’ नक्सलवादियों को हम आतंकवादी मानें या जिहादी, आज यह भी तय करने की आवश्यकता है, इसलिए कि जितना बड़ा आतंकवादी हमला नक्सलियों ने आज भारत की सेना पर किया, अगर किसी दुश्मन देश के हमले में भी हमारे इतने फौजी जवान मारे गए होते तो हम उस देश को तहस-नहस करने या कम से कम मुंह तोड़ जवाब देने का प्रण ज़रूर कर लेते, लेकिन यह कोई दुश्मन देश नहीं, हमारे अपने ही देश के एक ऐसे संगठन के कार्यकर्ताओं का हमला था, जिनसे सहानुभूतियां भी प्रकट की जाती रही है और सहानुभूति का आधार है कि सामाजिक असमानता के शिकार लोग माओवादी बन गए और उन्होंने उन लोगों को निशाना बनाना शुरू कर दिया, जिन्हें वह उस सामाजिक असमानता के लिए जि़्ाम्मेदार मानते हैं। क्या यही एक तरीक़ा है? बराबरी का दर्जा प्राप्त करने के लिए क्या ऐसे लोगों को सहानुभूति प्राप्त होनी चाहिए? क्या ऐसे लोगों को किसी भी अधार पर सही सिद्ध करने का प्रयास किया जाना चाहिए? आज हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा।
दलित भारत का वह समुदाय था, जिसे सबसे लम्बी अवधि तक समाजिक असमानता के बदतरीन दौर से गुज़रना पड़ा। क्या उसने वह तरीक़ा अपनाया जो आज नक्सलवादी अपना रहे हैं? क्या दलित आज समानता का दर्जा प्राप्त करने में कामयाब नहीं हैं? विभिन्न पिछड़े समुदायों को सामाजिक असमानता का शिकार होना पड़ा, क्या उन्होंने समाज में अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए यही रास्ता अपनाया?
मेरी आदत है कुछ भी लिखने से पूर्व उस विषय से संबंधित सामग्री का भरपूर अध्ययन करना, यही मैंने आज भी किया। समय कम था और दुर्घटना बहुत बड़ी थी। देर तक तो मेरी नज़र उस अफ़सोसनाक त्रासदी से संबंधित समाचारों पर ही रही। फिर यह जानने और समझने के लिए कि आख़िर यह नक्सलवाद क्या है? कब आरंभ हुआ? क्यों आरंभ हुआ? और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के इस पर विचार क्या हैं? फिर जब मैंने इन सब विषयों पर पढ़ना शुरू किया तो पता चला कि नक्सलवाद का आरंभ 1967 में हुआ था, जब मश्चिमी बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में यह आंदोलन स्थानीय ज़मीनदारों के विरुद्ध सशस्त्र किसानों और मज़दूरों का शोषण और समाजिक असमानता के विरुद्ध एक आन्दोलन के नाम पर शुरू किया गया। ’ चारू मजुमदार के नेतृत्व में शुरू हुए इस पहले नक्सलवादी आंदोलन को दो महीने के भीतर ही नाकाम बना दिया गया। और ‘नक्सलवाद’ शब्द का प्रयोग इसलिए हुआ कि नक्सलबाड़ी नामक गांव से इसकी शुरूआत हुई थी। आरंभ में यह आंदोलन तीन उद्देश्यों को सामने रख कर शुरू किया गया था। 1. खेत जोतने वाले किसानों को खेत का स्वामित्व प्राप्त हो, 2. विदेशी पूंजी की शक्ति को समाप्त किया जाए और 3. जात पात और वर्ग व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष किया जाए। इस आंदोलन की शुरूआत के बाद माओवादी विचारधाराओं में विश्वास रखने वाले विभिन्न संस्थानों ने कई राज्यों में इसकी नींव डाली। आंध्र प्रदेश में कोंडा पल्ली सीता रमतैया के नेतृत्व में ‘‘पीपुल्सवार ग्रुप’’ गठित किया गया तो पश्चिमी बंगाल में कन्हाई चटर्जी ने ‘‘माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर’’ की बुनियाद रखी। उस समय यह आंदोलन केवल चार राज्यों तक सीमित था, परंतु आज देश के 16 राज्यों के 195 