मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे
करण जौहर ने अपनी फ़िल्म ‘वैक अप सिड’ में मुम्बई को बम्बई कहे जाने पर राज ठाकरे से क्षमा मांगी है और दरियादिल राज ठाकरे ने उन्हें क्षमा भी कर दिया। अच्छा ही हुआ कि यह मामला बड़े विवाद से बच गया। न सिनेमा घरों में आग लगी, न करण जौहर के घर पर एन.एन.एस. कार्यकर्ताओं के भयंकर प्रदर्शन हुए। हां, मगर यह सब कुछ बहुत ख़ामोशी से भी नहीं हो गया। इतना तो हुआ ही कि करण जौहर के पसीने छूट जायें और वह सर के बल चलते हुए राज ठाकरे के दरबार में हाज़िर हों और क्षमा याचना करें।
वैसे इस मामले में उन्हें शर्मिन्दा होने की आवश्यक्ता नहीं है वह पहले या अकेले फ़िल्म वाले नहीं हैं, जिन्हें इस प्रकार के हालात का सामना करना पड़ा। ‘ट्रेजडी किंग’ दिलीप कुमार से लेकर आज के मिलिनियम स्टार अमिताभ बच्चन तक लगभग ऐसे ही कारणों से ठाकरे परिवार के क़दमों में झुकते रहे हैं। हमें पता नहीं कि कब कौन सी सरकार ने किन हालात में मुम्बई को ठाकरे ख़ानदान की जागीर बना दिया।
अच्छा होता कि अगर यह स्पष्ट हो जाता तो इस शहर में बसने वाला हर व्यक्ति अपने आप को ठाकरे परिवार का कृतज्ञ समझता। कुछ हद तक तो समझते अब भी हैं ‘मगर बेहद मजबूरी के साथ, तब यह होता कि कोई भी व्यक्ति मुम्बई शहर में दाखि़ल होने के बाद सबसे पहले इस परिवार की चैखट को सलामी देता’ फिर अगर उनकी अनुमति होती तो मुम्बई को अपना निवास स्थान बनाता वरना उल्टे पांव लौट जाता।
नहीं, इसमें ठाकरे परिवार का कोई दोष नहीं है। आज कल टेलीवीज़न पर एक विज्ञापन बहुत दिखाया जाता है, इससे पहले भी ‘टाटा टी’ का विज्ञापन जनता के बीच बहुत प्रसिद्ध हुआ था। जब वोट मांगने के लिए आने वाले एक राजनीतिज्ञ से एक युवक कुछ इस प्रकार से प्रश्नों का सिलसिला शुरू कर देता है कि उन महाशय को लगता है कि यह उनका इन्टरव्यू ले रहा है।
इसलिए वह व्यंग्य में मालूम करते हैं कि ‘क्या मेरा इनटरव्यू ले रहे हो?’ युवक ‘हां’ में जवाब देता हुए कहता है कि ‘आपने एक विशेष कार्य के लिए आवेदन किया है, इसलिए यह जानकारी आवश्यक है।’ राजनीतिज्ञ मज़ाक उड़ाते हुए कहता है ‘‘जॉब, कैसा जाॅब...’’ नवयुवक का उत्तर होता है ‘‘देश को चलाने की जॉब’’।
इसी कम्पनी का नया विज्ञापन रिश्वतख़ोरी पर करारी चोट है। स्कूल, दफ़्तर, सड़क हो या मन्दिर हर जगह, हर व्यक्ति घूसख़ोरी में लगा है। फिर एक सवाल खड़ा होता है कि सब खाते हैं इसलिए कि हम खिलाते हैं, अगर यह दोनों विज्ञापन आपके ध्यान में हैं तो आज इलैक्शन के वातावरण में उन पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
क्यों ऐसा होता है? अगर मुम्बई को बम्बई कहना जुर्म है तो इस जुर्म पर अदालत में मुक़दमा चलना चाहिए, फिर सज़ा या माफ़ी जो भी निर्णय अदालत का हो उसे स्वीकार कर लिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता, इसलिए कि वह झुकाते रहते हैं और हम झुकते रहते हैं।
मैं इस मामले में राज ठाकरे साहब को ज़्यादा क़सूरवार नहीं मानता, उन्हें तो यह राजनीतिज्ञ
कार्य प्रणाली विरासत में मिली है। वह नौजवान हैं, तेज़ तर्रार हैं, अच्छा पारिवारिक बैकग्राउंड है। प्रशंसकों की एक बड़ी संख्या मुम्बई में उनके साथ है। अब चाहने वाले पर ज़्यादा सवाल मत कीजियेगा। चाहत कभी आवश्यक्ता होती है तो कभी मजबूरी भी।
अब उनके साथ वजह क्या है यह तो वह जानें और चाहने वाले, लेकिन इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राज ठाकरे बाल ठाकरे की शिव सेना को अच्छी टक्कर दे रहे हैं। इसलिए जहां एक ओर करण जौहर की फ़िल्म जैसे मामले को लेकर उन पर टिप्पणी को जी चाहता है, वहीं इस टक्कर देने के मामले में कभी कभी प्रशंसा करने को भी जी चाहता है। हालांकि ऐसा हो नहीं पाता।
यह मुहावरे तो आपने ख़ूब सुने होंगे कि ‘लोहा ही लोहे को काटता है’ या ‘घर का भेदी लंका ढाये’, यह दोनों मुहावरे राज ठाकरे पर लागू किये जा सकते हैं। अब रहा सवाल उत्तर भारतियों से घृणा के प्रदर्शन और उन पर की जाने वाली ज़ोर ज़बरदस्ती का। तो यह सोच भी राज ठाकरे को अपने चाचा बाल ठाकरे से मिली है। फ़िल्म वालों के साथ उनका व्यवहार भी बाल ठाकरे के व्यवहार की याद दिलाता है, जो कुछ उनके चाचा ने दिलीप कुमार और सायरा बानो या सुनील दत्त के साथ किया, वहीं सब राज ठाकरे अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और करण जौहर के साथ कर रहे हैं।
असल झगड़ा है सियायसी विरासत का है इसलिए चोट तो इन्हीं बुनियादों पर करनी होगी, जिनको लेकर बाल ठाकरे कार्टून बनाते बनाते राजनीतिज्ञ बन गये। राज ठाकरे कार्य क्षेत्र से लेकर विचारों तक, उद्धव ठाकरे से कहीं अधिक बाल ठाकरे की विरासत के उत्तराधिकारी नज़र आते हैं।
अब यह हमें सोचने की आवश्यक्ता है कि इस सिलसिले को जारी रहना चाहिए या नहीं। जहां तक राजनीति का सम्बंध है तो इसका पूरा पूरा अधिकार बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे को भी और राज ठाकरे को भी, लेकिन जहां तक उनकी नीतियों का सम्बंध है तो इस पर चिन्तन की आवश्यक्ता है।
