कश्मीर हमारे सीने पर विभाजन का सबसे गहरा ज़ख्म है जिससे ख़ून बहते बहते आज 61 वर्ष गुज़र चुके हैं। यह हमारी तीसरी पीढ़ी है जो आज़ादी के बाद हमारी आज़ादी की क़ीमत चुका रही है। हमारे इस ख़ून में उन बुज़ुर्गों का ख़ून भी शामिल है जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए जंग लड़ रहे थे और आज़ादी के बाद अपने अधिकारों की जंग लड़ते लड़ते इस दुनिया से चले गए। फिर उनके बाद अपने अधिकारों की जंग विरासत में मिली उनके बाद की आने वाली नस्ल को और अब यह जंग केवल अधिकारों की जंग नहीं रह गई, बल्कि अब यह जंग उनके सम्मान और विक़ार की जंग भी थी, यह हमारी मांओं, बहनों और बेटियों की इज़्ज़त की रक्षा की जंग भी थी, यह जंग दुनिया की जन्नत कश्मीर के सौंदर्य की रक्षा की जंग भी थी, बल्कि सही अर्थों में अब कश्मीरियों के लिए यह कश्मीर और कश्मीरियत के अस्तित्व की जंग थी, जिसमें कश्मीर भी अकेला था और कश्मीरी भी। यहां सुरक्षा दस्ते आए तो मगर कुछ इस तरह जैसे सर से पति का साया उठ जाने के बाद मातमपुर्सी के बहाने आने वाले कुछ बदनियत लोग आंखों ही आंखों में उस हसीन बेवा की इज़्ज़त पर डाका डालने का इरादा रखते हों, जो दुर्भाग्यवश अब बेसहारा हो गई है। पर्यटकों की संख्या कम सही मगर इस धरती का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें घाटियों के संुदर दृश्यों को अपनी आंखों में क़ैद करने के लिए खींच ही लाता था। परन्तु उन्हें भी कश्मीरियों का दर्द बांटने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। उनके आकर्षण का केंद्र तो होता है उन पहाड़ों का सौंदर्य, सोनमर्ग, गुलमर्ग, वादी-ए-बंगलस, जबरून इत्यादि उन्हें उन सुंदर घाटियों में पत्थरों का सौंदर्य तो दिखाइ देता लेकिन जीवित लोगांें के पत्थर बन जाने की कहानी में इनकी कोई रुचि नहीं होती। चिनाब नदी, जेहलुम और लदर का नाचता और संगीत की ध्वनि उत्पन्न करता जल कलख तो उन्हें दिखाई देता, अहरबल के झरने का सौंदर्य नज़र आता, मगर इस पानी में कितने बेगुनाहों का ख़ून शामिल है यह वह नहीं जानते और न जानने का प्रयास करते हैं। झील सी आंखों से बहने वाले आंसू अब इस डल झील का भाग्य बन गए हैं, मगर बाहों में बाहें डाले हसीन जोड़ों को क्या ख़बर।
क़िस्त दर क़िस्त ख़ून का जजि़्ाया देने का सिलसिला ख़ुदा जाने कब थमेगा, अब तो यह ख़ून के प्यासे नई नस्ल के जवान होने की प्रतीक्षा भी नहीं करते। फूलों और तितलियों से खेलने की उम्र है जिन बच्चों की, यह उनके ख़ून से होली खेलते नज़र आते हैं। किसी परिवार की आबरू बनने की हसरत अपने दिल में लिए जो कमसिन बच्चियां अपने आपको छुपाती फिरती हैं इनकी चालाकी, मक्कारी और हवस उनके अरमानों के साथ उनकी आबरू का भी ख़ून कर डालती है और सबके सब तमाशाई बन जाते हैं, कुछ मजबूरी में, कुछ माज़्ाूरी में तो कुछ मक्कारी में।