ज़िले इससे प्रभावित हैं। नक्सलवाद से प्रभावित तमाम ज़िलों में उनका समानांनतर शासन चलता है। पिछले आठ वर्षों में 5 हज़ार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। वर्तमान घटना जिसमें ताज़ा सूचनाओं के अनुसार 83 जवान शहीद हो चुके हैं और बहुत से घायल हैं, अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है। इस हमले के संबंध में और इस तहरीक से संबंधित कहने तथा लिखने के लिए अभी बहुत कुछ बाक़ी है। परंतु इस समय मेरे सामने दो गंभीर तथा प्रतिष्ठित लेखकों के लेख हैं, जिनमें एक 7 अगस्त 2008 को प्रकाशित श्रीमति महाश्वेता देवी का लेख ‘जीवित रहेगा नक्सलवाद’ और दूसरा मुद्रा राक्षस जी का लेख जिसका शीर्षक है ‘असमय: नक्सलवाद में उनकी क्या सज़ा’।
मैं चाहता हूं कि यह दोनों लेख हमारे पाठकों की नज़रों से गुज़रें, इसलिए कि जब मैं आज के बाद इस विषय पर लिख रहा हूं तो बहुत कुछ वह बातें भी मेरे सामने हों, जो अब तक इस नक्सलवाद को लेकर कही जाती रही हैं, उसके बाद बात होगी कि अब उस पर क़ाबू पाने के लिए क्या तरीक़ा अपनाया जाए, जिनकी भी सहानुभूतियां किसी न किसी रूप में उनको प्राप्त थीं या हैं क्या रहनी चाहिए थीं? क्या उनकी इस आतंकवादी प्रक्रिया को ‘जिहाद’ या ‘आंदोलन’ का नाम दिया जा सकता है।
जीवित रहेगा नक्सलवाद
नक्सलवाद की प्रासंगिकता और इसके जन रूझानों मंे कोई कमी नहीं आई है। लगता है, 70 के दशक से कहीं अधिक इसकी ज़रूरत आज है। विगत 10-15 सालों मंे भूखो, गरीबों की संख्या मंे लगातार इज़ाफा हुआ है। रराजनीतिक-आर्थिक तंत्र पूरी तरह अमीरों के हवाले हैं। यह आंदोलन और आगे बढ़ेगा, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था मंे बहुसंख्यक लोग हाशिये पर खड़े हैं और उनका तीमारदार कोई नहीं है। सरकार भी मान रही है कि नक्सलवाद का प्रसार लगातार बढ़ रहा है और अभी यह देश के एक तिहाई से अधिक क्षेत्रों मंे अपनी जड़ें जमा चुका है, लेकिन सरकार नक्सलवाद को लेकर दुविधा पालती रही है कि इसे कानून-व्यवस्था की समस्या माना जाए या सामाजिक-आर्थिक समस्या। समस्या यह है कि सरकार न्क्सलियों के दमन की नीति पर चलती रही और उन समस्याओं पर बिल्कुल गौर नहीं किया, जिनके आलोक मंे नक्सलवाद का उदय हुआ था।
नक्सलवाद लोगों के दिलों मंे इसलिए जगह बनाए हुए है, क्योंकि इसके आंदोलनकर्मियों का अपना कोई हित नहीं होता। उन्हें न तो सत्ता चाहिए और न वोट। वे वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले आत्म-त्यागी लोग हैं। उनमें ग़ज़ब का साहस है। उनके बलिदानी व्यक्तित्व मंे मुझे आदर्श नज़र आता है। उनका आंदोलन ईमानदार, आकर्षक व अच्छे उद्देश्यों के लिए है। यही कारण है कि मेरी लेखनी मंे भी यह प्रमुखता से मौजूद है। फिर आपको यह समझना होगा कि उल्फा, बोडो, एनएससीएन की तरह यह कोई पृथकतावादी संगठन नहीं हैं। फिर नक्सली संगठनों को स्थानीय स्तर पर समर्थन भी पृथकतावादी संगठन से काफी अधिक प्राप्त हैं। नक्सलवाद की जडें़ इसलिए भी मौजूद हैं कि नक्सली संगठनों ने बिलकुल निचले स्तर से अपनी जड़ें जमानी शुरू की। जैसे छत्तीसगढ़ मंे सबसे पहले आदिवासियों को बिचैलियों और तेंदू पत्ता के ठेकेदारों के खिलाफ एकजुट किया गया। ज़मीनी स्तर पर यह आंदोलन शुरू हुआ, इसलिए सरकार के लिए आज यह एक बडी़ चुनौति बन गई है। राज्य व्यवस्था के अपराधिकरण और पंगु होने का नतीजा ही है कि नक्सलवाद का प्रसार तेज़ी से हो रहा है।
