविधान सभा जो अपने आप में स्वायत संगठन बन गई है वह अब मौजूदा सत्ताधारी ख़ानदान के उसके अधिकारों के मामलों में दोबारा भविष्य की जांच करके फैसला करेगी।

यह पूरी तरह साफ़ है कि यह ख़ानदान उसी पुराने और अविश्वसनीय समझौते की बुनियाद पर अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता है। ‘कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन से जुड़े मेरे मुक़दमे के दौरान मैंने अपनी पार्टी का रुझान साफ़ कर दिया था जब मैंने कहा था:

‘जम्मू व कश्मीर राज्य के भविष्य का संवैधानिक संगठन उस पुराने संबंधों से अधिकार प्राप्त नहीं करेगा जिसकी अवधि ख़त्म हो रही थी और जिसे जल्द ही ख़त्म हो जाना चाहिए था। यह संगठन राज्य की जनता की राय पर ही आधारित हो सकता है। राज्य के मुखिया की स्वायत का स्त्रोत जनता होगी।

1946 में उस अवसर पर मैंने इस बात का संकेत किया था कि किस तरह एक आम आदमी जनता के उस भरोसे पर संवैधानिक मुखिया के साँकेतिक अधिकार प्राप्त कर सकता है।

‘राज्य और उसके मुखिया वह साँकेतिक अथाॅरिटी होता है जिसमें जनता अपनी आशाओं की प्राप्ति और अधिकारों को बरक़रार रखने के लिए भरोसे का इज़हार करेंगे।

इन उसूलों के लिए हम समर्थन और अवाम की आशाओं को पूरा करने के लिए संवैधानिक मुखिया अपने कर्तव्यों को अंजाम देने के लिए चुना जाएगा और जिसे यह सभा चुन कर के हवाले करेगी। जहंा तक मेरीपार्टी का संबंध है हम इस बात से संतुष्ट हैं कि राजशाही मौजूदा परिस्थिति के तक़ाज़ों व आकांक्षाओं के विपरीत है और जो एक नागरिक के दूसरे के साथ बराबरी के रिश्ते की मांग करता है किसी भी लोकतंत्र का सबसे बड़ा टेस्ट यही है कि यह अपने नागरिकों को अवसर देता है ताकि कोई भी पोज़िशन और अथाॅर्टी के मामले के ब्सपउंग पर पहुंच सके। इसके परिणाम स्वरूप दुनिया से राजशाही तेज़ी से समाप्त हो रही है जैसा कि जागीरदारी प्रथा के बारे में हो रहा है। भारत में भी स्वतंत्रता से पूर्व 600 से अधिक नवाबी राज्यों के मुखिया अपने अधिकारों का प्रयोग कर रहे थे। लोकतंत्र व्यवस्था अपनाने के बाद इस वक़्त 10 से कम इनमें से शेष हैं जो सीमित दायरे में अपने राज्य के संवैधानिक मुख्यिा की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं।

जनता से पूरी सत्ता प्राप्त करने के बाद यह बिल्कुल ठीक होगा कि सहिष्णुता के तौर पर महाराजा हरि सिंह को राज्य का पहला संवैधानिक मुखिया मान लिया जाए। परंतु मैं अफ़सोस के साथ कहना चाहूंगा उन्हांेने जनता के सभी वर्गों का भरोसा पूरी तरह खो दिया है। बदली हुई परिस्थिति के अनुसार स्वयं को न बदल पाने की असफलता और महत्वपूर्ण समस्या पर उनकी पुरानी सोच उनको रियासत के लोकतांत्रिक राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद के लिए अयोग्य सिद्ध करता है। इसके अलावा मुखिया के तौर पर भूतकाल में उनके कार्यों से सिद्ध होता है कि वह सम्मानीय ज़िम्मेदारी और तठस्थ रवैये के साथ काम करने से लाचार हैं। जनता आज भी कठिन परिस्थितियों में उनके साथ खड़े न होने और जम्मू में अपने ही लोगों को सुरक्षा प्रदान न करने की असफलता को दुख और अफ़सोस के साथ याद करती है।

अंततः हम उस समस्या पर आ गए हैं, जिसमें कश्मीर को पूरी दुनिया की दिलचस्पी का सामान बना दिया और उसे राष्ट्रसंघ के फोरम के सामने लाया गया। यह आसान समस्या इस क़दर गंभीर और कठिन हो गई है कि लगभग साढ़े तीन साल की अवधि में ही लोग स्वंय से प्रश्न करने लगे हैं कि ‘क्या कोई समाधान है?’ हमारा उत्तर ‘हां’ है। हर बात का उत्तर इस पर है कि समाधान की तलाश के लिए भावना सच्ची है या नहीं। यदि हम समस्या का सीधे तौर पर सामना करते हैं तो समाधान आसान है।

