Monday, May 10, 2010

कुछ कहती है राजा और विद्वान की कहानी
अज़ीज़ बर्नी

कल किसी समाचारपत्र में एक कहानी पढ़ रहा था कि एक राजा के दरबार में विद्वान और राजा के बीच वार्तालाप जारी था। राजा ने पूछा कि मैं आपके ज्ञान, बुद्धि और योग्यता से अत्यंत प्रभावित हूं, लेकिन आप से एक प्रश्न करना चाहता हूं कि ज्ञान और चरित्र दोनों में से किसका महत्व अधिक है? विद्वान का उत्तर था ‘चरित्र का’। राजा बहुत हैरान हुआ, उसने कहा कि मेरे राज में बहुत से चरित्रवान के लोग हैं, मगर मैं जितना आपके ज्ञान से प्रभावित हुआ हूं, उतना मुझे किसी के चरित्र ने प्रभावित नहीं किया, और आपकी इसी विशेषता के आधार पर मेरे निकट आपका महत्व सबसे अधिक है। फिर आप ऐसा कैसे कह रहे हैं कि ज्ञान के मुक़ाबले चरित्र का महत्व अधिक है? इतना ज्ञान बहुत कम लोगांें के पास होता है जो आपके पास है। जबकि अच्छे चरित्र के लोग तो बहुत होते हैं। विद्वान का जवाब था ‘आपके इस प्रश्न का जवाब मैं आज नहीं दे सकता, मुझे कुछ समय दरकार है, मुझे अपने महल में कुछ दिन रहने की अनुमति दीजिए, वापस जाने से पहले मैं अपने प्रश्न का उत्तर दे दूंगा।’ राजा को भला इस पर क्या आपत्ति हो सकती थी, उसने ख़ुशी-ख़ुशी विद्वान को अपने अतिथि गृह में ठहरा दिया। अभी कुछ दिन ही बीते होंगे कि राजा के सुरक्षा गार्डों ने एक चोर के रूप में गिरफ़्तार करके उस विद्वान को राजा के दरबार में पेश किया। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और ग़्ाुस्सा भी आया। राजा ने कहा कि मैंने आपको शाही मेहमान बना कर रखा, सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराईं, फिर अगर आपको कुछ चाहिए था तो आप मुझसे मांग लेते। मैं ख़ुशी से आपको भेंट कर देता, मगर यह क्या आप चरित्र से इतने गिरे हुए हैं कि जहां आप अतिथि बनकर ठहरे हुए थे वहीं आपने चोरी से भी परहेज़ नहीं किया। विद्वान के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उसने अत्यंत नम्रता के साथ राजा से कहा कि यही आपके प्रश्न का उत्तर है जो आपने मुझसे पूछा था। मेरे ज्ञान में आज भी कोई कमी नहीं है, मैं आज भी उतना ही ज्ञानी और योज्ञ हूं जितना कि मैं आपसे अपनी पिछली मुलाक़ात के दौरान था, मगर जब एक चोर के रूप में मुझे गिरफ़्तार करके आपके सामने पेश कर दिया गया तो मेरी पूरी योज्ञता और ज्ञान निरर्थक हो गए, केवल मेरे चरित्र की कमज़ोरी आपके सामने रही। राजा बहुत ख़ुश हुआ और उसने कहा कि आपने ठीक फ़रमाया कि चरित्र ज्ञान से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
इस कहानी ने मुझे प्रभावित किया और इसलिए मैंने इसे अपने सभी पाठकों तथा देशवासियों की सेवा में पेश करना ज़रूरी समझा क्योंकि जहां एक ओर बटला हाउस और देश के विभाजन के मामले पर मेरे प्रयासों का भरपूर समर्थन किया जा रहा है, वहीं कुछ लोगों के मन में यह विचार भी पैदा हो रहा है कि आख़िर मैं बटला हाउस, वटला हाउस की चर्चा बार-बार क्यों कर रहा हूं? मैं शिक्षा की बात क्यों नहीं करता? मैं नौकरियों की बात क्यों नहीं करता? उपरोक्त कहानी से शायद मैं अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर पा रहा हूं कि पहले हमें अपना चरित्र सिद्ध करना है। अगर हमने यह सिद्ध कर दिया कि हमारा चरित्र क्या है तो फिर शिक्षा और नौकरी की समस्या इतनी कष्टदायक नहीं रह जाएगी। जब तक प्रश्न हमारे चरित्र पर रहेगा शिक्षा, नौकरी हमें हमारी समस्याओं से छुटकारा नहीं दिला सकती। देश के विभाजन का दाग़ दामन से छुड़ाना अत्यंत आवश्यक था, इसलिए उस विषय पर लगातार उस समय तक लिखा और बोला जाता रहा, जब तक कि स्वयं लालकृष्ण आडवानी ने पाकिस्तान पहुंचकर मुहम्मद अली जिन्ना को सैक्यूलर घोषित नहीं किया और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना, इण्डिया-पाकिस्तान-इन्डिपेंडेंट्स’ लिख कर देश के