बाल ठाकरे की विचारधारा बदलने की तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती पर राज ठाकरे से अभी भी यह उम्मीद की जा सकती है वह बेशक अपने चाचा की राजनैतिक ज़मीन हासिल करने के लिए ये क़दम उठा रहे हों मगर राजनीति में लम्बा रास्ता तय करने के लिए उन्हें नफ़रत की राजनीति का दामन छोड़ना होगा। अगर उन्हें हमारे इस सुझाव पर कोई शक हो तो वह अपने चाचा की सहायक भारतीय जनता पार्टी की दुगर्ति देख कर इस बात का अन्दाज़ा कर सकते हैं कि आखि़रकार नफ़रत की राजनीति कामयाब नहीं होती।
हां, कुछ समय के लिए कामयाब ज़रूर दिखाई दे सकती है। क्या उन्होनें नहीं देखा पिछले लोकसभा चुनाव में और उसके बाद क्या हुआ? क्या उन्हें याद नहीं कि जब तक अटल बिहारी बाजपेयी जैसा विनम्र व्यक्तित्व जनता के सामने रहा यह पार्टी सत्ता में आती रही और धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली पार्टियाँ भी सरकार बनाने में सहर्ष सहायक सिद्ध होती रहीं। मगर जब लाल कृष्ण आडवाणी और नरेन्द्र मोदी जैसे चेहरे सामने आये तो न सिर्फ़ जनता ने रूख़ मोड़ लिया बल्कि सहयोगी तक साथ छोड़ गये। ख़ुद यह पार्टी आज जिस हाल में है यह किसी से छिपा नहीं है।
जिस समय राज ठाकरे, बाल ठाकरे से अलग हुए थे तो यह उम्मीद पैदा हुई थी कि वह धर्मनिर्पेक्षता की राजनीति करेंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे। हमने भी ‘आलमी सहारा’ के मुख्य पृष्ठ पर उनको स्थान दिया था। मुम्बई के कुछ मुसलमान भी इस उम्मीद में उनके साथ नज़र आते थे शायद इसलिए कि वह सोचते थे कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद जो क़हर बरपा किया, अब आगे उसमें कमी आयेगी और अब हिन्दू मुस्लिम नफ़रत की राजनीति अधिक दिन नहीं चलेगी।
एक हद तक ऐसा हुआ भी, राज ठाकरे की यह सोच उत्तर भारतियों के खि़लाफ़ या मराठों के हक़ में तो रही पर इसमें हिन्दू मुस्लिम का वो दृष्टिकोण नज़र नहीं आया जो बाल ठाकरे या शिव सेना में नज़र आता था। उनकी पार्टी ने मुसलमानों के साथ वैसा सलूक नहीं किया जैसा बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद शिव सेना ने बाल ठाकरे की नेतृत्व में किया था।
इस समय भी अगर वह मराठों की लड़ाई लड़ रहे हैं और इस लड़ाई में वह बाल ठाकरे को पराजय दे देते हैं तो वह इतना तो अवश्य करेंगे कि बड़े पैमाने पर नफरत का ज़हर फैलाने वाली एक राजनीतिक पार्टी की जड़ें खोखली कर देंगे। मगर उसके बाद उन्हें अपनी राजनीति के लिए खुली विचारधारा का सबूत देना होगा। उन्हें इस दायरे को तोड़ना होगा, जिसमें उनके चाचा ने अपने आप को क़ैद कर लिया था।
कांग्रेस के प्रति उनके दिल में नरम रूख़ है या कांग्रेस के दिल में उनके लिए, इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते। हां, मगर यह उम्मीद तो ज़रूर है कि राज ठाकरे अगर अपने इरादों में सफ़ल होते हैं तो इससे शिव सेना को नुक़सान पहुंचेगा मगर जितना सच इस बात में नज़र आता है उतना ही सच यह भी है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी भी आंख बंद किये नहीं बैठी हैं।
अगर राज ठाकरे कुछ हद तक साम्प्रदायिक वोटों में बँटवारा कर सकते हैं तो अपने आप को धर्मनिर्पेक्ष कहने वाली पार्टियाँ बड़ी हद तक धर्मनिर्पेक्ष वोटों का बँटवारा करने के लिए मैदान में मौजूद हैं। जितना नुक़सान शिव सेना या भारतीय जनता पार्टी को राज ठाकरे के साम्प्रदायिक वोटों में बँटवारे से होगा उससे बड़ा नुक़सान कांग्रेस और नैशनलिस्ट कांग्रेस को इन धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों के द्वारा प्राप्त किये गये वोटों के बँटवारे से होगा।
स्पष्ट है अब वह पार्टियाँ भी जानती हैं कि यह चुनाव उनके लिए किसी बड़ी कामयाबी की उम्मीदों वाला नहीं है। मगर कांग्रेस पर दबाव की राजनीति बनाने में ज़रूर कामयाब हो सकता है और अगर उनके भाग्य या राजनीतिक व्यूह रचना से उन्हें कुछ सीटें हासिल हो गईं और कांग्रेस एनसीपी गठबंधन या भाजपा शिवसेना गठबंधन स्पष्ट बहुमत से थोड़ा पीछे रह गए तो उनके दोनों हाथों में लड्डू हो सकते हैं जिधर उनकी आवश्यक्ता हो वह उधर जा सकते हैं।
अब सोचने की आवश्यक्ता मतदाताओं को है कि वह सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी या गठबंधन का चुनाव करना चाहते हैं या इन राजनीतिक बाज़ीगरों के जाल में फंस कर अपना वोट उनकी सौदेबाज़ी के लिए देना चाहते हैं या अपनी समस्याओं के निवारण और बेहतर भविष्य के लिए देना चाहते हैं? दूसरी महत्वपूर्ण बात जिस पर हमें अब विचार करना होगा वह यह कि क्या उन्हें 6 दिसम्बर 1992 के बाद के हालात और गुजरात के दंगे याद हैं और अब वह ऐसी किसी भी ताक़त को सत्ता में नहीं आने देना चाहते या फिर उन्होंने स्वंय को हालात के धारे पर छोड़ दिया है।
अभी भी समय है कि सभी दृष्टिकोणों से वर्तमान हालात पर विचार कर लिया जाये और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाये ताकि सही क़दम उठाया जा सके जो देश और क़ौम के पक्ष में हो, जो प्रदेश और प्रदेश में रहने वालों के पक्ष में हो इसलिए कि एक बार का ग़लत निर्णय केवल 5 वर्ष के लिए ही नहीं अपितु अनेक वर्षों के लिए कष्टदायक सिद्ध हो सकता है।
میرا پیغام محبت ہے جہاں تک پہنچے
