Wednesday, February 25, 2009

आतंकवाद विरोधी राजनैतिक कांफ्रेंस


बटवारे के जिम्मेदार नहीं थे हम। फिर भी हम पर यह आरोप लगाया गया और हम सहन करते रहे। इस लिए के मोहम्मद अली जिन्नाह ज़मीन का एक टुकडा लेकर अपने लिए एक नई दुन्या बसा चुके थे। पाकिस्तान की शकल में उन्हें तो एक देश मिला, राज पाठ मिला, कायदे आज़म का खिताब मिला। परन्तु हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों को क्या मिला? दामन पर बटवारे के दाग, दिल में अपनों से बिछड़ जाने का दुःख, आंखों में खौफनाक भविष्य की तस्वीर, शर्म से झुकी गर्दन।

हाँ! यह भी सच है के अकेले जिम्मेदार नहीं थे मोहम्मद अली जिन्नाह, देश के बटवारे के लिए, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल भी इस अपराध में पूरी तरह जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद सब के राज चाहिए था। काश के मोहम्मद अली जिन्नाह ने उस के होने वाले परिणामों का भी अनुमान लगा लिया होता। उन्हें यह ख़याल आगया होता के मुस्लमान दो टुकडों में बट जायेंगे तो उन की राजनैतिक परिस्थिति क्या होगी, उन का बल क्या होगा? मुसलमानों का भविष्य क्या होगा? वो उन की राजनैतिक चाल को समझ जाते, अलग पाकिस्तान का ख़याल दिल में न लाते, ऐसे किसी भी प्रस्ताव को कुबूल न करते।




जातिवाद के जिम्मेदार नहीं हैं हम, मुस्लमान न जातिवादी हैं न जातिवादआधार पर मुसलमानों ने राजनीती की है। स्वतंत्र हिंदुस्तान के इतिहास में १९५२ में हुए पहले संसद चुनाव से २००४ में हुए सामान्य चुनाव तक मुसलमानों ने किसी एक मुस्लिम लीडर को अपना रहनुमा मान कर अपने भविष्य को उस से नहीं जोड़ा। बटवारे के बाद भी मुसलमानों ने मोहम्मद अली जिन्नाह के सामने पंडित जवाहर लाल को चुना, रहना पसंद किया हिंदुस्तान में, वो नहीं गया पाकिस्तान मोहम्मद अली जिन्नाह को अपना कायद मानते हुए। उस ने पूर्ण विशवास और सच्चे दिल से पंडित नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्र शेखर, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती तक सभी के नेतृत्व को स्वीकार किया।

उस ने कभी यह नहीं सोचा के पंडितों, ठाकुरों, जाटों, यादवों, या दलितों को अपना लीडर स्वीकार न करें और जिस प्रकार अन्य जाती से सम्बन्ध रखने वालों ने अपने बीच से नेतृत्व का जनम किया, उसे शक्ति दी, इसी प्रकार हम भी राष्ट्रिय स्तर पर किसी को अपना नेता चुनें और फिर उस की रहनुमाई में अपनी कौम की भलाई के बारे में सोचें। कारण उस के प्रतिनिधियों ने अपने अपने लाभ के कारण जिस पार्टी या लीडर से जुड़ जाना पसंद किया, वो उसी के साथ जुड़ गया। कौम टुकडों में बट गई। वो सब अपनी अपनी स्थिति बनाने में सफल हुए।

एक मोहम्मद अली जिन्नाह तो अपने हिस्से का पाकिस्तान लेकर अलग हो गए और बाकी सब ने अपने अपने हिस्से का पाकिस्तान हिंदुस्तान में रह कर ही प्राप्त कर लिया। नहीं! कहने का यह उद्देश्य नहीं के वो एकांक पसंद मानसिकता रखते थे, या हैं। कहने का उद्देश्य यह भी नहीं के वो देश के निष्ठावान नहीं रहे। कहने का उद्देश्य केवल इतना है के वो इतने व्यापक मन और व्यापक ह्रदय नहीं रहे के सम्पूर्ण हिंदुस्तान के मुसलमानों के बारे में, उन के भविष्य के बारे में एक हो कर सोचते और कोई निर्णय लेते, बस जिस को जो मिला वो उसी को लेकर खुश हो गया, अब कौम रोती है तो रोया करे।



मौलाना अबुल कलम आजाद के दौर तक तो यह बात नहीं कही जा सकती। इस लिए के बटवारे के बाद वो अकेले मुसलमानों के लीडर थे, मगर पिछले लगभग ५० वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर कुछ पार्टियाँ बना कर या कुछ पार्टियों से जुड़ कर कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने तो अपने हिस्से में आई ज़मीन को जन्नत बना लिया, लेकिन बाकी मुसलमानों के लिए जहन्नुम जैसे हालात बन गए।




बटवारे के आरोप का शिकार हुआ तो सामान्य मुस्लमान, जाती वादी होने की गाली सहन की तो सामान्य मुस्लमान ने। आतंकवादी कह कर ज़लील किया गया, जेलों में डाला गया, झूठे एनकाउंटर में मारा गया तो भी वो सामान्य मुस्लमान था। बम धमाके के बाद भयभीत हुआ तो सामान्य मुस्लमान। भविष्य अंधेर हुआ तो सामान्य मुसलमानों के बच्चों का। जाहिल गंवार और शिक्षा से दूर होने का आरोप सहा तो सामान्य मुसलमानों ने और जब उस ने पेट पर पत्थर रख कर अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने से दूर भेजा तो आतंकवाद का आरोप भी लगा उसी सामान्य मुस्लमान पर।






पचास वर्षों तक हम यह सिद्ध करने के संघर्ष में लगे रहे के हिंदुस्तान हमारा देश है। हम अपने प्रीय हिंदुस्तान के बटवारे के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हमारे पुश्तों ने स्वतंत्रता के युद्ध में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है और स्वतंत्रता के बाद भी पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में जीत दिलाने वाला शहीद अब्दुल हमीद हमारे बीच से था। कारगिल के युद्ध में कैप्टेन हनिफुद्दीन ने अपनी शहादत पेश करके बताया के कश्मीर का मसला हो या पाकिस्तान से युद्ध हो, हम देश प्रेमी हैं, अपने देश की आन बान शान पर मर मिटना जानते हैं। मिजाइल मेन का खिताब मिला तो ऐ पी जे अब्दुल कलाम को। फिर इस कौम का सर गर्व से ऊंचा हुआ के हम अपने देश को अन्तरराष्ट्रिय ताकत बनाने में हिस्सेदार हैं, परन्तु इस सब के बावजूद आतंकवाद का आरोप बार बार लगा तो इस कौम पर, हर बार लगा तो इस कौम पर और दुर्भाग्यवर्श अब यह आतंकवाद कारोबार बना तो भी हमारे काँधे का प्रयोग हुआ।




मैं लिख रहा था निरंतर अपनी कौम का दर्द सीने में लिए कभी किसी शीर्षक के बिना तो कभी विभिन्न शीर्षकों के हवाले से। लग भाग एक महीने तक लिखा ९/११ का सच, अंग्रेज़ी और उर्दू में। फिर ९ अगस्त अर्थात अगस्त क्रांति से १५ अगस्त स्वतंत्रता देवास तक। इस के बाद एक निरंतर लेख " मुसलमानाने हिंद, माजी, हाल और मुस्तकबिल??? के शीर्षक से जिस की १०० कडियाँ आप की नज़रों से गुजरीं। उन में से कुछ लेख उर्दू के साथ हिन्दी या अंग्रेज़ी में भी रहे। सराहना मिली। कुछ सुकून मिला के जिस जागृकता की मुहीम पर काम करना शुरू किया है उस का प्रभाव तो है।

