Wednesday, March 10, 2010

उठो कि आसमान की बुलंदियों पर अपना नाम लिखना है!

अज़ीज़ बर्नी

कभी-कभी लिखते समय मैं इस बात का ख़याल नहीं रखता कि मेरा लेख साहित्यिक या पत्रकारिता के मूल्यों का किस हद तक पाबंद रहा है। भाषा व बयान के ऐतबार से भी यह कोई ऐसी तहरीर नहीं होती जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके। बेश्तर ख़ामियाँ हो सकती हैं, इसलिए कि हर रोज़ समय ही कितना होता है लिखने व पढ़ने के लिए और फिर मेरे ध्यान का केंद्र तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बात होती है कि क्या मेरे लेख से मेरे पाठकों और समाज तक वह संदेश पहुंच रहा है या नहीं जो मैं पहुंचाना चाहता हूं? अगर हां, तो फिर आप मेरी ख़ुशी और संतुष्टि का अनुमान नहीं लगा सकते। जिस तरह एक बंजर मानी जाने वाली ज़मीन में माली के प्रयास सुंदर फूल खिला देेते हैं और फिर अपने सुंदर चमन को देख कर उसका दिल बाग़-बाग़ हो जाता है, बस ऐसी ही कुछ मानसिक स्थिति मेरी भी होती है।
यूं तो दुनिया भर में महिलाओं को मर्दों के बराबर हैसियत प्राप्त नहीं है। दुनिया के सबसे विकसित देश और तमाम तरह के मानव अधिकारों का ध्यान रखने का दावा करने वाले देश अमेरिका की संसद में भी महिलाओं के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत मर्दों के आस-पास नहीं है। अब रहा मुस्लिम महिलाओं का तो जनाब राजनीति की बात तो छोड़िए, समाज के किसी भी क्षेत्र में वह भले ही कितनी सफल रही हों, उनके हवाले से बस एक ही बात मस्तिष्क में बिठाई जाती है कि वह बेहद पिछड़ी हुई हैं, चार दीवारी में क़ैद हैं, उनके पास प्रगति के अवसर बिल्कुल नहीं हैं, उनसे किसी भी तरह की सफलता की आशा नहीं की जा सकती और संभवतः हमारे धार्मिक, राजनीतिक, समाजिक नेता भी इसी को सच मान बैठे हैं, इसलिए मुस्लिम महिलाओं से कोई आशा नहीं रखते। कम से कम राजनीतिक क्षेत्र में तो बिल्कुल भी नहीं, अतः अब सफर की शुरूआत बस यहीं से करनी है। उर्दू पत्रकारिता जिसे बीते हुए ज़माने की बात कह कर भुला दिया गया था और जिससे समुचित सफलता की आशा टूट गई थी कि इस भाषा की पत्रकारिता एक नई क्रांति ला सकती है, साम्प्रदायिक शक्तियों के तमाम प्रयासों के बावजूद देश में सैक्यूलरिज़्म की सुदृढ़ता में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, तमाम दुनिया में आतंकवाद को इस्लाम के नाम से जोड़ने वालों के इरादों को असफल बना सकती है, अगर यह हुआ तो फिर विशवास कीजिए ‘महिला आरक्षण बिल’ की स्वीकृति इस पिछड़ी क़ौम को, पिछड़ा स्वीकार की जाने वाली महिलाओं को भी ऐतिहासिक प्रगति की राह पर ले जा सकता है।
पुरूष वर्ग बेशक मेरे इस लेख को पढ़े, यदि वह इससे सहमत न हो तब भी ठंडे दिमाग़ से एक बार इस पर ध्यान अवश्य दे, परन्तु मेरा यह लेख मुख्य रूप से अपने देश की महिलाओं के लिए है और उनमें भी मेरे ध्यान का केन्द्र ‘मुस्लिम महिलाऐं’ हैं। नहीं, कोई सकीर्णता नहीं, कारण केवल इतना है कि जिन्हें इस मामले में सबसे अधिक पिछड़ा समझ लिया गया है और जिनसे किसी को कोई उम्मीद नहीं है, यहां तक कि उनके अपनों को भी नहीं, मैं इन लेखों के सिलसिले का प्रारम्भ करते हुए उन्हें मानसिक रूप से इस स्तर तक ले जाना चाहता हूं, जहां से न केवल उनके दामन पर लगाए जाने वाले दाग़ को मिट सकें, बल्कि वह विकास और सफलता का एक ऐसा इतिहास रच सकें, जिसका कोई उदाहरण न हो।