इनक़लाब अब एक काग़ज़ के टुकड़े पर लिखा हुआ एक शब्द भर रह गया है। वह आवाज़ें जो जीवन बख़्श दें इस शब्द को, न जाने क्यों ख़ामोश हो गई हैं। ज़ालिमों, जाबिरों के हौसले तोड़ देने वाले गीत अब वातावरण में नहीं गूंजते, शायद इस दौर की सच्चाई बस अब यही है जो अपने इस शेर में जनाब बशीर बद्र ने बयान की है।
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आंच तुझ पे न आएगी
यह ज़बां किसी ने ख़रीद ली यह क़लम किसी का ग़्ाुलाम है
तुफ़ैल की आयु 17 वर्ष थी, वह ट्यूशन पढ़ कर आ रहा था कि पुलिस का शिकार हो गया। यह घटना ग़नी मैमोरियल स्टेडियम जो कि पाटन शहर के राजोरी कदल क्षेत्र में स्थित है के पास की है। इस क्षेत्र में इससे पूर्व पुलिस के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए थे और पुलिस प्रदर्शन कारियों को भगाने के लिए शक्ति का प्रयोग करने पर उतर आई थी। चश्मदीद गवाहों के अनुसार जिस जगह तुफ़ैल को निशाना बनाया गया वहां उस समय न ही कोई विरोध प्रदर्शन हो रहा था और न कोई भड़काने वाली गतिविधि, फिर भी पुलिस ने तुफ़ैल के सर पर निशाना लगा कर आंसू गैस का एक गोला फैंका जिसने उस मासूम की जान ले ली। पुलिस ने इस घटना से बचने का प्रयास किया, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि तुफैल की मृत्यु पुलिस के गोले से ही हुई थी।
तुफ़ैल की हत्या से ठीक चार महीने 10 दिन पूर्व इसी स्थान पर इन्हीं परिस्थितियों में ‘वामिक़ फ़ारूक़ी’ एक और मासूम का क़त्ल किया गया था। रैना वादी क्षेत्र का 13 वर्षीय वामिक़ फ़ारूक़ क्रिकेट के खेल का ज़बरदस्त शौक़ीन था और अपना प्रिय खेल खेलने के लिए ग़नी मैमोरियल की ओर आ रहा था कि एक पुलिस अधिकारी ने उसका निशाना बांधा और आंसू गैस के गोले से उस मासूम की जान ले ली। वामिक़ की हत्या के बाद भी घाटी में विरोध प्रदर्शनों की लहर थमने का नाम नहीं ले रही थी कि डल झील के किनारे प्रसिद्ध पर्यटक स्थल निशात बाग़ के निकट ज़ाहिद फ़ारूक़ नामी एक 16 वर्षीय लड़के को बीएसएफ़ के एक कमांडिंग अफ़सर आर.के बर्दी के कहने पर उसके संरक्षक लखविंदर सिंह ने गोली मार कर क़त्ल कर दिया। ‘ज़ाहिद’ उस समय मुहल्ले से बाहर डल झील के किनारे पर अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने आया था। आरके बर्दी जिनकी पोस्टिंग गुलमर्ग मंे थी वहां से यूंही गुज़र रहे थे कि जब उन्होंने ज़ाहिद पर गोली चलाने का आदेश दिया और मासूम की जान ले ली। जबकि निशात में न ही कोई विरोध प्रदर्शन हो रहा था और न ऐसी कोई अन्य गतिविधि।
देवर गांव के रहने वाले हबीबुल्लाह ख़ां निवासी की आयु लगभग 75 वर्ष थी, जो अपने बेटे को आतंकवादी क़रार दे कर मार दिए जाने पर अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे, और मौत की प्रतीक्षा में जिं़दा रहने के लिए भीख मांग कर पेट भरने के लिए विवश थे, उन्हें क्या पता था कि अपने पेट के लिए आख़िरी भोजन के रूप में उन्हें बंदूक़ की गोली मिलेगी और घाटी का सबसे वृद्ध आतंकवादी होने का तमग़ा।