समस्या को इस तरह पेश किया जा सकता है। पहले क्या 1947 में पाकिस्तान का कशमीर पर आक्रमण किसी अंतरराष्ट्रीय या क़ानूनी तौर पर सही था। सर ओवन डिक्सन ;ैपत व्ूमद क्पगवदद्ध का इस बारे में फैसला बड़ा आसान है। बिल्कुल साफ़ अंदाज़ में उन्होंने पाकिस्तान को हमलावर क़रार दिया है। दूसरे क्या महाराजा का हिंदुस्तान में विलय होना क़ानूनन सही था या नहीं? विलय के क़ानूनी पहलू पर किसी ज़िम्मेदार या स्वतंत्र व्यकित और अथाॅरिटी के माध्यम से यह गंभीर प्रश्न नहीं उठाया गया।

यह दोनों उत्तर बिल्कुल सही हैं। तब कश्मीर से जुड़ी समस्या में भारत और पाकिस्तान को बराबर ठहराने का औचित्य क्या है? असल में तर्क की ताक़त परिणाम की ओर ले जाती है और यह कि आक्रमणकारी को अपनी फौज हटानी चाहिए और राष्ट्रीय संघ को देखना चाहिए कि पाकिस्तान को राज्य से बाहर निकाला जाता है।

इस चरण में भारत स्वयं राजय की जनता को अपनी स्वतंत्र राय व्यक्त करने देने के लिए चिन्तित है और भारतीय सेना को हटाने के किसी भी सही मंसूबे पर मदद करता है। वह अपनी फ़ौजें हटा लेंगे केवल कुछ पोस्ट पर गोला बारूद इकट्ठा रहेगा ताकि यह संभव हो सके भूतकाल में होने वाले पाकिस्तानी आक्रमण फिर न हो सकें।

इन दो कार्यवाहियों से राज्य में नए वातावण स्थापित करने में मदद मिल गई होती। बाहर निकाली गई जनता को बसाने और कार्पोरेशन व्यवस्था बहाल की गई होती तो जनता को अपनी राय व्यक्त करने और अंतिम निर्णय ले लिया होता।

हम सरकार के तौर पर इस बात के इच्छुक हैं कि जनता अपनी मर्ज़ी के अनुसार हमारी भूमि का भविष्य तय करेंगे। यदि तीन प्रारंभिक कार्य कर लिए गए होते तो सिद्धांतों के अनुसार स्वतंत्र राय देने के लिए आवश्यक परिस्थितियों को बनाने में अंतर्राष्ट्रीय आब्ज़वरों की मदद लेने में ख़ुशी होती। इसके विपरीत आक्रमणकारी और सुरक्षा देने वालों को एक ही भूमि पर रखा गया। कई तरह के दबाव में महत्वपूर्ण समस्या को समाप्त करने की कोशिश की गई।

कई बार हमारा जीवन और उसके जीने के तरीके़ के विरुद्ध हमारे राज्य को धार्मिक बुनियादों पर विभाजित करने की कोशिश की गई। एक बार हमारे देश की पहरेदारी का विचार यदि राष्ट्र मंडल ताक़तों से करने के लिए किया गया तो इससे ख़तरा हो सकता है कि पिछले दरवाज़े से साम्राज्यी पकड़ दाख़िल हो जाए। हमारे लोग जो इससे सख़्त घृृणा करते हैं इसके अलावा हमारी भूमि पर विदेशी सैन्य को बुलाने के विचार या राष्ट्र मंडल सैन्य के आने से हमारे पड़ोसियों के बीच भी शंका पैदा होगी कि हम भविष्य में उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल होने के लिए अपनी भूमि बेस के तौर पर उन्हें दे रहे हैं। इससे हम आसानी के साथ दूसरे कोरिया में बदल सकते हैं।

कैबिनेट मिशन प्लान ने तीन चरण पेश किये थे जिस पर भारतीय राज्यों के ज़रिए भविष्य में विलय होने पर विचार करते वक़्त अमल कर सकती थीं। एक राज्य या तो भारत के साथ विलय हो या पाकिस्तान के साथ उनमें से किसी को भी करने में असफल रहने पर उसे आज़ाद रहने का दावा कर सकता है। यह तीनों विकल्प हमारे राज्य के लिए भी खुले हुए हैं। जबकि ब्रिटिश सरकार की कोशिश नवाबी राज्यों के हक़ को सुरक्षा प्रदान करना था, जनप्रतिनिधियों को जनता की बेहतरी के विकास पर ग़ौर करना चाहिए। वह जो भी फैसला लेंगे वह लोकतांत्रिक तौर पर सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में सहयोग करना चाहिए और जहां ग्रुप और नस्ल के बीच अंतर रहता है। इस उच्च विचार की पृष्ठ भूमि में फैसला करें हमारे राज्य के भारत या पाकिस्तान में विलय होने या फिर आज़ाद होने के क्या लाभ और हानि होगी।......................(जारी)

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