वह भी 8 मार्च का दिन था, जब मोहम्मद अली किले ने एतिहासिक सफलता प्राप्त की और यह भी 8 मार्च का ही दिन था, जब भारतीय संसद के ऊपरी सदन में महिल आरक्षण बिल पेश किया गया, मैं अपनी बात को कहने के लिए या यूं कहिए कि ज़हनों में डालने के लिए कभी खबरों का सहारा लेता हूं, कभी इतिहास का उल्लेख करता हूं, तो कभी विपरीत विचारधारा रखने वालों के बयानों या उनकी पुस्तकों के अंशों को अपने लेख का भाग बना कर प्रस्तुत करता हूं, इसी प्रयास में आज मैं दुनिया के एक प्रसिद्ध व्यक्ति मोहम्मद अली किले के निजी जीवन की एक छोटी सी झलक अपने पाठकों की सेवा में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि उन सबको इसे केवल पढ़ना ही नहीं है, बल्कि अपने जीवन के लिए मार्ग दर्शक भी बनाना है। तो आईये पहले एक नज़र काॅशिस मार्कूयूलस किले उर्फ मोहम्मद अली किले के जीवन के उतारचढ़ाव पर, फिर बात अपने पतन से ऊचाई की ओर उड़ान पर।
(Cassius Marcellus Clay) जिनको आज पूरी दुनिया मुहम्मद अली किले के नाम से जानती है और दुनिया की कई जानी-मानी संस्थाओं के द्वारा शताब्दी के व्यक्ति की उपाधी पाने वाले इस अश्वेत व्यक्ति ने 17 जनवरी 1942 में अमेरिकी शहर लुई सूली में ग़रीब माता-पिता के यहां जब आंख खोली तो चारों तरफ़ जातिवाद के काले बादल थे। मार्केलस किले के छोटे भाई रूडी ने उनके बचपन की रुचि के बारे में जो कुछ बताया उससे अली की बाॅक्सिंग की रुचि और जुनून पर रौशनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि वह (किले) उनसे कहते थे कि वह उन पर पत्थर मारें, मैं उनके आदेश का पालन यह सोचते हुए करता था कि शायद वह पागल हैं। लेकिन हर मर्तबा वह मेरे पत्थर से बच जाते थे, चाहे मैं कितनी ही तेज़ी से पत्थर फेंकूं और कितने ही पत्थर फेंकूं, क्या मजाल कि कोई एक पत्थर भी उनके लग जाए। मेरे पत्थर से कभी उनको चोट नहीं लगी।
एक बार 1954 में जब वह 12 वर्ष के थे तो कोलम्बिया आॅडिटोरियम में अपनी नई साइकिल ले कर गए, किसी ने उसे चुरा लिया तो वह रोते हुए एक पुलिस वाले के पास पहुंचे और उस पुलिस वाले जिसका नाम जू मार्टिन था, उसने किले को बहलाते हुए कहा कि वह उसको मुक्केबाज़ी सिखाएंगे ताकि वह साइकिल चुराने वाले की धुनाई करें। यह वही जू मार्टिन थे जो बाद में मुहम्मद अली किले के ट्रेनर बने और उन्हें बाक्सिंग का पहला पाठ पढ़ाया। ‘अपने प्रतिद्वंदी को चेलंेज करने से पहले लड़ना सीखो’। इसी गुर को सीख कर किले ने बाक्सिंग का सबसे पहला मुक़ाबला जीता। इस मुक़ाबले में 4 डाॅलर का इनाम पाने से शुरूआत करने वाले किले आगे चल कर विश्व के सबसे बड़े हैवी वेट चैम्पियन बने। जू मार्टिन का कहना है कि वह (किले) मैदान में केवल इसलिए सफल रहा कि वह पक्के इरादे वाला लड़का था। उसमें मंज़िल प्राप्ति के लिए कु़रबानी की भावना थी। उसका कोई हौसला नहीं तोड़ सकता था। मैंने जितने लड़कों को ट्रेनिंग दी उनमें वह सबसे अधिक सख़्त जान था। यही कारण था कि सफलता उसके क़दम चूमती रही। 1956 में Novice Golden Gloves Champion Ship जीती। इसके बाद 1959 में लाइट हैवी वेट का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।
1960 के ओलम्पिक मंें जीत दर्ज कराने वाले लाइट और हैवी वेट ओलम्पिक चैम्पियन मुहम्मद अली को यह पुरस्कार साइकिल चोरी की घटना के केवल 6 वर्ष बाद ही मिल गया था। लेकिन अमेरिका के लिए इतनी क़ुरबानी देने वाले और सम्मान प्राप्त करने वाले इस व्यक्ति को न्यूयार्क के रेस्तोरां में यह एहसास दिलाया गया कि उसकी चमड़ी का रंग काला है, अतः उसको एक अलग मेज़ पर बैठना होगा।