1990 की यह दर्दनाक घटना खून के आंसू रूला देने वाली है, जब फौज की राजपूत रेजमैंट ने पखवारा ज़िले के कननपोश पुरा नामी गांव का क्रेक डाउन करके यहां के मर्दों को एक मैदान में जमा किया और घरों में मौजूद महिलाओं जिनमें 15 से 75 वर्ष तक की आयु वाली लगभग 100 महिलाए थीं, जिनकी इज़्ज़त लूटी गई।
क्या ऐसे परेशान हाल चेहरों में कभी आपको अपना बेटा भाई होने का एहसास नहीं होता? क्या उन लड़कियों में आपको अपनी बेटी या बहन नज़र नहीं आती? इतने बेहिस तो हम कभी न थे अगर होते तो आज़ादी की जंग कैसे लड़ते और जीतते।
ऐतिहासिक हवाले मैं आपकी सेवा में पेश करता रहूंगा जो पिछले कुछ दिनों से कर रहा हूं, मगर यह सिलसिला ज़रा लम्बा है इसीलिए सोचता हूं बीच बीच में आज की कड़वी सच्चाई भी आपके सामने रखी जाती रहे ताकि स्पष्ट रहे कि क्यों मैं गढ़े मुर्दे उखाड़ने बैठ गया हूं क्यों गुम होते जा रहे इतिहास को परत दर परत आम लोगों के सामने लाने का सिलसिला शुरू कर बैठा हूं। कोई आवश्यकता नहीं होती अगर कश्मीर की स्थितियां सामान्य होतीं और इन परिस्थितियों का प्रभाव तमाम भारत के मुसलमानों पर न पड़ रहा होता। मैं भी समय की गर्द में दबी इन सच्चाइयों को उजागर करने की आवश्यकता महसूस न करता। दफ़न हो जाने देता उन तथ्यों को, उन जीवित इन्सानों की तरह जो कश्मीर की आन, बान और शान हो सकते थे, मगर उन बदनसबों को क़ब्रिस्तान भी नसीब नहीं हो सका। मैं रहा हूं कुछ दिन कश्मीर के एक ऐसे घर में जिसके आंगन में न जाने कितने बेगुनाहों की लाशें दफ़न थीं, केवल वह बेज़बान दरो दीवार गवाह हैं उनकी आहों के, चीख़ों के, अब जो बोल नहीं सकते पर न जाने क्यों अभी मेरा भरोसा नहीं टूटा है, संभवतः इसलिए कि मुझे मोहतरम ‘मुनव्वर राना’ के इन शेरों पर पूरा विश्वास है। आप भी मुलाहिज़ा करें, शायद कि यह अशआर इनक़लाब के शब्द को फिर से सार्थक कर दें और एक नया जीवन बख़्श दें।
मैं दहशत गर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
हुकूमत के इशारे पर तो मुर्दा बोल सकता है
यहां पर नफ़रतों ने कैसे कैसे गुल खिलाए हैं
लुटी असमत बता देगी दुपट्टा बोल सकता है
हुकूमत की तवज्जोह चाहती है यह जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मल्बा बोल सकता है
कई चेहरे अभी तक मुंह ज़बानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना वह गूंगा बोल सकता है
सियासत इन दिनों इन्सान के ख़ँू में नहाती है
गवाही की ज़रूरत हो तो दरिया बोल सकता है
अदालत में गवाही के लिए लाशें नहीं आतीं
वह आंखें बुझ चुकी हैं फिर भी चश्मा बोल सकता है
बहुत सी कुर्सियां इस मुल्क में लाशों पे रखी हैं
यह वह सच है, जिसे झूटे से झूठा बोल सकता है
सियासत की कसौटी पर पररिखये मत वफ़ादारी