کرن جوہر نے اپنی فلم ’’ویک اپ سِد‘‘ میں ممبئی کو بمبئی کہے جانے پر راج ٹھاکرے سے معافی مانگی اور فراخدل راج ٹھاکرے نے انھیں معاف بھی کر دیا ۔اچھا ہی ہوا کہ یہ معاملہ بڑے تنازعے سے بچ گیا۔نہ سنیما گھروں میں آگ لگی ،نہ کرن جوہر کے گھر پرایم این ایس کارکنان کے زبردست مظاہرے ہوئے ۔ہاں، مگر یہ سب کچھ بہت خاموشی سے بھی تو نہیں ہو گیا ۔اتنا تو ہوا ہی کہ کرن جوہر کے پسینے چھوٹ جائیں اور وہ سر کے بل چلتے ہوئے راج ٹھاکرے کے دربار میں حاضر ہوں اور معافی کے طلب گار ہوں۔
ویسے اس معاملے میں انھیں شرمندہ ہونے کی ضرورت نہیں ہے ۔ وہ پہلے یا اکیلے فلم والے نہیں ہیں ،جب اس طرح کے حالات کا سامنا کرنا پڑا۔شہنشاہ جذبات دلیپ کمار سے لے کر آج کے شہنشاہ وقت امیتابھ بچن تک تقریباً ایسی ہی وجوہات کی بنا پر ٹھاکرے خاندان کے قدموں میں جھکتے رہے ہیں۔ ہمیں پتہ نہیں کہ کب کون سی حکومت نے کن حالات میں ممبئی کو ٹھاکرے خاندان کی ملکیت میں دے دیا۔اچھا ہوتا اگر یہ وضاحت ہو جاتی تو اس شہر میں بسنے والا ہر شخص اپنے آپ کو ٹھاکرے خاندان کا مرہون منت سمجھتا ۔
کچھ حد تک تو سمجھتے اب بھی ہیں،مگر بیحد مجبوری کے ساتھ ۔تب یہ ہوتا کہ کوئی بھی شخص ممبئی شہر میں داخل ہونے کے بعد سب سے پہلے اس خاندان کی چوکھٹ کو سلامی دیتا ،پھر اگر ان کی اجازت ہوتی تو ممبئی کو اپنی قیام گاہ بناتا،ورنہ الٹے پائوں لوٹ جاتا۔
نہیں! اس میں ٹھاکرے خاندان کا کوئی قصور نہیں ہے ۔آجکل ٹیلی ویژن پر ایک اشتہار کثرت سے دکھایا جاتا ہے ۔ اس سے پہلے بھی ’’ٹاٹا ٹی‘‘ کا اشتہار عوام کے درمیان بہت مقبول ہوا تھا ،جب ووٹ مانگنے کے لئے آنے والے ایک سیاست داں سے ایک نوجوان کچھ اس انداز میں سوالات کا سلسلہ شروع کر دیتا ہے کہ ان مہاشے کو لگتا ہے کہ یہ ان کا انٹرویو لے رہا ہے ۔لہٰذا وہ طنز میں معلوم کرتے ہیں کہ کیا میرا انٹرویو لے رہے ہو؟
نوجوان ہاں میں جواب دیتے ہوئے کہتا ہے کہ آپ نے ایک اہم جاب کے لئے اپلائی جو کیا ہے، اس کے لئے یہ جانکاری ضروری ہے ۔ سیاست داں مذاق اڑاتے ہوئے کہتاہے ’’جاب، کون سی جاب…؟‘‘نوجوان کا جواب ہوتا ہے ’دیش کو چلانے کی جاب‘۔
اسی کمپنی کا تازہ اشتہار رشوت خوری پر کراری چوٹ ہے ۔ اسکول ،دفتر ،سڑک ہو یا مندر ہر جگہ ہر شخص رشوت خوری میں لگا ہے ۔پھر ایک سوال کھڑا ہوتا ہے کہ سب کھاتے ہیں، اس لئے کہ ہم کھلاتے ہیں ۔اگر یہ دونوں اشتہارات آپ کے ذہن میں ہیںتو آج الیکشن کے ماحول میں ان پر سنجیدگی سے سوچنے کی ضرورت ہے ۔کیوں ایسا ہوتا ہے ؟
اگر ممبئی کو بمبئی کہنا جرم ہے ،تو اس جرم پر عدالت میں مقدمہ چلنا چاہئے،پھر سزا یا معافی جو بھی فیصلہ عدالت کا ہو اسے تسلیم کر لیا جانا چاہئے، لیکن ایسا نہیں ہوتا اس لئے کہ وہ جھکاتے رہتے ہیں اور ہم جھکتے رہتے ہیں ۔
میں اس معاملے میں راج ٹھاکرے صاحب کو زیادہ قصور وار نہیں مانتا ۔انھیں تو یہ سیاسی حکمت عملی وراثت میں ملی ہے ۔
وہ نوجوان ہیں ،تیز طرار ہیں ،اچھا خاندانی پس منظر ہے ،چاہنے والوں کی ایک بڑی تعداد ممبئی میں ان کے ساتھ ہے ۔اب لفظ چاہنے والے پر زیادہ سوال مت کیجئے گا ۔چاہت کبھی خواہش ہوتی ہے تو کبھی مجبوری بھی۔ اب ان کے ساتھ وجہ کیا ہے ،یہ تو وہ جانیں اور ان کے چاہنے والے ، لیکن اس سچائی سے انکار نہیں کیا جا سکتا کہ آج راج ٹھاکرے بال ٹھاکرے کی شیو سینا کو اچھی ٹکر دے رہے ہیں ۔
لہٰذا جہاں ایک طرف کرن جوہر کی فلم جیسے معاملات پر ان پر تنقید کرنے کو جی چاہتا ہے۔وہیں اس ٹکر دینے کے معاملے میں کبھی کبھی تعریف کرنے کو بھی جی چاہتا ہے، حالانکہ ایسا ہو نہیں پاتا۔ یہ محاورے تو آپ نے خوب سنےں ہوںگے کہ ’لوہا ہی لوہے کو کاٹتا ہے‘ ، یا ’گھر کا بھیدی لنکا ڈھائے‘،یہ دونوں محاورے راج ٹھاکرے پر چسپاں کئے جا سکتے ہیں ۔
اب رہا سوال اتر بھارتیوں سے نفرت کے مظاہرے اور ان پر کی جانے والی زیادتی کا تو یہ سوچ بھی راج ٹھاکرے کو اپنے چچا بال ٹھاکرے سے ملی ہے ۔فلم والوں کے ساتھ ان کا سلوک بھی بال ٹھاکرے کے طرز عمل کی یاد دلاتا ہے ،جو کچھ ان کے چچا نے دلیپ کمار اور سائرہ بانو یا سنیل دت کے ساتھ کیا ،وہی سب راج ٹھاکرے امیتابھ بچن ،جیا بچن اور کرن جوہر کے ساتھ کررہے ہیں۔
9اصل جھگڑا ہے سیاسی وراثت کا ،لہٰذا چوٹ تو انھیں بنیادوں پر کرنا ہوگی ،جن کولے کر بال ٹھاکرے کارٹون بناتے بناتے سیاست داں بن گئے ۔راج ٹھاکرے پیشے سے لے کر ارادوں تک اودھو ٹھاکرے سے کہیں زیادہ بال ٹھاکرے کی وراثت کے حقدار نظر آتے ہیں ۔اب یہ ہمیں سوچنے کی ضرورت ہے کہ کیا اس سلسلے کو جاری رہنا چاہئے یا نہیں۔
جہاں تک سیاست کا تعلق ہے تو اس کا پورا پورا حق ہے بال ٹھاکرے ،اودھو ٹھاکرے کو بھی اور راج ٹھاکرے کو بھی ،لیکن جہاں تک ان کے طرز عمل کا تعلق ہے تو اس پر یقینا انتہائی غوروفکر کی ضرورت ہے ۔بال ٹھاکرے کا ذہن بدلنے کی تو اب کوئی امید نہیں کی جا سکتی ،مگر راج ٹھاکرے سے ابھی بھی یہ امید کی جا سکتی ہے کہ وہ بیشک اپنے چچا کی سیاسی زمین حاصل کرنے کے لئے یہ قدم اٹھارہے ہوں، مگر سیاست میں لمبا راستہ طے کرنے کے لئے انھیں نفرت کی سیاست کا دامن چھوڑنا ہوگا ۔
اگر انھیں ہمارے اس مشورے پر کوئی شک ہو تو وہ اپنے چچا کی معاون بھارتیہ جنتا پارٹی کا حشر دیکھ کر اس بات کا اندازہ کر سکتے ہیں کہ باالآخر نفر ت کی سیاست کامیاب نہیں ہوتی۔ ہاں ! کچھ وقت کے لئے کامیاب ضرور دکھائی دے سکتی ہے ۔ کیاں انھوں نے نہیں دیکھا گزشتہ پارلیمانی الیکشن میں اور اس کے بعد کیا ہوا۔کیا انھیں یاد نہیں کہ جب تک اٹل بہاری واجپئی جیسا نرم چہرہ عوام کے سامنے رہا ۔یہ پارٹی بر سر اقتدار آتی رہی ...
