महाराष्ट्र इलैक्शन-जाऐं तो जाऐं कहां...?
चुनाव की चिंता करें वे जो चुनाव लड़ रहे हैं या लड़ा रहे हैं............चुनाव की चिंता करें वे जिन्हें सरकार बनानी है, बनवानी है या बनने से रोकनी है............चुनाव की चिंता करें वे जिनके लिए चुनाव एक कारोबार है और जिसकी उन्हें पांच वर्ष तक प्रतीक्षा रहती है...........मेरे लिए चिंता का विषय है मेरी कौम, कौम की समस्याएं हैं, कौम का भविष्य है और इन सब बातों का सम्बन्ध क्योंकि चुनाव से भी है इसलिए चुनाव मेरे लिए भी महत्व रखता है।
मेरा कलम मेरा हथियार है इसलिए कि आज मेरी कौम को यही दरकार है। मेरा लेख कब किसको किस तरह अप्रिय लगे यह समझना मुश्किल है। हां मगर जो साफ-साफ मुझे समझने लगे हैं, क्योंकि मैं उन्हें अच्छी तरह समझता हूं इसलिए मेरी तहरीर उन्हें अप्रिय लगती होगी यह तो मैं भी अच्छी तरह जानता हूं और वह भी अच्छी तरह जानते हैं।
अतः आज कुछ बातें साफ-साफ करना चाहता हूं। वैसे भी घुमा-फिराकर बात करना उचित नहीं लगता। समझने के लिए दिमाग पर बहुत ज़ोर डालना पड़ता है, बड़ा समय लगता है और आज समय है किसके पास? हम तो पहले ही 62 वर्ष बर्बाद कर चुके हैं, अब समझने-समझाने में समय बर्बाद नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान विधानसभा चुनावों के हवाले से मेरा आज का लेख कांग्रेस के पक्ष में जाता नज़र आ सकता है हालांकि कांग्रेस का किरदार कसीदे पढ़ने योग्य नहीं है और कसीदाख़ानी मुझे करनी भी नहीं है। लेकिन इसे कांग्रेस का सौभाग्य ठहराया जा सकता है कि बावजूद अनेक कमियों के आज तक राष्ट्रीय स्तर पर इसका कोई धर्मनिर्पेक्ष विकल्प पैदा नहीं हो सका है हां मगर उसे इस खुशफहमी का शिकार भी नहीं रहना चाहिए कि विवशता में ही सही जब उसका विकल्प ही नहीं है तो लोग जाएंगे कहां?
विवशता में उन्हें साथ आना ही होगा। कई बार हमने देखा है कि जनता इतनी विवश भी नहीं है, पूर्व में उसने अपने साथ की जाने वाली नाइंसाफियों की सज़ा भी दी है और उसे अगर उसका वाजिब अधिकार नहीं मिला तो वह कभी भी किसी को भी नज़रों से गिरा सकती है।
वर्तमान विधानसभा चुनावों में हमारे सामने एक प्रश्न है कि जाएं तो जाएं कहां..........?
अरूणाचल प्रदेश और हरियाणा की तुलना में यह प्रश्न महाराष्ट्र में अधिक उठता नज़र आ रहा है प्रश्न निरर्थक भी नहीं है............वास्तव में हमें यह समझना चाहिए कि आखिर वे कौन-कौन पार्टियां हैं जिनमें से हमें चुनाव करना है? हमारे सामने कांग्रेस और नैशनलिस्ट कांग्रेस का गठजोड़ है। कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिस पर हमने मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग से भी अधिक भरोसा किया......।
कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी......। कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिसके भरोसे हमने भारत में रह जाना पसन्द किया, पाकिस्तान को अपना देश नहीं समझा, मगर कांग्रेस हमें हमारा वाजिब अधिकार नहीं दे सकी। पिछले 62 वर्षों में लगभग आधी शताब्दी तक उसकी सरकार रही!
लेकिन भारत विभाजन से लेकर आतंकवाद तक का कलंक हमारे दामन पर लगता रहा लेकिन अब इसे एक संयोग कहिये या परवर दिगार-ए-आलम की ओर से भेजी गई ईश्वरीय सहायता कि पहला आरोप तो झूठा साबित हो ही चुका है । हम भारत विभाजन के उत्तरदायी नहीं हैं। कांग्रेस से अधिक यह आरोप लगाने और साबित करने का प्रयास किया संघ परिवार ने, उसके राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी ने और ऊपर वाले की बेआवाज़ लाठी भी पड़ी भी इसी पार्टी पर।
इस वास्तविकता को साबित करने में मदद भी मिली, इसी भारतीय जनता पार्टी से। जसवन्त सिंह ने भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए जो पुस्तक लिखी उसने साबित किया कि मोहम्मद अली जिन्ना साम्प्रदायिक नहीं, धर्मनिर्पेक्ष थे, भारत विभाजन के इच्छुक नहीं थे, हिन्दू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार थे और रही सही कसर पूरी कर दी कट्टर हिन्दुत्व और मुस्लिम दुश्मनी के मामले में संघ परिवार से भी अपने आप को दो कदम साबित करने वाली शिवसेना ने।
जिसने राज ठाकरे को महाराष्ट्र की राजनीति के हवाले से इस दौर का जिन्ना ठहरा दिया। अब यह तो सबके सामने है कि राज ठाकरे महाराष्ट्र की धरती के विभाजन का इच्छुक नहीं है। राज ठाकरे धर्म के आधार पर कोई अलग राज्य नहीं चाहता है। राज ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीतिक ज़मीन पर अपना दबदबा चाहता है, राज ठाकरे स्वयं को मराठियों का नेता साबित करना चाहता है। अर्थात राज ठाकरे वही चाहता है जो हमेशा बाल ठाकरे ने चाहा।
अगर बाल ठाकरे जैसे बुद्धिमान व्यक्ति ने, जिसका सम्बन्ध साहित्य की दुनिया से भी है सोच-समझकर राज ठाकरे को जिन्ना की पदवी दे डाली तो साबित कर दिया कि वास्तव में मोहम्मद अली जिन्ना की इच्छा थी भारत पर शासन की, भारतीय जनता का नेता बनने की, देश का विभाजन मुसलमानों के नाम पर जिन्ना का उद्देश्य नहीं था।
दूसरा आरोप जो मुसलमानों पर लगा वह है आतंकवाद....इसके लिए कुछ हद तक कांग्रेस का क्योंकि उसी के सत्ता में रहते यह हुआ और बहुत हद तक शहीद हेमन्त करकरे का शुक्रिया अदा किया जा सकता है कि मुसलमानों के दामन पर लगने वाले इस दाग को मालेगांव बम ब्लास्ट की जांच ने धो डाला लेकिन यह काम अभी अधूरा है जो कांग्रेस को करना है।
दूसरा राजनीतिक गठजोड़ जो हमारे सामने है वह है भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का। 1901 में हिन्दू महासभा के जन्म के बाद से आज तक मुस्लिम दुश्मनी संघ परिवार की सोच रही है जिसे अमली जामा पहनाया है उसके राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी ने। गुजरात इस पार्टी के सत्ता में रहते भारत के माथे पर लगा वह कलंक है जिसे इतिहास कभी भुला नहीं पायेगा और जिसे इस पार्टी के सबसे बड़े नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी स्वीकार किया है।
दूसरी अर्थात भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी पार्टी शिवसेना जिसका किरदार मुस्लिम दुश्मनी में बी.जे.पी से भी चार कदम आगे रहा है? इसे बहुत स्पष्ट रूप से सामने रखा है जस्टिस श्रीकृष्ण कमीशन ने। इस लेख की श्रृंखला में हम गुजरात फ़साद से लेकर श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट तक ऐसी घटनाओं का उल्लेख करेंगे जिनसे स्पष्ट हो जायेगा कि वास्तव में इस पार्टी की सोच क्या है, उसके कार्यकर्ताओं की कार्य प्रणाली क्या है?
और उसके नेता का उद्देश्य क्या है?
इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के अतिरिक्त जिसे तीसरे मोर्चे का नाम दिया जा रहा है उसमें शामिल कुछ पार्टियां हैं और उनसे अलग बहुजन समाज पार्टी भी है। इन पार्टियों का इतिहास महाराष्ट्र की जनता के सामने है। महाराष्ट्र के सम्बन्ध में इन सबके बारे में बहुत अधिक कुछ लिखने और कहने की गुंजाइश नहीं है इसलिए कि ऐसी इन पार्टियों की इतनी हैसियत भी नहीं है कि यह महाराष्ट्र में सरकार बनाने या बनवाने में कोई स्पष्ट भुमिका निभा सकें फिर भी इन पार्टियों के मंसूबों को समझना आवश्यक है।
घोषित रूप से यह जो कहेंगे वह तो यही है कि वह महाराष्ट्र की जनता को कोई तीसरा विकल्प देना चाहते हैं। अगर उनसे यह कहा जाये कि आप तो इस हैसियत में नहीं हैं तब उनका उत्तर होगा कि कहीं से तो शुरूआत करना होगी, हम बेतहर भविष्य के लिए आशान्वित हैं प्रयास बेकार नहीं जायेगा। इस चुुनाव के बाद राज्य में हमारी जड़ें सुदृढ़ होंगी हो सकता है उनके इन दावों में दम हो, यह सही साबित भी हो जाए, मगर किस क़ीमत पर यह हमें सोचना होगा।
निःसन्देह हमारे वोटों की क़ीमत पर.......,अच्छी तरह जानती हैं यह स्वयं को तीसरा मोर्चा कहने वाली पार्टियां, उनका दावा भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के मतदाताओं पर नहीं है। कट्टर हिन्दू सोच का मतदाता उन्हें कोई महत्व नहीं देता। उनके खूबसूरत वादों के जाल में फंसने वाला धर्मनिर्पेक्ष और विशेषतः मुस्लिम मतदाता ही होता है, इसलिए अधिकतर मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारना या मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में ज़ोरदार चुनावी अभियान छेड़कर ये राहें आसान कर देते हैं, उन साम्प्रदायिक पार्टियों के लिए जिनका अस्तित्व ही मुस्लिम दुश्मनी के लिए है यह पहला अवसर नहीं है जब दो बड़ी पार्टियों के गठजोड़ के अतिरिक्त अन्य छोटी पार्टियां चुनावी मैदान में मौजूद हैं।
अगर हम उनके पूर्व के चरित्र पर निगाह डालें तो ऊपर लिखीं पंक्तियों के महत्व को समझा जा सकता है, वैसे भी हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि तीसरे मोर्च के नाम पर मैदान में उतरने वाली पार्टियां केवल अपने अस्तित्व की जंग लड़ना चाहती हैं..........और अगर कुछ सीमा तक भी संभव हो सके तो उनका उद्देश्य केवल इतना है कि किसी भी तरह वह सौदेबाज़ी की हैसियत हासिल कर लें।
यहां सौदेबाज़ी का अर्थ यह नहीं है कि महाराष्ट्र राज्य में उन्हें इतनी सीटें जीत लेने की आशा है कि सरकार बनवाने या बनने से रोकने के लिए वह सौदेबाज़ी करने की स्थिति में आ जाएंगे बल्कि उन्हें यह लगता होगा कि अगर केन्द्र में दबाब बनाने का रास्ता महाराष्ट्र के चुनावों से निकल आता है तो इतना भी कुछ कम नहीं है। क्या उनकी इतनी सी इच्छा पूरी करने के लिए हमें यह जोखिम लेना चाहिए कि भले ही भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की सरकार बन जाये, हमें तीसरे मोर्चे को महत्व देना चाहिए?
अब रहा प्रश्न भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के गठजोड़ का तो हमें नहीं लगता कि महाराष्ट्र की धर्मनिर्पेक्ष जनता महाराष्ट्र में बसने वाले उत्तर भारतीय, महाराष्ट्र की मुस्लिम जनता इस गठजोड़ की सरकार बनते देखना चाहेंगे। वैसे भी यह महत्वपूर्ण अवसर है भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक भविष्य के सम्बन्ध में भी और भारत में धर्मनिर्पेक्षता की मज़बूती के सम्बन्ध में भी।
पिछले संसदीय चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी की जो दुर्गत बनी वह सबकेसामने है। जिस तरह 2009 के आम चुनावों में धर्मनिर्पेक्ष मतदाताओं ने मोहर लगाकर साबित किया कि उनका भरोसा धर्मनिर्पेक्षता में बना हुआ है, वह साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ नहीं जा सकते, उससे भारतीय जनता पार्टी में बिखराव आ गया वह आपसी फूट का शिकार हो गयी। अब उसे अपने पुर्न जीवन के लिए चाहिए किसी भी एक राज्य में सफलता।
केन्द्र की सरकार का सपना टूट जाने के बाद किसी भी राज्य में सरकार बनाने का अवसर। इसलिए कि यह पार्टी अच्छी तरह जानती है कि अगर इन विधानसभा चुनावों में भी उसे पराजय से दो-चार होना पड़ा तो उसका भविष्य तबाह हो जायेगा। अब यह निर्णय महाराष्ट्र, हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश की धर्मनिर्पेक्ष जनता को करना है कि क्या वह साम्प्रदायिक शक्तियों की खोखली हो चुकी जड़ों को फिर से नया जीवन देने का जोखिम ले सकते हैं या फिर वह इस सुन्दर अवसर का उपयोग करते हैं भारत से साम्प्रदायिक राजनीति का पूरी तरह सफाया करने के लिए।
अगर धर्मनिर्पेक्ष मतदाताओं ने यह लड़ाई जीत ली तो फिर भारत को उसके धर्मनिर्पेक्ष भविष्य से कोई रोक नहीं सकता। जहां हिन्दू-मुस्लिम एकता भी नज़र आयेगी और साम्प्रदायिक सदभाव भी। हां यह स्थिति जो हमारे सामने है और वह विश्लेषण जो अभी मैंने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया, निःसन्देह कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखाई देता है जैसा कि मैंने अपने लेख के शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था।
मैं अगर यह दो वाक्य नहीं लिखता या स्पष्ट रूप में कांग्रेस का नाम न लिखता तब भी यह विशलेषण किस दिश में जा रहा है समझना कठिन नहीं होता। मगर क्या इस डर से कि लेख किसी के विरूद्ध या किसी के पक्ष में हो सकता है, मुझे नहीं लिखना चाहिए था? मुझे नहीं लिखना चाहिए थी आज की राजनीतिक स्थिति?
अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फाड़कर फेंक दीजिए रद्दी की टोकरी में कागज के इस टुकड़े को, कोई महत्व नहीं है इसका........और अगर आप सोचते हैं कि अब वह समय आ गया है कि हमें तमाम परिस्थितियों का जायज़ा लेकर साफ-साफ बातें करनी चाहिए जो हमें नापसन्द है वह किस आधार पर नापसन्द है सामने रख देना चाहिए, ताकि वह हमसे कोई आशा करे तो हमारी भावनाओं का ध्यान रखे, हमारे अधिकारों का ध्यान रखे और जिसे हम पसन्द कर रहे हों भले ही विवशतः में तो उस पर भी यह स्पष्ट रहे कि उसके कमज़ोर पहलू क्या हैं?