विभाजन की वास्तविकता सामने नहीं रख दी। इसी प्रकार साम्प्रदायिकता के आरोप को भी ग़लत सिद्ध करना आवश्यक था, इसीलिए लम्बी अवधि तक मैं अपने लेखों के माध्यम से यह प्रयास भी करता रहा। आज मैं महसूस करता हूं कि मुसलमानों के दामन पर आतंकवाद का कलंक उनके चरित्र को कलंकित कर रहा है। भारतीय समाज में ही नहीं, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी एक ऐसी छवि पेश कर रहा है जो वास्तविक्ता से बहुत दूर है। यही कारण है कि जब 9/11 का मामला मेरे सामने आता है तो मैं बहुत गहराई में जाकर सभी घटनाओं तथा उपलब्ध तथ्यों की समीक्षा करता हूं फिर जो कुछ सच नज़र आता है उसे पाठकों की सेवा में पेश कर देता हूं। 26/11 के मामले में भी यही हुआ इस आतंकवादी हमले के तुरंत बाद भारत द्वारा पाकिस्तान पर हमला अपरिहार्य नज़र आने लगा। यह आवाज़ केवल भारत से ही नहीं उठ रही थी, बल्कि अमेरिका लगातार ऐसे प्रयासों में लगा था कि भारत पाकिस्तान पर आक्रमण कर दे। एक मेरा क़लम, आप की दुआएं और मेरा अख़बार लगातार इस प्रयास में लगा था कि पहले सारी परिस्थितियों को समझ लिया जाए, उसके बाद कोई क़दम उठाया जाए। उद्देश्य केवल भारत और पाकिस्तान को युद्ध से रोकना ही नहीं था बल्कि सारी दुनिया के सामने सच्चाई को पेश करना भी था। अल्लाह का करम है कि जैसे-जैसे समय बीतता गया, हालात बदलते गए, पहले अजमल आमिर क़साब और शेष 9 आतंकवादियों से आगे बढ़कर हम सोच ही नहीं रहे थे, यही मास्टर माइंड, यही आतंकवादी, यही विनाश करने वाले। फिर वह समय भी आया कि जब डेविड कोलमैन हेडली के रूप में मास्टर माइंड की हैसियत से एक नया चेहरा सामने आया। यह आतंकवादी एफबीआई का एजेंट था, अमेरिका ने अपनी गुप्तचर ऐजंसी के माध्यम से उसे पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लशकर-ए-तय्यबा में दाख़िल करा दिया था। अमेरिका में ही उसका नक़ली पासपोर्ट बना, जहां उसकी झूठी वलदियत और नागरिकता के साथ उसे भारत और पाकिस्तान में आतंकवाद फैलाने के लिए तैनात किया गया। आज सभी सच्चाइयां हमारे सामने हैं, कल जो लेख मैंने प्रकाशित किया था, उसमें श्री प्रिया दर्शन जी ने भी डेविड कोलमैन हेडली का उल्लेख किया है। मैं इस समय इस विषय पर विस्तार से नहीं लिखना चाहता, गृह मंत्री पी॰ चिदम्बरम के उस बयान कि बटला हाउस की न्यायिक जांच नहीं की जाएगी, के बाद मैंने बटला हाउस पर एक बार फिर लिखने का फैसला किया, इसका कारण क्या है यह आजके इस लेख के आरंभ में ही एक राजा और विद्वान के बीच बातचीत द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है। मैं जब अपनी क़ौम कह कर सम्बोधित कर रहा होता हूं तो उसका अर्थ यह नहीं होता कि मैं केवल और केवल मुसलमानों की बात कर रहा हूं, क्योंकि सबसे अधिक आतंकवाद का दाग़ मुसलमानों के दामन पर लगा है, इसलिए यह बातें उनसे जुड़ी समझी जाती हैं। जबकि हमारी क़ौम से तात्पर्य भारतीय क़ौम है। हमने यह आवाज़ तब भी उठाई थी, जब मुम्बई में राहुल राज और गुजरात में प्रजापति का फर्जी एन्काउन्टर हुआ। हमने हाल ही में बुलंद शहर में एक सैनिक कुलदीप के फर्जी एन्काउन्टर का समाचार भी प्रमुखता से अपने अख़बार में प्रकाशित किया। लेकिन पूरा भारत जानता है कि बटला हाउस एन्काउन्टर, राहुल राज, प्रजापति और कुलदीप के एन्काउन्टर में बड़ा अंतर है। राहुल राज की जब मुम्बई में फर्जी एन्काउन्टर के बहाने हत्या की गई तो आरोप यह था कि वह राज ठाकरे की हत्या करने का इरादा रखता था, लेकिन आतिफ और साजिद का मामला इन सबसे बिलकुल अलग था। मुझे अच्छी तरह याद है कि राहुल राज के फर्जी एन्काउन्टर के बाद लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और नितीश कुमार ने एक मंच पर खड़े होकर खेद भी प्रकट किया था और महाराष्ट्र पुलिस की निंदा भी की थी, लेकिन दिल्ली के बटला हाउस में आतिफ़ तथा साजिद के एन्काउन्टर के बाद किसी भी मुस्लिम राजनीतिज्ञ ने न तो मारे जाने वाले विद्यार्थियों के सर्मथन में एक शब्द कहा और न दिल्ली पुलिस की निंदा की। मैं उनकी आलोचना नहीं कर रहा हूं, उस समय के हालात में उनका यही फैसला ठीक था। अगर किसी पर आतंकवाद का आरोप हो तो उसके समर्थन में खड़ा होना, बयान देना, संघर्ष करना बहुत कठिन होता है। 