اور سیکولر سمجھی جانے والی پارٹیاں بھی سرکار بنانے میں بخوشی مدد گار ثابت ہوتی رہیں ،مگر جب لال کرشن اڈوانی اور نریندر مودی جیسے چہرے سامنے آئے تو نہ صرف عوام نے رخ موڑ لیا، بلکہ معاونین کی گرمجوشی بھی ختم ہو گئی ۔خود یہ پارٹی آج جس حال میں ہے، یہ کسی سے چھپا نہیں ہے ۔
جس وقت راج ٹھاکرے ،بال ٹھاکرے سے الگ ہوئے تھے تو یہ امید جگی تھی کہ وہ سیکولر زم کی سیاست کریں گے ۔ سب کو ساتھ لے کر چلیں گے ۔ہم نے بھی ’’عالمی سہارا‘‘ کے سر ورق پر ان کو جگہ دی تھی ۔ ممبئی کے کچھ مسلمان بھی اس امید میں ان کے ساتھ نظر آتے تھے، شاید اس لئے کہ وہ سوچتے تھے کہ 6 دسمبر 1992 کے بعد جو قہر برپا کیا گیا، اب آگے اس میں کمی آئے گی اور اب وہ ہندوـ مسلم نفرت کی سیاست زیادہ نہیں چلے گی ۔
ایک حد تک ایسا ہوا بھی ۔راج ٹھاکرے کا نظریہ اتر بھارتیوں کے خلاف یا مراٹھوں کے حق میں تو رہا، مگر اس میں ہندوـ مسلم کی وہ ذہنیت نظر نہیں آئی، جو بال ٹھاکرے یا شیو سینا میں نظر آتی ہے ۔ان کی پارٹی نے مسلمانوں کے ساتھ ویسا سلوک نہیں کیا جیسا بابری مسجد کی شہادت کے بعد بال ٹھاکرے کی سرپرستی میں شیو سینا نے کیا تھا ۔
اس وقت بھی اگر وہ مراٹھوں کی لڑائی لڑ رہے ہیں اور اس لڑائی میں وہ بال ٹھاکرے کو شکست دے دیتے ہیں تو وہ اتنا تو ضرور کریں گے کہ بڑے پیمانے پر نفرت کا زہر پھیلانے والی ایک سیاسی پارٹی کی جڑیں کھوکھلی کر دیں گے ،مگر اس کے بعد انھیں اپنی سیاست کے لئے کھلے ذہن کا ثبوت دینا ہوگا ۔انھیں اس دائرے کو توڑنا ہو گا،جس میں ان کے چچا نے اپنے آپ کو قید کر لیا تھا۔ کانگریس کے تئیں ان کے دل میں نرم گوشہ ہے یا ان کے تئیں کانگریس کے دل میں نرم گوشہ ہے ،اس بارے میں ہم کچھ نہیں کہہ سکتے۔
ہاں ! یہ قیاس آرائی تو ضرور ہے کہ راج ٹھاکرے اگر اپنے ارادوں میں کامیاب ہوتے ہیں تو اس سے شیو سینا کو نقصان پہنچے گا ،مگر جتنا سچ اس بات میں نظر آتا ہے ،اتنا ہی سچ یہ بھی ہے کہ شیو سینا اور بھارتیہ جنتا پارٹی بھی آنکھ بند کئے نہیں بیٹھی ہیں ۔
اگر راج ٹھاکرے کچھ حد تک کمیونل ووٹوں میں بٹوارہ کر سکتے ہیں تو اپنے آپ کو سیکولر کہنے والی پارٹیاں بڑی حد تک سیکولر ووٹوں کا بٹوارہ کرنے کے لئے میدان میں موجود ہیں ۔جتنا نقصان شیو سینا یا بھارتیہ جنتا پارٹی کو راج ٹھاکرے کے کمیونل ووٹوں میں بٹوارے سے ہوگا ،اس سے بڑا نقصان کانگریس اور نیشنلسٹ کانگریس کو ان سیکولر پارٹیوں کے ذریعے حاصل کئے گئے ووٹوں کے بٹوارے سے ہوگا ۔ظاہر ہے اب وہ پارٹیاں بھی جانتی ہیں کہ یہ الیکشن ان کے لئے کسی بڑی کامیابی کی امیدوں والا نہیں ہے،
مگر کانگریس پر دبائو کی راجنیتی بنانے میں ضرور کامیاب ہو سکتا ہے اور اگر ان کی قسمت یا سیاسی حکمت عملی سے انھیں کچھ سیٹیں حاصل ہو گئیں اور کانگریسـ این سی پی اتحاد یا بی جے پیـ شیو سینا اتحاد واضح اکثریت سے ذرا دور رہ گئے تو ان کے دونوں ہاتھوں میں لڈو ہو سکتے ہیں۔ جدھر ان کی ضرورت ہو وہ ادھر جا سکتے ہیں۔
اب سوچنے کی ضرورت ووٹرس کو ہے کہ وہ سرکار بنانے کے لئے کسی پارٹی یا اتحاد کا انتخاب کرنا چاہتے ہیں یا ان سیاسی بازیگروں کے جال میں پھنس کر اپنا ووٹ ان کی سودے بازی کے لئے دینا چاہتے ہیں یا اپنے مسائل کے حل اور بہتر مستقبل کے لئے دینا چاہتے ہیں ۔ دوسری اہم بات جس پر ہمیں اب غور کرنا ہوگا؟ وہ یہ کہ کیا انھیں 6 دسمبر 1992کے بعد کے حالات اور گجرات کے فسادات یاد ہیں اور اب وہ ایسی کسی بھی طاقت کو بر سر اقتدار نہیں آنے دینا چاہتے ۔
یا پھر انھوں نے اپنے آپ کو حالات کے سہارے چھوڑ دیا ہے۔ابھی بھی وقت ہے کہ تمام زاویوں سے تازہ صورت حال پر غور کر لیا جائے اورکسی نتیجے پر پہنچ لیا جائے تاکہ صحیح قدم اٹھایا جا سکے، جو ملک اور قوم کے حق میں ہو ،جو ریاست اور اس ریاست میں رہنے والوں کے حق میں ہو۔اس لئے کہ ایک بار کا غلط فیصلہ صرف پانچ برس کے لئے ہی نہیں،بلکہ برسہا برس کے لئے سوہانِ روح ثابت ہو سکتا ہے۔
करण जौहर ने अपनी फ़िल्म ‘वैक अप सिड’ में मुम्बई को बम्बई कहे जाने पर राज ठाकरे से क्षमा मांगी है और दरियादिल राज ठाकरे ने उन्हें क्षमा भी कर दिया। अच्छा ही हुआ कि यह मामला बड़े विवाद से बच गया। न सिनेमा घरों में आग लगी, न करण जौहर के घर पर एन.एन.एस. कार्यकर्ताओं के भयंकर प्रदर्शन हुए। हां, मगर यह सब कुछ बहुत ख़ामोशी से भी नहीं हो गया। इतना तो हुआ ही कि करण जौहर के पसीने छूट जायें और वह सर के बल चलते हुए राज ठाकरे के दरबार में हाज़िर हों और क्षमा याचना करें।
वैसे इस मामले में उन्हें शर्मिन्दा होने की आवश्यक्ता नहीं है वह पहले या अकेले फ़िल्म वाले नहीं हैं, जिन्हें इस प्रकार के हालात का सामना करना पड़ा। ‘ट्रेजडी किंग’ दिलीप कुमार से लेकर आज के मिलिनियम स्टार अमिताभ बच्चन तक लगभग ऐसे ही कारणों से ठाकरे परिवार के क़दमों में झुकते रहे हैं। हमें पता नहीं कि कब कौन सी सरकार ने किन हालात में मुम्बई को ठाकरे ख़ानदान की जागीर बना दिया।
अच्छा होता कि अगर यह स्पष्ट हो जाता तो इस शहर में बसने वाला हर व्यक्ति अपने आप को ठाकरे परिवार का कृतज्ञ समझता। कुछ हद तक तो समझते अब भी हैं ‘मगर बेहद मजबूरी के साथ, तब यह होता कि कोई भी व्यक्ति मुम्बई शहर में दाखि़ल होने के बाद सबसे पहले इस परिवार की चैखट को सलामी देता’ फिर अगर उनकी अनुमति होती तो मुम्बई को अपना निवास स्थान बनाता वरना उल्टे पांव लौट जाता।
नहीं, इसमें ठाकरे परिवार का कोई दोष नहीं है। आज कल टेलीवीज़न पर एक विज्ञापन बहुत दिखाया जाता है, इससे पहले भी ‘टाटा टी’ का विज्ञापन जनता के बीच बहुत प्रसिद्ध हुआ था। जब वोट मांगने के लिए आने वाले एक राजनीतिज्ञ से एक युवक कुछ इस प्रकार से प्रश्नों का सिलसिला शुरू कर देता है कि उन महाशय को लगता है कि यह उनका इन्टरव्यू ले रहा है।
इसलिए वह व्यंग्य में मालूम करते हैं कि ‘क्या मेरा इनटरव्यू ले रहे हो?’ युवक ‘हां’ में जवाब देता हुए कहता है कि ‘आपने एक विशेष कार्य के लिए आवेदन किया है, इसलिए यह जानकारी आवश्यक है।’ राजनीतिज्ञ मज़ाक उड़ाते हुए कहता है ‘‘जॉब, कैसा जाॅब...’’ नवयुवक का उत्तर होता है ‘‘देश को चलाने की जॉब’’।
इसी कम्पनी का नया विज्ञापन रिश्वतख़ोरी पर करारी चोट है। स्कूल, दफ़्तर, सड़क हो या मन्दिर हर जगह, हर व्यक्ति घूसख़ोरी में लगा है। फिर एक सवाल खड़ा होता है कि सब खाते हैं इसलिए कि हम खिलाते हैं, अगर यह दोनों विज्ञापन आपके ध्यान में हैं तो आज इलैक्शन के वातावरण में उन पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
क्यों ऐसा होता है? अगर मुम्बई को बम्बई कहना जुर्म है तो इस जुर्म पर अदालत में मुक़दमा चलना चाहिए, फिर सज़ा या माफ़ी जो भी निर्णय अदालत का हो उसे स्वीकार कर लिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता, इसलिए कि वह झुकाते रहते हैं और हम झुकते रहते हैं।
मैं इस मामले में राज ठाकरे साहब को ज़्यादा क़सूरवार नहीं मानता, उन्हें तो यह राजनीतिज्ञ
कार्य प्रणाली विरासत में मिली है। वह नौजवान हैं, तेज़ तर्रार हैं, अच्छा पारिवारिक बैकग्राउंड है। प्रशंसकों की एक बड़ी संख्या मुम्बई में उनके साथ है। अब चाहने वाले पर ज़्यादा सवाल मत कीजियेगा। चाहत कभी आवश्यक्ता होती है तो कभी मजबूरी भी।
अब उनके साथ वजह क्या है यह तो वह जानें और चाहने वाले, लेकिन इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राज ठाकरे बाल ठाकरे की शिव सेना को अच्छी टक्कर दे रहे हैं। इसलिए जहां एक ओर करण जौहर की फ़िल्म जैसे मामले को लेकर उन पर टिप्पणी को जी चाहता है, वहीं इस टक्कर देने के मामले में कभी कभी प्रशंसा करने को भी जी चाहता है। हालांकि ऐसा हो नहीं पाता।
यह मुहावरे तो आपने ख़ूब सुने होंगे कि ‘लोहा ही लोहे को काटता है’ या ‘घर का भेदी लंका ढाये’, यह दोनों मुहावरे राज ठाकरे पर लागू किये जा सकते हैं। अब रहा सवाल उत्तर भारतियों से घृणा के प्रदर्शन और उन पर की जाने वाली ज़ोर ज़बरदस्ती का। तो यह सोच भी राज ठाकरे को अपने चाचा बाल ठाकरे से मिली है। फ़िल्म वालों के साथ उनका व्यवहार भी बाल ठाकरे के व्यवहार की याद दिलाता है, जो कुछ उनके चाचा ने दिलीप कुमार और सायरा बानो या सुनील दत्त के साथ किया, वहीं सब राज ठाकरे अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और करण जौहर के साथ कर रहे हैं।
असल झगड़ा है सियायसी विरासत का है इसलिए चोट तो इन्हीं बुनियादों पर करनी होगी, जिनको लेकर बाल ठाकरे कार्टून बनाते बनाते राजनीतिज्ञ बन गये। राज ठाकरे कार्य क्षेत्र से लेकर विचारों तक, उद्धव ठाकरे से कहीं अधिक बाल ठाकरे की विरासत के उत्तराधिकारी नज़र आते हैं।
अब यह हमें सोचने की आवश्यक्ता है कि इस सिलसिले को जारी रहना चाहिए या नहीं। जहां तक राजनीति का सम्बंध है तो इसका पूरा पूरा अधिकार बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे को भी और राज ठाकरे को भी, लेकिन जहां तक उनकी नीतियों का सम्बंध है तो इस पर चिन्तन की आवश्यक्ता है।
बाल ठाकरे की विचारधारा बदलने की तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती पर राज ठाकरे से अभी भी यह उम्मीद की जा सकती है वह बेशक अपने चाचा की राजनैतिक ज़मीन हासिल करने के लिए ये क़दम उठा रहे हों मगर राजनीति में लम्बा रास्ता तय करने के लिए उन्हें नफ़रत की राजनीति का दामन छोड़ना होगा। अगर उन्हें हमारे इस सुझाव पर कोई शक हो तो वह अपने चाचा की सहायक भारतीय जनता पार्टी की दुगर्ति देख कर इस बात का अन्दाज़ा कर सकते हैं कि आखि़रकार नफ़रत की राजनीति कामयाब नहीं होती।
हां, कुछ समय के लिए कामयाब ज़रूर दिखाई दे सकती है। क्या उन्होनें नहीं देखा पिछले लोकसभा चुनाव में और उसके बाद क्या हुआ? क्या उन्हें याद नहीं कि जब तक अटल बिहारी बाजपेयी जैसा विनम्र व्यक्तित्व जनता के सामने रहा यह पार्टी सत्ता में आती रही और धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली पार्टियाँ भी सरकार बनाने में सहर्ष सहायक सिद्ध होती रहीं। मगर जब लाल कृष्ण आडवाणी और नरेन्द्र मोदी जैसे चेहरे सामने आये तो न सिर्फ़ जनता ने रूख़ मोड़ लिया बल्कि सहयोगी तक साथ छोड़ गये। ख़ुद यह पार्टी आज जिस हाल में है यह किसी से छिपा नहीं है।