फिर दास्ताने हिंद,,,माजी, हाल और मुस्तकबिल??? के शीर्षक से लिखना शुरू किया। इस दौरान जनता के बीच जाकर वही सब बोलने की कोशिश भी की, जो लिख रहा था। इस लिए के सब लोग तो उर्दू पढ़ते नहीं और जो नहीं पढ़ते उन सच्चाइयों का उन तक पहुंचना भी आवयशक है। यह दोनों सिलसिले जारी थे के पहले मेरा लिखना प्रभावित हुआ जब दारुल उलूम देवबंद में आदरणीय मौलाना अरशद मदनी साहब ने एक बहुत ही नाज़ुक अवसर पर एक राजनेता लीडर की सराहना की, उन से एकांक में बात की। वो चाहे जो कारन पेश करें, वो जो चाहें कहें पर कौम के बीच जो छाप पड़ी, वो अपनी जगह। मुझे इस समय इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना। मैं लिखने के लिए फिर उचित समय का इंतज़ार करने लगा। सोचता था हमारी कौम के रहनुमा पिछले ६१ वर्षों के हालात पर गौर करने के बाद शायद इस परिणाम पर पहुँच जाएँ के एकता समय की सब से बड़ी आव्यशकता है और हमें आज तक जो भी हानि पहुँची है, वो बिखराव के कारण पहुँची है, किसी दूसरे की राजनीती, हक़ तलफी या संकीर्ण दृष्टी से कहीं अधिक हम अपनों की ख़ुद परस्ती के शिकार हुए हैं।

मैं नहीं चाहता था के मेरे लिखने से कोई ऐसा संदेस जाए के एकता की राह में रोड़ा आए। इस लिए समय और हालात की आव्यशकता के सामने अतीत को कुरेदने के बजाये अच्छे भविष्य का सपना देखता रहा। लिखने के साथ साथ बोलने पर ध्यान दिया और बोलने के लिए भी केवल उन्हीं तीन विषयों का चुनाव किया के मुस्लमान बटवारे का जिम्मेदार नहीं है, जाती वादी नहीं है, आतंकवादी नहीं है। मैं पूरे हिंदुस्तान में सीधे हिंदू और मुस्लमान के बीच पहुँच कर उन एतिहासिक सच्चाइयों को सामने रखना चाहता था और चाहता हूँ, जिस से यह के सिद्ध हो सके के मुस्लिम कौम पर लगाये जाने वाले यह आरोप असल में राजनेताओं की राजनैतिक कर्यप्रनाली के सिवा कुछ भी नहीं, परन्तु जब मैंने अपनी इस कोशिश को भी राजनीती की नजर होते देखा तो मजबूरन यह निर्णय लेना पड़ा के अब कम से कम चुनाव का नतीजा आने तक तो जनता के बीच जाकर बोलने का सिलसिला बंद करना होगा या फिर बात राजनीती पर होगी तो राजनैतिक प्लेट फॉर्म पर ही होगी, इस के बाद इंशाअल्लाह यह सफर जारी रहेगा।






हाँ! परन्तु तब तक कलम का सफर उसी रफ्तार से जारी रहेगा, जिस प्रकार मुसलमानाने हिंद, माजी, हाल और मुस्तकबिल के दौरान हमारे पाठकों ने महसूस किया था।






आज अर्थात १६ फ़रवरी शाम ६ बजे हज हाउस मुंबई में मुझे तामीर व मुल्क व मिल्लत के शीर्षक पर भाषण करना था, परन्तु मुंबई में रहने के बावजूद इस जलसे में शामिल नहीं हो पाऊंगा। कारण बीते हुए कल अर्थात १४ फ़रवरी को आजाद मैदान में आतंकवाद विरोधी कांफ्रेंस का तल्ख़ तजरुबा। जिस समय जलसा गाह में हाज़िर हुआ, महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री अशोक चौहान भाषण कर रहे थे। उन्होंने कुछ बहुत ख़ूबसूरत वादे किए, जिस के लिए मैं मुख्य मंत्री के साथ साथ आयोजक को भी मुबारकबाद पेश करता हूँ। खुदा करे के यह वादे वफ़ा हो जाएँ। आतंकवाद के शीर्षक से की जाने वाली इस कांफ्रेंस में मुसलमानों की बड़ी भीड़ मौजूद थी।

यह वो लोग थे, जो सभी व्यस्त होने के बावजूद शाम से रात तक इस लिए वहां आए थे के सिद्ध करना चाहते थे के हम आतंकवाद के विरोधी हैं और हमारी मौजूदगी इस बात की अलामत है के इस्लाम में दहशत गर्दी के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं और हम इकट्ठे हो कर यह संदेश देना चाहते हैं के हिंदुस्तान का मुस्लमान आतंकवाद के विरुद्ध जिहाद के लिए तैयार है। यह कोई राजनैतिक जलसा नहीं था। यह वो लोग नहीं थे जो किसी इलेक्शन के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं के ज़रिये आजाद मैदान तक लाये गए हों। इन का उद्देश्य किसी राजनैतिक पार्टी का सहयोग या विरोध करना नहीं था। शीर्षक था आतंकवाद के विरुद्ध एक होने का इरादा।

पर क्या आतंकवाद के तालुक से वो बातें की जा सकीं जिन की कम से कम मुंबई में सब से अधिक आव्यशकता थी। क्या वो प्रशन कांग्रेस की मुख्य मंत्री के सामने रखे जा सके जो केंद्रीय मंत्री अब्दुर रहमान अंतुले ने पार्लिमेंट में रखा था.........क्या मुख्य मंत्री के सामने यह हकीकत बयान की गई के आप नांदेड से चुने गए हैं और आप जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां बजरंग दल और शिव सेना के कार्यकर्ता बम बनते हुए पकड़े गए। इस पूरे मामले को रफा दफा करने वाले मुंबई ऐ टी एस के वर्तमान अध्यक्ष के पी रघुवंशी थे। क्या उस से यह आशा की जा सकती है के मालेगाँव बम धमाकों की छानबीन जो शहीद हेमंत करकरे कर रहे थे, उसे पूरी ईमानदारी के साथ आगे बढाया जा सकेगा?

क्या किसी ने कहा जिस व्यक्ति की जानिबदारी पहले ही साफ़ हो चुकी है उसे इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से हटाया जाए और किसी ईमानदार अफसर को तैनात किया जाए..........क्या किसी ने कहा के मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले की ईमानदारी से छानबीन की जाए , विशेष कर उन हालात का पता लगाया जाए जिन में शहीद हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालसकर की मृत्यु हुई.......क्या किसी ने कहा के नरीमन हाउस में सौ किलो मांस, २५ हज़ार रूपये की शराब मँगाए जाने का कारण क्या था, राज्य सरकार इस का पता लगाये। लगभग ५ घंटे तक नरीमन हाउस से अम्रीका और इस्राइल टेलेफोन पर आतंकवादियों की बात क्यूँ होती रही? इस बात चीत का उद्देश्य क्या था.......मिस्टर रघुवंशी उस समय मोबाइल पर बात कर रहे थे या किसी को एस एम् एस कर रहे थे, जब हेमंत करकरे सी एस टी से कामा हॉस्पिटल की ओर गए, उन का मोबाइल रिकॉर्ड क्या है ?किस से और क्या बात हुई? ताज ओबेरॉय में ठहरे हुए मेहमानों की लिस्ट कहाँ है, उन के मोबाइल फोन का रिकॉर्ड कहाँ है?