अगर उसने अपनी कार्य प्रणाली में परिवर्तन नहीं किया, समान अधिकार जो भारत के संविधान में दर्ज हैं देने में कोताही बरती तो आज प्राप्त होने वाला समर्थन है वह दीर्घकालीन नहीं हो सकता और यह तो ज़माना जानता ही है कि अगर कोई नज़रों से गिर जाये, आशाओं पर खरा न उतरे, भरोसे को तोड़ दे तो फिर उसके लिए नज़रों में उठना और भरोसा प्राप्त करना कितना कठिन होता है।
مہاراشٹر الیکشنـ جائیں تو جائیں کہاں…؟
الیکشن کی فکر کریںوہ، جو الیکشن لڑرہے ہیں یا لڑا رہے ہیں… الیکشن کی فکر کریںوہ، جنہیں سرکار بنانی ہے، بنوانی ہے یا بننے سے روکنی ہے… الیکشن کی فکر کریںوہ، جن کے لےے الیکشن ایک کاروبار ہے اور جس کا انہیں پانچ برس تک انتظار رہتا ہے… میرے لےے فکر کا موضوع میری قوم ہے، قوم کے مسائل ہیں، قوم کا مستقبل ہے اور ان سب باتوں کا تعلق چونکہ الیکشن سے بھی ہے، اس لےے الیکشن میرے لےے بھی اہمیت کا حامل ہے۔
میرا قلم میرا ہتھیار ہے، اس لےے کہ آج میری قوم کو یہی درکار ہے۔ میری تحریر کب کس کو کس طرح گراں گزرے، یہ سمجھنا مشکل ہے۔ ہاں، مگر جو صاف صاف مجھے سمجھنے لگے ہیں، کیوں کہ میں انہیں اچھی طرح سمجھتا ہوں، اس لےے میری تحریر انہیں گراں گزرتی ہی ہوگی یہ تو میں بھی اچھی طرح جانتا ہوں اورہ وہ بھی اچھی طرح جانتے ہیں۔
لہٰذا آج کچھ بات صاف صاف کرنا چاہتا ہوں۔ ویسے بھی گھما پھرا کر بات کرنا مناسب نہیں لگتا۔ سمجھنے کے لےے ذہن پر بہت زورڈالنا پڑتا ہے، بڑا وقت لگتا ہے اور آج وقت ہے کس کے پاس؟ ہم تو پہلے ہی 62برس برباد کرچکے ہیں، اب سمجھنے سمجھانے میں اور وقت برباد نہیں کیا جاسکتا۔ موجودہ ریاستی انتخابات کے حوالے سے میری آج کی تحریر کانگریس کے حق میں جاتی نظر آسکتی ہے، حالانکہ کانگریس کا کردار قصیدے پڑھنے کے لائق نہیں ہے اور قصیدہ خوانی مجھے کرنی بھی نہیں ہے۔
لیکن اسے کانگریس کی خوش نصیبی قرار دیا جاسکتا ہے کہ باوجود متعدد خامیوں کے آج تک قومی سطح پر اس کا کوئی سیکولر متبادل پیدا نہیں ہوسکا ہے۔ ہاں، مگر اسے اس خوش فہمی کا شکار بھی نہیں رہنا چاہےے کہ مجبوری میں ہی سہی جب اس کا نعم البدل ہی نہیں ہے تو لوگ جائیں گے کہاں؟ مجبوری میں تو انہیں ساتھ آنا ہی ہوگا۔ بارہا ہم نے دیکھا ہے کہ قوم اتنی مجبور بھی نہیں ہے۔ ماضی میں اس نے اپنے ساتھ کی جانے والی ناانصافیوں کی سزا بھی دی ہے اور اسے اگر اس کا واجب حق نہیں ملا تو وہ کبھی بھی، کسی کو بھی نظروں سے گرا سکتی ہے۔
موجودہ ریاستی انتخابات میں ہمارے سامنے ایک سوال ہے کہ جائیں تو جائیں کہاں…؟ اروناچل پردیش اور ہریانہ کے مقابلہ یہ سوال مہاراشٹر میں زیادہ گردش کرتا نظر آرہا ہے۔ سوال بے معنی بھی نہیں ہے…، واقعی ہمیں یہ سمجھنا چاہےے کہ آخر وہ کون کون پارٹیاں ہیں، جن میں سے ہمیں انتخاب کرنا ہے؟ ہمارے سامنے کانگریس اور نیشنلسٹ کانگریس کا اتحاد ہے۔
کانگریس یعنی وہ پارٹی جس پر ہم نے محمدعلی جناح کی مسلم لیگ سے بھی زیادہ بھروسہ کیا۔ کانگریس یعنی وہ پارٹی جس کے ساتھ کاندھا سے کاندھا ملا کر ہم نے آزادی کی جنگ لڑی۔ کانگریس یعنی وہ پارٹی جس کے بھروسہ ہم نے ہندوستان میں رہ جانا پسند کیا، پاکستان کو اپنا ملک نہیں سمجھا، مگر کانگریس ہمیں ہمارا واجب حق نہیں دے سکی۔
گزشتہ 62برسوں میں تقریباً آدھی صدی تک اس کی حکومت رہی، لیکن تقسیم وطن سے لے کر دہشت گردی تک کا داغ ہمارے دامن پر لگتا رہا، لیکن اب اسے اتفاق کہئے یا پروردگارِعالم کی جانب سے بھیجی گئی غیبی مدد کہ پہلا الزام تو جھوٹا ثابت ہوہی چکا ہے۔ ہم تقسیم وطن کے ذمہ دار نہیں ہےں۔ کانگریس سے زیادہ یہ الزام لگانے اور ثابت کرنے کی کوشش کی سنگھ پریوار نے، اس کی سیاسی جماعت بھارتیہ جنتا پارٹی نے اور اللہ کی بے آواز لاٹھی پڑی بھی اسی پارٹی پر۔ اس حقیقت کو ثابت کرنے میں مدد بھی ملی، اسی بھارتیہ جنتا پارٹی سے۔
جسونت سنگھ نے بھارتیہ جنتا پارٹی میں رہتے ہوئے جو کتاب لکھی، اس نے ثابت کیا کہ محمد علی جناح فرقہ پرست نہیں تھے، سیکولر تھے، تقسیم وطن کے خواہشمند نہیں تھے، ہندومسلم اتحاد کے علمبردار تھے اور رہی سہی کسر پوری کردی کٹر ہندوتو اور مسلم دشمنی کے معاملے میں سنگھ پریوار سے بھی اپنے آپ کو دو قدم آگے ثابت کرنے والی شیوسینا نے، جس نے راج ٹھاکرے کو مہاراشٹر کی سیاست کے حوالہ سے اس دور کا جناح قرار دے دیا۔ اب یہ تو سب کے سامنے ہے کہ راج ٹھاکرے مہاراشٹر کی زمین کے بٹوارے کا خواہش مند نہیں ہے۔
راج ٹھاکرے مذہب کی بنیادوں پر کوئی الگ ریاست نہیں چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے مہاراشٹر کی سیاسی زمین پر اپنا دبدبہ چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے خود کو مراٹھوںکا لیڈر ثابت کرنا چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے وہی چاہتا ہے، جو ہمیشہ بال ٹھاکرے نے چاہا۔ اگر بال ٹھاکرے جیسے ذہین شخص نے، جس کا تعلق لٹریچر کی دنیا سے بھی ہے سوچ سمجھ کر راج ٹھاکرے کو جناح کا لقب دے ڈالا اور ثابت کردیا کہ محمدعلی جناح کی خواہش تھی ہندوستان پر حکومت کی، ہندوستانیوں کا لیڈر بننے کی تمنا تھی، ملک کا بٹوارہ مسلمانوں کے نام پر جناح کا مقصد نہیں تھا۔
دوسرا الزام جو مسلمانوں پر لگا وہ ہے دہشت گردی… اس کے لےے کچھ حد تک کانگریس کا، کیوں کہ اسی کے دوراقتدار میں یہ ہوا اور بہت حد تک شہیدہیمنت کرکرے کا شکریہ ادا کیا جاسکتا ہے کہ مسلمانوں کے دامن پر لگنے والے اس داغ کو مالیگاؤں بم بلاسٹ کی تحقیق نے دھوڈالا، لیکن یہ کام ابھی ادھورا ہے، جو کانگریس کو کرنا ہے۔
دوسرا سیاسی گٹھ جوڑ جو ہمارے سامنے ہے، وہ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کا۔ 1901میں ہندومہاسبھا کے جنم کے بعد سے آج تک مسلم دشمنی سنگھ پریوار کی سوچ ہے، جسے عملی جامہ پہنایا ہے اس کی سیاسی جماعت بھارتیہ جنتا پارٹی نے۔
گجرات اس پارٹی کے دوراقتدار میں ہندوستان کی پیشانی پر لگا وہ بدنما داغ ہے، جسے تاریخ کبھی بھلا نہیں پائے گی اور جسے اس پارٹی کے سب سے بڑے لیڈر سابق وزیراعظم اٹل بہاری واجپئی نے بھی تسلیم کیاہے۔ دوسری یعنی بھارتیہ جنتا پارٹی کی اتحادی پارٹی شیوسینا اس کا کردار مسلم دشمنی میں اس سے بھی چار قدم آگے رہا ہے؟ اسے بہت واضح طور پر سامنے رکھا ہے جسٹس شری کرشن نے۔ اس تحریر کے تسلسل میں ہم گجرات سے لے کر شری کرشن کمیشن کی رپورٹ تک ایسے واقعات کا تذکرہ کرےں گے، جن سے واضح ہوجائے گا کہ دراصل اس پارٹی کی سوچ کیا ہے؟ اس کے کارکنان کی کارکردگی کیا ہے؟ اور اس کے سربراہ کا مقصد کیا ہے؟
ان دونوں سیاسی پارٹیوں کے علاوہ جسے تیسرے محاذ کا نام دیا جارہا ہے، اس میں شامل کچھ پارٹیاں ہیںاور ان سے الگ بہوجن سماج پارٹی بھی ہے۔ ان پارٹیوں کا شجرہ مہاراشٹر کے عوام کے سامنے ہے۔ مہاراشٹر کے تعلق سے ان کے بارے میں بہت زیادہ کچھ لکھنے اور کہنے کی گنجائش نہیں ہے، اس لےے کہ ان پارٹیوں کی حیثیت بھی نہیں ہے کہ یہ مہاراشٹر میں سرکار بنانے یا بنوانے میں کوئی نمایاں کردار ادا کرسکیں۔ تاہم ان پارٹیوں کے منصوبوں کو سمجھنا ضروری ہے۔ اعلانیہ طور پر یہ جو کہیں گے، وہ تو یہی ہے کہ وہ مہاراشٹر کے عوام کو کوئی تیسرا متبادل دینا چاہتے ہیں۔