अपने दिल में आगे बढ़ने की आग लिए काॅशिस किले ने 1963 में इंगलैंड में वहां के हैवी वेट चेम्पियन हेनरी कूपर को 25 हज़ार व्यक्तियों की भीड़ के सामने धूल चटा दी। 1964 में किले ने हैवी वेट चेम्पियन Sonny Listion पर बढ़त प्राप्त कर ली। यह वहीSonny Listion था जिसने बाक्सिंग में अपना दबदबा बना रखा था। इस तरह किले 25 फरवरी 1964 को, जब उनकी आयु केवल 22 वर्ष थी, हैवी वेट चेम्पियन बन कर उभरे। सफलता और महानता के इस स्थान पर पहुंचने के अगले ही दिन अर्थात 26 फरवरी 1964 को किले ने अपने मुसलमान होने की घोषणा कर दी। आलोचकों ने इस घोषणा को दौलत और सम्मान के सामने बहुत बड़ी रुकावट ठहराया, लेकिन उन्हांेंने तमाम टिप्पणियों की अंदेखी करते हुए अपना नाम मुहम्मद अली किले रख लिया। 6 मार्च 1964 में जब अमेरिकी सरकार ने मुहम्मद अली किले से वैतनाम युद्ध में सेवाएं देने के लिए कहा तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि वैतनाम के लोगों से उनका कोई झगड़ा नहीं है। यह बात सरकार को नागवार गुज़री और उनको विभिन्न बाक्सिंग संस्थाओं की सदस्यता से वंचित कर दिया गया, जू फ़िरिज़यर को कई सम्मान दिए गए और किले पर पाबंदी लगा दी गई। यह पाबंदी साढ़े तीन वर्ष तक रही, लेकिन आगे बढ़ने से इस शेर को कोई नहीं रोक पाया। मुहम्मद अली ने अदालत में अपना पक्ष रखा। कई राज्यों और बाक्सिंग संस्थानों ने उनको मुक़ाबले के लिए रिंग में उतरने की अनुमति देनी शुरू कर दी। 8 मार्च 1971 को उनका मुक़ाबला उनके पक्के दुशमन जू फ़िरेज़ियर से हुआ। इस मुक़ाबले को इतिहास में Fight of the century भी कहा जाता है, क्योंकि अली का मुक़ाबला एक ऐसे व्यक्ति से था जिसे उनकी रिंग से उनुपस्थिति में बाक्सिंग के पुरस्कार दिये गये थे। इस मुक़ाबले पर पूरे अमेरिका की निगाह थी। हर व्यक्ति इस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनना चाहता था और वही हुआ जिस पर मुहम्मद अली किले को विशवास था। उन्होंने जू फ़िरेज़ियर को 15वें मुक्के में ही ढेर कर दिया। इसके बाद उनकी सफलताओं के दरवाज़े खुलने लगे। कुछ दिन अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने वियतनाम न जाने के मुहम्मद अली किले के फैसले को सही ठहराया और उन तमाम मुक़दमों से बरी कर दिया जो सरकार ने उन पर थोपे थे। वह एक बार फिर सफल हो कर उभरे और रिंग में भी सफलताओं का सिलसिला फिर चल निकला। एक बार फिर 1 अक्तूबर 1975 में तीसरी बार उनका मुक़ाबला अपने जानी दुशमन जू फिरेज़ियर से हुआ। इस मुक़ाबले में जिसे बाक्सिंग के इतिहास का सबसे बड़ा मुक़ाबला कहा जाता है फ़िरेज़ियर को पराजय हुई। अली पूरी दुनिया में मज़लूमों के मसीहा और किसी हद तक इस्लमी दुनिया में हीरो बन कर उभरे। 15 सितम्बर 1978 में उनको विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला। वह 3 बार हैवी वेट चेम्पियन बने। 39 वर्ष की आयु में उन्होंने बाॅक्सिंग रिंग को छोड़ दिया, लेकिन बाॅक्सिंग से हटने के बावजूद उनका सम्मान बना रहा। 1998 में संयुक्त राष्ट्र ने उनको अपना शांतिदूत नियुक्त किया और 1999 में एक बड़ी विश्व खेल मैगज़ीन Sports Illustrated'' ने उन्हें ‘शताब्दी का बेहतरीन खिलाड़ी’ और बीबीसी ने ‘शताब्दी का स्पोर्ट पुरूष घोषित किया। खेल-कूद में रुचि के बावजूद वह कल्याणकारी, धार्मिक कामों में व्यस्त रहे। इन सेवाओं की स्वीकारोक्ति में मुहम्मद अली किले को 2005 में अमेरिका का सबसे बड़ा सम्मान ''Presidential Medal of Freedom'' दिया गया। आज उनकी बेटी लैला अली अपने पिता मुहम्मद अली किले की बाॅक्सिंग में शानदार परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं। 2002 में लाॅस वेगास में आई बी ऐ ख़िताब जीत कर सुर्ख़ियंों में आने वाली लैला ने 24 मुक़ाबलों में भाग लिया है और वह हर मुक़ाबले में विजयी हुई हैं।’’
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1 comment:

वर्षा said...

मुहम्मद अली के बारे में विस्तार से पढ़ना अच्छा लगा।
वैसे महिलाओं के बारे में मेरा विचार ये है कि दुनियाभर की महिलाएं एक ही धर्म और जाति की हैं,वो है उनका कमज़ोर होना, चाहे मुस्लिम परिवार की महिला हो, दलित वर्ग की कोई महिला हो या फिर हिंदू की। कम से कम यहां महिलाओं को एक ही रहने दिया जाये।
हालांकि आपने सोचा नहीं था आपका लेख कोई महिला पढ़ेगी।