बुधवार पार्क पर जहाँ आतंकवादी रबर की कश्तियों से पहुंचे थे, उन की एकमात्र चश्मदीद गवाह अनीता उदैय्या को अमेरिका क्यूँ ले जाया गया? अगर कोई जानकारी प्राप्त की जानी थी तो यह काम हिन्दुस्तानी पुलिस अफसरों का था। पुलिस कमिश्नर को उस के अमेरिका दौरे के सम्बन्ध में उसे झूठा क्यूँ करार देना पड़ा? अगर वो कलीदी गवाह नहीं थी तो उसे लाशों की शनाख्त के लिए क्यूँ बुलाया गया?






नरीमन हाउस में रब्बी की खादमा सेंड्रा सामुएल जो अब इस्राइल में है, उसे वापस हिंदुस्तान क्यूँ नहीं लाया गया, क्यूंकि वो नरीमन हाउस हादसे की चश्मदीद गवाह है। वो बता सकती है के शहीद हेमंत करकरे की मौत की ख़बर सुनने के बाद नरीमन हाउस में खुशियाँ मानाने वाले कौन थे? और वहां हुए हादसे की सच्चाई क्या है? हमारे चश्मदीद गवाहों से अमेरिका या इस्राइल का क्या सम्बन्ध है? क्या वो किसी धौंस, दबाव या लालच के ज़रिये सच्चाई के सामने न आने देने के प्रयास में व्यस्त हैं?






यह आतंकवादी पाकिस्तान के हैं, षड़यंत्र पाकिस्तान में रचा गया, जिम्मेदार पाकिस्तान है, हमें इस सब पर कुछ नहीं कहना। यह दो सरकारों के बीच का मामला है। परन्तु इस आतंकवादी हमले के पूर्ण सत्य को जानना हमारे लिए अत्यावश्यक है। हमारे देश की शान्ति के लिए अत्यावश्यक है। हिंदुस्तान की सौ करोड़ जनता के लिए अत्यावश्यक है।






हेमंत करेकारे ने अपनी छानबीन के ज़रिये यह साफ़ किया के इन्द्रेश जो संघ परिवार के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं, उन्होंने तीन करोड़ रुपया आई एस आई से लिया था। मान लीजिये के हेमंत करकरे की छानबीन का परिणाम यह होता के इन्द्रेश ने नहीं किसी दीन मोहम्मद ने तीन करोड़ रुपया लिया था आई एस आई से, तो आज पूरी मुस्लिम कौम किन हालात से गुज़र रही होती। तब यह बात केवल पाकिस्तानी आतंकवादियों तक सिमित नहीं होती। ऐसे हजारों जलसे करने के बाद भी हम शायद यह साबित नहीं कर पाते के हम निर्दोष हैं, अगर अपराध है तो केवल एक दीन मोहम्मद का, आप उसे फांसी पर फ्हधा दो। आज इन्द्रेश के आई एस आई से संबंधों के प्रशन पर यह चुप्पी क्यूँ?






मेरे पास बोलने के लिए केवल तीन मिनट का समय था। इस लिए के जलसे को दस बजे समाप्त होना था और नौ बज कर ५७ मिनट पर मुझे बोलने की दावत दी गई थी। यह अलग बात है के इस के बाद भी जलसे की कार्यवाही चलती रही। बहारहाल उस समय भी मैंने कुछ प्रशन उठाये परन्तु सभी प्रशनों का उठाया जाना तीन मिनट में सम्भव नहीं था। मैंने इसी ८ फ़रवरी को ज़कारिया स्ट्रीट कोल्कता में अपने दो घंटे से अधिक भाषण में आतंकवाद और मुस्लमान के शीर्षक पर बात की थी और यह सभी प्रशन उठाये थे। उस के अगले दिन अर्थात ९ फ़रवरी को कमलहट्टी में भी मेरे भाषण का शीर्षक यही था, जहाँ एक घंटे से अधिक मैंने इन्हीं बातों पर रौशनी डाली, जो ऊपर बयान की गई हैं।

१२ और १३ फ़रवरी को कर्नाटक के शहर बंगलौर और हुबली में आयोजित किए गए पाँच अलग अलग जलसों में भी मैंने इसी शीर्षक पर बात की। १४ फ़रवरी को भटकल (कर्नाटक) के बजाये मैंने बोलने के लिए मुंबई के आजाद मैदान में होने वाले आतंकवादी विरोधी जलसे को चुना। इस लिए हिंदुस्तान का ९/११ कहा जाने वाला २६/११ में होने वाला आतंकवादी हमला इसी शहर से सम्बन्ध रखता था और इसी शहर में उस से जुड़ी सच्चाइयों को बेहतर तरीके से रखा जा सकता था। परन्तु मुझे बेहद अफ़सोस हुआ के यह अजीमुस्शान जलसा एक विशेष पार्टी के लीडर का राजनैतिक प्लेट फॉर्म बन गया। उन्हें ख़ूबसूरत वादों के जाल में फंसा कर मुसलमानों को आकर्षित करने का अवसर मिल गया।

शायद वो अपनी या अपनी पार्टी की दावत पर इतनी बड़ी मात्रा में मुसलमानों को अपनी बात कहने के लिए किसी एक जगह नहीं बुला सकते थे और हम शायद उन के ख़ूबसूरत वादों को सुनने के इरादे से भी वहां जमा नहीं हुए थे, इसलिए के इलेक्शन के माहोल में यह सब तो होता ही रहता है। खैर, उसी समय मैंने निर्णय लिया के अगली सुबह अर्थात १५ फ़रवरी कालीकट में की गई कांफ्रेंस में अब मेरी शिरकत नहीं होगी। वैसे मुझे १५ फ़रवरी की सुबह ०८.२० पर इंडियन एयरलाइन्स के ज़रिये १०.०० बजे कोजीकोड (कालीकट) पहुंचना था। मैं माफ़ी चाहता हूँ पोपुलर फ्रंट के आयोजनकर्ताओं से के मैं उस कांफ्रेंस में शरीक नहीं हो सका। मैं उस तीन दिवसीय कांफ्रेंस की पूरी कार्यवाही को सामने रख कर अपनी बातें सिर्फ़ केरला की जनता तक ही नहीं बलके बाकी हिंदुस्तान में भी अपने पाठकों तक पहुँचने का प्रयास अवश्य करूंगा।






