Wednesday, November 18, 2009

वंदेमातरम! बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी

इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।

अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।

इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।

मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।

इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’

इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।

हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।

यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’

पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?

एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:

‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः

‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।

और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।

‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’

जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’

‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।

‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’

अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?

क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।

किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।

मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी।
बातचीत कल भी इसी विषय पर जारी रहेगी.................

3 comments:

Mohammed Umar Kairanvi said...

जनाब अज़ीज बर्नी साहब, यह जानकारियां उचित समय पर लाजवाब है, आज19 से आपने जो ऐलान और जानकारी वंदे मातरम से सं‍बन्धित दी हैं वह भी बेहतरीन हैं, हिन्‍दी ब्‍लागिंग पर आपकी नजर होती तो पता चलता कि ऐसी बातें हम नेट पर देते रहे हैं, अब आपसे निवेदन है कि आपके इस ब्लाग के वन्‍दे मातरम के संबंध में जा मेटर है इसको आपके ही नाम से ब्लागस में फेलाने की इजाजत दें,

दूसरी बात ब्लाग सेंटर पर इस ब्लाग को रजिस्‍टर करवाएं तो नतीजा बहुत अच्‍छा निकलेगा

http://wandematram.blogspot.com/

Saleem Khan said...

बहुत सही लेख!

सलीम खान
संयोजक
हमारी अन्‍जुमन hamarianjuman.blogspot.com
(विश्व का प्रथम एवम् एकमात्र हिंदी इस्लामी सामुदायिक चिट्ठा)

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

अज़ीज़ जी,

मैं आपके बारे में जानता नही था सबसे पहले आपके बारे में और आपकी कलम की ताकत के बारे उमर भाई से सुना था...आज देख भी लिया...

मैने आपके इस लेख का इस्तेमाल अपने ब्लाग पर किया है आपके नाम और आपके ब्लाग के लिन्क के साथ...


आपके लिये कुछ सुझाव है....

आप टिप्पणी फ़ार्म से "वर्ड वेरीफ़िकेशन" हटा दे...टिप्पणीकार इससे परेशानी महसुस करते है....

आप अपने ब्लाग पोस्ट के Archive को महीने के हिसाब से कर दे अभी आपने रोज़ के हिसाब से किया हुआ है...

और अपने ब्लाग को ब्लाग प्रकाशक पर रजिस्टर करायें...

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और आखिरी अपने ब्लाग पर ई मेल फ़ीड की सुविधा शुरु करें..इसके लिये आप अपनी फ़ीड यहां से बनाये....

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इन सब कामों में...या ब्लोगिगं से जुडे किसी भी काम में आपको किसी मदद की ज़रुरत हो तो बेहिचक इस नाचीज़ को याद कीजीयेगा.....

सिर्फ़ एक ई मेल या मेरे किसी भी ब्लाग पर टिप्पणी कर दिजियेगा मैं आपकी खिदमत में हाज़िर हो जाऊंगा....