यह बात 1991 की है, रमज़ान का महीना था, तारीख़ अब याद नहीं। दिल्ली में मेरे निवास पर रोज़ा इफ़्तार था, शब्द ‘‘इफ़्तार पार्टी’’ लिखना मुझे उचित नहीं लगा। उस इफ़्तार में राजीव गांधी जी को भी शामिल होना था। (उनसे इतनी निकटता का कारण क्या था, यह बाद में किसी और दिन लिखूंगा)। बहरहाल वह उस रोज़ रोज़ा इफ़्तार में शिरकत न कर सके, इसलिए कि उसी दिन ‘‘राष्ट्रीय एकता परिषद’’ की बैठक बहुत लम्बी चली, जिसमें उन्होंने मुलायम सिंह यादव की जमकर प्रशंसा की। लेकिन उन्होंने अपनी नुमाइंदगी के लिए कांग्रेस के महासचिव एच।के।एल भगत, कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता वी.एन गाडगिल और मैजर वैद प्रकाश जी को भेजा। इस घटना की चर्चा मैंने केवल मुलायम सिंह यादव के भारतीय राजनीति में महत्व को सामने रखने के लिए की। यह वह समय था, जब मैंने ‘‘सहारा इण्डिया परिवार’’ का मीडिया विंग ज्वाइन किया ही था और कोई भी अख़बार अभी शुरू नहीं हुआ था। उसके कुछ दिन बाद ही दिल्ली के प्रेस क्लब में मुलायम सिंह यादव से मेरी मुलाक़ात हुई, उन्होंने मुझे अपने साथ गाड़ी में बैठने का निवेदन किया और रास्ते में हमारी देर तक बातें हुईं। यह पहला अवसर था जब मुलायम सिंह से मेरी निकटता की शुरूआत हुई और उसकी बुनियाद थी उनके द्वारा ‘बाबरी मस्जिद की सुरक्षा’ और मैं उनके सैक्यूलरिज़्म से बहुत प्रभावित था, शायद यही कारण था कि उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव का जब समय आया तो 1993 का इलेक्शन बहुत हद तक मैंने प्लान किया। शाही इमाम से हुए विवाद, उनके पत्रों का उत्तर लिखने से लेकर मुलायम सिंह के लिए स्लोगन लिखे और कुछ पोस्टर भी डिज़ाइन किए। यह मेरे दिल की आवाज़ थी, उसका किसी भी तरह का कोई व्यवसायिक या आर्थिक संबंध नहीं था। वैसे भी उस ज़माने में मुलायम सिंह यादव के पास इतने पैसे ही नहीं होते थे कि वह चुनाव अभियान के लिए खुले हाथों ख़र्च कर सकें। मुझे अच्छी तरह याद है पोस्टर मैंने डिज़ाइन किए और उनको छापने का ख़र्च उठाया ठाकुर अमिताभ आधार ने। अमिताभ आधार अपने नाम के साथ ठाकुर नहीं लिखते थे, यह मैंने इसलिए लिखा ताकि समझा जा सके कि अमिताभ आधार भी ठाकुर थे। उनमें से जो स्लोगन समाजवादी पार्टी 18-19 वर्षों तक प्रयोग करती रही, वह थाः
‘‘या अल्लाह जिसने तेरा घर तोड़ा उसका गुरूर तोड़ दे या अल्लाह जिसने तेरा घर बचाया उसकी आबरू बचा लेऔर वह है मुलायम सिंह यादव।’’
दूसरा स्लोगन जो मुझे बहुत पसंद था, वह थाः‘‘उनका यह नारा है जो कहते सो करते हैं (भारीतय जनता पार्टी)और यह पैग़ाम हमारा है बुरा कहते हैं बुरा करते हैंये भारत को शर्मिंदा करते हैं।’’
(समाजवादी पार्टी)मुलायम सिंह यादव जीते, उनकी सरकार बनी, मुझे बहुत अच्छा लगा। एक समय ऐसा भी आया कि मैं सोचने लगा कि इस व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए। स्पष्ट हो कि उस समय तक राजीव जी दुखद घटना का शिकार हो चुके थे (जिनका मैं बड़ा सम्मान करता था और बहुत पसंद करता था)। मैंने मुलायम सिंह यादव से कहा कि मुसलमान आप पर जान छिड़कते हैं और वह केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे भारत में हैं, आप ज़रा इस दायरे से बाहर निकलिए और देखिए कि आपका किस तरह स्वागत होता है। अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए मैंने हैदराबाद में उनके लिए एक बड़ी जनसभा आयोजित की। उस समय तक अमर सिंह भी उनके साथ जुड़ चुके थे और हैदराबाद के एक होटल में हम साथ-साथ ठहरे थे, बहरहाल जनसभा बहुत सफल रही, मुलायम सिंह यादव बहुत प्रसन्न हुए। मेरी सामाजिक हैसियत या क़ौम के बीच पहचान आज जैसी तो बिल्कुल भी नहीं थी, मगर क़ौम के लिए कुछ कर गुज़रने की भावना और राजनीति का शौक़ बहुत था, इसलिए बहुत से शहरों में कुछ लोगों से ऐसे संबंध तो स्थापित कर ही लिए थे कि हैदराबाद जैसी जनसभा कलकत्ता, बैंगलोर और मुम्बई जैसे शहरों में भी आयोजित कर सकूं। फिर धीरे-धीरे समय बीतता गया, मुलायम सिंह के निकट और बहुत से लोग आते गए, मैं कुछ दूर होता गया, शायद मैं ज़रूरत से ज़्यादा भावुक और ख़ुद्दार हूं, फिर भी संबंध लगातार क़ायम रहे। कभी कोई नाराज़गी नहीं, कभी कोई खटास नहीं। यह संबंध उस समय टूटा जब मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को अपना दोस्त बना लिया। मुलायम सिंह को मेरी वह अंतिम मुलाक़ात आज भी याद होगी जब इस विषय पर मेरी उनसे एक लम्बी चर्चा हुई थी और वह दिन मेरे लिए कई दृष्टि से निर्णय का दिन था।बहरहाल न वह अपना निर्णय बदलने को तैयार थे, न मैं अपना निर्णय बदलने को तैयार था। इस सम्बी बातचीत के दौरान कई बार यह अवसर आया कि मेरी आंखें भीग गईं और वह भी भावुक हुए, यहां तक दो बार मुझे उनके वाशरूम जाकर अपना चेहरा धोना पड़ा। यह सब वह बातें हैं, जिन्हें न मैंने कभी लिखा और न कहा, मगर आज मैं मुलायम सिंह यादव को यह सब इसलिए याद दिलाना चाहता हूं कि उनका या उनकी पार्टी का भविष्य वर्तमान विवाद के बाद जो भी हो? मगर उनके लिए यह चिन्तन की घड़ी है कि उन्होंने इस बीच क्या पाया है और क्या खोया है? मेरे कल के ‘ब्लाग’ के बाद अमर सिंह से फ़ोन पर लम्बी वार्ता हुई। यह फोन उन्होंने लंदन से किया था। एक घण्टे की बातचीत का केंद्रीय विचार भी इतना लम्बा है कि उसे आज लिखने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। वैसे भी यह तमाम बातचीत निजी तरह की थी। हां, कुछ बातें ऐसी अवश्य हैं जिन्हें किसी और दिन लिखा जा सकता है। इस समय प्रोफ़ेसर रामगोपाल यादव का बयान ‘‘अमर ने किया सपा का सत्यानाश’’ और अमर सिंह की प्रेस रिलीज़, जो एक वैबसाइट पर मौजूद है ‘‘सपा में कोई केकेई है’’ मेरे सामने है, मगर मैं इन दोनों पर भी आज कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता और कल भी नहीं, इसलिए कि कल मुझे अपनी वैबसाइट, ब्लाग, फेस बुक और ट्वीटर पर लिखना है, ‘इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य का कांग्रेस पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।’ जी हां, यह सब कुछ मैं अपने अख़बार में अपने स्थाई काॅलम ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ के तहत नहीं लिख रहा हूं क्योंकि यह सभी बातें अत्यंत निजी हैं, जिन्हें एक अख़बार के एडीटर के नाते मुझे नहीं लिखनी चाहिए, मगर कोई ज़रिया तो हो अपने दिल की बात कहने के लिए तो चलिए यह सिलसिला अपनी वैबसाइट और ब्लाग पर ही सही।
Saturday, January 9, 2010
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1 comment:
आज के दौर में अधिकतर नेताओं का कोई दीन ईमान नहीं होता ..
साम दाम दंड भेद . कुछ भी करो गद्दी मिलनी चाहिए ,संकुचित सोच है हर किसी की ..मानव मूल्यों की कोई बात नहीं करता
एक कहावत है ..मैंने पिया मेरे घोड़े ने पिया अब कुआं तू ढह जा .
धन्य हो नेता और उनके चमचे .
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