इसी प्रकार आज अर्थात १६ फ़रवरी को मुझे मुंबई के हज हाउस में आल इंडिया दीनी मदारिस बोर्ड के जरिया आयोजित कारवाने तामीर मुल्क व मिल्लत के एक जलसे में भी शरीक होना था। मैं इस समय मुंबई में हूँ, परन्तु मैं इस जलसे में भी शरीक नहीं हो पाऊंगा और उस के बाद १७ फ़रवरी को बस्ती, १८ फ़रवरी को आज़म गढ़ १९ फ़रवरी को बढ़नी, २० फ़रवरी को प्रताप गढ़, २१ फ़रवरी को सीता मढ़ी (बिहार), २३ फ़रवरी को कछोछा शरीफ, २५ फ़रवरी को लखनऊ, २६ फ़रवरी को कटक (उडीसा), २८ फ़रवरी को सीवान, १ मार्च को पूना, यानी के इलेक्शन तक ऐसे किसी भी जलसे में शिरकत अब सम्भव नहीं हो पायेगा, इस लिए के आतंकवाद के विरुद्ध या शान्ति के नाम पर की जाने वाली कांफ्रेंसें राजनेताओं के लिए प्लेट फॉर्म बन जाएँ। तो न शीर्षक के साथ न्याय हो पायेगा, न शिरकत करने वालों के साथ और यह भरम भी जाता रहेगा के हम शान्ति के और एकता के लिए बेचैन हैं या आतंकवाद के विरुद्ध कोई आन्दोलन चला रहे हैं।






हाँ! अगर राजनीती पर ही बात कर्णi है, मुसलमानों की राजनैतिक कार्यप्रणाली क्या हो, उस पर बात करनी है या किसी पार्टी या उमीदवार के हक़ में कोई बात करना है तो फिर सीधे सीधे उसी शीर्षक पर उन के साथ खड़े हो कर बात की जा सकती है। अगर हमारा दिल दिमाग यह कहे के फलां व्यक्ति मुसलमानों का विरोधी नहीं है, उस का अतीत दाग्दार नहीं है और भविष्य में उस से आशाएं जोड़ी जा सकती हैं तो फिर राजनैतिक प्लेट फॉर्म पर खड़े होने में झिझक कैसी। हाँ! परन्तु यह किसी और उद्देश्य के लिए बुलाए गए जलसे के परदे में न हो।






कौन नहीं जानता, मौलाना महमूद असद मदनी राज्य सभा के सदस्य हैं और उन का सम्बन्ध चौधरी अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल से है, जो लगातार भारतीय जनता पार्टी के साथ उत्तर परदेश में गठजोड़ की कोशिशों में व्यस्त रहे हैं। कौन नहीं जनता के समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेट्री और प्रवक्ता ने देवबंद जा कर यह कहा के अगर महमूद मदनी राज्य सभा में हैं, तो हमारी बदोलत हैं, इस लिए के हम ने उन्हें वोट दिया था और उन दोनों ही बातों के जवाब में आली जनाब मौलाना महमूद मदनी साहब का कोई बयान नहीं आया। न तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और अजीत सिंह के रिश्तों पर कभी कोई बात की और न ही उन्होंने यह कहा के उन के चुनाव में समाजवादी पार्टी का कोई रोल नहीं है।

यह भी सब जानते हैं के उन के भाई मौलाना मौदूद मदनी साहब बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर अमरोहा की सीट से संसदीय चुनाव लड़ने जा रहे हैं, और मायावती की पार्टी में शामिल हो चुके हैं। जहाँ से 200४ के इलेक्शन में वो ख़ुद अजीत सिंह के पार्टी के उमीदवार थे। कांग्रेस से उन के करीबी रिश्ते हैं। इस से इनकार भी उन्होंने कभी नहीं किया और मौलाना अरशद मदनी साहब ने तो साफ़ तौर पर यह इकरार किया के कांग्रेस से उन के पुराने रिश्ते हैं। उल्माए कराम का राजनीती में शामिल होना, उन का इलेक्शन लड़ना, किसी राजनैतिक पार्टी को सहयोग देना या विरोध करना, ग़लत करार नहीं दिया जा सकता। यह उन का अपना फ़ैसला है के वो आलम दीं के साथ साथ राजनेता के तौर पर भी पहचाने जाएँ और किसी भी पार्टी में शामिल हो सकें, उलझन और परेशानी का शिकार होता है तो बेचारा आम मुस्लमान जो दोस्त किसी का नहीं बन पता और दुश्मन हर इलेक्शन में किसी न किसी का बन जाता है क्यूंकि वो जो अपने आप को अपने प्रतिनिधियों से जुड़ा हुआ महसूस करता है।

अगर वो कांग्रेस में है तो उस की मजबूरी है के एक मुश्त न सही बड़ी मात्रा में कांग्रेस के लिए भी वोट पोल करता है। इस आम मुस्लमान का प्रतिनिधि अगर बहुजन समाज पार्टी में है तो वो उसे भी वोट देता है। अगर वो अपने प्रतिनिधियों को समाजवादी पार्टी या अजीत सिंह के नज़दीक देखता है तो उन्हें भी वोट देता है। अगर कहीं किसी के दिल में भारतीय जनता पार्टी के लिए कोई दानिस्ता या न दानिस्ता नर्म गोशा है तो छोटी मात्रा में ही सही , वोट उस को भी जाता है। कुछ मुस्लिम प्रतिनिधि अकेले भी सामने होते हैं। मुसलमानों की और से मायूसी उन्हें भी नहीं होती। इस लिए के उन के बुलंग बांग दावे मुसलमानों की एक विशेष मात्रा को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं। परिणाम स्वरुप इस बटवारे के बाद एक आम मुस्लमान का वोट इस लिहाज़ से बेकार हो जाता है, मगर उस के प्रतिनिधि हर हाल में सफल रहते हैं।

अगर उन की कोशिशों से कोई पार्टी जीतती है तो भी, कोई पार्टी हारती है तो भी। हार और जीत दोनों ही राजनीती में बड़ा महत्त्व रखती हैं। इस महत्त्व की भी कीमत कम नहीं होती। कम से कम इतना तो केवल मुस्लिम प्रतिनिधि ही नहीं सभी राजनेता अच्छी तरह जानते हैं। हमारा एतराज़ उल्माए कराम या दानिशवरों की राजनीती में शामिल होने पर नहीं है। हमारी दरखास्त केवल इतनी है के जो भी हो आईने की तरह साफ़ हो ताके मुस्लिम कौम बेचैनी का शिकार न रहे, वो जो भी निर्णय ले उसे कम से कम सोच समझ कर निर्णय लेने का अवसर तो हो.........

Wednesday, February 4, 2009

कब तक उलझन में रहेगी कांग्रेस?


कांग्रेस के सीनियर लीडर और उत्तर प्रदेश के निगरान दिग्विजय सिंह ने कहा के हम कल्याण सिंह के साथ किसी भी मंच से भाषण नहीं करेंगे। कांग्रेस के ही एक दूसरे लीडर सत्यवृत चतुर्वेदी ने कहा, कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी से रिश्ते बन्ने के बाद कांग्रेस का उस के साथ जाने पर प्रभाव होगा। सत्यवृत चतुर्वेदी के इस बयान पर कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा के यह सत्यवृत चतुर्वेदी की व्यक्तिगत राय है, पार्टी का इरादा नहीं।


कांग्रेस के तीन अलग अलग लीडर के यह तीन बयान इस बात की निशानदही करते हैं के समाजवादी पार्टी और कल्याण सिंह की नजदीकी का कांग्रेस गहराई से असर महसूस कर रही है। वो एक ओर तो समाजवादी पार्टी से अपने रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहती, शायद यह सोच कर के अगर चुनाव के बाद सरकार बनाने की कोशिश में समाजवादी पार्टी की आव्यशकता पड़ी तो आज के यह ख़राब रिश्ते उस समय हानिकारक साबित हो सकते हैं। इसलिए कांग्रेस की इस परेशानी को समझा जा सकता है, साथ ही अब वो समाजवादी पार्टी के साथ इलेक्शन में जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही है।