जिन मुद्दों पर यह आंदोलन शुरू हुआ था, वे आज भी मौजूद हैं इसलिए कोई कारण नहीं कि इस आंदोलन की जड़ें कमज़ोर हो जाएं। आज देश मंे 56 नक्सल गुट मौजूद हैं और इनके प्रभाव मंे देश की एक-तिहाई भुमि है। मैं समझती हंू कि इसके अधिकार क्षेत्र मंे और बढ़ोत्तरी होगी, क्योंकि समाज से असंतोष और विक्षोभ का नाश नहीं हुआ है। लाखों लाग भूखे, पीड़ित, शोषित और अपने मौलिक अधिकारों से भी वंचित हैं, ऐसे मंे नक्सलवाद का खात्मा कैसे होगा? अर्थव्यवस्था का जब तक असंतुलित विकास होगा, दबे-कुचले लोग व्यवस्था के प्रतिरोध मंे हथियार उठाएंगे ही। यह स्थिति सर्वकालिक व सर्वदेशीय होगी।
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असमयः नक्सलवाद में इनकी क्या सज़ा!
अख़बार और टीवी माध्यम नक्सलवादी अभियानों की आलोचना करते वक्त अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि नक्सलवादी अपने प्रभाव क्षेत्र में अवैध वसूली करते हैं, ठीक माफिया की तर्ज़ पर। सामान्यतः कम्युनिस्ट पार्टी अपने सदस्यों से लेवी लेती है और इसी लेवी के आधार पर पार्टी का काम चलता है, पूर्णकालिक सदस्यों को वतन आदि मिलता है। जब कभी समाचार जगत में आमजन से अवैध वसूली की चर्चा हुई, हमने यही कहा कि नियमित लेवी को ग़लत समझा जा रहा है, लेकिन पिछले हफ्ते एक ऐसे संगठन से अवैध वसूली की ख़बर मिली, जिससे मेरा निकट संबंध रहा है। उनके द्वारा गठित दलित फ्रीडम नेटवर्क ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दलितों के लिए आवाज़ उठायी और 2002 के गुजरात नरसंहार जैसी साम्प्रदायिक घटनाओं पर विश्वमत तैयार करने में बड़ी भूमिका अदा की। इस संगठन से जुड़े नेताओं ने भारत में दलितों और जनजातीय बच्चों के लिए बहुत परिश्रम से स्कूल खोले हैं। ऐसे कुछ स्कूल झारखंड में भी हैं। यह गहरे आघात का विषय था जब झारखंड के इसी क्षेत्र के एक स्कूल चलाने वाले संगठन के नेता ने बताया कि उनके स्कूलों से नक्सलवाद संगठन बड़ी रक़म वसूल रहा है और रक़म न मिलने पर स्कूल जला देने की धमकी दी जा रही है। यह वही इलाक़ा है जहां कभी भोजपुर को वियतनाम बनाने का प्रण लेकर जगदीश महतो, रामेश्वर अहीर जैसे लोगों ने हालात बदलने के लिए वसूली नहीं, अपने प्राण दिये थे। पिछली सदी के पूर्वार्घ में तेलंगाना और साठ के दशक में नक्सलबाड़ी में जो जनसंघर्ष हुए और जिन्होंने देश की युवा पीढ़ी पर गहरा प्रभाव डाला था, यह अवैध वसूली के कारण नहीं, बल्कि एक आदर्श के लिए अपनी जान की क़ीमत पर किया गया जनसंघर्ष था। डीवी राव से लेकर चारू मजूमदार और कनु सान्याल तक और फिर माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर या पीपुल्स वार ग्रुप जैसे संगठनों से हम जैसे लोग चाहे जितना वैचारिक मतभेद महसूस करें लेकिन उन पर छिछोरे गुंडों वाली अवैध वूसली के आरोप कभी नहीं लगे। पिछले साल जब नक्सलवाद पर प्रतिबंध का निर्णय लिया गया तो इस क़दम का तीखा विरोध खुद भारत की उस कम्युनिस्ट पार्टी ने किया, जिसका सबसे कटु विरोध करने के लिए ही नक्सलबाड़ी आन्दोलन गठित हुआ था। ज़ाहिर है कि नक्सलवाद के ऊपर प्रतिबंध का विरोध करने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) भी यह कल्पना नहीं कर सकती थी कि