Wednesday, November 4, 2009

बात केवल वन्देमातरम तक ही तो सीमित न थी

सफर की दास्तान लम्बी है और बड़ा समय लगेगा इसे लिखने में ऐसा न हो कि इस बीच सामने आने वाले महत्वपूर्ण विषय छूट जाएं। अतएव उचित यह लगा कि सामयिक स्थितियों पर चर्चा भी जारी रहे और सफर की दास्तान भी।कल रात जिस समय मैं अपना लेख ‘‘बहरीन था या माज़ी का हिन्दुस्तान’’ पूरा कर रहा था तो मेरी निगाहें टी.वी. स्क्रीन पर जमीं हुईं थीं जहां आई.बी.एन-7 चैनल आरूषी कत्ल केस को कुछ नये रहस्योद्घाटनों के साथ प्रस्तुत करते हुए पुलिस कार्यवाई की बखिया उधेड़ रहा था। मैं देख तो रहा था आरूषी कत्ल केस पर इस चैनल की विशेष रिपोर्ट मगर सोच रहा था ‘बटला हाउस इंकाउंटर’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिये गये निर्णय के बारे में।

अगर आरूषी कत्ल केस में पुलिस की कारगुज़ारी पर सवाल उठाये जा सकते हैं और इस मामले को नये सिरे से खोला जा सकता है, सी।बी.आई. की एक नई टीम जांच का उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए एक बार फिर तथ्यों को सामने लाने में जुट सकती है और इस सबसे कहीं भी पुलिस हतोत्साहित नहीं होती तो फिर बटला हाउस इंकाउंटर मामले में जांच सी.बी.आई. को सौंपे जाने पर पुलिस का उत्साह क्यों टूट सकता है? फिर क्या केवल इसलिए न्याय के दरवाज़े बन्द किये जा सकते हैं, सच्चाई को जनता के सामने लाने से रोका जा सकता है कि हमारे किसी एक विभाग का इससे हौसला टूट सकता है, तब फिर हमें अपने नेताओं, पूर्व प्रधानमंत्री सहित और अन्य मंत्रियों के कार्यों पर भी उंगली नहीं उठानी चाहिए थी, कारण चाहे जो भी हो इसके अतिरिक्त अनेक सरकारों के दौरान जितने भी घोटाले सामने आए उन्हें जनता के सामने नहीं लाना चाहिए था न्यायपालिका और सेनाओं में भी अगर किसी तरह का कोई मामला सामने आया था तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए था, इसलिए कि इससे हमारी सेना और न्यायालय का हौसला टूट सकता था।

यह एक ऐसा विषय है जिस पर मैं सफर की दास्तान को जारी रखते हुए भी लिखना चाहता था और इंशाअल्लाह लिखूंगा भी। अतः ऐसी तमाम घटनाओं का अध्ययन जारी है। जिन्हें मैं अपने इस श्रृंखलाबद्ध लेख की आगामी किस्तों में शामिल करने का इरादा रखता हूं कि अगर सुप्रीम कोर्ट बटला हाउस इंकाउंटर मामले में सच्चाई का पता लगाने को पुलिस का हौंसला तोड़ने वाली कार्यवाई मानती है तो फिर कब-कब, किस-किस अवसर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा ही कदम उठाना चाहिए था और अगर उस समय नहीं उठाया गया तो अब एन्काउंटर बटला हाउस के मामले में ही क्यों?

आई.बी.एन.-7 के आरूषी कत्ल केस की खबर से निगाह हटी तो तमाम टी.वी. चैनलों पर जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के देवबन्द अधिवेशन का समाचार सुर्खियों में था और उसमें भी ‘वन्दे मातरम’ पर दिये गये फतवे और गृहमंत्री पी.चिदम्बरम की शिरकत को ही सबसे अधिक महत्व दिया जा रहा था इसके बाद आज सुबह के समाचार पत्रों में छपीं खबरें भी कुछ ऐसी ही थीं, जहां जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के इस अधिवेशन का उल्लेख था तो वन्दे मातरम के हवाले से ही और प्रश्न चिन्ह था इस अवसर पर गृहमंत्री की उपस्थिति पर, जिसका बाद में उन्हें स्पष्टीकरण भी देना पड़ा कि जिस समय वन्दे मातरम पर यह फतवा पेश किया गया वह वहां उपस्थिति नहीं थे, बीती रात से लेकर आज दोपहर तक मुझे रह-रहकर जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के इस अधिवेशन में उठाये गये वन्दे मारतम के इशू पर नागवारियत का अहसास होता रहा। मुझे लगा कि आखिर इतने बड़े अधिवेशन में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द को यही एक विषय मिला था फतवा देने के लिए।

क्या आवश्यकता थी वन्दे मातरम पर कुछ भी कहने की। मुसलमानों के लिये आज यह इतनी बड़ी समस्या तो नहीं है कि तमाम विषयो को ताक़ पर रखते हुए केवल वन्दे मातरम पर ही फतवे को आवश्यक समझा जाये या फिर आतंकवाद पर बार-बार फतवे जारी करने और यह विश्वास दिलाने का प्रयास करना कि इस्लाम में आतंकवाद के लिए कोई स्थान नहीं है कितना आवश्यक है। क्या यह हमें ही साबित करने की आवश्यकता है कि हमें वतन से मोहब्बत है और इस्लाम आतंकवाद की शिक्षा नहीं देता। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह मुस्लिम संगठनों ने आतंकवाद के विरोध में आवाज़ उठाई है क्या अन्य धर्मों के संगठनों ने भी आतंकवाद के विरोध में उसी तरह आवाज़ उठाई भी?

अगर उन में से किसी को भी यह महसूस नहीं होता कि उन्हें आतंकवाद के विरूद्ध अपनी विचारधारा को प्रकट करने की आवश्यकता है स्वयं को पाक-साफ साबित करने की आवश्यकता है तो केवल हमें ही क्यों? सम्भवतः यह दोनों ही ऐसी बातें थी जिनकी भेंट जमीअत उलेमा-ए-हिन्द का यह महत्वपूर्ण अधिवेशन नहीं होना चाहिए था।

बहुत गलत हो जाता अगर मेरा यह विचार अपनी जगह रहता कि केवल यही दो विषय थे जिन पर जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के इस अधिवेशन में बात की गई इसलिए कि मीडिया के द्वारा इस अधिवेशन का जो संदेश मुझ तक पहुंचा था वह तो यही था, लेकिन आज का लेख लिखने से पूर्व जब मैंने अधिवेशन की मुकम्मल कार्यवाई पर निगाह डाली, वक्ताओं के भाषण का सार पढ़ा, अधिवेशन में पास किये जाने वाले प्रस्तावों का अध्ययन किया तो लगा कि मीडिया ने जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के इस अधिवेशन के साथ न्याय नहीं किया है यह तो उन 25 में से केवल 2 बिन्दु थे जिन पर बातचीत की गई इसके अतिरिक्त जो अन्य 23 महत्वपूर्ण विषय थे उन्हें तो मीडिया ने जनता के सामने रखा ही नहीं जबकि इनका महत्व इन दोनों से कहीं अधिक था जहां तक आतंकवाद के हवाले से प्रस्तुत किये गये प्रस्तावों का सम्बन्ध है तो उसके भी यह वाक्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं कि वर्तमान दौर में आमतौर पर जिहाद को आतंकवाद का समानार्थी ठहराने का प्रोपैगंडा किया जा रहा है।

हालांकि जिहाद और आतंकवाद में ज़मीन-आसमान का अंतर है जिहाद सकारात्मक प्रक्रिया है जबकि आतंकवाद विघटनकारी नकारात्मक कार्यवाई। ऐसे फिदायीन और आतंकवादी हमले जिसकी ज़द में बेकसूर व्यक्ति आ जाते हैं इस तरह के हमलों को यह कांफ्रेंस अपराधिक कार्य करार देती है।

इस पहले प्रस्ताव के बाद सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन का उल्लेख करते हुए इस अधिवेशन में यूपीए सरकार को चेताया गया कि वह सुन्दर आश्वासनों और जबानी जमाखर्च का सिलसिला समाप्त करे। सम्भवतः इस प्रस्ताव को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए था, इसलिए कि एक लम्बे समय के बाद मुसलमानों ने कांग्रेस से अपनी नाराज़गी को भुलाते हुए उसके सत्ता में आने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है अतः वास्तव में उसे अब इस सिलसिले में अमली कदम उठाना चाहिए अतः इस प्रस्ताव का गृहमंत्री की उपस्थिति में पेश किया जाना बेहद महत्वपूर्ण था।

मुसलमानों के लिये रिजर्वेशन उनकी आबादी के अनुपात में हो, उन्हें हर विभाग में प्रतिनिधित्व का अवसर मिले यह प्रस्ताव उचित भी है और आज मुसलमानों के तमाम वर्गों की आवश्यकता भी। दंगों को रोकने से सम्बन्धित प्रस्ताव में साम्प्रदायिक दंगों को रोकने और प्रभावितों को मुआवज़ा देने से सम्बन्धित ऐसा कानून बनाये जाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है, जिसमें दंगों के लिये जिले के उच्च अधिकारियों और प्रशासन को उत्तरदायी ठहराया जाये, उन्हें जवाबदेह बनाया जाये। दंगा प्रभावितों को मुआवज़े की अदायगी में किसी तरह का पक्षपात न हो। लिब्राहन कमीशन के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव सामने रखा गया वह यह है कि बाबरी मस्जिद की शहादत में संलिप्त व्यक्तियों के विरूद्ध कार्यवाई की जाये।

रिपोर्ट आ चुकी है लेकिन अन्य कमीशनों की रिपोर्ट के तरह लापरवाही की शिकार होती नज़र आ रही है। देश की धर्मनिर्पेक्ष व्यवस्था और शांति व सुरक्षा को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि जिनका अपराध साबित है उनके लिये सज़ाएं तय की जाएं। इसके बाद समलैंगिकता के सम्बन्ध में हाईकोर्ट के निर्णय पर भी एक प्रस्ताव पेश किया गया है, जिसके बारे में कोई भी टिप्पणी करना अनावश्यक समझता हूं, इसलिए कि इस विषय पर जितनी भी बातचीत की जायेगी, वह इस मामले को महत्व देने जैसी होगी, जबकि भारतीय समाज इसे पहले ही अस्वीकार कर चुका है।

महिला रिजर्वेशन बिल के सम्बन्ध में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द का मानना है कि यह बिल अनावश्यक और अस्वीकार्य भी। इस मामले में मेरा मत जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के मत से थोड़ा अलग है। हम पर पहले ही यह आरोप है कि हम महिलाओं की प्रगति को नापसन्द करते हैं, उन्हें समाज में कदम से कदम मिलाकर चलने के अवसर प्रदान नहीं करते, उनमें रूकावट बनते हैं जबकि इस्लाम का इतिहास इससे अलग है। इस्लाम अगर महिलाओं को केवल और केवल घर की चार दीवारी तक सीमित रखने का पक्षधर होता तो हज़रत खदीजातुल कुब्रा दौर-ए-जाहिलियत में भी अरब की सबसे बड़ी व्यापारी कैसे बन पातीं। कर्बला के मैदान में जब यज़ीद इमाम हुसैन का सर कलम किये जाने को अपना सही क़दम ठहराने के प्रयासों में लगा था, उस समय अगर जनाब-ए-जैनब ने यज़ीद के दरबार में सच्चाई को सामने लाने का हौसला न दिखाया होता तो सम्भवतः तथ्यों का सामने आना कठिन हो जाता।
शेख हसीना वाजिद, बेगम ख़ालिदा ज़िया और बेनज़ीर भुट्टो जैसे ताज़ा उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने देश का नेतृत्व करके साबित किया है कि मुस्लिम महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में भी किसी से पीछे नहीं हैं। हां यह अंदेशा अवश्य हो सकता है कि महिला आरक्षण के बिल के स्वीकार कर लिये जाने पर शायद उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं इतनी संख्या में न मिल सकें, मगर यह बात केवल मुस्लिम महिलाओं के बारे में ही क्यों सोची जाए। शिक्षा के मामले में मुस्लिम महिलाएं इतनी पिछड़ी भी नहीं हैं कि उन्हें अन्य सभी वर्गों की तुलना में खड़े होने के योग्य ही न समझा जा सके।

जमीअत उलेमा-ए- हिन्द के इस अधिवेशन में कादियानियों के सम्बन्ध में भी एक प्रस्ताव पेश किया गया, निःसन्देह यह चिंता की बात है कि मुसलमानों को दिग्भ्रमित करने का प्रोपैगंडा चलाया जा रहा है, मगर हमें यह भी सोचना होगा कि हमारी तब्लीगी जमाअतें मुसलमानों को या अन्य देशवासियों को इस्लाम की सही जानकारी देने में अपना समय लगाएं या सिर्फ कादियानियों के मामले को महत्व देकर उन्हें अपने बारे में मुहिम चलाने का अवसर प्रदान करें।

इस अधिवेशन में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के तमाम सदस्यों के द्वारा दीनी तालीमी बोर्ड को सक्रिय बनाने का प्रस्ताव पेश किया जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।
जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में प्रस्तुत किये गये 25 प्रस्तावों में से आज के इस लेख में मैंने केवल 10 प्रस्तावों का ही उल्लेख किया है अभी 15 शेष हैं जिन पर इंशा अल्लाह इस लेख की अगली किस्त में उल्लेख करूंगा। लेकिन आज का यह लेख समाप्त करने से पूर्व मैं यह कहना आवश्यक समझता हूं कि अन्य बेहद महत्वपूर्ण विषयों पर प्रस्ताव पेश किये जाने के बावजूद केवल दो बातों को ही मीडिया के द्वारा जनता के सामने लाया जाना क्या किसी सोची समझी योजना का अंग है कि देशवासियों के सामने मुसलमानों की एक ऐसी तस्वीर पेश की जाये जिससे वह सवालों का सामना करने पर विवश हों, उन्हें कट्टरपंथी और संकीर्ण विचारधारा का साबित किया जा सके।

क्या हमारे पास इतना मज़बूत मीडिया है कि हम उन तमाम बातों को भी पूरी ईमानदारी के साथ जनता के सामने ला सकें जिनका उल्लेख इस महत्वपूर्ण अधिवेशन में किया गया, इसलिए कि अगर ऐसा न हो सका तो मुसलमानों की जो तस्वीर पेश की जायेगी वह वास्तविक नहीं होगी, अतः हमने निर्णय किया है कि ‘‘आलमी सहारा’’ का अगला अंक अन्य तमाम विषयों के साथ-साथ जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के इस तीसवें अधिवेशन की पूरी कार्यवाई को तमाम तथ्यों की रोशनी में पेश करे, हालांकि यह अंक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की 121वीं जन्मतिथि के अवसर पर उन्हें श्रृद्धांजलि पेश करने के लिए एक विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा था, वह तो अब भी होगा परन्तु अब सबसे ऊपर होगा जमीअत उलेमा-ए-हिन्द का 30वां अधिवेशन ताकि मुसलमानों की सोच को केवल वन्दे मातरम के विरोध तक ही सीमित न समझा जाये।

2 comments:

آصف said...

اللہ آپ کو جزاء خیر عطا فرمائے
آپ کے احسانات کا بدلہ اللہ تعالیٰ ہی دے سکتے ہیں

آصف said...

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