जिस समय राज ठाकरे, बाल ठाकरे से अलग हुए थे तो यह उम्मीद पैदा हुई थी कि वह धर्मनिर्पेक्षता की राजनीति करेंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे। हमने भी ‘आलमी सहारा’ के मुख्य पृष्ठ पर उनको स्थान दिया था। मुम्बई के कुछ मुसलमान भी इस उम्मीद में उनके साथ नज़र आते थे शायद इसलिए कि वह सोचते थे कि 6 दिसम्बर 1992 के बाद जो क़हर बरपा किया, अब आगे उसमें कमी आयेगी और अब हिन्दू मुस्लिम नफ़रत की राजनीति अधिक दिन नहीं चलेगी।
एक हद तक ऐसा हुआ भी, राज ठाकरे की यह सोच उत्तर भारतियों के खि़लाफ़ या मराठों के हक़ में तो रही पर इसमें हिन्दू मुस्लिम का वो दृष्टिकोण नज़र नहीं आया जो बाल ठाकरे या शिव सेना में नज़र आता था। उनकी पार्टी ने मुसलमानों के साथ वैसा सलूक नहीं किया जैसा बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद शिव सेना ने बाल ठाकरे की नेतृत्व में किया था।
इस समय भी अगर वह मराठों की लड़ाई लड़ रहे हैं और इस लड़ाई में वह बाल ठाकरे को पराजय दे देते हैं तो वह इतना तो अवश्य करेंगे कि बड़े पैमाने पर नफरत का ज़हर फैलाने वाली एक राजनीतिक पार्टी की जड़ें खोखली कर देंगे। मगर उसके बाद उन्हें अपनी राजनीति के लिए खुली विचारधारा का सबूत देना होगा। उन्हें इस दायरे को तोड़ना होगा, जिसमें उनके चाचा ने अपने आप को क़ैद कर लिया था।
कांग्रेस के प्रति उनके दिल में नरम रूख़ है या कांग्रेस के दिल में उनके लिए, इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते। हां, मगर यह उम्मीद तो ज़रूर है कि राज ठाकरे अगर अपने इरादों में सफ़ल होते हैं तो इससे शिव सेना को नुक़सान पहुंचेगा मगर जितना सच इस बात में नज़र आता है उतना ही सच यह भी है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी भी आंख बंद किये नहीं बैठी हैं।
अगर राज ठाकरे कुछ हद तक साम्प्रदायिक वोटों में बँटवारा कर सकते हैं तो अपने आप को धर्मनिर्पेक्ष कहने वाली पार्टियाँ बड़ी हद तक धर्मनिर्पेक्ष वोटों का बँटवारा करने के लिए मैदान में मौजूद हैं। जितना नुक़सान शिव सेना या भारतीय जनता पार्टी को राज ठाकरे के साम्प्रदायिक वोटों में बँटवारे से होगा उससे बड़ा नुक़सान कांग्रेस और नैशनलिस्ट कांग्रेस को इन धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों के द्वारा प्राप्त किये गये वोटों के बँटवारे से होगा।
स्पष्ट है अब वह पार्टियाँ भी जानती हैं कि यह चुनाव उनके लिए किसी बड़ी कामयाबी की उम्मीदों वाला नहीं है। मगर कांग्रेस पर दबाव की राजनीति बनाने में ज़रूर कामयाब हो सकता है और अगर उनके भाग्य या राजनीतिक व्यूह रचना से उन्हें कुछ सीटें हासिल हो गईं और कांग्रेस एनसीपी गठबंधन या भाजपा शिवसेना गठबंधन स्पष्ट बहुमत से थोड़ा पीछे रह गए तो उनके दोनों हाथों में लड्डू हो सकते हैं जिधर उनकी आवश्यक्ता हो वह उधर जा सकते हैं।
अब सोचने की आवश्यक्ता मतदाताओं को है कि वह सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी या गठबंधन का चुनाव करना चाहते हैं या इन राजनीतिक बाज़ीगरों के जाल में फंस कर अपना वोट उनकी सौदेबाज़ी के लिए देना चाहते हैं या अपनी समस्याओं के निवारण और बेहतर भविष्य के लिए देना चाहते हैं? दूसरी महत्वपूर्ण बात जिस पर हमें अब विचार करना होगा वह यह कि क्या उन्हें 6 दिसम्बर 1992 के बाद के हालात और गुजरात के दंगे याद हैं और अब वह ऐसी किसी भी ताक़त को सत्ता में नहीं आने देना चाहते या फिर उन्होंने स्वंय को हालात के धारे पर छोड़ दिया है।
अभी भी समय है कि सभी दृष्टिकोणों से वर्तमान हालात पर विचार कर लिया जाये और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाये ताकि सही क़दम उठाया जा सके जो देश और क़ौम के पक्ष में हो, जो प्रदेश और प्रदेश में रहने वालों के पक्ष में हो इसलिए कि एक बार का ग़लत निर्णय केवल 5 वर्ष के लिए ही नहीं अपितु अनेक वर्षों के लिए कष्टदायक सिद्ध हो सकता है।
میرا پیغام محبت ہے جہاں تک پہنچے
کرن جوہر نے اپنی فلم ’’ویک اپ سِد‘‘ میں ممبئی کو بمبئی کہے جانے پر راج ٹھاکرے سے معافی مانگی اور فراخدل راج ٹھاکرے نے انھیں معاف بھی کر دیا ۔اچھا ہی ہوا کہ یہ معاملہ بڑے تنازعے سے بچ گیا۔نہ سنیما گھروں میں آگ لگی ،نہ کرن جوہر کے گھر پرایم این ایس کارکنان کے زبردست مظاہرے ہوئے ۔ہاں، مگر یہ سب کچھ بہت خاموشی سے بھی تو نہیں ہو گیا ۔اتنا تو ہوا ہی کہ کرن جوہر کے پسینے چھوٹ جائیں اور وہ سر کے بل چلتے ہوئے راج ٹھاکرے کے دربار میں حاضر ہوں اور معافی کے طلب گار ہوں۔
ویسے اس معاملے میں انھیں شرمندہ ہونے کی ضرورت نہیں ہے ۔ وہ پہلے یا اکیلے فلم والے نہیں ہیں ،جب اس طرح کے حالات کا سامنا کرنا پڑا۔شہنشاہ جذبات دلیپ کمار سے لے کر آج کے شہنشاہ وقت امیتابھ بچن تک تقریباً ایسی ہی وجوہات کی بنا پر ٹھاکرے خاندان کے قدموں میں جھکتے رہے ہیں۔ ہمیں پتہ نہیں کہ کب کون سی حکومت نے کن حالات میں ممبئی کو ٹھاکرے خاندان کی ملکیت میں دے دیا۔اچھا ہوتا اگر یہ وضاحت ہو جاتی تو اس شہر میں بسنے والا ہر شخص اپنے آپ کو ٹھاکرے خاندان کا مرہون منت سمجھتا ۔
کچھ حد تک تو سمجھتے اب بھی ہیں،مگر بیحد مجبوری کے ساتھ ۔تب یہ ہوتا کہ کوئی بھی شخص ممبئی شہر میں داخل ہونے کے بعد سب سے پہلے اس خاندان کی چوکھٹ کو سلامی دیتا ،پھر اگر ان کی اجازت ہوتی تو ممبئی کو اپنی قیام گاہ بناتا،ورنہ الٹے پائوں لوٹ جاتا۔
نہیں! اس میں ٹھاکرے خاندان کا کوئی قصور نہیں ہے ۔آجکل ٹیلی ویژن پر ایک اشتہار کثرت سے دکھایا جاتا ہے ۔ اس سے پہلے بھی ’’ٹاٹا ٹی‘‘ کا اشتہار عوام کے درمیان بہت مقبول ہوا تھا ،جب ووٹ مانگنے کے لئے آنے والے ایک سیاست داں سے ایک نوجوان کچھ اس انداز میں سوالات کا سلسلہ شروع کر دیتا ہے کہ ان مہاشے کو لگتا ہے کہ یہ ان کا انٹرویو لے رہا ہے ۔لہٰذا وہ طنز میں معلوم کرتے ہیں کہ کیا میرا انٹرویو لے رہے ہو؟
نوجوان ہاں میں جواب دیتے ہوئے کہتا ہے کہ آپ نے ایک اہم جاب کے لئے اپلائی جو کیا ہے، اس کے لئے یہ جانکاری ضروری ہے ۔ سیاست داں مذاق اڑاتے ہوئے کہتاہے ’’جاب، کون سی جاب…؟‘‘نوجوان کا جواب ہوتا ہے ’دیش کو چلانے کی جاب‘۔
اسی کمپنی کا تازہ اشتہار رشوت خوری پر کراری چوٹ ہے ۔ اسکول ،دفتر ،سڑک ہو یا مندر ہر جگہ ہر شخص رشوت خوری میں لگا ہے ۔پھر ایک سوال کھڑا ہوتا ہے کہ سب کھاتے ہیں، اس لئے کہ ہم کھلاتے ہیں ۔اگر یہ دونوں اشتہارات آپ کے ذہن میں ہیںتو آج الیکشن کے ماحول میں ان پر سنجیدگی سے سوچنے کی ضرورت ہے ۔کیوں ایسا ہوتا ہے ؟
اگر ممبئی کو بمبئی کہنا جرم ہے ،تو اس جرم پر عدالت میں مقدمہ چلنا چاہئے،پھر سزا یا معافی جو بھی فیصلہ عدالت کا ہو اسے تسلیم کر لیا جانا چاہئے، لیکن ایسا نہیں ہوتا اس لئے کہ وہ جھکاتے رہتے ہیں اور ہم جھکتے رہتے ہیں ۔
میں اس معاملے میں راج ٹھاکرے صاحب کو زیادہ قصور وار نہیں مانتا ۔انھیں تو یہ سیاسی حکمت عملی وراثت میں ملی ہے ۔
وہ نوجوان ہیں ،تیز طرار ہیں ،اچھا خاندانی پس منظر ہے ،چاہنے والوں کی ایک بڑی تعداد ممبئی میں ان کے ساتھ ہے ۔اب لفظ چاہنے والے پر زیادہ سوال مت کیجئے گا ۔چاہت کبھی خواہش ہوتی ہے تو کبھی مجبوری بھی۔ اب ان کے ساتھ وجہ کیا ہے ،یہ تو وہ جانیں اور ان کے چاہنے والے ، لیکن اس سچائی سے انکار نہیں کیا جا سکتا کہ آج راج ٹھاکرے بال ٹھاکرے کی شیو سینا کو اچھی ٹکر دے رہے ہیں ۔
لہٰذا جہاں ایک طرف کرن جوہر کی فلم جیسے معاملات پر ان پر تنقید کرنے کو جی چاہتا ہے۔وہیں اس ٹکر دینے کے معاملے میں کبھی کبھی تعریف کرنے کو بھی جی چاہتا ہے، حالانکہ ایسا ہو نہیں پاتا۔ یہ محاورے تو آپ نے خوب سنےں ہوںگے کہ ’لوہا ہی لوہے کو کاٹتا ہے‘ ، یا ’گھر کا بھیدی لنکا ڈھائے‘،یہ دونوں محاورے راج ٹھاکرے پر چسپاں کئے جا سکتے ہیں ۔
اب رہا سوال اتر بھارتیوں سے نفرت کے مظاہرے اور ان پر کی جانے والی زیادتی کا تو یہ سوچ بھی راج ٹھاکرے کو اپنے چچا بال ٹھاکرے سے ملی ہے ۔فلم والوں کے ساتھ ان کا سلوک بھی بال ٹھاکرے کے طرز عمل کی یاد دلاتا ہے ،جو کچھ ان کے چچا نے دلیپ کمار اور سائرہ بانو یا سنیل دت کے ساتھ کیا ،وہی سب راج ٹھاکرے امیتابھ بچن ،جیا بچن اور کرن جوہر کے ساتھ کررہے ہیں۔
9اصل جھگڑا ہے سیاسی وراثت کا ،لہٰذا چوٹ تو انھیں بنیادوں پر کرنا ہوگی ،جن کولے کر بال ٹھاکرے کارٹون بناتے بناتے سیاست داں بن گئے ۔راج ٹھاکرے پیشے سے لے کر ارادوں تک اودھو ٹھاکرے سے کہیں زیادہ بال ٹھاکرے کی وراثت کے حقدار نظر آتے ہیں ۔اب یہ ہمیں سوچنے کی ضرورت ہے کہ کیا اس سلسلے کو جاری رہنا چاہئے یا نہیں۔
جہاں تک سیاست کا تعلق ہے تو اس کا پورا پورا حق ہے بال ٹھاکرے ،اودھو ٹھاکرے کو بھی اور راج ٹھاکرے کو بھی ،لیکن جہاں تک ان کے طرز عمل کا تعلق ہے تو اس پر یقینا انتہائی غوروفکر کی ضرورت ہے ۔بال ٹھاکرے کا ذہن بدلنے کی تو اب کوئی امید نہیں کی جا سکتی ،مگر راج ٹھاکرے سے ابھی بھی یہ امید کی جا سکتی ہے کہ وہ بیشک اپنے چچا کی سیاسی زمین حاصل کرنے کے لئے یہ قدم اٹھارہے ہوں، مگر سیاست میں لمبا راستہ طے کرنے کے لئے انھیں نفرت کی سیاست کا دامن چھوڑنا ہوگا ۔
اگر انھیں ہمارے اس مشورے پر کوئی شک ہو تو وہ اپنے چچا کی معاون بھارتیہ جنتا پارٹی کا حشر دیکھ کر اس بات کا اندازہ کر سکتے ہیں کہ باالآخر نفر ت کی سیاست کامیاب نہیں ہوتی۔ ہاں ! کچھ وقت کے لئے کامیاب ضرور دکھائی دے سکتی ہے ۔ کیاں انھوں نے نہیں دیکھا گزشتہ پارلیمانی الیکشن میں اور اس کے بعد کیا ہوا۔کیا انھیں یاد نہیں کہ جب تک اٹل بہاری واجپئی جیسا نرم چہرہ عوام کے سامنے رہا ۔یہ پارٹی بر سر اقتدار آتی رہی ...
اور سیکولر سمجھی جانے والی پارٹیاں بھی سرکار بنانے میں بخوشی مدد گار ثابت ہوتی رہیں ،مگر جب لال کرشن اڈوانی اور نریندر مودی جیسے چہرے سامنے آئے تو نہ صرف عوام نے رخ موڑ لیا، بلکہ معاونین کی گرمجوشی بھی ختم ہو گئی ۔خود یہ پارٹی آج جس حال میں ہے، یہ کسی سے چھپا نہیں ہے ۔
جس وقت راج ٹھاکرے ،بال ٹھاکرے سے الگ ہوئے تھے تو یہ امید جگی تھی کہ وہ سیکولر زم کی سیاست کریں گے ۔ سب کو ساتھ لے کر چلیں گے ۔ہم نے بھی ’’عالمی سہارا‘‘ کے سر ورق پر ان کو جگہ دی تھی ۔ ممبئی کے کچھ مسلمان بھی اس امید میں ان کے ساتھ نظر آتے تھے، شاید اس لئے کہ وہ سوچتے تھے کہ 6 دسمبر 1992 کے بعد جو قہر برپا کیا گیا، اب آگے اس میں کمی آئے گی اور اب وہ ہندوـ مسلم نفرت کی سیاست زیادہ نہیں چلے گی ۔
ایک حد تک ایسا ہوا بھی ۔راج ٹھاکرے کا نظریہ اتر بھارتیوں کے خلاف یا مراٹھوں کے حق میں تو رہا، مگر اس میں ہندوـ مسلم کی وہ ذہنیت نظر نہیں آئی، جو بال ٹھاکرے یا شیو سینا میں نظر آتی ہے ۔ان کی پارٹی نے مسلمانوں کے ساتھ ویسا سلوک نہیں کیا جیسا بابری مسجد کی شہادت کے بعد بال ٹھاکرے کی سرپرستی میں شیو سینا نے کیا تھا ۔
اس وقت بھی اگر وہ مراٹھوں کی لڑائی لڑ رہے ہیں اور اس لڑائی میں وہ بال ٹھاکرے کو شکست دے دیتے ہیں تو وہ اتنا تو ضرور کریں گے کہ بڑے پیمانے پر نفرت کا زہر پھیلانے والی ایک سیاسی پارٹی کی جڑیں کھوکھلی کر دیں گے ،مگر اس کے بعد انھیں اپنی سیاست کے لئے کھلے ذہن کا ثبوت دینا ہوگا ۔انھیں اس دائرے کو توڑنا ہو گا،جس میں ان کے چچا نے اپنے آپ کو قید کر لیا تھا۔ کانگریس کے تئیں ان کے دل میں نرم گوشہ ہے یا ان کے تئیں کانگریس کے دل میں نرم گوشہ ہے ،اس بارے میں ہم کچھ نہیں کہہ سکتے۔
ہاں ! یہ قیاس آرائی تو ضرور ہے کہ راج ٹھاکرے اگر اپنے ارادوں میں کامیاب ہوتے ہیں تو اس سے شیو سینا کو نقصان پہنچے گا ،مگر جتنا سچ اس بات میں نظر آتا ہے ،اتنا ہی سچ یہ بھی ہے کہ شیو سینا اور بھارتیہ جنتا پارٹی بھی آنکھ بند کئے نہیں بیٹھی ہیں ۔
اگر راج ٹھاکرے کچھ حد تک کمیونل ووٹوں میں بٹوارہ کر سکتے ہیں تو اپنے آپ کو سیکولر کہنے والی پارٹیاں بڑی حد تک سیکولر ووٹوں کا بٹوارہ کرنے کے لئے میدان میں موجود ہیں ۔جتنا نقصان شیو سینا یا بھارتیہ جنتا پارٹی کو راج ٹھاکرے کے کمیونل ووٹوں میں بٹوارے سے ہوگا ،اس سے بڑا نقصان کانگریس اور نیشنلسٹ کانگریس کو ان سیکولر پارٹیوں کے ذریعے حاصل کئے گئے ووٹوں کے بٹوارے سے ہوگا ۔ظاہر ہے اب وہ پارٹیاں بھی جانتی ہیں کہ یہ الیکشن ان کے لئے کسی بڑی کامیابی کی امیدوں والا نہیں ہے،
مگر کانگریس پر دبائو کی راجنیتی بنانے میں ضرور کامیاب ہو سکتا ہے اور اگر ان کی قسمت یا سیاسی حکمت عملی سے انھیں کچھ سیٹیں حاصل ہو گئیں اور کانگریسـ این سی پی اتحاد یا بی جے پیـ شیو سینا اتحاد واضح اکثریت سے ذرا دور رہ گئے تو ان کے دونوں ہاتھوں میں لڈو ہو سکتے ہیں۔ جدھر ان کی ضرورت ہو وہ ادھر جا سکتے ہیں۔
اب سوچنے کی ضرورت ووٹرس کو ہے کہ وہ سرکار بنانے کے لئے کسی پارٹی یا اتحاد کا انتخاب کرنا چاہتے ہیں یا ان سیاسی بازیگروں کے جال میں پھنس کر اپنا ووٹ ان کی سودے بازی کے لئے دینا چاہتے ہیں یا اپنے مسائل کے حل اور بہتر مستقبل کے لئے دینا چاہتے ہیں ۔ دوسری اہم بات جس پر ہمیں اب غور کرنا ہوگا؟ وہ یہ کہ کیا انھیں 6 دسمبر 1992کے بعد کے حالات اور گجرات کے فسادات یاد ہیں اور اب وہ ایسی کسی بھی طاقت کو بر سر اقتدار نہیں آنے دینا چاہتے ۔
یا پھر انھوں نے اپنے آپ کو حالات کے سہارے چھوڑ دیا ہے۔ابھی بھی وقت ہے کہ تمام زاویوں سے تازہ صورت حال پر غور کر لیا جائے اورکسی نتیجے پر پہنچ لیا جائے تاکہ صحیح قدم اٹھایا جا سکے، جو ملک اور قوم کے حق میں ہو ،جو ریاست اور اس ریاست میں رہنے والوں کے حق میں ہو۔اس لئے کہ ایک بار کا غلط فیصلہ صرف پانچ برس کے لئے ہی نہیں،بلکہ برسہا برس کے لئے سوہانِ روح ثابت ہو سکتا ہے۔
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