اگر ان سے یہ کہا جائے کہ آپ تو اس حیثیت میں نہیں ہیں، تب ان کا جواب ہوگا کہ کہیں سے تو شروعات کرنا ہوگی۔ ہم بہتر مستقبل کے لےے پرامید ہیں، کوشش رائیگاں نہیں جائے گی۔ اس الیکشن کے بعد ریاست میں ہماری جڑیں مضبوط ہوں گی۔ ہوسکتا ہے ان کے اس دعوں میں دم ہو، یہ صحیح ثابت بھی ہوجائیں، مگر کس قیمت پر، یہ ہمیں سوچنا ہوگا۔بیشک ہمارے ووٹوں کی قیمت پر…، اچھی طرح جانتی ہیں یہ پر خود کو تیسرا محاذ کہنے والی پارٹیاں کہ ان کا دعویٰ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کے ووٹرس پر نہیں ہے۔ کٹر ہندو سوچ کا ووٹر انہیں کوئی اہمیت نہیں دیتا۔
ان کے خوبصورت وعدوں کے جال میں پھنسنے والا سیکولر اور بالخصوص مسلم ووٹر ہی ہوتا ہے، اس لےے زیادہ مسلم امیدوار میدان میں اتارنا یا مسلم اکثریت والے حلقوں میں زوردار انتخابی مہم چھیڑ کر یہ راہیں آسان کردیتے ہیں، ان فرقہ پرست پارٹیوں کے لےے جن کا وجود ہی مسلم دشمنی کے لےے ہے۔ یہ پہلا موقع نہیں ہے، جب دو بڑی پارٹیوں کے اتحاد کے علاوہ دیگر چھوٹی پارٹیاں انتخابی میدان میں موجود ہوں۔
اگر ہم ان کے سابقہ کردار پر نظر ڈالیں تو اوپر لکھی چند لائنوں کی اہمیت کو سمجھا جاسکتا ہے اور ویسے بھی ہم بہت اچھی طرح جانتے ہیں کہ تیسرے محاذ کے نام پر میدان میں اترنے والی پارٹیاں صرف اپنے وجود کی جنگ لڑنا چاہتی ہے… اور اگر کچھ حد تک بھی ممکن ہوسکے تو ان کا مقصد صرف اتنا ہے کہ کسی بھی طرح وہ سودے بازی کی حیثیت حاصل کرلیں۔
یہاں سودے بازی کا یہ مطلب نہیں کہ ریاست مہاراشٹر میں انہیں اتنی سیٹیں جیت لینے کی امید ہے کہ سرکار بنوانے یا بننے سے روکنے کے لےے وہ سودے بازی کرنے کی پوزیشن میں آجائیںگی، بلکہ انہیں یہ لگتا ہوگا کہ اگر مرکز میں دباؤ بنانے کا راستہ مہاراشٹر کے انتخابات سے نکل آتا ہے تو اتنا بھی کم نہیں ہے۔ کیا ان کی اتنی سی خواہش پوری کرنے کے لےے ہمیں یہ جوکھم لینا چاہےے؟ کہ بھلے ہی بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کی سرکار بن جائے، ہمیں تیسرے محاذ کو اہمیت دینی چاہےے۔
اب رہا سوال بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کے گٹھ جوڑ کا، تو ہمیں نہیں لگتا کہ مہاراشٹر کا سیکولر عوام مہاراشٹر میں بسنے والے اتربھارتیہ، مہاراشٹر کا مسلم عوام اس گٹھ جوڑ کی سرکار بنتے دیکھنا چاہے گا۔ ویسے بھی یہ اہم موقع ہے، بھارتیہ جنتا پارٹی کے سیاسی مستقبل کے تعلق سے بھی اور ہندوستان میں سیکولرزم کی مضبوطی کے تعلق سے بھی۔ گزشتہ پارلیمانی انتخابات کے بعد بھارتیہ جنتا پارٹی کی جو درگت بنی، وہ سب کے سامنے ہے۔
جس طرح 2009کے عام انتخابات میں سیکولر ووٹرس نے مہر لگاکر ثابت کیا کہ ان کا اعتماد سیکولرزم میں قائم ہے، وہ فرقہ پرست طاقتوں کے ساتھ نہیں جاسکتے۔ اس سے بھارتیہ جنتا پارٹی کا شیرازہ بکھرگیا۔ وہ آپسی پھوٹ کا شکار ہوگئی۔ اب اسے اپنی نئی زندگی کے لےے چاہےے، کسی بھی ایک ریاست میں کامیابی۔ مرکز کی حکومت کا خواب ٹوٹ جانے کے بعد کسی بھی ریاست میں سرکار بنانے کا موقع۔
اس لےے کہ یہ پارٹی اچھی طرح جانتی ہے کہ اگر ان ریاستی انتخابات میں بھی اسے شکست سے دوچار ہونا پڑا تو اس کا مستقبل تباہ ہوجائے گا۔ اب یہ فیصلہ مہاراشٹر، ہریانہ اور اروناچل پردیش کے سیکولر عوام کو کرنا ہے کہ کیا وہ فرقہ پرست طاقتوں کی کھوکھلی ہوچکی جڑوں کو پھر سے نئی زندگی دینے کا جوکھم لے سکتے ہیں؟ یا پھر وہ اس خوبصورت موقع کا استعمال کرتے ہیں، ہندوستان سے فرقہ پرست سیاست کا پوری طرح صفایا کرنے کے لےے۔
اگر سیکولرزم نے، سیکولر ووٹرس نے یہ لڑائی جیت لی تو پھر ہندوستان کو اس کے سیکولر مستقبل سے کوئی روک نہیں سکتا۔ جہاں ہندوـمسلم اتحاد بھی نظر آئے گا اور قومی یکجہتی (سرودھرم سمبھو) بھی۔ ہاں، یہ صورتحال جو ہمارے سامنے ہے اور وہ تجزیہ جو ابھی میں نے قارئین کی خدمت میں پیش کیا، جوبلاشبہ کانگریس کے حق میں جاتا دکھائی دیتا ہے، جیسا کہ میں نے اپنے مضمون کی ابتدا میں ہی واضح کردیا تھا۔میں اگر یہ دو جملے نہیں لکھتا یا واضح طور پر کانگریس کا نام نہ لکھتا، تب بھی یہ تجزیہ کس سمت میں جارہی ہے، سمجھنا مشکل نہیں ہوتا۔
مگر کیا اس خوف سے کہ تحریر کسی کے خلاف یا کسی کے حق میں ہوسکتی ہے، مجھے نہیں لکھنا چاہئے تھی؟ مجھے نہیں قلمبند کرنی چاہےے تھی آج کی سیاسی صورتحال؟اگر آپ ایسا سوچتے ہیں تو پھاڑ کر پھینک دیجئے ردّی کی ٹوکری میں کاغذ کے اس ٹکڑے کو، کوئی اہمیت نہیں ہے اس کی… اور اگر آپ سوچتے ہیں کہ اب وہ وقت آگیا ہے کہ ہمیں تمام حالات کا جائزہ لے کر صاف صاف باتیں کرنا چاہئیں، جو ہمیں ناپسند ہے، وہ کس بنیاد پر ناپسند ہے، سامنے رکھ دینا چاہےے، تاکہ وہ ہم سے کوئی امیدکرے تو ہمارے جذبات کا خیال کرے، ہمارے حقوق کا خیال رکھے اور جسے ہم پسند کررہے ہوں بھلے ہی مجبوری میں تو اس پر بھی یہ واضح رہے کہ اس کے کمزور پہلو کیا ہیں؟
اگر اس نے اپنی کارکردگی میں بدلاؤ نہیں کیا، یکساں حقوق جو ہندوستان کے آئین میں درج ہیں دینے میں کوتاہی برتی تو آج حاصل ہوجانے والی حمایت دیرپا نہیں ہوسکتی اور یہ تو زمانہ جانتا ہی ہے کہ اگر کوئی نظروں سے گرجائے، امیدوں پر پورا نہ اترے، اعتماد کو توڑ دے تو پھر اس کے لےے نظروں میں اٹھنا اور اعتماد حاصل کرنا کتنا مشکل ہوتا ہے؟
चुनाव की चिंता करें वे जो चुनाव लड़ रहे हैं या लड़ा रहे हैं............चुनाव की चिंता करें वे जिन्हें सरकार बनानी है, बनवानी है या बनने से रोकनी है............चुनाव की चिंता करें वे जिनके लिए चुनाव एक कारोबार है और जिसकी उन्हें पांच वर्ष तक प्रतीक्षा रहती है...........मेरे लिए चिंता का विषय है मेरी कौम, कौम की समस्याएं हैं, कौम का भविष्य है और इन सब बातों का सम्बन्ध क्योंकि चुनाव से भी है इसलिए चुनाव मेरे लिए भी महत्व रखता है।
मेरा कलम मेरा हथियार है इसलिए कि आज मेरी कौम को यही दरकार है। मेरा लेख कब किसको किस तरह अप्रिय लगे यह समझना मुश्किल है। हां मगर जो साफ-साफ मुझे समझने लगे हैं, क्योंकि मैं उन्हें अच्छी तरह समझता हूं इसलिए मेरी तहरीर उन्हें अप्रिय लगती होगी यह तो मैं भी अच्छी तरह जानता हूं और वह भी अच्छी तरह जानते हैं।
अतः आज कुछ बातें साफ-साफ करना चाहता हूं। वैसे भी घुमा-फिराकर बात करना उचित नहीं लगता। समझने के लिए दिमाग पर बहुत ज़ोर डालना पड़ता है, बड़ा समय लगता है और आज समय है किसके पास? हम तो पहले ही 62 वर्ष बर्बाद कर चुके हैं, अब समझने-समझाने में समय बर्बाद नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान विधानसभा चुनावों के हवाले से मेरा आज का लेख कांग्रेस के पक्ष में जाता नज़र आ सकता है हालांकि कांग्रेस का किरदार कसीदे पढ़ने योग्य नहीं है और कसीदाख़ानी मुझे करनी भी नहीं है। लेकिन इसे कांग्रेस का सौभाग्य ठहराया जा सकता है कि बावजूद अनेक कमियों के आज तक राष्ट्रीय स्तर पर इसका कोई धर्मनिर्पेक्ष विकल्प पैदा नहीं हो सका है हां मगर उसे इस खुशफहमी का शिकार भी नहीं रहना चाहिए कि विवशता में ही सही जब उसका विकल्प ही नहीं है तो लोग जाएंगे कहां?
