Monday, June 21, 2010

मसाइल पर बात करें और फ़रिश्तों की तलाश बन्द कर दें!
अज़ीज़ बर्नी

कुछ बेहद महत्वपूर्ण विषयों पर मेरी रिसर्च अब उस जगह पर पहुंच चुकी है कि मैं एक बार फिर पाबंदी के साथ लिखने का सिलसिला शुरू कर सकूं, लेकिन आज का लेख बस एक भूमिका की तरह है इसलिए कि मैं अपने इस सिलसिलेवार लेख की आगामी क़िस्तों में किन-किन विषयों पर लिखने का इरादा रखता हूं यह स्पष्ट कर सकूं। निःसंदेह समय-समय पर सामने आने वाले अन्य विषयों पर भी लिखने का सिलसिला जारी रहेगा। मगर जिन ख़ास विषयों का चुनाव मैंने किया है वह है ‘‘कश्मीर समस्या- इसके बुनियादी कारण और आजके अफ़ोसनाक हालात’’ - इसके अलावा समाजिक न्याय, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता वह विषय हैं जिन पर पहले भी लिखा जाता रहा है और एक बार फिर इन विषयों पर विस्तृत बहस की जाएगी। दरअसल यह तमाम विषय आपस में एक दूसरे से इस हद तक जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग-अलग देखने से इनके कारणों की तह तक नहीं पहंुचा जा सकता जो इन कारणों को जन्म देने वालों की मानसिकता को बेनक़ाब कर सकें, लिहाज़ा आज की इस भूमिका में मैं अपने सम्मानित पाठकों से एक अनुरोध यह भी करना चाहूंगा कि यदि वास्तव में आपके मन मस्तिष्क में यह बात एक जगह बना चुकी है कि ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ केवल एक अख़बार ही नहीं बल्कि आपके दिलों की आवाज़ है, आपका तर्जुमान है और मैं जो कुछ लिख रहा हूं वह केवल लेख श्रंखला नहीं बल्कि इस दौर का इतिहास है, एक मिशन है, एक तहरीक है तो फिर मुझे यह विनम्र निवेदन करने की इजाज़त दीजिए कि मैं इस तहरीक को ‘‘रेशमी रुमाल’’ जैसी तहरीक का नाम दे सकूं और इस मिशन की सफलता तभी संभव है जब हम इस तहरीक को स्वाधीनता संग्राम की तहरीक को ‘रेशमी रुमाल’ की तरह स्वीकार करें। न केवल यह कि इन लेखों के संदेश को आगे तक ले जाएं, बल्कि इस सोच को अमलीजामा भी पहनाएं जो आपके सम्मुख प्रस्तुत की जा रही है। मैं चाहता हूं अब से कुछ कार्य प्रणाली पर भी बात हो। यह उचित नहीं होगा कि हम बातचीत के सिलसिले को इतना लम्बा कर दें कि यह तमाम बातें सुनने में अच्छी तो लगें मगर हम किसी नतीजे पर न पहुंच सकें। अब चूंकि नतीजे पर पहुंचना बेहद आवश्यक है इसलिए बहस का सिलसिला निःसंदेह जारी रहे मगर हम कोई कार्यनीति भी तैयार कर लें। इस विषय में आज से जो ख़ाका देश और क़ौम की सेवा में पेश किया जा रहा है , ज़रूरी नहीं कि वही इसकी अंतिम शक्ल हो, मगर उसे सामने रख कर अंतिम शक्ल देने के प्रयास में हम अवश्य लग जाएं।

अब तक जिन विषयों पर बात की जाती रही या अब जिन विषयों पर बात करने का इरादा है इस सबका मक़सद यही है कि देश की तस्वीर बदले, क़ौम की तक़्दीर बदले। वही शांति व एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव जो इस देश की पहचान थी फिर से स्थापित हो। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्ग के बीच पैदा हुई खाई के कारणों को हम समझने और उन्हें दूर करने का प्रयास करें। अब चूंकि लगभग तमाम समस्याओं का हल राजनीति के द्वारा ही संभव नज़र आता है तो हमारा यह कह कर राजनीति से स्वयं को असंबद्ध ज़ाहिर करना कारगर नहीं होगा कि हम राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहैसियत हो गए हैं और अब राजनीति से हासिल भी क्या हो सकता है, क्योंकि आज हमारे सामने जितनी भी समस्याएं हैं वह सब राजनीति की पैदा की हुई हैं, हिंदू और मुस्लिम जनता की नहीं और इन तमाम समस्याओं का हल भी राजनीति के द्वारा ही संभव है केवल हिंदू और मुसलमानों के द्वारा नहीं, इसलिए कि यह राजनीति हमें जब जिस तरह चाहती है नचाने में सफलता प्राप्त कर लेती है और हम जब इसको समझने में सफल होते हैं तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि नफरत की खाइयों को पाटना बहुत मुश्किल हो जाता है।

अब यह प्रश्न ज़हन में आ सकता है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व जो आज़ादी के बाद से हमारी समस्याओं को हल न करा सका, क्या आज हम उससे उम्मीदें कर लें और हमारे मुस्लिम नेतृत्व में ऐसा कौन है, जिसकी तरफ हम उम्मीद भरी नज़रों से देख सकते हैं तो फिर मैं बेहद सम्मान के साथ यह निवेदन करना चाहूंगा कि आज़ादी के बाद से आज तक हमारी पंक्तियों में राजनीकि नेतृत्व की कमी नहीं रही। बल्कि देश विभाजन के बाद से लेकर हाल तक ऐसे लोगों की एक लंबी सूचि मौजूद है। निःसंदेह हम उन्हें असफल क़रार देते रहे हैं, जोकि ग़लत भी नहीं है मगर उन सबकी आलोचना करने से पूर्व एक मर्तबा हमें स्वयं अपने अमल पर भी ग़्ाौर करना होगा। क्या हमारे इन तमाम लीडरों को हमारा विश्वास प्राप्त रहा है? क्या हमने उन पर भरोसा किया है? क्या हमने उनको अपनी ताक़त पर जिताकर लोकसभा और विधान सभाओं में भेजने का प्रयास किया है? क्या हम उनके समर्थन के लिए आगे आते रहे हैं? क्या हम उनकी हार पर चिन्तित हुए हैं? जब तक हम अपने नेताओं में फरिश्तों जैसे गुण ढूँढ़ते रहेंगे यह तलाश जारी रहेगी और कोई नतीजा नहीं निकलेगा। ज़ियाउर्रहमान अन्सारी पर आरोप लगे और वह नज़रअंदाज़ कर दिए जाएं। आरिफ़ मोहम्मद ख़ां एक ग़लती करें और उनका राजनीतिक करियर ख़त्म हो जाए, उबैदुल्लाह आज़मी एक ग़लत निर्णय लें और राजनीतिक हाशिये पर चले जाएं, सी.के जाफ़र शरीफ़, ए.आर अंतुले एक बार इलेक्शन हार जाएं और भुला दिए जाएं, शाहिद सिद्दीक़ी अपने रातनीतिक करियर की तलाश में राजनीतिक पार्टियां बदलने के लिए मजबूर हों तो आलोचना का निशाना बना दिए जाएं, आख़िर कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा? क्या हम इस मामले में दलितों से, यादवों से, जाटों से, कोई सबक़ हासिल नहीं कर सकते? क्या हमारे नेताओं की इस लम्बी सूचि में मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और अजीत सिंह के क़द का कोई चेहरा नज़र नहीं आता? नहीं मैं ऐसा नहीं मानता, हो सकता है कि आप मेरी बात से सहमत न हों, मैं उन सबसे अधिक योग्य अनेक मुस्लिम नेताओं को मानता हूं, बस उन्हें अपनी क़ौम का इस तरह विश्वास प्राप्त नहीं हुआ है जिस तरह उपरोक्त लीडरों को अपनी अपनी क़ौम का विश्वास प्राप्त हुआ। अहमद पटेल, ग़्ाुलाम नबी आज़ाद, मोहसिना क़िदवाई, सलमान ख़ुर्शीद, तारिक़ अनवर, मौलाना महमूद मदनी, मौलाना असरारुलहक़ का़स्मी, ज़फ़र अली नक़वी आदि (मुझे माफ़ फरमाएं मैं अपने सभी सियासी क़ायदीन के नाम नहीं लिख पा रहा हूं, मगर मेरा इशारा सभी की ओर है) ऐसे मुस्लिम राजनीतिज्ञ हैं जिन पर अगर भरोसा किाया जाए तो सबके सब बहुत प्रभावकारी अंदाज़ में क़ौम की तर्जुमानी कर सकते हैं। मेरा तो यह मानना है कि सैयद शाहनवाज़ हुसैन और मुख़तार अब्बास नक़वी ही नहीं, मोहम्मद शहाबुद्दीन, अतीक़ अहमद, अफ़ज़ाल अन्सारी, रिज़वान ज़हीर आदि को भी एक दम से नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। क्या फूलन देवी और तहसीलदार सिंह की तरह हम इनसे उम्मीदें वाबसता नहीं रख सकते। हमें लगभग तमाम राजनीतिक पार्टियों में अपने प्रतिनिधियों की आवश्यकता है हां, मगर वह अपनी अपनी पार्टियों के साथ क़ौमी और मिल्ली समस्याओं पर उस समय जबकि वास्तव में इसकी आवश्यकता हो तो अपनी क़ौम की भी तर्जुमानी करते नज़र आएं। निःसंदेह चाहे यह उनकी पार्टी के आदर्शों के विरुद्ध हो, मगर क्योंकि लोकतांत्रिक आदर्शों में यह गुंजाइश है कि आप वैचारिक मदभेद के साथ भी पार्टी में रह सकते हैं और अपनी बात कह सकते हैं।

हम ऐसा कोई करिशमाई चेहरा तलाश करने में जुट जाएं और उन सबको जिन्होंने एक लम्बे संघर्ष के बाद राजनीति में अपनी जगह बनाई है नज़रअंदाज़ कर दें तो यह उचित नहीं होगा। मेरा यह मानना है कि जो जहां है और जिस तरह भी देश व क़ौम की उचित सेवा कर सकता है उसे साथ लेकर चला जाए। मैं यदि पत्रकारिता के ज़रिए कुछ कर पा रहा हूं तो यह कोशिश जारी रहे। हमारे साहित्यकार और शायर एक बार फिर उसी तरह अपनी साहित्यिक सेवाएं दें, राष्ट्र को ऐसे गीत दें जो हमें समाजिक न्याय दिला सकें। हमारी समस्याओं के हल की तरफ जनता और सत्ता में बैठी पार्टियों का ध्यान आकर्षित कर सकें। हमारे पत्रकार मित्र फिर ऐसी ही क़लमी तहरीक चलाएं जैसी ‘अल-हिलाल अल-बलाग़’, ‘ज़मींदार ’और ‘हमदर्द’ के द्वारा चलाई गई थी। हमारे उलेमा फिर उसी तरह क़ौम को रास्ता दिखाएं जिस तरह उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान दिखाया था। अगर हम सबको साथ लेकर चलेंगे तो चाहे सत्ता में बैठी पार्टी हो या विपक्ष या मध्यम मार्गी राजनीतिक दल कोई भी हमारे मसाइल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकेगा।

मैं कल से कश्मीर के विषय पर लिखने का इरादा रखता हूं, बल्कि साफ़ कहूं तो ‘कश्मीर समस्या’ के हल की तलाश में एक गंभीर प्रयास करना चाहता हूं। यह तभी संभव है जब आप सबका, सभी हमवतन भाइयों सहित सहयोग प्राप्त हो, इसलिए कि कोई भी देश और क़ौम उस समय तक प्रगति नहीं कर सकती जब तक कि वहां शांतिपूर्ण वातावरण न हो आपस में एकता और भाईचारे का रिश्ता न हो। साथ ही मैं यह कहना भी आवश्यक समझता हूं कि आज भारत को जितनी समस्याओं का सामना है उसका बुनियादी कारण साम्प्रदायिकता है, अतः ऐसे तमाम तत्वों को हतोत्साहित करना बेहद आवश्यक है जो हमारे बीच नफ़रत के बीज बोते रहे हैं। इस वक़्त मैं राजनीति पर बहुत लम्बी बातचीत नहीं करना चाहता, मगर यह अवश्य कहना चाहता हूं कि राजनीति से दूर रह कर भी राजनीति से अलग नहीं हूं। राजनीतिक दावपेच ख़ूब समझता हूं और आपसे भी आशा रखता हूं कि आप राजनीति को रिसर्च का विषय बनाएं। इससे ख़ुद को अलग न करें और इसके लिए आवश्यक नहीं है कि आप राजनीति में दाख़िल हों। मुझे अपने अख़बार की कारकर्दगी पर संतोष भी है और गर्व भी कि इसने शिबली काॅलेज आज़मगढ़ की मुस्लिम लड़कियों के चित्र के ग़लत प्रयोग को जनता के सामने लाकर न केवल एक ऐसे राजनेता की सोच को बेनक़ाब किया जिसके नाम पर गुजरात कांड का बदनुमा दाग़ है, बल्कि यह स्पष्ट किया कि जिस व्यक्ति का नाम गुजरात त्रासदी में बेगुनाह इन्सानों विशेषतः मुसलमानों के क़त्ल के लिए लिया जाता रहा है वह आज भी अपनी राजनीति के कारण गुजरात राज्य में मुसलमानों की ख़ुशहाली और शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति को दिखाने के लिए बेचैन नज़र आ रहा है और इसको साबित करने के लिए जो चित्र गुजरात के विज्ञापन में प्रयोग किया गया वह उसी आज़मगढ़ की मुसलमान लड़कियों का था जिसे ‘आतंकगढ़’ के नाम से बदनाम किया जाता रहा है। अगर हम इस सच्चाई को सामने न रखते, इसके दूरगामी परिणामों की ओर बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का ध्यान न खींचते तो संभवतः जनता दल (यू) और भारतीय जनता पार्टी के रिश्ते अभी और लम्बे समय तक जारी रहते। हमें यह तो नहीं मालूम कि बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों में किस राजनीतिक पार्टी को सरकार बनाने का अवसर मिलेगा, या कौन सी पार्टी नई ताक़त के साथ सामने आएगी, मगर हमें यह कहने में कोई झिझक नहीं कि देश का भविष्य धर्मनिरपेक्षता में है, कोई भी धर्म निर्पेक्ष पार्टी सत्ता में आए, अगर वह धर्मनिर्पेक्षता को मज़बूत रखने का इरादा रखती है, सबको साथ लेकर चलने का इरादा रखती है तो इससे जनता के दिलों से नफरतें कम होंगी और वह जो केवल धर्म के आधार पर ही राजनीति करते रहे हैं उन्हें एक बार फिर यह सोचना होगा कि अगर भारत में राजनीतिक रूप से सफल होना है तो इस रवैये को बदलना होगा। एक बार या कभी कभी तो धार्मिक घृणा पैदा कर के सत्ता प्राप्त की जा सकती है, लेकिन भारत की जनता का मिज़ाज यह नहीं है कि हमेशा उसी पर चल कर सफलता की मंज़िलें तय की जा सकें। हां मगर जिनका उद्देश्य ही देश को धर्म के आधार पर ही विभाजित कर देना रहा हो, भारत की जनता को टुकड़ों में बांट देना रहा हो, उन्हें शायद अपने उद्देश्यों की सफलता इसी में नज़र आती है। हमारी तहरीक का एक उद्देश्य इस नकारात्मक सोच को बदलना भी है और इन तमाम वास्तविकताओं को जनता के सामने लाकर इस घृणा, ज़्ाुल्म व तास्सुब का शिकार बने तमाम मज़लूमों को न्याय दिलाना भी है। हमें आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि यह होगा और बहुत जल्द होगा। बस आपका सहयोग चाहिए।

आदर्णीय ज़ाकिर नायक साहब के संबंध में कुछ वाक्य लिखे बिना अगर आज का लेख समाप्त कर दिया जाये तो यह उचित नहीं होगा। यह निर्णय करने का अधिकार तो ‘बरतानिया’ को है कि वह ज़ाकिर नायक साहब को वीज़ा दे या न दे, उन्हें सम्मानित तरीक़े से अपने देश में आमंत्रित करे या आने से रोक दे, मगर उनके बयान को ग़लत परिपेक्ष में पेश करके उनकी छवि को ख़राब करने का अधिकार ब्रिटिश सरकार को नहीं दिया जा सकता। आदर्णीय ज़ाकिर नायक ने बिन लादेन का समर्थन नहीं किया बल्कि आतंकवादी शक्तियों के ख़िलाफ़ जंग लड़ने वालों का समर्थन किया है। हां उनमें बिन लादेन जैसों पर आलोचना की जा सकती है, मगर जो इस तरह के आतंकवादी पैदा करते हैं और पूरी दुनिया को आतंकवाद में झोंक देते हैं उनके इस अमल के बारे में क्या कहा जाए और जब कोई ऐसी आतंकवादी शक्तियों के विरुद्ध जंग लड़ता नज़र आए तो शांतिप्रिय दुनिया उसे क्या नाम दे। यह ज़ाकिर नायक साहब की आलोचना करने से पूर्व तमाम शांतिप्रिय लोगों को गभीरता से सोचना होगा और जवाब देना होगा।

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