अगर इस सिलसिले में उसे बार बार सोचने के लिए मजबूर न होना पड़ता तो कोई कारन नहीं था के अब तक कांग्रेस और समाजवादी पार्टी इलेक्शन में साथ साथ जाने का एलान कर देते और बाक़ी बची सीटों पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उमीदवारों का एलान हो जाता। इसलिए के ८० में से ५२ सीटों पर अपने उमीदवारों का एलान समाजवादी पार्टी पहले ही कर चुकी है, बाक़ी बची २८ सीटों में से अब कितनी कांग्रेस के हिस्से में आती हैं और कितनी समाजवादी पार्टी के हिस्से में सिर्फ़ यह निर्णय होना बाक़ी है।


कल्याण फैक्टर से पहले जो सुनने में आरहा था, वो यह के कांग्रेस उत्तर परदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ की सूरत में २५ सीटों पर इलेक्शन लड़ना चाहती है जबके समाजवादी पार्टी किसी भी सूरत में उसे १५ से अधिक सीटें देने के लिए राज़ी नहीं थी, परन्तु अब हालात बहुत बदल गए हैं। अगर कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी के साथ आजाने पर उस के सेकुलरिज्म पर प्रश्न्चिंंह लगता नज़र आरहा है, जो के अब तक समाजवादी पार्टी की सब से बड़ी जमा पूँजी थी तो उसे बरक़रार रखने के लिए अब शायद वो कुछ सीटों को अना का प्रशन न बनाये।


अगर कांग्रेस हर हाल में समाजवादी पार्टी के साथ इलेक्शन में जाना चाहती है तो इस के लिए उस प्रकार से तो हालात ठीक हो गए हैं के पहले के मुकाबले अब वो अधिक सीटों पर अपनी दावेदारी पेश कर सकती है और यह भी सम्भव है के एक हद तक उस की दावेदारी को मान भी लिया जाए क्युनके समाजवादी पार्टी के साथ अगर कांग्रेस मिल कर इलेक्शन लड़ती है तो कल्याण सिंह के शामिल होने पर आज जो प्रशन उठाये जा रहे हैं, उन में स्पष्ट रूप से कमी आने का अनुमान है। वो कह सकती है, अब सेकुलर कौन है कांग्रेस भी तो हमारे साथ है। अगर कल्याण के कारन नाराज़गी हम से है तो कांग्रेस से क्यूँ नहीं? इस सूरत में बहुजन समाज पार्टी को एकतरफा लाभ होगा। एक सूरत यह भी बन सकती है के आज अगर कल्याण सिंह के कारन समाजवादी पार्टी के सेकुलरिज्म पर प्रश्न्चिंंह लग रहा है तो कल उस का प्रभाव कांग्रेस पार्टी पर भी पड़े और उसे भी समाजवादी पार्टी की तरह कल्याण फैक्टर का नुकसान उठाना पड़े।


शायद इन्हीं प्रशनों में उलझी कांग्रेस अभी तक किसी परिणाम तक नहीं पहुँची है, वैसे अभी भी उसे बहुत देर हो चुकी है, इस लिए के जहाँ उत्तर परदेश में इलेक्शन में लड़ने वाली लगभग सभी बड़ी पार्टियों ने अपने उमीदवारों का एलान शुरू कर दिया है, वहां अभी तक कांग्रेस पार्टी एक सीट पर भी अपने उमीदवार का एलान नहीं कर पाई है। कांग्रेस की इस उलझन का सब से बड़ा फायदा उठाया है बहुजन समाज पार्टी ने, जिस ने पहले के मुकाबले में अधिक मात्रा में मुस्लिम उमीदवारों को टिकट देकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं।


समाजवादी पार्टी तो फिर भी बड़ी हद तक अपने उमीदवारों का एलान कर चुकी है, जिस में कई मुस्लिम उमीदवार भी हैं परन्तु कांग्रेस के सामने उलझन यह है के अब अगर वो समझौते में जाती है और १५-२० सीटों पर इलेक्शन लड़ती है तो उन में से जो निर्णयमई मात्रा में मुस्लिम वोटर्स वाली सीटें हैं, वहां से उसे गठजोड़ का नुकसान उठाने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना पड़ेगा और अगर वो यह निर्णय लेती है के समाजवादी पार्टी की सेकुलर इमेज को अगर कल्याण सिंह के साथ खड़े होने का इतना बड़ा नुकसान हो रहा है के उन्हें बार बार सफाई देनी पड़ रही है के कल्याण सिंह से उन के रिश्ते क्या हैं और क्यूँ हैं? बार बार अपने बयानात की सफाई देने की आव्यशकता क्यूँ महसूस हो रही है। एक बार फिर कम्युनिस्टों से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने का सिलसिला शुरू करना पड़ रहा है। मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए दीनी मदारिस से संपर्क किया जारहा है तो कहीं ऐसा न हो के यही परिस्थिति कांग्रेस के सामने भी पैदा हो जाए।


समाजवादी पार्टी को तो अनपेक्षित रूप से इन हालात का सामना करना पड़ रहा है। उसे यह अनुमान नहीं रहा होगा के जो कल्याण एक बार उस के साथ आकर वापस जा चुके हैं, इस बार उन के आने पर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। (दोनों बार के हालात में अन्तर क्या है, इस पर बात इस निरन्तर लेख की आने वाली कड़ियों में करेंगे) परन्तु कांग्रेस अब सब कुछ अपनी आंखों से देख चुकी है। सारे हालात उस के सामने हैं, मुसलमानों की नाराजगी भी, समाजवादी पार्टी की परेशानी भी फिर उस का दायरा उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है, उसे पूरे हिंदुस्तान में इलेक्शन लड़ना है और अभी तक के हालात जिस बात का इशारा कर रहे हैं, वो कुछ इस प्रकार हैं के कल्याण फैक्टर केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित न रहे क्यूंकि मुसलमानों का वोट केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है और न ही बाबरी मस्जिद का मामला उत्तर प्रदेश तक सीमित है। अगर कल हिंदुस्तान में इस बात को लेकर मुसलमानों में नाराजगी पैदा होती है तो शायद उत्तर प्रदेश के बाहर भी कांग्रेस को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।


यह सारी दुशवारियाँ और उलझनें बेशक कांग्रेस के साथ हो सकती हैं, शायद इसी लिए उस के सीनियर लीडर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ के लिए एक राय नहीं हैं। सत्यवृत चतुर्वेदी अगर खुल कर तो दबे शब्दों में दिगविजय सिंह और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस की प्रमुख रीता बहुगुना बहुत हद तक अकेले इलेक्शन में जाने का इरादा रखते हैं और अगर वो यह राय रखते हैं तो उन की राय एक दम से रोके जाने के योग्य भी नहीं है। इस लिए के १५-२० सीटों पर इलेक्शन लड़ कर कितनी सीटें जीती जा सकती हैं और अगर सभी ८० सीटों पर इलेक्शन लड़ा जाए तो किस हद तक सफलता प्राप्त की जासकती है, इन दोनों प्रशनों का उत्तर बेशक अभी देना मुश्किल होगा परन्तु कांग्रेस को आज जहाँ ८० में से केवल ९ सीटें ही प्राप्त हो पायीं।