किसी दिन इंतिक़ामन मेरा ग़्ाुस्सा बोल सकता है
शायद कि यह कुछ शेर कश्मीर की स्थितियों को सही तर्जुमानी करते नज़र आएं और आपको उस इनक़लाब पर आमादा करें जो आज वक़्त की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
आइये मैं फिर वापिस लौटता हूं कश्मीर के हालात की तरफ़। विशेषतः वह हालात जो तुफैल की दर्दनाक मौत के बाद आज से कुछ दिन पहले मैंने अपनी आंखों से देखें। हां, मुझे एहसास है उस दिशा में उछाले गए पत्थर का जिधर से मैं गुज़र रहा था। वह मेरा जन्म दिन था। मैं अपने परिवार के साथ कश्मीर की घाटियों में था। मैं उस दिन से एक बहुत उद्देश्यपूर्ण शुरूआत करना चाहता था इसलिए इस विशेष दिन जानबूझ कर श्रीनगर में था। दिल्ली से जब चला परिस्थितियां लगभग सामान्य थीं, मगर श्रीनगर की धरती पर क़दम रखते ही यह एहसास हो गया कि इस धरती के लिस सामान्य जीवन तो बस सपनों की बात है, हम जैसे लोग जो इन परिस्थितियों से अनभिज्ञ रहते हैं, ग़लतफ़हमी का शिकार हैं और समझ बैठते हैं कि वहां सब कुछ ठीकठाक है।
15 जून की सुबह मैं श्री नगर से गुलमर्ग की ओर जा रहा था। सबसे आगे सिक्योरिटी की गाड़ी थी उसके बाद की गाड़ी में मेरे बच्चे और उसके बाद की गाड़ी में मैं स्वयं व मेरी पत्नी और एक सशस्त्र पीएसओ था और सबसे पीछे हमारे स्थानीय संवाददाता की गाड़ी थी। तभी एक ज़ोरदार पत्थर सिक्योरिटी कार के शीशे पर लगा, शीशा चकनाचूर हो गया और ड्राइवर ज़ख़्मी, तेज़ी से गाड़ियां वापस लौटीं। रास्ता बदला और फिर नए रास्ते से मंज़िल की ओर बढ़ने लगीं।
यह प्रतिक्रिया 17 वर्षीय तुफै़ल के पुलिस के गोले का शिकार हो जाने के कारण थी। यह पत्थर मुझे तो नहीं लगा। मगर इस पत्थर की चोट से मेरे अंदर का पत्रकार ज़ख़्मी हो गया। मुझे लगा यह पत्थर मुझसे कुछ कह रहा है, मुझे इस पत्थर की आवाज़ को सुनना चाहिए, समझना चाहिए और सबको समझाना चाहिए। अगर मैं मानता हूं कि पत्थर बोल सकते हैं तो शुरूआत इसी पत्थर की गवाही को सामने रख कर करनी होगी। हां, वह पत्थर गवाह था उन परिस्थितियों का जिनसे कश्मीर घाटी के लोग गुज़र रहे थे। प्रतिबिंब प्रस्तुत करता था उनकी भावओं का जिनके हाथों में पत्थर थे। वह इतने मूर्ख भी नहीं हैं कि इतना भी नहीं समझते कि उनका पत्थर केवल उनके ग़्ाुस्से का इज़हार कर सकता है, किसी की जान नहीं ले सकता, मगर इस पत्थर के जवाब में चलने वाली गोली उनकी जान ले सकती है, फिर भी वह अपने हाथों में पत्थर लिए हुए थे, संभवतः इसलिए कि इनके इस पत्थर की आहट शायद किसी को जगा दे। मैं समर्थन नहीं करता उनके इस पत्थर की भाषा का, मगर समर्थन करता हूं हक़ और इन्साफ़ की तलाश में उनकी भावनाआंें का। इसलिए लिख रहा हूं कि संभवतः आपका ध्यान भी खींच सकूं और फिर वह समय भी आए कि जिनके हाथों में पत्थर हैं वहां फूल नज़र आएं।
Sunday, June 27, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment