Wednesday, December 30, 2009

............अलविदा-2009............


साल 2009 समाप्ति पर है, अगर हम एक उचटती हुई नज़र अपने देश और क़ौम के हालात पर डालें तो अंदाज़ा होगा कि जहां देश आतंकवाद की समस्या को लेकर परेशान रहा और हमारी केंद्रीय सरकार हर क्षण आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष करती नज़र आई, वहीं हमारी क़ौम के लिए भी कोई राहत का मुक़ाम नहीं था। अल्लाह का बड़ा करम और एहसान है कि पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष हमारे युवकों को आतंकवादी कार्रवाइयों में इस तरह तो लिप्त नहीं दिखाया गया, जैसा कि एक धारणा बन गई थी। निःसंदेह यह सिलसिला अभी भी बंद तो नहीं हुआ है, मगर जिस तरह पिछले 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले ने हमारे दिलों को दहला कर रख दिया था और हम भयभीत थे। हर क्षण यह लगता था कि जिस तरह 11 जुलाई 2006 को मुम्बई लोकल ट्रेन में होने वाले बम धमाकों, 8 सितम्बर 2006 को मालेगांव बम धमाकों, 18 मई 2007 को हैदराबाद में मक्का मस्जिद बम ब्लास्ट और दिल्ली में 13 सितम्बर 2008 को हुए बम धमाकों के बाद बड़े पैमाने पर मुस्लिम युवकों की गिरफ़तारियां हुईं, उन्हें संदिग्ध एन्काउन्टर में मार दिया गया। 26 नवम्बर 2008 के इस आतंकवादी हमले के बाद तो ख़ुदा जाने और कितनी भयावह तस्वीर हमारे सामने होगी। लेकिन अल्लाह ने हमें इस शाप से बचा लिया, हम एक बार फिर उसका शुक्र अदा करते हैं। मुम्बई के इन आतंकवादी हमलों की जांच का काम तो जारी रहा, अलग-अलग दिशा में यह जांच जारी रही, मगर ऐसा कभी नहीं लगा कि भारतीय मुसलमानों को उसी तरह निशाना बनाया जा रहा है, जैसा कि इससे पहले नज़र आता था। निश्चय ही इसके लिए शहीद हेमंत करकरे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने मालेगांव जांच द्वारा आतंकवाद का एक दूसरा चेहरा भी देश के सामने रखा। ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ ने भी हर क़दम पर यह कोशिश की कि सच्चाई को सामने रखने का अभियान जारी रहे।

साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा ‘वंदे मात्रम’ का प्रश्न एक बार फिर से उठाकर हमारे देश प्रेम पर प्रश्न चिन्ह लगाए गए। दारुलउलूम देवबंद को निशाना बनाया गया। यहां तक कि उस पवित्र शिक्षण संस्थान के पुतले भी जलाए गए। यह अत्यंत अफ़सोस का मुक़ाम है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में एक धर्मनिरपेक्ष सरकार से हम यह उम्मीद नहीं करते। इस मुद्दे पर भरपूर चर्चा जारी थी, इससे यह स्पष्ट होने लगा था कि ‘वंदे मात्रम’ के रचयिता की मन्शा क्या थी और उनका नॉविल ‘आनन्द मठ’ जिसका प्रमुख अंश यह गीत था, आख़िर उसे लिखे जाने का बुनियादी कारण क्या था। नॉविल के मुख्य अंशों का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यह नाॅवेल अंग्रेज़ों के समर्थन में लिखा गया था और जहां स्पष्ट रूप से इस रचना को मुस्लिम विरोधी मानसिकता के मुखपत्र के रूप में देखा जा सकता है, वहीं यह नॉविल हिंदू समुदाय के पक्ष में भी नहीं था। इसलिए कि नाॅवेल का लेखक अंगे्रज़ों के सत्ता में आने से ख़ुश और संतुष्ट नज़र आता है। ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ द्वारा सामने लाए गए ख़ुलासे अगर अंतिम चरण तक पहुंच जाते तो अति संभव है कि सारे भारत की जनता जान जाती कि आख़िर विवाद की बुनियाद क्या है और क्यों साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग बार-बार इस प्रश्न को उठाते हैं?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के माइनोरिटी कैरेक्टर का मुद्दा वर्तमान वर्ष में भी अधर में पड़ा रहा। भारत सरकार कोई ठोस क़दम इस दिशा में नहीं उठा सकी। हालांकि यह उम्मीद थी कि इस बार चूंकि इस सरकार के वजूद में आने के पीछे अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों की प्रमुख भूमिका रही है, इसलिए यह सरकार नरमी के साथ उन मामलों पर विचार करेगी, जिन्हें अभी तक ठंडे बस्ते में रखा गया है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले साल 2010 में इस समस्या को हल किया जाएगा और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के माइनोरिटी कैरेक्टर को स्वीकार किया जाएगा लेकिन हम केवल उम्मीदों के सहारे बैठे नहीं रह सकते, इसके लिए हमें आवाज़ उठानी होगी मस्जिदों के मीनारों से भी, शिक्षण संस्थानों से भी, मीडिया के माध्यम से भी और हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रतिनिधि जो संसद तथा विधानसभाओं में बैठे हैं, उनके द्वारा भी।

वर्तमान वर्ष चूंकि संसदीय चुनावों का वर्ष था और देखना यह था कि केंद्र में कोई धर्मनिरपेक्ष सरकार अस्तित्व में आती है, साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने का अवसर मिलता है या फिर टुकड़ों में बंटे तीसरे मोर्चे के लोगों को यह अवसर मिलता है। कांगे्रेस के नेतृत्व में देश को एक बार फिर धर्मनिरपेक्ष सरकार मिली और 6 दिसम्बर 1992 के बाद यह पहला अवसर है, जब मुसलमानों ने कांगे्रेस का खुले मन से समर्थन किया और साथ ही एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि अब तक मुसलमानों की हमदर्द और प्रतिनिधि समझी जाने वाली समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह के मामले को लेकर मुसलमानों के मन में संदेह पैदा किए। मुसलमान उनसे नाराज़ हुए और यह नाराज़गी इतनी बढ़ी कि उन्हें मुसलमानों के समर्थन से हाथ धोना पड़ा। परिणामस्वरूप मुलायम सिंह यादव अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए विवश हुए। हम इसे मुस्लिम एकता की एक शानदार कामयाबी समझते हैं। यह पहला अवसर था जब राजनीतिक दलों को मुसलमानों ने यह सोचने पर विवश किया कि हमें केवल वोटर न समझा जाए, हमारी भावनाओं का भी सम्मान किया जाए। अगर राजनीतिज्ञों के मन में यह बात घर कर गई है कि हम उनका हर फैसला सर झुका कर स्वीकार कर लेंगे तो यह बात मन से निकाल दें। अब कोई भी धोखा, कोइ भी लालच हमें अपने सिद्धांतों से समझौता करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का एक लम्बे समय से इंतिज़ार था। कारण यह नहीं था कि उसके द्वारा कुछ ऐसे राज़ सामने आएंगे, जिनसे पर्दा उठने का बेचैनी से इंतिज़ार है, कुछ ऐसे रहस्योदघाटन होंगे जो कल्पना से बहुत दूर है, फिर भी इंतिज़ार इसलिए था कि सरकारें अभी तक बाबरी मस्जिद के अपराधियों को इस कारण से सज़ा नहीं दे पा रही थीं कि उनके पास दस्तावेज़ी सबूतों की कमी थी, लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट उस कमी को पूरा कर देगी और अब अविलंब अल्लाह के घर को ध्वस्त करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाया जाएगा। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद भी, संसद में इस पर चर्चा किए जाने के बावजूद भी हमें यह उम्मीद नज़र नहीं आती कि ऐसा संभव हो पाएगा। शायद इस देश की राजनीतिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है कि जहां अपराधी को सज़ा देने की कार्रवाई भी उनके लिए एक पुरस्कार सिद्ध हो सकती है, उन्हें और अधिक लोकप्रियता प्राप्त हो सकती है, एक विशेष दल उनके समर्थन में ज़मीन व आसमान एक कर सकता है, उनकी राजनीतिक स्थिति और सुदृढ़ हो सकती है, इसलिए दोष सिद्ध हो जाने पर भी इस मामले को ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहने दिया जाए, इस पर अधिक बातचीत ही न की जाए। गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और नरेंद्र मोदी का सत्ता में बने रहना शायद इन व्यवस्थागत राजनीतिक त्रुटियों का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि अगर यह सिलसिला इसी तरह क़ायम रहा तो फिर किस तरह घर्मस्थल सुरक्षित रहेंगे और कैसे मानवता का नरसंहार रुकेगा? अगर हमारी सरकारें अपनी राजनीतिक मजबूरियों को भली-भांति जानती हैं तो फिर ऐसे आयोगों के गठन का क्या अर्थ? क्यों अपार धन राशि ख़र्च की जाती है? क्यों बरसों तक कार्रवाई जारी रखी जाती है? क्यों मासूम जनता की भावनाओं से खेला जाता है? अब भारत सरकार को यह तय करना होगा कि वह अब इस तरह के आयोग गठन करने का सिलसिला बंद करे या फिर उसके अंदर इतना साहस हो कि अपराधी चाहे जितना बड़ा और सशक्त हो उसे सज़ा भी दी जाए। हमारे लिए यह मुद्दा ध्यान देने योग्य कुछ इसलिए भी है कि अब तक जितने भी आयोग गठित हुए हैं, उनमें से अधिकांश बल्कि लगभग सभी आयोग अल्पसंख्यकों की बर्बादी, हत्या व लूटपाट और उनके धर्मस्थलों को ध्वस्त किए जाने से संबंधित हैं, तो क्या मान लिया जाए ज़ालिम अगर ज़ुल्म करता है तो इंसाफ़ दिलाने का वादा करने वाला भी उनका समर्थक ही साबित होता है।