२००४ में हुए चुनाव का परिणाम हमारे सामने है तो फिर दोनों ही सूरतों में अगर इस में २-४ सीटों की बढोतरी के हालात पैदा होते हैं तो पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में किसी बड़े फायदे या नुकसान की सूरत नहीं पैदा होती। हाँ, अगर कल्याण फैक्टर को लेकर मुसलमानों की नाराजगी निरंतर बढती चली गई और बहुजन समाज पार्टी के पिछले किरदार को जिस प्रकार समाजवादी पार्टी लीडरों ने लाना शुरू कर दिया है, उस का प्रभाव भी मुसलमानों पर देखने को मिला और उन्हें उत्तर प्रदेश के मैदान में अकेली सब से अच्छी पार्टी कांग्रेस नज़र आई तो कांग्रेस के लिए यह किसी लोटरी के खुलने जैसा भी हो सकता है। इस सूरत में अगर कांग्रेस एक चौथाई अर्थात ८० में से २० सीटें भी जीत लेती है तो भी अधिक बड़ा लाभ पूरे हिंदुस्तान में मुसलमानों को आकर्षित करने की सूरत में प्राप्त होगा, इस लिए के वो कह सकेगी की देखो हम ने एक अच्छे मित्र को खोदिया, इस लिए के नरसिम्हा राव के दौर में हुई गलती को हम दोहराना नहीं चाहते थे और तब शायद बाकी बचे राज्यों में कांग्रेस को अपनी इस दलील का बड़ा फायदा मिल जाए।


जो भी हो, आज लगभग उत्तर प्रदेश की जनता विशेषकर मुस्लमान बहुत बेचैनी के साथ कांग्रेस के निर्णय का इंतज़ार कर रहे हैं, इस लिए के उस की जो भी कार्यप्रणाली होगी, वो कांग्रेस का निर्णय आने के बाद होगी। पिछले दिन दिल्ली में बदरुद्दीन अजमल ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस के दौरान इस बात का एलान किया के अब वो आसाम तक सीमित नहीं रहेंगे, अब वो अन्य मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों में इलेक्शन लड़ने का इरादा रखते हैं। इस प्रेस कांफ्रेंस में उन के साथ उन की पार्टी के १० एम् एल ऐ भी थे। मौलाना बदरुद्दीन अजमल, मौलाना अरशद मदनी के बहुत करीबी हैं। जमियत उल्माए हिंद के सम्बन्ध से मौलाना अरशद मदनी का अन्य राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश में भी काफ़ी प्रभाव है। कई सान्सदय क्षेत्रों पर उन का सहमति या विरोधी होना अर्थ रखता है।


यूँ तो मौलाना अरशद मदनी कांग्रेस के करीब रहे हैं, समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेटरी और प्रवक्ता अमर सिंह जी ने भी उन से भेंट की है, उन का निर्णय किस के हक़ में होता है या वो तटस्त रहते हैं, यह देखना अभी शेष है, परन्तु जिस प्रकार जमियत उल्माए हिंद के लीडर और मेम्बर पार्लिमेंट मौलाना महमूद मदनी के भाई और उन के करीबी मौलाना हसीब साहब बहुजन सामज पार्टी में शामिल होचुके हैं और मौलाना मौदूद मदनी का अमरोहा से बी एस पी के टिकट पर इलेक्शन लड़ने का एलान हो चुका है।


अगर ऐसी सूरत में मौलाना अरशद मदनी यह निर्णय लेते हैं के उन्हें भी किसी न किसी पार्टी की सहमति का निर्णय करना होगा और क्यूंकि मौलाना महमूद मदनी के करीबी लोग बी एस पी के करीब हैं और उन के लोग वहां नहीं जाना चाहेंगे जहाँ मौलाना महमूद मदनी साहब के करीबी........(यह सब सोच है, परन्तु बिना किसी कारण के नहीं, इस लिए के लाख प्रयास के बावजूद भी जमियत उल्माए हिंद के यह दोनों ऊंचे कायद एक स्थान पर एक नहीं हो सके हैं) परन्तु वो जमियत का अंदरूनी मामला था, यह भी हो सकता है के राजनैतिक मामलात में वो एक राय हो जाएँ, खैर उत्तर प्रदेश में अभी बहुत उलझनें हैं, विशेष कर मुसलमानों को लेकर।


अगर मौलाना बदरुद्दीन की ऐ यु डी ऍफ़ उत्तर प्रदेश में भी अपने उमीदवार खड़े करती है, मौलाना अरशद मदनी और अगर मौलाना महमूद मदनी के साथ साथ उन के साथ होते हैं और कल्याण फैक्टर से नाराज़ मुस्लमान समाजवादी पार्टी और उस के साथ मिल कर इलेक्शन लड़ने की सूरत में कांग्रेस दोनों से नाराज़ होते हैं तो फिर उन के सामने बी एस पी के बाद मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एक विकल्प के रूप में सामने हो सकती है और जिस प्रकार कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आपस में एक होने की शुरुआत की है, अगर डॉक्टर अय्यूब सहित कुछ और महत्त्वपूर्ण राजनेता मौलाना बदरुद्दीन अजमल अर्थात यह सब एक प्लेट फार्म पर खड़े होते हैं, तो इन सब की ताकत की उपेक्षा नहीं की जासकती।


आज जिस प्रकार समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव और उन की पार्टी के जनरल सेक्रेटरी ठाकुर अमर सिंह मुसलमानों से अपनी नाराज़गी दूर करने की कोशिशों में व्यस्त हैं, इस का असर क्या होता है, यह भी महत्त्वपूर्ण होगा, परन्तु कांग्रेस के पास इतना मौका नहीं है के वो इस असर का इंतज़ार करे। उसे तो यह निर्णय लेना ही होगा के उसे समाजवादी पार्टी के साथ जाना है या अकेले इलेक्शन के मैदान में उतरना है।


इसी प्रकार मुसलमानों को भी बहुत लंबे समय तक दुविधा का शिकार नहीं रहना है, उन्हें भी जल्दी कोई निर्णय लेना होगा, अगर कांग्रेस की तरह वो भी मानसिक उलझन का शिकार रहे तो उन का वोट विभिन्न पार्टियों के बीच बंट जायेगा, फिर उन के वोट का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जायेगा। अगर वो मुस्लिम उमीदवारों के नाम पर उन के साथ गए तो यह उन पार्टियों की कार्यप्रणाली की जीत होगी, न तो उसे मुसलमानों की कार्यप्रणाली की सफलता करार दिया जा सकेगा और न ही वो कोई राजनैतिक ताकत बन पायेंगे।


