अज़ीज़ बर्नी
एक ज़माना था जब बच्चे प्रतिदिन रात होने का इंतिज़ार करते थे, इसलिए कि वह नींद की गोद में जाने से पहले अपनी नानी या दादी से कोई कहानी सुनना चाहते थे और यह दादी या नानियां भी हर दिन एक नई कहानी अपने मन में तैयार रखती थीं। कभी परियों की कहानी, कभी राजा और रानी की कहानी, कभी लकड़हारे की कहानी और कुछ कहानियां तो ऐसी भी होती थीं जिनका हक़ीक़त से दूर-दूर तक संबंध नहीं होता था। वह पूरी तरह उनके मस्तिष्क की पैदावार होती थीं, मगर फिर भी बहुत अच्छी हेती थीं, इसलिए कि वह उन कहानियों के माध्यम से बच्चों को सोने से पहले कोई संदेश देना चाहती थीं। बाक़ी कहानियों का भी यही उद्देश्य होता था। ईमानदारी का, सच्चाई का, बहादुरी का गरज यह कि जीवन के सभी क्षेत्रों में यह कहानियां उन बच्चों का मार्ग दर्शन करती थीं, मगर वक़्त बदल चुका है। अब बच्चों को कहानियों की प्रतीक्षा नहीं रहती, वह टेलीवीज़न पर कार्टून फिल्म देखते-देखते सो जाते हैं। कभी-कभी तो मैं सोचता हूं कि क्या यह दुनिया इसीलिए कार्टून के रूप में ढलने लगी है, यानी हम पर नकारात्मक सोच हावी होने लगी है, क्योंकि हमारी नई पीढ़ी ने अपने ध्यान का केंद्र अब उन सीख देने वाली कहानियों को बनाना छोड़ दिया है, जो उन्हें सही रास्ते पर चलने के लिए तैयार करती थीं। शायद इस बदलते समय ने अब हमारी दादियों और नानियों से भी अपने पोते-पोतियों और नवासे-नवासियों का सिर अपनी गोद में रख कर कहानी सुनाने का चलन छीन लिया है, इसलिए कि शायद अब उनकी आंखें टेलीवीज़न सीरियलों पर जमी रहने लगी हैं, जहाँ हर घर साज़िश का शिकार दिखाई देता है। बहरहाल, मेरा उद्देश्य न टेलीवीज़न पर टिप्पणी करना है और न ही मैं समय के इस बदलते मिज़ाज को निशाना बनाने का इरादा रखता हूं, हां, मगर जो सिलसिला टूट गया था उसे फिर से जोड़ना चाहता हूं। शायद इसीलिए अब मैंने कभी-कभी कहानियां सुनाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। फर्क़ केवल इतना है कि वह कहानियां नीेंद की गोद में जाने से पहले सुनाई जाती थीं और यह कहानियां नींद से जागने के बाद। वह कहानियां बच्चों के मासूम मस्तिष्क को सामने रख कर सुनाई जाती थीं और यह कहानियां परिपक्व मस्तिष्कों को एक इनक़लाब पैदा करने के लिए तैयार करने के इरादे से सुनाई जाती हैं। हां, मगर उद्देश्य आज भी वही है जो बीते ज़माने में था।कल मैंने अपने लेख का आरम्भ मुहम्मद अली किले की कहानी से किया था। दरअसल उस कहानी के द्वारा मैं एक साथ कई संदेश देना चाहता था। निश्चय ही वह संदेश आप तक अवश्य पहुंचा होगा, फिर भी अपने दिल की तसल्ली के लिए मैं उन बिंदुओं को आज विस्तार के साथ पेश करना चाहता हूं, जिनको मन में बिठाने के लिए मैंने मुहम्मद अली किले की कहानी सुनाई थी। मुहम्मद अली किले जिनका पुराना नाम काॅशिस मारक्यूलस किले था। 17 जनवरी 1942 को अमेरिकी नगर लोइसली के एक ग़्ारीब परिवार में पैदा हुए। उनके जन्म के समय अमेरिका में चारों ओर जातिवाद का माहौल था। इस वक़्त मैं जिनको सम्बोधन कर रहा हूं, उन्होंने अमीर घरानों में आंखें खोली हों या ग़्ारीब परिवारों में, मगर कमोबेश इस हक़ीक़त का सामना तो उन्हें भी करना ही पड़ा होगा। हम भाग्यशाली हैं कि हमारा देश जातिवाद का शिकार नहीं है। यहां विभिन्न धर्मों, रंग व रूप और भाषाओं के बोलने वाले एक साथ रहते हैं और उनमें भेदभाव नहीं किया जाता, मगर यह बात शतप्रतिशत हर व्यक्ति पर लागू नहीं होती। ऐसे भी लोग हैं, जो आज तक दो धर्मो के सिद्धांत के दायरे से बाहर नहीं निकले हैं। बस यह बातें उन्हीें को समझाने के लिए हैं कि यदि एक प्रतिशत या उससे भी कम किसी न किसी रूप में