48 घंटे लगे मुझे भी यह फैसला लेने में कि क्या मुझे बटला हाउस एन्काउन्टर पर क़लम उठाना चाहिए। जब मेरे हाथ में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा का वह चित्र आया, जिसमें वह अपने दो साथियों की सहायता से पैदल चल कर अपनी जिप्सी तक पहुंच रहे थे और इससे पूर्व स्.18 की चैथी मंज़िल पर स्थित फ़्लैट की सीढ़ियां उतर कर नीचे आए थे, तब मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या ऐसा व्यक्ति जो गोलियां लगने के बाद चार मंज़िला सीढ़ियां उतर सकता है, पैदल चल कर अपनी गाड़ी में बैठ सकता है और जिसे केवल पांच मिनट के भीतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सकती है उसकी मृत्यु हो जानी चाहिए? थोड़ी बहुत डाक्टरी की शिक्षा मैंने भी प्राप्त की है, मस्तिषक इस बात को स्वीकार नहीं कर रहा था, फिर भी मैंने पुष्टि के लिए देश के योज्ञतम सर्जन डाक्टर अब्दुर्रहमान उंदरे जो मुम्बई के सबसे प्रसिद्ध अस्पताल लीलावती और जसलोक अस्पताल में कंसलटेंट सर्जन हैं तथा सैफ़ी अस्पातल के सर्जरी डिपार्टमेंट के प्रमुख हैं, उनकी सेवाएं प्राप्त कीं, और जब मुझे उनकी रिपोर्ट प्राप्त हो गईं तो मैंने क़लम उठाया। स्वयं घटनास्थल पर गया, हालात का जायज़ा लिया। सच्चाइयां सामने आती गईं और मैं लिखता गया। मुझे संतोष है कि आज राष्ट्रीय मीडिया भी यह महसूस करने लगा है कि यह एन्काउन्टर इतना साफ़ और पारदर्शी नहीं था कि जिसे प्रश्नों के घेरे में लाने की लाने आवश्यकता न महसूस की जाए। हालांकि उस समय मीडिया ने भी पुलिस के पक्ष को ही सामने रखा था। संतोष का एक दूसरा कारण यह भी है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जिसने पहले पुलिस के बयान को ही सही मानते हुए अपनी राय प्रकट की थी (हमने उसी समय अपने इस लगातार लेख की कई क़िस्तों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस राय पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए थे) लेकिन बाद में जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में होने वाले फर्जी एन्काउन्टरों की सूचि प्रकाशित की तो उसमें बटला हाउस को भी शामिल कर लिया। इस सबके बावजूद भी अगर अब भारत के गृह मंत्री कह रहे हैं कि बटला हाउस एन्काउन्टर की न्यायिक जांच नहीं कराई जाएगी तो इसके अर्थों को समझना होगा। आख़िर वह क्यों नहीं चाहते कि इस एन्काउन्टर का सच सामने आए। जिस प्रकार उनके मन में कुछ बातें होंगी, कुछ ऐसे रहस्य होंगे जिन्हें वह सार्वजनिक नहीं होने देना चाहते, उसी प्रकार मेरे मन में भी कुछ बातें हैं। अगर वह अनुभव करते हैं, उन्हें यह डर है असलियत सामने आने पर वह चेहरे बेनक़ाब हो सकते हैं जिन्हें वह बचाना चाहते हैं तो बस ऐसा ही कुछ मेरे मन में भी है, अगर इस संघर्ष को जारी नहीं रखा गया और यही जनता के मन में बैठ गया कि वह आतंकवादी थे, दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर इत्यादि में हुए बम धमाकों के मास्टर माइंड थे, इण्डियन मुजाहिदीन के आतंकवादी थे और इस आधार पर यह बात भी भारत की जनता के मन में बैठ गई कि आज़मगढ़ आतंकवाद की फैक्ट्री है और इस अज़ीम शहर को आतंकगढ़ का नाम दे दिया जाना ठीक है, जबकि यदि वास्तविकता इसके विपरीत हो तो फिर यह बहुत बड़ा अन्याय होगा, उन दो युवकों के साथ भी और आज़मगढ़ के लोगों के साथ भी, इसीलिए मुझे आवश्यक लगता है कि सच का सामने आना राष्ट्रहित में भी और समाज हित में भी अतिआवश्यक है।

1 comment:

pol-khol said...