विवशता में उन्हें साथ आना ही होगा। कई बार हमने देखा है कि जनता इतनी विवश भी नहीं है, पूर्व में उसने अपने साथ की जाने वाली नाइंसाफियों की सज़ा भी दी है और उसे अगर उसका वाजिब अधिकार नहीं मिला तो वह कभी भी किसी को भी नज़रों से गिरा सकती है।
वर्तमान विधानसभा चुनावों में हमारे सामने एक प्रश्न है कि जाएं तो जाएं कहां..........?
अरूणाचल प्रदेश और हरियाणा की तुलना में यह प्रश्न महाराष्ट्र में अधिक उठता नज़र आ रहा है प्रश्न निरर्थक भी नहीं है............वास्तव में हमें यह समझना चाहिए कि आखिर वे कौन-कौन पार्टियां हैं जिनमें से हमें चुनाव करना है? हमारे सामने कांग्रेस और नैशनलिस्ट कांग्रेस का गठजोड़ है। कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिस पर हमने मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग से भी अधिक भरोसा किया......।
कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी......। कांग्रेस अर्थात वह पार्टी जिसके भरोसे हमने भारत में रह जाना पसन्द किया, पाकिस्तान को अपना देश नहीं समझा, मगर कांग्रेस हमें हमारा वाजिब अधिकार नहीं दे सकी। पिछले 62 वर्षों में लगभग आधी शताब्दी तक उसकी सरकार रही!
लेकिन भारत विभाजन से लेकर आतंकवाद तक का कलंक हमारे दामन पर लगता रहा लेकिन अब इसे एक संयोग कहिये या परवर दिगार-ए-आलम की ओर से भेजी गई ईश्वरीय सहायता कि पहला आरोप तो झूठा साबित हो ही चुका है । हम भारत विभाजन के उत्तरदायी नहीं हैं। कांग्रेस से अधिक यह आरोप लगाने और साबित करने का प्रयास किया संघ परिवार ने, उसके राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी ने और ऊपर वाले की बेआवाज़ लाठी भी पड़ी भी इसी पार्टी पर।
इस वास्तविकता को साबित करने में मदद भी मिली, इसी भारतीय जनता पार्टी से। जसवन्त सिंह ने भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए जो पुस्तक लिखी उसने साबित किया कि मोहम्मद अली जिन्ना साम्प्रदायिक नहीं, धर्मनिर्पेक्ष थे, भारत विभाजन के इच्छुक नहीं थे, हिन्दू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार थे और रही सही कसर पूरी कर दी कट्टर हिन्दुत्व और मुस्लिम दुश्मनी के मामले में संघ परिवार से भी अपने आप को दो कदम साबित करने वाली शिवसेना ने।
जिसने राज ठाकरे को महाराष्ट्र की राजनीति के हवाले से इस दौर का जिन्ना ठहरा दिया। अब यह तो सबके सामने है कि राज ठाकरे महाराष्ट्र की धरती के विभाजन का इच्छुक नहीं है। राज ठाकरे धर्म के आधार पर कोई अलग राज्य नहीं चाहता है। राज ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीतिक ज़मीन पर अपना दबदबा चाहता है, राज ठाकरे स्वयं को मराठियों का नेता साबित करना चाहता है। अर्थात राज ठाकरे वही चाहता है जो हमेशा बाल ठाकरे ने चाहा।
अगर बाल ठाकरे जैसे बुद्धिमान व्यक्ति ने, जिसका सम्बन्ध साहित्य की दुनिया से भी है सोच-समझकर राज ठाकरे को जिन्ना की पदवी दे डाली तो साबित कर दिया कि वास्तव में मोहम्मद अली जिन्ना की इच्छा थी भारत पर शासन की, भारतीय जनता का नेता बनने की, देश का विभाजन मुसलमानों के नाम पर जिन्ना का उद्देश्य नहीं था।
दूसरा आरोप जो मुसलमानों पर लगा वह है आतंकवाद....इसके लिए कुछ हद तक कांग्रेस का क्योंकि उसी के सत्ता में रहते यह हुआ और बहुत हद तक शहीद हेमन्त करकरे का शुक्रिया अदा किया जा सकता है कि मुसलमानों के दामन पर लगने वाले इस दाग को मालेगांव बम ब्लास्ट की जांच ने धो डाला लेकिन यह काम अभी अधूरा है जो कांग्रेस को करना है।
दूसरा राजनीतिक गठजोड़ जो हमारे सामने है वह है भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का। 1901 में हिन्दू महासभा के जन्म के बाद से आज तक मुस्लिम दुश्मनी संघ परिवार की सोच रही है जिसे अमली जामा पहनाया है उसके राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी ने। गुजरात इस पार्टी के सत्ता में रहते भारत के माथे पर लगा वह कलंक है जिसे इतिहास कभी भुला नहीं पायेगा और जिसे इस पार्टी के सबसे बड़े नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी स्वीकार किया है।
दूसरी अर्थात भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी पार्टी शिवसेना जिसका किरदार मुस्लिम दुश्मनी में बी.जे.पी से भी चार कदम आगे रहा है? इसे बहुत स्पष्ट रूप से सामने रखा है जस्टिस श्रीकृष्ण कमीशन ने। इस लेख की श्रृंखला में हम गुजरात फ़साद से लेकर श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट तक ऐसी घटनाओं का उल्लेख करेंगे जिनसे स्पष्ट हो जायेगा कि वास्तव में इस पार्टी की सोच क्या है, उसके कार्यकर्ताओं की कार्य प्रणाली क्या है?
और उसके नेता का उद्देश्य क्या है?