नक्सलवाद अवैध वसूली करने वालों का संगठन है। माक्र्सवादी पार्टी ने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया। कई नक्सलवादी संगठनों के बीच एका हुआ और नई नक्सलवादी पार्टियां वजूद में आयीं। उनके नये दस्तावेज़ बहुत हद तक भगत सिंह के विचारों की याद दिलाते हैं यानी उनकी प्राथमिक क्रियाशीलता बुलेट से शुरू होकर बुलेट पर ही समाप्त होने की नहीं है। उनकी सक्रियता में समूचे वंचित समाज के बीच जनचेतना के बीज बोना है। हालांकि अनेक गुटों में बंटे इस आन्दोलन का अपना एक बड़ा रोग भी है। एक ही उद्देश्य के बावजूद एक-दूसरे से गहरी नफरत। यह गुटीय नफरत उनके दस्तावेज़ों में बहुत खुलकर सामने आयी है। इस आपसी नफ़रत को देखकर थोड़ी हैरानी होती है। ज़्यादा नफरत कुछ इसलिए भी प्रदर्शित होती है कि हर गुट का सिद्धांतकार अपने को दूसरों से कहीं ज़्यादा बुद्धिमान मानता है और बुद्धिमानी की सीमा तो यह होती है कि वह दूसरे सहधर्मी से बहस की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। बहस की कोई गुंजाइश न छोड़ने का ही एक नतीजा यह भी होता है कि आन्दोलन गुट दर गुट बंटता और बिखरता जाता है। एक और बड़ी कमज़ोरी है जो शायद सारे कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ जुड़ी देखी जा सकती है, खासतौर से भारत में। उसकी यह धारणा सही है कि जनसंघर्ष के साथ ही आमजन की जागरूकता का प्रयास ज़रूरी है पर यह काम सिर्फ इस तरह संभव नहीं है कि आन्दोलन की वैचारिकी उनके बीच पहुंचाई जाए। भारत के समाज में जातीय उत्पीड़न और स्त्री की सांस्कृतिक ग़ैर-बराबरी के अलावा साम्प्रदायिक आग लगाने वालों के विरूद्ध मुखर अभियान भी ज़रूरी है। चर्च जलाए जाएं, मस्जिदें ध्वस्त की जाएं, गुजरात नरसंहार हो या उत्तरप्रदेश को गुजरात बनाने की कोशिश- इनका तीखा विरोध नक्सलवाद करता है, आमजन को यह विश्वास भी तो होना चाहिए और इससे आगे बढ़कर आमजन तक यह संदेश भी पहुंचना चाहिए कि नक्सलवाद जनजातीय और दलित बच्चों के लिए लम्बे अरसे से काम करने वाले मिशनरी स्कूलों से अवैध वसूली का विरोध करता है और इसे दंडनीय अपराध मानता है। वरना यह दाग़ समूचे नक्सलवाद का कभी न छूटने वाला दाग़ बन जाएगा।
Tuesday, April 6, 2010
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2 comments:
aziz saaheb aadaab arz he aapka drd or khyaal pdhne ko mile masha allah stik hen lekin aaj yeh to tey ho gyaa he ke hmaare rkshaa sutr, guptchr, home or rksha vibaag bilkul asfl ho gyaa ismen kisi ko to laaprvaahi ki szaa denaa zruriu hi ho gyaa he. akhtar khan akela kota rajasthan
janab hamare yahan ki electronic media in naxli logon ke saath hai kya. ye hamla hamare desh par hamla nahi hai kya? main kal se har news chanel ko dekh raha hun kahin koi detail nahin thi iske bare men aur aap achha likh sakte hain, meri samajh me ek baat nahi aa rahi hai ki in naxli logo ko terrorist ka tag kyun nahi. Anti Terrorist Front ka Bitta abhi kyun khamosh hai? ab woh iska naam badal kar anti muslim front rakh le. janab is desh men bhed bhao kyun KRISHN KARE TO RAAS LEELA main karu to Charecter less
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