मुस्लिम समुदाए की समस्याएं इतनी कम नहीं है कि उन्हें एक अभिभाषण में बयान किया जा सके या एक लेख में पूरा किया जा सके, इसके लिए समय का भी ध्यान रखना होता है और हमसे यह भी नहीं हो सकता कि हमारी बातचीत केवल हम तक सीमित रहे, इसलिए जितना हमारे लिए हमारी क़ौम महत्वपूर्ण है उससे अधिक हमारे लिए हमारा देश महत्वपूर्ण है। बातचीत को ख़तम करने से पहले आज हम भारत को दरपेश समस्याओं पर भी ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे। हमने बात आतंकवाद और आतंकवादी हमलों से शुरू की थी और इसकी समाप्ति भी हम इसी विषय के साथ करेंगे, मगर हम मुस्लिम समुदाय से अधिक अपने प्रिय देश भारत की सुरक्षा के लिए चिंतिंत हैं। इसलिए बात इसी रौशनी में करेंगे। अभी तक आतंकवाद की जो तस्वीर सारे भारत के सामने पेश की जा रही थी, वह यह थी कि कुछ भ्रमित युवक हैं, कुछ मुसलमानों या इस्लाम के नाम पर बनाए गए आतंकवादी संगठन हैं, जो पूरे भारत में आतंकवाद फैला रहे हैं और पाकिस्तान जो आतंकवादियों की सबसे बड़ी शरणस्थली है, वह अब ख़ुद अपनी ही आग में जल रहा है, लेकिन ताज़ा ख़ुलासे अब जो वास्तविकता बयान कर रहे हैं, वह बहुत भिन्न है कि इस विचार से भी भिन्न जिसका अभी हमने उल्लेख किया, यानी के यह भ्रमित मुस्लिम युवकों की प्रतिक्रिया है, मुस्लिम आतंकवादी संगठनों का शर्मनाक कारनामा है और अब यह कह सकते हैं कि हेमंत करकरे ने जो रहस्योदघाटन किए, आज की सच्चाई उससे भी आगे की कहानी बयान करती है। इसलिए अब हम सबको धर्म और समुदाय के भेदभाव के बिना, हम मुसलमान हों, हिंदू, सिख या ईसाई सबको एकजुट होकर अपने देश की सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा। इसलिए कि आतंकवाद की इन कार्रवाइयों के पीछे जो असल शक्तियां नज़र आती हैं, वह कहीं अधिक ख़तरनाक हैं और उनके मंसूबे कहीं अधिक भयानक हो सकते हैं। हमें उन तक पहुंचने के लिए चाहिए मज़बूत इच्छा शक्ति और ऐसी ईमानदाराना कोशिश, जो दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का साहस रखती हो। इसलिए कि हमारा प्यारा देश पहले भी फिरंगियों का गुलाम हो चुका है और अब हमारी कोई भी चूक फिर हमारे देश के लिए एक बड़ा ख़तरा साबित हो सकती है, हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि हमारे देश को किसी भी आंतरिक या बाहरी ख़तरे से सुरक्षित रखे। हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि तमाम मानवता को हर बला व मुसीबत से सुरक्षित रखे और आने वाला साल हमारे लिए सुखद संदेश लेकर आए। हमारा देश अधिक शक्तिशाली हो, हम संगठित हों, हमारे बीच के मतभेद समाप्त हों और नए साल का सूरज हमारे जीवन में हम सब के लिए ऐसी रौशनी लेकर आए कि हमारी आने वाली पीढ़ियां भी आज के अंधेरे का एहसास न कर सकें।

जैसा कि मैंने अपने पाठकों की सेवा में निवेदन किया था, मेरा आज का लेख विशेष रूप से हमारे आदर्णीय इमामों के लिए होगा, ताकि नए साल में जुमा की नमाज़ के दौरान जब वह नमाज़ियों से ख़िताब कर रहे हों तो हम उन्हें कुछ ऐसा मवाद उपलब्ध कर सकें जिसका संबंध हमारी क़ौम से भी है और हमारे देश से भी। हमारी यह छोटी सी कोशिश आज इसीलिए है। हम जानते हैं कि हमारे आदर्णीय इमाम ज्ञान का ख़ज़ाना हैं, उनके पास जितनी दीनी और दुनियावी जानकारियां हैं, हम उनमें थोड़ी भी वृद्धि के लायक़ नहीं हैं, फिर भी हमें यह लगा कि अगर हम अपने दिल की आवाज़ उन तक पहुंचा सकेंगे तो यह हमारे दिल के सुकून के लिए होगा और हमें महसूस होगा कि मानो इस अवसर पर हमने भी अपना फ़र्ज़ अदा करने की एक कोशिश की।

नोटः- वादे के मुताबिक़ हमारा कल का लेख एक ऐसा ख़ुलासा करेगा जो न केवल आतंकवाद के चेहरे पर पड़ी नक़ाब उलट देगा बल्कि यह भी कि यह ख़ूनी खेल कब से और किस तरह चल रहा है, लेकिन हम में से किसी का ध्यान इस ओर अभी तक गया ही नहीं। ............

1 comment:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

वैसे हमारे यहाँ दो कहावते बहुत प्रचलित है, एक यह कि 'खोदा पहाड़ और निकली चुहिया' और दूसरा 'थोथा चना बाजे घना '
खैर आपको भी नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये !