जैसा कि आशंका थी और हुआ भी वही। वंदे मातरम के मुद्दे पर विवाद बढ़ता जा रहा है। अब न केवल मीडिया के द्वारा इसे हवा दी जा रही है, बल्कि सांप्रदायिक संघटनों को भी उनका प्रिय काम मिल गया है, अर्थात् अब इस बहाने वह मुसलमानों को निशाना बनाकर अपने दिल के फफोले फोड़ रहे हैं। यह विषय ऐसा नहीं है जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिख कर बात को समाप्त कर दिया जाए। अतएव हम गहराई से इसका अध्यन कर रहे हैं। और शीघ्र ही एक विस्तृत लेख इस विषय पर लिखा जाएगा। हमने अपने कल के लेख में जमीअत उलमा-ए-हिंद के 30वें अधिवेशन में पेश किए गए प्रस्तावों पर अपना मत प्रकट करना शुरू किया था। कल के लेख में केवल 10 बिंदुओं पर बात की जा सकी थी। आज हम इससे आगे बढ़ते हैं।
प्रस्ताव का 11वां बिंदु है ‘‘दलित मुस्लिम और अन्य अल्प संख्यकों की एकता पर प्रस्ताव’’। जमीअत उलमा-ए-हिंद का यह अधिवेशन आम अल्प संख्यकों और दलितों के बीच एकता को समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता समझता है। अगर यह वर्ग एक हो जाएं तो सत्ता में निश्चित रूप से प्रभावी रूप से हिस्सेदार हो सकते हैं। इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश की इतनी बड़ी जनसंख्या को अनदेखा करके उसे प्रगति की राह पर आगे नहीं ले जाया जा सकता।
बहु संख्यक वर्ग को वंचित रखने के साथ एक छोटे सत्ता धारी वर्ग के देश के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्रोतों पर कब्ज़ा करने से देश में संतुलित प्रगति का सपना पूरा नहीं हो सकता। आमतौर पर यह देखा जाता है कि देश के विभिन्न भागों में साम्रदायिक दंगे और मुस्लिम, ईसाई अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हमलों में निर्धन और साधन विहीन दलितों और पिछड़े वर्गों का इस्तेमाल किया जाता है। इसे देखते हुएः
1. यह अधिवेशण दलित मुस्लिम और अल्प संख्यकों की एकता और समाजी संबंधों को बढ़ाने की बेहद आवश्यकता महसूस करता है। देश की विशेष सामाजिक परिस्थितियों में आवश्यकता इस बात की है कि क़ौम और राष्ट्र की प्रगति और शांति के तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए तमाम कठिनाइयों को स्वीकार करते हुए एकता व संबंधों को मज़बूत से मज़बूत तर बनाने का प्रयास किया जाए।
2. देश की वर्तमान परिस्थितियों में यह अधिवेशन इस बात की बेहद आवश्यकता महसूस करता है कि इन्सानियत और सम्भाव पर आधारित हज़रत मुहम्मद साहब के चरित्र व अमल और इस्लामिक शिक्षाओं से लोगों को परिचित कराया जाए।
3. जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने स्वर्गीय मीरे कारवाँ, हज़रत फ़िदाए मिल्लत मौलाना असअद मदनी के नेतृत्व में दलित मुस्लिम एकता और समाजिक सम्बंधों में ख़ुशगवारी लाने के उद्देश्य से समाजिक भेद-भाव को समाप्त करने और दलितों के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने का काम शुरू किया था, इसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ग़लत समाजिक ऊँच-नीच की मानसिकता से एक मुसलमान की हैसियत से बचना आवश्यक है।
4. मुसलमानों, दलितों और अल्प संख्यकों की पीड़ा व मज़लूमियत में एक तरह की समानता है जिसके कारण दलितों व मुसलमानों में एकता प्राकृतिक अमल है और दूसरे अल्प संख्यकों से भी एकता व सहयोग आवश्यक है। इसे देखते हुए यह अधिवेशन तमाम भारतियों से अपील करता है कि अपने-अपने कार्य क्षेत्र में इस एकता व आपसी संबंधों के अमल को आगे बढ़ाएं और एक दूसरे को समझने व क़रीब आने की राहे हमवार करें।
हमने इस 11वें प्रस्ताव को शब्दशः पाठकों के सामने लाने की आवश्यकता इसलिए महसूस की कि एक भी शब्द कम या अधिक करने से भावार्थ बदल न जाए। हम जमीअत उलमा-ए-हिन्द के नेताओं से बेहद विनम्रतापूर्वक ये निवेदन करना चाहते हैं कि आज मुस्लिम क़ौम जिन हालात का शिकार है, क्या इन हालात में केवल दलितों और मुसलमानों की एकता से समय की आवश्यकता पूरी हो सकती है? क्या आज तमाम हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों को उसी तरह एक होने की आवश्यकता नहीं है जिस तरह वह स्वाधीनता आंदोलन के समय एकता बद्ध हुए थे।
आज़ादी की लड़ाई में भाग लेते हुए क्या जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने केवल दलित मुस्लिम एकता की बात की थी? या फिर हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा लगाते हुए देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। क्या आज फिर आवश्यकता ऐसी ही राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव की नहीं है। अब हम न देश में कोई और गुजरात देखना चाहते हैं, न 26/11 जैसे आतंकवादी हमले। हम दलित मुस्लिम एकता का नारा लगाकर शेष हिन्दू भाइयों को इस एकता की आवश्यकता से अलग करके नहीं देख सकते। अगर यह कोई राजनीतिक प्लेटफार्म होता तब हमें इस संदर्भ में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं थी।
आमतौर पर राजनीतिक दल राजनीतिक उद्देश्यों को सामने रख कर इस तरह के नारे लगाते रहते हैं। कभी यादवों और मुसलमानों की एकता की बात की जाती है, कभी जाटों और मुसलमानों की एकता की तो कभी दलितों और मुसलमानों की। अगर यह बहुजन समाज पार्टी का प्लेटफ़ार्म होता तो हमें कुछ भी कहने की आवश्यकता महसूस न होती। इसलिए कि मायावती अपनी सोशल इंजीनियरिंग के फ़ार्मूले को सामने रख कर दलितों को अलग-अलग वर्गों के साथ जोड़ कर अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के प्रयासों में लगी हुई हैं।
कोई भी धार्मिक विद्वान या धार्मिक संस्था अगर किसी राजनीतिक दल में शामिल होती है या उसके हित की बात करता है तो यह उसका निजी फ़ैसला है इस पर टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अगर तमाम मुसलमानों के संबंध में कोई बात की जा रही है तो उसे इसी पृष्ठ भूमि में देखना आवश्यक होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर इसका क्या संदेश जाएगा। बहरहाल सुश्री मायावती इस अधिवेशन में शिरकत न करके भी इस 11वें प्रस्ताव के द्वारा वह सब पाने की आशा कर सकती हैं, जो कांग्रेस के तीन-तीन मंत्रियों की शिरकत के बावजूद भी उसे प्राप्त नहीं हो सका।
चैधरी अजीत सिंह और उनकी सहयोगी पार्टी भारतीय जनता पार्टी इस विषय में क्या राय रखती है यह तो वही बेहतर जानते होंगे, लेकिन हमें लगता है कि जमीअत उलमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किया जाने वाला 11वां प्रस्ताव अगर किसी और अवसर पर निजी या राजनीतिक एजंडे के रूप में पेश किया जाता तो ज़्यादा मुनासिब था।
बहरहाल औक़ाफ़ से संबंधित पेश किया गया प्रस्ताव प्रशंसनीय है, जिसमें जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने औक़ाफ़ के संबंध में अपनी इस चिंता को जोरदार शब्दों में प्रकट किया है कि औक़ाफ़ क़ानून 1995 के लागू होने के बावजूद बड़े पैमाने पर औक़ाफ़ की सम्पत्तियों पर नाजायज़ कब्ज़ा और गैर कानूनी ख़ुर्द-बुर्द का सिलसिला जारी है। वाक़िफ़ के इरादे को अन्देखा करके वक्फ की सम्पत्तियों और उनकी आमदनियों को निजी मिल्कियत के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है।
1995 का वक्फ क़ानून मुसलमानों के अधिकारों से संबंधित भेद-भाव का शिकार है और अफ़सरशाही की भेंट हो गया है। अब इसकी हैसियत बेकार की कागजी कार्यवाही से अधिक नहीं रह गई है, जिसके कारण वक़्फ़ जायदादों पर न केवल नाजायज़् कब्ज़ा धारियों का कब्ज़ा व हवाला बाक़ी है बल्कि औक़ाफ़ में यह कब्ज़ा रोज़्-ब-रोज़् बढ़ रहा है जिस पर सच्चर कमेटी ने भी चिंता प्रकट की है। औक़ाफ़ की सुरक्षा के अंदेशे से हाल में बनाई गई संसदीय कमेटी ने भी औक़ाफ़ की बद से बदतर होती स्थिति और नाजायाज़् कब्ज़ा पर गहरी चिंता प्रकट की है।