इन दोनों राजनीतिक पार्टियों के अतिरिक्त जिसे तीसरे मोर्चे का नाम दिया जा रहा है उसमें शामिल कुछ पार्टियां हैं और उनसे अलग बहुजन समाज पार्टी भी है। इन पार्टियों का इतिहास महाराष्ट्र की जनता के सामने है। महाराष्ट्र के सम्बन्ध में इन सबके बारे में बहुत अधिक कुछ लिखने और कहने की गुंजाइश नहीं है इसलिए कि ऐसी इन पार्टियों की इतनी हैसियत भी नहीं है कि यह महाराष्ट्र में सरकार बनाने या बनवाने में कोई स्पष्ट भुमिका निभा सकें फिर भी इन पार्टियों के मंसूबों को समझना आवश्यक है।
घोषित रूप से यह जो कहेंगे वह तो यही है कि वह महाराष्ट्र की जनता को कोई तीसरा विकल्प देना चाहते हैं। अगर उनसे यह कहा जाये कि आप तो इस हैसियत में नहीं हैं तब उनका उत्तर होगा कि कहीं से तो शुरूआत करना होगी, हम बेतहर भविष्य के लिए आशान्वित हैं प्रयास बेकार नहीं जायेगा। इस चुुनाव के बाद राज्य में हमारी जड़ें सुदृढ़ होंगी हो सकता है उनके इन दावों में दम हो, यह सही साबित भी हो जाए, मगर किस क़ीमत पर यह हमें सोचना होगा।
निःसन्देह हमारे वोटों की क़ीमत पर.......,अच्छी तरह जानती हैं यह स्वयं को तीसरा मोर्चा कहने वाली पार्टियां, उनका दावा भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के मतदाताओं पर नहीं है। कट्टर हिन्दू सोच का मतदाता उन्हें कोई महत्व नहीं देता। उनके खूबसूरत वादों के जाल में फंसने वाला धर्मनिर्पेक्ष और विशेषतः मुस्लिम मतदाता ही होता है, इसलिए अधिकतर मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारना या मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में ज़ोरदार चुनावी अभियान छेड़कर ये राहें आसान कर देते हैं, उन साम्प्रदायिक पार्टियों के लिए जिनका अस्तित्व ही मुस्लिम दुश्मनी के लिए है यह पहला अवसर नहीं है जब दो बड़ी पार्टियों के गठजोड़ के अतिरिक्त अन्य छोटी पार्टियां चुनावी मैदान में मौजूद हैं।
अगर हम उनके पूर्व के चरित्र पर निगाह डालें तो ऊपर लिखीं पंक्तियों के महत्व को समझा जा सकता है, वैसे भी हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि तीसरे मोर्च के नाम पर मैदान में उतरने वाली पार्टियां केवल अपने अस्तित्व की जंग लड़ना चाहती हैं..........और अगर कुछ सीमा तक भी संभव हो सके तो उनका उद्देश्य केवल इतना है कि किसी भी तरह वह सौदेबाज़ी की हैसियत हासिल कर लें।
यहां सौदेबाज़ी का अर्थ यह नहीं है कि महाराष्ट्र राज्य में उन्हें इतनी सीटें जीत लेने की आशा है कि सरकार बनवाने या बनने से रोकने के लिए वह सौदेबाज़ी करने की स्थिति में आ जाएंगे बल्कि उन्हें यह लगता होगा कि अगर केन्द्र में दबाब बनाने का रास्ता महाराष्ट्र के चुनावों से निकल आता है तो इतना भी कुछ कम नहीं है। क्या उनकी इतनी सी इच्छा पूरी करने के लिए हमें यह जोखिम लेना चाहिए कि भले ही भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की सरकार बन जाये, हमें तीसरे मोर्चे को महत्व देना चाहिए?
अब रहा प्रश्न भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के गठजोड़ का तो हमें नहीं लगता कि महाराष्ट्र की धर्मनिर्पेक्ष जनता महाराष्ट्र में बसने वाले उत्तर भारतीय, महाराष्ट्र की मुस्लिम जनता इस गठजोड़ की सरकार बनते देखना चाहेंगे। वैसे भी यह महत्वपूर्ण अवसर है भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक भविष्य के सम्बन्ध में भी और भारत में धर्मनिर्पेक्षता की मज़बूती के सम्बन्ध में भी।
पिछले संसदीय चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी की जो दुर्गत बनी वह सबकेसामने है। जिस तरह 2009 के आम चुनावों में धर्मनिर्पेक्ष मतदाताओं ने मोहर लगाकर साबित किया कि उनका भरोसा धर्मनिर्पेक्षता में बना हुआ है, वह साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ नहीं जा सकते, उससे भारतीय जनता पार्टी में बिखराव आ गया वह आपसी फूट का शिकार हो गयी। अब उसे अपने पुर्न जीवन के लिए चाहिए किसी भी एक राज्य में सफलता।
केन्द्र की सरकार का सपना टूट जाने के बाद किसी भी राज्य में सरकार बनाने का अवसर। इसलिए कि यह पार्टी अच्छी तरह जानती है कि अगर इन विधानसभा चुनावों में भी उसे पराजय से दो-चार होना पड़ा तो उसका भविष्य तबाह हो जायेगा। अब यह निर्णय महाराष्ट्र, हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश की धर्मनिर्पेक्ष जनता को करना है कि क्या वह साम्प्रदायिक शक्तियों की खोखली हो चुकी जड़ों को फिर से नया जीवन देने का जोखिम ले सकते हैं या फिर वह इस सुन्दर अवसर का उपयोग करते हैं भारत से साम्प्रदायिक राजनीति का पूरी तरह सफाया करने के लिए।
अगर धर्मनिर्पेक्ष मतदाताओं ने यह लड़ाई जीत ली तो फिर भारत को उसके धर्मनिर्पेक्ष भविष्य से कोई रोक नहीं सकता। जहां हिन्दू-मुस्लिम एकता भी नज़र आयेगी और साम्प्रदायिक सदभाव भी। हां यह स्थिति जो हमारे सामने है और वह विश्लेषण जो अभी मैंने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया, निःसन्देह कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखाई देता है जैसा कि मैंने अपने लेख के शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था।
मैं अगर यह दो वाक्य नहीं लिखता या स्पष्ट रूप में कांग्रेस का नाम न लिखता तब भी यह विशलेषण किस दिश में जा रहा है समझना कठिन नहीं होता। मगर क्या इस डर से कि लेख किसी के विरूद्ध या किसी के पक्ष में हो सकता है, मुझे नहीं लिखना चाहिए था? मुझे नहीं लिखना चाहिए थी आज की राजनीतिक स्थिति?
अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फाड़कर फेंक दीजिए रद्दी की टोकरी में कागज के इस टुकड़े को, कोई महत्व नहीं है इसका........और अगर आप सोचते हैं कि अब वह समय आ गया है कि हमें तमाम परिस्थितियों का जायज़ा लेकर साफ-साफ बातें करनी चाहिए जो हमें नापसन्द है वह किस आधार पर नापसन्द है सामने रख देना चाहिए, ताकि वह हमसे कोई आशा करे तो हमारी भावनाओं का ध्यान रखे, हमारे अधिकारों का ध्यान रखे और जिसे हम पसन्द कर रहे हों भले ही विवशतः में तो उस पर भी यह स्पष्ट रहे कि उसके कमज़ोर पहलू क्या हैं?
अगर उसने अपनी कार्य प्रणाली में परिवर्तन नहीं किया, समान अधिकार जो भारत के संविधान में दर्ज हैं देने में कोताही बरती तो आज प्राप्त होने वाला समर्थन है वह दीर्घकालीन नहीं हो सकता और यह तो ज़माना जानता ही है कि अगर कोई नज़रों से गिर जाये, आशाओं पर खरा न उतरे, भरोसे को तोड़ दे तो फिर उसके लिए नज़रों में उठना और भरोसा प्राप्त करना कितना कठिन होता है।
مہاراشٹر الیکشنـ جائیں تو جائیں کہاں…؟
الیکشن کی فکر کریںوہ، جو الیکشن لڑرہے ہیں یا لڑا رہے ہیں… الیکشن کی فکر کریںوہ، جنہیں سرکار بنانی ہے، بنوانی ہے یا بننے سے روکنی ہے… الیکشن کی فکر کریںوہ، جن کے لےے الیکشن ایک کاروبار ہے اور جس کا انہیں پانچ برس تک انتظار رہتا ہے… میرے لےے فکر کا موضوع میری قوم ہے، قوم کے مسائل ہیں، قوم کا مستقبل ہے اور ان سب باتوں کا تعلق چونکہ الیکشن سے بھی ہے، اس لےے الیکشن میرے لےے بھی اہمیت کا حامل ہے۔
میرا قلم میرا ہتھیار ہے، اس لےے کہ آج میری قوم کو یہی درکار ہے۔ میری تحریر کب کس کو کس طرح گراں گزرے، یہ سمجھنا مشکل ہے۔ ہاں، مگر جو صاف صاف مجھے سمجھنے لگے ہیں، کیوں کہ میں انہیں اچھی طرح سمجھتا ہوں، اس لےے میری تحریر انہیں گراں گزرتی ہی ہوگی یہ تو میں بھی اچھی طرح جانتا ہوں اورہ وہ بھی اچھی طرح جانتے ہیں۔
لہٰذا آج کچھ بات صاف صاف کرنا چاہتا ہوں۔ ویسے بھی گھما پھرا کر بات کرنا مناسب نہیں لگتا۔ سمجھنے کے لےے ذہن پر بہت زورڈالنا پڑتا ہے، بڑا وقت لگتا ہے اور آج وقت ہے کس کے پاس؟ ہم تو پہلے ہی 62برس برباد کرچکے ہیں، اب سمجھنے سمجھانے میں اور وقت برباد نہیں کیا جاسکتا۔ موجودہ ریاستی انتخابات کے حوالے سے میری آج کی تحریر کانگریس کے حق میں جاتی نظر آسکتی ہے، حالانکہ کانگریس کا کردار قصیدے پڑھنے کے لائق نہیں ہے اور قصیدہ خوانی مجھے کرنی بھی نہیں ہے۔
لیکن اسے کانگریس کی خوش نصیبی قرار دیا جاسکتا ہے کہ باوجود متعدد خامیوں کے آج تک قومی سطح پر اس کا کوئی سیکولر متبادل پیدا نہیں ہوسکا ہے۔ ہاں، مگر اسے اس خوش فہمی کا شکار بھی نہیں رہنا چاہےے کہ مجبوری میں ہی سہی جب اس کا نعم البدل ہی نہیں ہے تو لوگ جائیں گے کہاں؟ مجبوری میں تو انہیں ساتھ آنا ہی ہوگا۔ بارہا ہم نے دیکھا ہے کہ قوم اتنی مجبور بھی نہیں ہے۔ ماضی میں اس نے اپنے ساتھ کی جانے والی ناانصافیوں کی سزا بھی دی ہے اور اسے اگر اس کا واجب حق نہیں ملا تو وہ کبھی بھی، کسی کو بھی نظروں سے گرا سکتی ہے۔
موجودہ ریاستی انتخابات میں ہمارے سامنے ایک سوال ہے کہ جائیں تو جائیں کہاں…؟ اروناچل پردیش اور ہریانہ کے مقابلہ یہ سوال مہاراشٹر میں زیادہ گردش کرتا نظر آرہا ہے۔ سوال بے معنی بھی نہیں ہے…، واقعی ہمیں یہ سمجھنا چاہےے کہ آخر وہ کون کون پارٹیاں ہیں، جن میں سے ہمیں انتخاب کرنا ہے؟ ہمارے سامنے کانگریس اور نیشنلسٹ کانگریس کا اتحاد ہے۔
کانگریس یعنی وہ پارٹی جس پر ہم نے محمدعلی جناح کی مسلم لیگ سے بھی زیادہ بھروسہ کیا۔ کانگریس یعنی وہ پارٹی جس کے ساتھ کاندھا سے کاندھا ملا کر ہم نے آزادی کی جنگ لڑی۔ کانگریس یعنی وہ پارٹی جس کے بھروسہ ہم نے ہندوستان میں رہ جانا پسند کیا، پاکستان کو اپنا ملک نہیں سمجھا، مگر کانگریس ہمیں ہمارا واجب حق نہیں دے سکی۔
گزشتہ 62برسوں میں تقریباً آدھی صدی تک اس کی حکومت رہی، لیکن تقسیم وطن سے لے کر دہشت گردی تک کا داغ ہمارے دامن پر لگتا رہا، لیکن اب اسے اتفاق کہئے یا پروردگارِعالم کی جانب سے بھیجی گئی غیبی مدد کہ پہلا الزام تو جھوٹا ثابت ہوہی چکا ہے۔ ہم تقسیم وطن کے ذمہ دار نہیں ہےں۔ کانگریس سے زیادہ یہ الزام لگانے اور ثابت کرنے کی کوشش کی سنگھ پریوار نے، اس کی سیاسی جماعت بھارتیہ جنتا پارٹی نے اور اللہ کی بے آواز لاٹھی پڑی بھی اسی پارٹی پر۔ اس حقیقت کو ثابت کرنے میں مدد بھی ملی، اسی بھارتیہ جنتا پارٹی سے۔
جسونت سنگھ نے بھارتیہ جنتا پارٹی میں رہتے ہوئے جو کتاب لکھی، اس نے ثابت کیا کہ محمد علی جناح فرقہ پرست نہیں تھے، سیکولر تھے، تقسیم وطن کے خواہشمند نہیں تھے، ہندومسلم اتحاد کے علمبردار تھے اور رہی سہی کسر پوری کردی کٹر ہندوتو اور مسلم دشمنی کے معاملے میں سنگھ پریوار سے بھی اپنے آپ کو دو قدم آگے ثابت کرنے والی شیوسینا نے، جس نے راج ٹھاکرے کو مہاراشٹر کی سیاست کے حوالہ سے اس دور کا جناح قرار دے دیا۔ اب یہ تو سب کے سامنے ہے کہ راج ٹھاکرے مہاراشٹر کی زمین کے بٹوارے کا خواہش مند نہیں ہے۔
راج ٹھاکرے مذہب کی بنیادوں پر کوئی الگ ریاست نہیں چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے مہاراشٹر کی سیاسی زمین پر اپنا دبدبہ چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے خود کو مراٹھوںکا لیڈر ثابت کرنا چاہتا ہے۔ راج ٹھاکرے وہی چاہتا ہے، جو ہمیشہ بال ٹھاکرے نے چاہا۔ اگر بال ٹھاکرے جیسے ذہین شخص نے، جس کا تعلق لٹریچر کی دنیا سے بھی ہے سوچ سمجھ کر راج ٹھاکرے کو جناح کا لقب دے ڈالا اور ثابت کردیا کہ محمدعلی جناح کی خواہش تھی ہندوستان پر حکومت کی، ہندوستانیوں کا لیڈر بننے کی تمنا تھی، ملک کا بٹوارہ مسلمانوں کے نام پر جناح کا مقصد نہیں تھا۔
دوسرا الزام جو مسلمانوں پر لگا وہ ہے دہشت گردی… اس کے لےے کچھ حد تک کانگریس کا، کیوں کہ اسی کے دوراقتدار میں یہ ہوا اور بہت حد تک شہیدہیمنت کرکرے کا شکریہ ادا کیا جاسکتا ہے کہ مسلمانوں کے دامن پر لگنے والے اس داغ کو مالیگاؤں بم بلاسٹ کی تحقیق نے دھوڈالا، لیکن یہ کام ابھی ادھورا ہے، جو کانگریس کو کرنا ہے۔
دوسرا سیاسی گٹھ جوڑ جو ہمارے سامنے ہے، وہ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کا۔ 1901میں ہندومہاسبھا کے جنم کے بعد سے آج تک مسلم دشمنی سنگھ پریوار کی سوچ ہے، جسے عملی جامہ پہنایا ہے اس کی سیاسی جماعت بھارتیہ جنتا پارٹی نے۔
گجرات اس پارٹی کے دوراقتدار میں ہندوستان کی پیشانی پر لگا وہ بدنما داغ ہے، جسے تاریخ کبھی بھلا نہیں پائے گی اور جسے اس پارٹی کے سب سے بڑے لیڈر سابق وزیراعظم اٹل بہاری واجپئی نے بھی تسلیم کیاہے۔ دوسری یعنی بھارتیہ جنتا پارٹی کی اتحادی پارٹی شیوسینا اس کا کردار مسلم دشمنی میں اس سے بھی چار قدم آگے رہا ہے؟ اسے بہت واضح طور پر سامنے رکھا ہے جسٹس شری کرشن نے۔ اس تحریر کے تسلسل میں ہم گجرات سے لے کر شری کرشن کمیشن کی رپورٹ تک ایسے واقعات کا تذکرہ کرےں گے، جن سے واضح ہوجائے گا کہ دراصل اس پارٹی کی سوچ کیا ہے؟ اس کے کارکنان کی کارکردگی کیا ہے؟ اور اس کے سربراہ کا مقصد کیا ہے؟
ان دونوں سیاسی پارٹیوں کے علاوہ جسے تیسرے محاذ کا نام دیا جارہا ہے، اس میں شامل کچھ پارٹیاں ہیںاور ان سے الگ بہوجن سماج پارٹی بھی ہے۔ ان پارٹیوں کا شجرہ مہاراشٹر کے عوام کے سامنے ہے۔ مہاراشٹر کے تعلق سے ان کے بارے میں بہت زیادہ کچھ لکھنے اور کہنے کی گنجائش نہیں ہے، اس لےے کہ ان پارٹیوں کی حیثیت بھی نہیں ہے کہ یہ مہاراشٹر میں سرکار بنانے یا بنوانے میں کوئی نمایاں کردار ادا کرسکیں۔ تاہم ان پارٹیوں کے منصوبوں کو سمجھنا ضروری ہے۔ اعلانیہ طور پر یہ جو کہیں گے، وہ تو یہی ہے کہ وہ مہاراشٹر کے عوام کو کوئی تیسرا متبادل دینا چاہتے ہیں۔
اگر ان سے یہ کہا جائے کہ آپ تو اس حیثیت میں نہیں ہیں، تب ان کا جواب ہوگا کہ کہیں سے تو شروعات کرنا ہوگی۔ ہم بہتر مستقبل کے لےے پرامید ہیں، کوشش رائیگاں نہیں جائے گی۔ اس الیکشن کے بعد ریاست میں ہماری جڑیں مضبوط ہوں گی۔ ہوسکتا ہے ان کے اس دعوں میں دم ہو، یہ صحیح ثابت بھی ہوجائیں، مگر کس قیمت پر، یہ ہمیں سوچنا ہوگا۔بیشک ہمارے ووٹوں کی قیمت پر…، اچھی طرح جانتی ہیں یہ پر خود کو تیسرا محاذ کہنے والی پارٹیاں کہ ان کا دعویٰ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کے ووٹرس پر نہیں ہے۔ کٹر ہندو سوچ کا ووٹر انہیں کوئی اہمیت نہیں دیتا۔
ان کے خوبصورت وعدوں کے جال میں پھنسنے والا سیکولر اور بالخصوص مسلم ووٹر ہی ہوتا ہے، اس لےے زیادہ مسلم امیدوار میدان میں اتارنا یا مسلم اکثریت والے حلقوں میں زوردار انتخابی مہم چھیڑ کر یہ راہیں آسان کردیتے ہیں، ان فرقہ پرست پارٹیوں کے لےے جن کا وجود ہی مسلم دشمنی کے لےے ہے۔ یہ پہلا موقع نہیں ہے، جب دو بڑی پارٹیوں کے اتحاد کے علاوہ دیگر چھوٹی پارٹیاں انتخابی میدان میں موجود ہوں۔
اگر ہم ان کے سابقہ کردار پر نظر ڈالیں تو اوپر لکھی چند لائنوں کی اہمیت کو سمجھا جاسکتا ہے اور ویسے بھی ہم بہت اچھی طرح جانتے ہیں کہ تیسرے محاذ کے نام پر میدان میں اترنے والی پارٹیاں صرف اپنے وجود کی جنگ لڑنا چاہتی ہے… اور اگر کچھ حد تک بھی ممکن ہوسکے تو ان کا مقصد صرف اتنا ہے کہ کسی بھی طرح وہ سودے بازی کی حیثیت حاصل کرلیں۔
یہاں سودے بازی کا یہ مطلب نہیں کہ ریاست مہاراشٹر میں انہیں اتنی سیٹیں جیت لینے کی امید ہے کہ سرکار بنوانے یا بننے سے روکنے کے لےے وہ سودے بازی کرنے کی پوزیشن میں آجائیںگی، بلکہ انہیں یہ لگتا ہوگا کہ اگر مرکز میں دباؤ بنانے کا راستہ مہاراشٹر کے انتخابات سے نکل آتا ہے تو اتنا بھی کم نہیں ہے۔ کیا ان کی اتنی سی خواہش پوری کرنے کے لےے ہمیں یہ جوکھم لینا چاہےے؟ کہ بھلے ہی بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کی سرکار بن جائے، ہمیں تیسرے محاذ کو اہمیت دینی چاہےے۔
اب رہا سوال بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کے گٹھ جوڑ کا، تو ہمیں نہیں لگتا کہ مہاراشٹر کا سیکولر عوام مہاراشٹر میں بسنے والے اتربھارتیہ، مہاراشٹر کا مسلم عوام اس گٹھ جوڑ کی سرکار بنتے دیکھنا چاہے گا۔ ویسے بھی یہ اہم موقع ہے، بھارتیہ جنتا پارٹی کے سیاسی مستقبل کے تعلق سے بھی اور ہندوستان میں سیکولرزم کی مضبوطی کے تعلق سے بھی۔ گزشتہ پارلیمانی انتخابات کے بعد بھارتیہ جنتا پارٹی کی جو درگت بنی، وہ سب کے سامنے ہے۔
جس طرح 2009کے عام انتخابات میں سیکولر ووٹرس نے مہر لگاکر ثابت کیا کہ ان کا اعتماد سیکولرزم میں قائم ہے، وہ فرقہ پرست طاقتوں کے ساتھ نہیں جاسکتے۔ اس سے بھارتیہ جنتا پارٹی کا شیرازہ بکھرگیا۔ وہ آپسی پھوٹ کا شکار ہوگئی۔ اب اسے اپنی نئی زندگی کے لےے چاہےے، کسی بھی ایک ریاست میں کامیابی۔ مرکز کی حکومت کا خواب ٹوٹ جانے کے بعد کسی بھی ریاست میں سرکار بنانے کا موقع۔
اس لےے کہ یہ پارٹی اچھی طرح جانتی ہے کہ اگر ان ریاستی انتخابات میں بھی اسے شکست سے دوچار ہونا پڑا تو اس کا مستقبل تباہ ہوجائے گا۔ اب یہ فیصلہ مہاراشٹر، ہریانہ اور اروناچل پردیش کے سیکولر عوام کو کرنا ہے کہ کیا وہ فرقہ پرست طاقتوں کی کھوکھلی ہوچکی جڑوں کو پھر سے نئی زندگی دینے کا جوکھم لے سکتے ہیں؟ یا پھر وہ اس خوبصورت موقع کا استعمال کرتے ہیں، ہندوستان سے فرقہ پرست سیاست کا پوری طرح صفایا کرنے کے لےے۔
اگر سیکولرزم نے، سیکولر ووٹرس نے یہ لڑائی جیت لی تو پھر ہندوستان کو اس کے سیکولر مستقبل سے کوئی روک نہیں سکتا۔ جہاں ہندوـمسلم اتحاد بھی نظر آئے گا اور قومی یکجہتی (سرودھرم سمبھو) بھی۔ ہاں، یہ صورتحال جو ہمارے سامنے ہے اور وہ تجزیہ جو ابھی میں نے قارئین کی خدمت میں پیش کیا، جوبلاشبہ کانگریس کے حق میں جاتا دکھائی دیتا ہے، جیسا کہ میں نے اپنے مضمون کی ابتدا میں ہی واضح کردیا تھا۔میں اگر یہ دو جملے نہیں لکھتا یا واضح طور پر کانگریس کا نام نہ لکھتا، تب بھی یہ تجزیہ کس سمت میں جارہی ہے، سمجھنا مشکل نہیں ہوتا۔
مگر کیا اس خوف سے کہ تحریر کسی کے خلاف یا کسی کے حق میں ہوسکتی ہے، مجھے نہیں لکھنا چاہئے تھی؟ مجھے نہیں قلمبند کرنی چاہےے تھی آج کی سیاسی صورتحال؟اگر آپ ایسا سوچتے ہیں تو پھاڑ کر پھینک دیجئے ردّی کی ٹوکری میں کاغذ کے اس ٹکڑے کو، کوئی اہمیت نہیں ہے اس کی… اور اگر آپ سوچتے ہیں کہ اب وہ وقت آگیا ہے کہ ہمیں تمام حالات کا جائزہ لے کر صاف صاف باتیں کرنا چاہئیں، جو ہمیں ناپسند ہے، وہ کس بنیاد پر ناپسند ہے، سامنے رکھ دینا چاہےے، تاکہ وہ ہم سے کوئی امیدکرے تو ہمارے جذبات کا خیال کرے، ہمارے حقوق کا خیال رکھے اور جسے ہم پسند کررہے ہوں بھلے ہی مجبوری میں تو اس پر بھی یہ واضح رہے کہ اس کے کمزور پہلو کیا ہیں؟
اگر اس نے اپنی کارکردگی میں بدلاؤ نہیں کیا، یکساں حقوق جو ہندوستان کے آئین میں درج ہیں دینے میں کوتاہی برتی تو آج حاصل ہوجانے والی حمایت دیرپا نہیں ہوسکتی اور یہ تو زمانہ جانتا ہی ہے کہ اگر کوئی نظروں سے گرجائے، امیدوں پر پورا نہ اترے، اعتماد کو توڑ دے تو پھر اس کے لےے نظروں میں اٹھنا اور اعتماد حاصل کرنا کتنا مشکل ہوتا ہے؟
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