ऐसे किसी भेदभाव का शिकार हैं तो मुहम्मद अली किले की कहानी का यह शुरूआती दौर उनके लिए साहस दिलाने वाला साबित हो सकता है, इसलिए कि बहरहाल भारत में अमेरिका जैसी जातिवाद की स्थिति तो नहीं है। अगर वहां इस माहौल में एक ग़्ारीब परिवार में पैदा होकर मुहम्मद अली किले ने इतिहास रचा तो फिर आप भी ऐसा कर सकते हैं/कर सकती हैं। दूसरी बात जो अत्यंत महत्वपूर्ण और दिल को छू लेने वाली है, वह यह कि काॅशिस किले अपने छोटे भाई से कहते थे कि मुझे पत्थर मारो, अर्थात छोटे भाई से पत्थर खाने का साहस भी था उनमें। छोटा भाई उन्हें पागल समझता था, अर्थात उनके अपने भी उन्हें अगर पागल समझ रहे थे तो वह उससे भी निशचिंत अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहे थे। अब अगर कोई समझता है आपको पागल या जािहल तो समझने दीजिए, वह आपसे छोटा है और आपको पत्थर मार रहा है तो दिल छोटा ना करें, और याद रखें फिर उसी भाई का कहना था कि मैं पूरी ताक़त से उनको पत्थर मारता, बार-बार और लगातार मारता, मगर वह हर बार बच जाते। बस यही कला, यही साहस, यही बहादुरी हमें अपने अंदर पैदा करनी है। पत्थर अगर सभी दिशाओं से आ रहे हैं तो आएं, कोई एक पत्थर भी हमें छू कर न गुज़रे, काॅशिस किले की कहानी हमें यही सीख भी देती है। काॅशिस किले की साइकिल किसी ने चुरा ली और वह रोते हुए एक पुलिस कर्मी के पास पहुंचे जहां उसने कहा आओ मैं तुम्हें मुक्के बाज़ी का प्रशिक्षण देता हूं ताकि तुम उस चोर की धुनाई कर सको, जिसने तुम्हारी साइकिल चुराई है। मैं आपको किसी की धुनाई करने की प्रेरणा तो नहीं दूंगा, लेकिन हां, जो कुछ आपका चुरा लिया गया है, छीन लिया गया है, उसे अपनी क्षमताओं के बलबूते पर फिर से प्राप्त करने की बात ज़रूर कहूंगा। अब यह भलीभांति जानते हैं/जानती हैं कि आपसे आपका क्या छीन लिया गया है या चुरा लिया गया है।‘जोमार्टिन’ नाम था उस पुलिस कर्मी का, जिसने काॅशिस किले को पहला सबक़ देते हुए कहा था कि अपने प्रतिद्वंदी को चैलेंज करने से पहले लड़ना सीखो, गुर की बात है जो हम सबको हमेशा याद रखनी चाहिए। न तो मैं विषय से भटका हूं और न ही इस भ्रम का शिकार हूं कि जोमार्टिन की तरह आपको सीख देने का साहस कर रहा हूं। मुझे याद है, महिला आरक्षण बिल के संदर्भ में जो बात शुरू की थी, मैं उसी को आगे बढ़ा रहा हूं। मेरा सम्बोधन उन्हीं मुस्लिम महिलाओं से है जो दुनिया के हर देश में जातिवाद की शिकार हैं और उनमंे मुसलमान महिलाएं कुछ अधिक ही हैं। चारों ओर से उन पर पत्थर बरसाए जाते हैं, आप यहां पाबंदियों को पत्थर समझ सकते हैं, बस इन्हीं हालात के बीच से गुंजाइश निकालनी है, रास्ता तलाश करना है आगे बढ़ने का। मैं फिर कल की कहानी का ख़ुलासा पेश करने की ओर वापस लौटता हूं। जोमार्टिन ने कहा था कि अपने प्रतिद्वंदी को चैलेंज करने से पहले लड़ना सीखो। यह शब्द या सीख हम सबके लिए बड़ी लाभदायक है। राजनीति एक बहुत बड़ा चैलेंज है, बल्कि मेरा मानना है कि भयानक तूफ़ान से गुज़र जाना आसान है, राजनीतिक चरण तय करना आसान नहीं है। इसलिए कि किसी भयानक तूफान से यदि कोई एक हमदर्द भी आपको निकालना चाहता है तो उसके निःस्वार्थ होने पर आपको संदेह करने की आवश्यकता नहीं है, परंतु राजनीति में 100 लोग भी आपके प्रति निःस्वार्थ होने का दावा करें तब भी उन पर विश्वास करना कठिन है, इसलिए कि वह 100 के 100 आपको डुबो सकते हैं। फिर भी चलना है आपको इस रास्ते पर निर्भय हो कर। पैदा करनी हैं अपने अंदर वह क्षमताएं कि जब आप अपने प्रतिद्वंदी को चैलेंज करें तो वह आपसे भयभीत हो, आप उससे भयभीत न हों। जोमार्टिन का कहना था कि काॅशिस किले मैदान में केवल इसलिए सफल रहा कि वह पक्के इरादे वाला था, उसमें मंज़िल को प्राप्त करने के लिए क़ुर्बानी की भावना थी। कोई उसका साहस तोड़ नहीं सकता था। वह बहुत सख़्त जान था, यही कारण है कि सफलता उसके क़दम चूमती रही। दरअसल यही वह गुण हैं कि जिसके अंदर पैदा हो जाएं, उसे सफलताएं प्राप्त करने से रोकना तो दूर इतिहास रचने से भी कोई नहीं रोक सकता। यदि यह तमाम गुण आप अपने अंदर पैदा कर सकें, जिनकी वास्तव में आपको आज अत्यंत आवश्यकता है और केवल अपने लिए नहीं, अपने परिवार के लिए नहीं, बल्कि अपनी क़ौम और देश को ऐतिहासिक कामयाबी की ओर ले जाने के लिए यह विशेषताएं आपकी बुनियादी ज़रूरतें हैं। ऐसी बहुत सी घटनाएं और कहानियां हैं मेरे मन में, जिन्हें आपका साहस बढ़ाने के लिए आपके सामने रखना लाभदायक हो सकता है, लेकिन मैं आज आपको न कोई और नई कहानी सुनाने का इरादा रखता हूं और न इस विषय से हटकर कोई और बात करना चाहता हूं। जिस समय मैंने इस विषय पर लिखने का निर्णय किया था तो धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में यह कल्पना की जा रही होगी कि मैं उन मुद्दों पर बात करूंगा जिन्हें सामने रख कर मुस्लिम महिलाओं को राजनीति के लिए अयोग्य क़रार दिया जाता है। मैं शिक्षा और पर्दे के विषय पर बात करूंगा। निःसंदेह यह सब भी ऐसी बातें हैं जिन पर विचारविमर्श करने की ज़रूरत है। परंतु सबसे पहले आवश्यक है वह संकल्प और वह इरादे कि परिपक्वता, उस मस्तिष्क का निर्माण जो हमें सफलता से रूबरू कर सके। किसी की सोच का विरोध अगर हमारा उद्देश्य बन गया तो फिर हम उस दिशा में आगे नहीं बढ़ सकते, जिस पर कि आगे बढ़ना चाहते हैं। वह सभी आशंकाएं अपनी जगह हैं, जिनकी ओर हमारे धार्मिक नेता इशारा करते रहे हैं, मगर हमें उनकी बात को रद्द किए बिना सभी सिद्धांतों का पाबंद रहते हुए, उनके सभी अंदेशों को दूर करते हुए ऐसी सफलताएं प्राप्त करने का रास्ता तलाश करना है जिसे वह भी प्रशंसीय और अनुसर्णीय कह सकें। आजके इस लेख को समाप्त करने से पूर्व मैं आंकड़ों के हवाले से केवल एक बात कहना चाहूंगा, वह यह कि यूं तो राजनीतिक मैदान में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मर्दों की अपेक्षा दुनिया के हर देश में कम है, परंतु इस समय चूंकि बात मुस्लिम महिलाओं को सामने रख कर की जा रही है, भारतीय राजनीति के परिपेक्ष में की जा रही है, इसलिए यह स्पष्ट कर देना आवश्यक लगता है कि आज भी भारत के मुक़ाबले महिलाओं का प्रतिनिधित्व आंकड़ों की दृष्टि से, पाकिस्तान और बंगलादेश में अधिक है। जहां भारत में 543 सदस्यीय लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 59 (10.8) प्रतिशत है और आज़ादी के बाद यह पहले संसदीय चुनाव यानी 1952 से लेकर 15वीं लोकसभा के लिए 2009 में हुए चुनाव तक सबसे अधिक है, जबकि पाकिस्तान और बंग्लादेश में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 22.2 प्रतिशत और 18.6 प्रतिशत है। यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि यदि पाकिस्तान और बंग्लादेश जैसे मुस्लिम बहुल्य देशों में भी भारत में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मुक़ाबले बेहतर प्रतिनिधित्व हो सकता है तो फिर यह सोच लेना कि मुस्लिम महिलाओं के लिए अवसर बहुत कम हैं, किस हद तक उचित होगा। अब रहा सवाल इस बात का कि भारत में मुस्लिम महिलाओं का मुक़ाबला अन्य धर्मों की महिलाओं से है और वह इस मुक़ाबले में कमज़ोर सिद्ध हो सकती हैं, शायद यह भी हमारी आशंका है। बहरहाल इस मसले पर गुफ़्तगू इस लेख की आगामी क़िस्तों में।
Thursday, March 11, 2010
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