भारत सरकार को इस दिशा में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है और जमीअत उलमा-ए-हिन्द ही नहीं संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य व अन्य राजनैतिक, अराजनैतिक संगठनों को भी इस सिलसिले में ठोस क़दम उठाने की आवश्यकता है ताकि वक्फ सम्पत्तियों को खुर्द-बुर्द होने और नाजायज़् कब्जों से बचाया जा सके। मगर क्या यह सम्भव हो पाएगा? चूंकि सबसे अधिक नाजायज़ कब्ज़ा करने वाले तो प्रभावशाली लोग ही होते हैं और वक्फ सम्पत्तियों पर यह नाजायज़ कब्ज़ा प्राप्त होता है उन्हें अपने राजनीतिक आक़ाओं के द्वारा ही।
जमीअत उलमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में 13वें प्रस्ताव को ‘‘इस्लामी पहचान की रक्षा और समाज सुधार’’ से संबंधित प्रस्ताव के रूप में सामने रखा गया। जिसके अंतर्गत एक संगठनिक ढांचा खड़ा करने की प्रक्रिया को सामने रखा गया है, अर्थात हर बस्ती और हर मुहल्ले में सुधार कमेटियाँ क़ायम करके दीन की तरफ़ आकर्षित किया जाए। नमाज़ रोजों के अलावा आपस में सलाम का आदान-प्रदान, सूरत और सीरत को इस्लामी ढंग में ढालने के लिए प्रोत्साहन और घरों में धार्मिक माहौल बनाया जाए। इसके अलावा अलग-अलग अवसर पर इस्लाही जलसे किए जाएं जहां सुधार कमेटियाँ बनी हुई हैं उनकी मीटिंग नियमित रूप से हर माह अवश्य की जाए और कमेटियों की सरगर्मी पर आधारित रिपोर्ट पाबंदी से जमीअत उलमा-ए-हिन्द के कार्यालय में भेजी जाए।
प्रस्ताव के इस भाग पर हमें कुछ नहीं कहना, अगर जमीअत उलमा-ए-हिन्द अपने दायरे को बढ़ाने के लिए इस प्रक्रिया का सहारा लेती है तो इसका संबंध केवल जमीअत उलमा-ए-हिन्द और उन कमेटियों के बीच है जो इस पर अमल करती है। परन्तु इसी प्रस्ताव की अगली पंक्ति में फ़िल्म और टीवी देखने से बचने और बचाने की शिक्षा देने की बात कही गई है।मैं केवल फ़िल्म और टीवी देखने के सवाल पर बात करना चाहूंगा। क्या जमीअत उलमा-ए-हिन्द के नेताओं को याद है कि वह अपने जलसों की कार्यवाही टी वी पर दिखाने के लिए बाक़ाएदा प्रबंध करती रही है। अगर टीवी देखना ग़लत है तो फिर उनके द्वारा इसके इस्तेमाल को किस तरह उचित ठहराया जा सकता है?
मेरे सामने अब एक बड़ी उलझन यह भी है कि शीघ्र ही मैं राष्ट्रीय समस्याओं पर फ़िल्म मीडिया का सहारा लेने की आवश्यकता महसूस कर रहा हूं। रोजनामा राष्ट्रीय सहारा, आलमी सहारा और बज़्मे सहारा के साथ-साथ उर्दू चैनल जनता के सामने लाने की तैयारियां तो लगभग पूरी हो चुकी हैं, अगर यह अभी तक जनता के सामने नहीं आ सकी हैं तो कारण यह है कि मैं अपने पाठकों को बाक़ाएदा इस मुहिम का हिस्सा बनते देखना चाहता हूं। इसलिए कि अगर यह उन्हीं के लिए है तो उनके साथ एक सीधा रिश्ता भी बनना चाहिए।
दूसरी बात जो फ़िल्म मीडिया के संबंध में है तो मैं पूरी तरह यह मन बना चुका हूं कि पिछले 20-25 वर्षों में मुस्लिम क़ौम के दामन पर लगे दागों को धोने का जो प्रयास उर्दू पत्रकारिता के द्वारा किया गया है उसे अब हर ख़ास व आम तक पहुँचाने के लिए फिल्म व टीवी मीडिया की भी बहुत आवश्यकता है।
देश विभाजन के उत्तरदायी मुसलमान नहीं, मुसलमानों को साम्प्रदायिक कहना ग़लत है, इस्लाम और मुसलमानों का आतंकवाद से रिश्ता जोड़ना एक सुनियोजित षड़यंत्र है। इन विषयों को हमने एक मुहिम की तरह लिया और पत्रकारिता को एक मिशन का रूप देने का प्रयास किया है। अब इसका दायरा बढ़ाकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इस संदेश को पहुँचाने की आवश्यकता है और ज़ाहिर है कि यह केवल प्रिंट मीडिया के द्वारा ही सम्भव नहीं है।
अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (फ़िल्म मीडिया सहित) के द्वारा यही बात न कही गई तो इस मिशन का पूरा होना कठिन हो जाएगा, अतः हमारा सादर निवेदन है कि जमीअत उलमा-ए-हिन्द न केवल हमारी राय के संबंध में बल्कि राष्ट्रीय व मिल्ली हितों को सामने रखते हुए अपने इस प्रस्ताव पर दोबारा विचार करे और स्पष्ट करे कि अगर फ़िल्म और टीवी देखने पर पाबंदी लगाई जा सकती है तो कब, किन हालात में और क्यों? अन्यथा यह अपूर्ण संदेश लाभ से अधिक हानि का कारण बन सकता है।
.......................(जारी)
Friday, November 6, 2009
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