इस लिए हम कल के अपने लेख का हवाला देते हुए आज अपनी बात यहीं समाप्त करदेना चाहेंगे, कल जिन मुस्लिम पार्टियों और प्रतिनिधियों की बात की थी, वो सभी उत्तर प्रदेश में महत्त्व रखते हैं। अगर वो सब आपस में मिलकर एक राय हो जाएँ तो बहुत अच्छा है वरना फिर यह ज़िम्मेदारी मुस्लमान स्वीकार करें, इस लिए के अगर पार्टियों के उमीदवारों का एलान किए जाने के इंतज़ार में वो बैठे रहेंगे तो बहुत देर हो जायेगी। ऐसी सूरत में वो कोई राजनैतिक ताकत नहीं बना पायेंगे, वोट बंट जायेगा और यह संघर्ष परिणाम-विहीन हो जायेगा, जैसा के सामान्य रूप में अब तक होता रहा है।
वोट डालने के पहले तक तो बहुत बातें होती हैं, बहुत प्लानिंग होती हैं, बहुत ज़बानी जमा खर्च होता है, हर दिन एक नई कार्यप्रणाली पर गौर होता है और जब वोट डालने का समय आता है तो फिर वही मायूसी और लाचारी भरा प्रशन के अब क्या करें? इतनी कोशिश की, सब एक हो ही नहीं पाये, चलो किसी न किसी तो वोट देना ही है, एक बार इसी को आजमा कर देख लेते हैं। अब चाहे वो पार्टी हो या उमीदवार अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है और आप की सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं। फिर एक बार वो परिणाम आपके सामने होता है, जिसे देख कर आप हाथ मलते रह जाते हैं।

Tuesday, February 3, 2009

कल्याण का अपराध तो इतिहास के पन्नों में लिखित है


श्रीमान मुलायम सिंह यादव जी बड़े ही सेकुलर लीडर रहे हैं और केवल अल्पसंख्यक ही नहीं, बलके देश के एक बड़े समुदाय में आदर और सम्मान की निगाह से देखे जाते रहे हैं। १९९१ में राष्ट्रीय एकता परिषद् की मीटिंग में स्वर्गीय राजीव गाँधी जी ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के सम्बन्ध से मुलायम सिंह यादव जी की जो प्रशंसा की, शायद उसे आज तक वो भी नहीं भूले होंगे। थोड़ा बहुत तो हमें भी याद है और पाठकों को भी उस दौर की घटनाएं अवश्य याद होंगी, इस लिए के बात पुरानी सही परन्तु जिन यादों से जुड़े हों, वो भुलाई जाने वाली नहीं हैं। फिर न जाने क्या हुआ के श्रीमान मुलायम सिंह यादव जी, जिस सोच विचार और जिस मानसिकता के सदा विरुद्ध रहे, आज उसी की प्रशंसा करने लगे हैं।

यहाँ तक के जितना वो व्यक्ति स्वयं अपना बचाव नहीं कर पारहा है, इस लिए के निशचित रूप से उसे यह भाव रहता होगा के हाँ, मैं ही तो हूँ, जिस ने बार बार कहा था के मैं इस ढाँचे (बाबरी मस्जिद) के गिराए जाने के लिए जिम्मेदार हूँ। और उन की यह बात रिकॉर्ड पर मौजूद है, झुठलायें भी तो कैसे? परन्तु आशचर्य की बात है के मुलायम सिंह जी को वो सब याद नहीं पड़ता। अब यह कहना तो बेकार की बात है के कुछ उम्र की मांग होती है, इस लिए के अभी तो उन से अधिक आयु के कुछ लोग राजनीती में सरगर्म हैं, वो भी जो देश के प्रधान मंत्री रह चुके हैं और वो भी, जिन के दिल में इच्छाओं का ज्वाला मुखी हर दम हिलोरे लेता रहता है। हाँ, अगर यह हालात और उन की इच्छाओं की मांग है तो वो ख़ुद समझें।


आज लिखने के लिए इस के अतिरिकत कुछ और भी शीर्षक थे, उदहारण के तौर पर आज़म गढ़ से दिल्ली पहुँची उल्माए कौंसिल एक्सप्रेस, एक एतिहासिक घटना है, जिसे नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता, इस पर अभी लिखना बाक़ी है। बजरंग दल, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, दयानंद पांडे और पुरोहित के श्री राम सेना से जो सम्बन्ध जताया है, साथ ही प्रमोद मुतालिक ने जो ज़हर उगला है, वो भी ऐसा शीर्षक है, जिस पर कलम उठाना आवश्यक है, परन्तु अभी बात चीत का जो सिलसिला जारी है, अर्थात कल्याण सिंह की समाजवादी पार्टी से नजदीकी, इसी पर बात जारी रखते हैं।

राजनैतिक पार्टियाँ अक्सर शासन की चाह में बेमेल समझौते करते रहते हैं, वो जिन का नज़र्याती मतभेद होता है, बलके रहता भी है वो भी एक प्लेट फॉर्म पर इकठ्ठा हो जाते हैं। ताज़ा उदहारण देखनी हो तो नीतिश कुमार और भारतीय जनता पार्टी की शक्ल में हमारे सामने है, परन्तु ऐसा नज़रयाति मतभेद जो एक दूसरे की जिद हो, जो सिरे से एक दूसरे के विरोधी हों अर्थात बीच में हम अगर बाबरी मस्जिद को करार दें तो एक व्यक्ति वो है, जिस के सर बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का सेहरा बंधा जाता रहा है। दूसरी ओर वो है, जो मस्जिद को नष्ट करने का तमगा प्राप्त करता रहा। अब अगर यह दोनों एक दूसरे को गले लगायें तो मस्तिष्क कैसे स्वीकार करे?


अगर कुछ मजबूर और ज़रूरतमंद आवाजें, उस व्यक्ति के बचाव में उठने लगी हैं, जिस ने बाबरी मस्जिद को शहीद कर देश के हिंदू और मुसलमानों के दिलों को घृणा से भर दिया, वो ज़मीन तैयार की ,जिस पर हजारों निर्दोषों का खून बहा और कौम को फिर बटवारे जैसे हालात का सामना करने को मजबूर होना पड़ा, तो आवयशक है के उन सच्चाइयों को इतिहास के पन्नों से निकाल कर एक बार फिर उन राजनेताओं के सामने रख दिया जाए, ताके वो जान सकें के कौन है वो व्यक्ति? उस का माज़ी क्या है? उस का अपराध क्या है? ताके वो समझ सकें को क्या उस का अपराध क्षमा योग्य है? क्या वो विशवास करने लायक हैं?

इस सम्बन्ध में अगर हम कुछ कहेंगे तो उसे हमारी भावना करार दिया जा सकता है। हमारा दृष्टीकोण करार दिया जा सकता है। परन्तु, अगर हम वो एतिहासिक सत्य उस लेखक की ज़बानी पेश करें, जिस ने सभी हालात और घटनाओं का सर्वेक्षण करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश की हो और वो रिपोर्ट हिंदुस्तान के इतिहास का एक कभी न भुलाया जाने वाला सबक बन गया हो, तब शायद कोई यह न कह सके के हम एकतरफा दृष्टिकोण की तर्जुमानी कर रहे हैं। जी हाँ, अब मैं पेश करने जा रहा हूँ जस्टिस श्री कृष्ण की वो रिपोर्ट, जिस में उन्होंने बाबरी मस्जिद की शहादत और उसके बाद घटने वाली घटनाओं को कलमबंद किया है।


रिपोर्ट:

१९९० में एक बार फिर हिंदू वादी, हिन्दुओं की जातिवादी पार्टियों, संघटनों ने अजोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह मजूज़ा राम मन्दिर की निर्माण करने की मुहीम शुरू कर दी। उन का दावा था के उस स्थान पर भगवन राम का जनम हुआ था, दूसरी ओर साफ़ बात थी के मुस्लमान एक इंच ज़मीन भी देना नहीं चाहते थे।