आपकी कलम एकतरफा ही क्यों चलती है? दो लौगों की मौत पर इतने आंसू बहा रहे हैं आप? कभी कश्मीरी पंडितों के दर्द पर क्यों नहीं लिखते? बात चरित्र की है तो मुस्लिम आतंकवाद ने जो मुसलमानों के चरित्र को दागदार किया है उसके बारे में भी,लिखा करें! जहां तक जिन्ना के गुणगान और भारत विभाजन की बात है तो याद रखिये आप 47 के उस कत्ले-अम का समर्थन कर रहे हैं! 47 में पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ क्या हुआ था? ये तो बखूबी जानते होंगे आप! एक बात बतायें सिर्फ मुस्लिम ही आतंकवाद की राह क्यों पकडते आये हैं हमेंशा से? इस तरह के लेख लिख कर तो आप उसी आतंकवादी विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं जो ये कहती आई है कि मुस्लिमों पर अत्याचार हो रहे हैं! जो ये कहती है कि दुनिया में इस्लाम के सिवाय कोई महज़ब नहीं रह सकता! आपने प्रसंग तो बहुत अच्छा उठाया! चरित्र और ग्यान की बात भी की लेकिन जिस जगह आप इस कहानी को फिट करने की कोशिश कर रहे हैं वो आपकी पूर्वाग्रह से भरी सोच को ही प्रदर्शित करती है! आप अपनी कौम के विद्वानों में गिने जाते हैं बेहतर होता आप इस कट्टरवादी विचारधारा को पोषित करने की बजाय अपनी कौम की बुराईयों को दूर करने के लिये कुछ लिखते! अफसोस अपनी कौम के लिये आप जैसे लोग ही शिक्षा, रोज़गार, विकास जैसी बातों को कट्टरवाद पर तरजीह देते हैं! पूरा देश इस वक्त मुस्लिम आतंकवाद का कहर झेल रहा है और आप जैसे लोग "आतंकी मुसलमानों" के लिये घडियाली आंसू बहा रहे हैं! इस तरह तो आप लोग एक और विभाजन की साजिश रच देंगे? बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्ज़ी कह कर आखिर क्या कहना चाहते हैं आप? यही ना कि भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं! उन्हें फर्ज़ी एन्काउंटर में मारा जा रहा है! काश्मीर में भारतीय फौजें मुस्लिम महिलाओं की इज़्ज़त से खेल रही हैं! और निर्दोष काश्मीरियों को आतंकी बता कर मार रही हैं! और भी ढेर सारी बातें होंगीं आपके पास कहने लिये! लेकिन यही सब तो वो आतंकी भी कह रहे हैं! यही विचारधारा तो जिहादियों की है! तो क्या फर्क रह जाता है आपमें और उन जिहादियों मे? फर्क सिर्फ यही ना कि वो बन्दूक से जिहाद कर रहे हैं और आप जैसे लोग कलम से...! लेकिन मकसद तो दोनों का एक ही है! हिन्दुस्तान का बटवारा! आपके आखबार में भी आपकी कट्टरपंथी विचारधारा की ही बू आती है! कभी दन्तेवाडा पर भी लिखिये....! नक्सलवाद पर भी लिखिये....! भूख गरीबी और बेकारे पर भी लिखिये...! सिर्फ महज़ब पर नहीं इन्सानियत पर लिखिये....! यहूदियों पर लिखिये....! सिखों पर लिख्ये....! बौध्द और जैन पर लिखिये...! हिन्दुओं पर लिखिये.....! कौम के लिये नहीं वतन के लिये लिखिये.....! माफी चाहता हूं आपसे उम्र में बहुत छोटा हूं......इसलिये मेरी ये कडवी टिप्पणी आपको नागवार गुज़रे तो आप अपन ब्लोग से ये टिप्पणी हटा सकते हैं!