इस विवाद ने उस समय संगीन रूप ले लिया, जब अदालत की ओर से मुक़दमे में बहुत देरी होगई और राजनैतिक लाभ के लिए इस मामले को एक नया मोड़ ९० के दशक में भारतीय जनता पार्टी ने दिया और उस के मुख्य लाल कृष्ण अडवाणी ने राम जनम भूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर जनता की जागृकता पैदा करने के लिए रथ यात्रा निकाली, जिस के दौरान जगह जगह छोटे बड़े दंगे हुए।


जुलाई १९९२ से भारतीय जनता पार्टी ने अजोध्या में राम मन्दिर के निर्माण के लिए मुहीम की शुरुआत कर दी थी और इस सिलसिले में राम पादोका जुलूस, चौक सभाओं और जलसों का आयोजन किया जाने लगा, जिन में हिन्दुओं को भाषणों के द्वारा रामजनम भूमि के मामले में एक होने की नसीहत दी जाने लगी थी। हिन्दुओं को नसीहत देने वाले इन भाषणों में जातिवादी भावनाओं को भड़काने वाले नारे लगाये जाते थे और मुसलमानों को वार्निंग दी जाती थी, जिन में मुसलमानों को देश निकला करने जैसे भड़कीले नारे शामिल थे, "मन्दिर वहीँ बनायेंगे" और "इस देश में रहना होगा तो वन्दे मातरम् कहना होगा" फ़िज़ा में गूंजने लगे। राम पादोका का उद्देश्य धार्मिक कम और राजनैतिक अधिक था। हिंदू वादियों ने अपने धरम की वकालत करते हुए अपनी पकड़ मज़बूत करली और मामले को राजनैतिक रंग दे दिया जबके अदालत में सुनवाई के अंतर्गत मामले को अजोध्या में भगवान् श्री राम का मन्दिर स्थापना की मांग के साथ उछालना शुरू कर दिया गया।


केंद्रीय सरकार की क्षमता न होने और सुस्ती के कारण एक विवादित इमारत में राम लल्ला की मूर्तियाँ रख दी गयीं और वहां पूजा की अनुमति की मांग ने नई परिस्थिति पैदा कर दी थी। बाबरी मस्जिद एक पुरानी ईमारत थी जिसे मस्जिद के तौर पर प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु फिर भी यह मुसलमानों के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो चुका था और उन में से एक समुदाय ने बाबरी मस्जिद प्रोटेक्शन कमिटी बना दी। उन्होंने सरकार से कहा के इस बात को निशचित बनाये के बाबरी मस्जिद को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचेगा। हिंदू संघटनों ने उस जगह कारसेवा की मांग शुरू कर दी।

१९९१ में पहली कारसेवा के लिए विवादित स्थान पर जमा कारसेवकों ने शरारत की और पुलिस ने फाइरिंग की थी (असल में यह कारसेवा १९९० में हुई थी) यह एक संगीन मामला नहीं था, परन्तु हिंदू संघटनों ने काफी शोर मचाया और प्रोपेगंडा किए जाने लगा के सरजू नदी निर्दोषों के खून से लाल हो चुकी है, जिन्हें पुलिस ने गोलियों का निशाना बनाया था, उन्हें शहीद कहा गया। इस प्रोपेगंडे ने विवाद को काफ़ी गरमा दिया, जिस ने कांग्रेस (आई) की शोहरत को कम कर दिया और भारतीय जनता पार्टी की शोहरत में बढोतरी हो गई। पार्टी ने केन्द्र में शासन पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से ६ दिसम्बर १९९२ को अजोध्या में दूसरी बार कारसेवा का एलान कर दिया।


भारतीय जनता पार्टी और उस की हमनवा जमातों वी एच पी, बजरंग दल और आर एस एस की ओर से अक्टूबर १९९२ से नवम्बर १९९२ तक सरगर्मियां तेज़ हो चुकी थी, ताके ६ दिसम्बर १९९२ को अजोध्या में कारसेवा की पूरी तैयारी कर ली जाए। मुसलमानों में इन सरगर्मियों के कारण बेचैनी पैदा हो गई और इस सरगर्मी को रोकने के लिए उन्होंने भी उचित कदम उठाये। इसी प्रकार दोनों ओर से जलसे, जुलुस, मुज़ाहरे, प्ले कार्ड्स और पंफ्लीट बांटना शुरू हो गया और दोनों जनता को समझाने की कोशिश करते थे के उन का इरादा सही है। मुक़र्ररीन का अंदाज़ अनोखा था।

हिंदू वादियों ने कहना शुरू किया के सरजू नदी के तट पर भगवान् राम की जन्म भूमि पर अजोध्या में मन्दिर के निर्माण की अनुमति न देना प्रत्येक हिंदू की खुद्दारी पर धब्बा है। जबके मुस्लमान लीडरों ने कहना शुरू किया के इस मामले में थोडी सी रिआयत इस्लाम को खतरे में डाल देगी। हिंदू बहुमतों ने अपनी एक नई पहचान ढूंढ ली और मुस्लमान अल्पसंख्यक स्वयं को असुरक्षित समझने लगे, जिस से ताकत आजमाई का दौर शुरू हो गया।


अजोध्या में कारसेवा के लिए मुहीम तेज़ी से जारी थी और देश भर में बड़ी मात्रा में कारसेवकों की भरती शुरू हो गई। इस बात का अंदेशा था के लाखों की मात्रा में कारसेवक अजोध्या में जमा होंगे। हिन्दुस्तानी सरकार ने बाबरी मस्जिद प्रोटेक्शन कमिटी और हिंदू पार्टियों के प्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई, जिस का कोई सही परिणाम सामने नहीं आया। दोनों में से किसी ने भी नरमी नहीं जताई। केंद्रीय सरकार ने उस समय के रक्षा मंत्री, होम सेक्रेटरी और उच्य अधिकारीयों की एक उच्चस्तरीय कमिटी बनाई ताके अजोध्या की स्थिति पर नज़र रखी जाए और प्रधानमंत्री से मशवरा किया जाता रहे।

बाबरी मस्जिद सुरक्षा के मामले ने सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के अंतर्गत होने के कारण कानूनी हैसियत प्राप्त कर ली थी । बाबरी मस्जिद प्रोटेक्शन कमिटी ने मांग की के उत्तर प्रदेश के मुख्या मंत्री कल्याण सिंह मस्जिद की सुरक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार जताएं। लोक सभा में मामला उठाया गया तो उस समय के प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का यकीन नहीं दिलाया, बलके कहा था के हिंदुस्तान के सेकुलर प्रशासन में उस की हर सम्भव सुरक्षा होगी। मुख्या मंत्री उत्तर प्रदेश ने भी सुप्रीम कोर्ट के सामने इस प्रकार से यकीन दिलाया गया था। नॅशनल इंटीग्रेशन कौंसिल में भी इसी प्रकार यकीन दिलाया गया।


केंद्रीय सरकार ने १ दिसम्बर १९९२ से बाबरी मस्जिद के चारों ओर एक बड़ी मात्रा में नीम सेना फोर्सेज को तैनात कर दिया था। अजोध्या में लाखों कारसेवकों के जमा होने के कारण परिस्थिति हर पल विस्फोटक होती जा रही थी। केन्द्रीय सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार तसल्ली देने के लिए कदम उठाये और अजोध्या में बाबरी मस्जिद के चारों ओर एक बड़ी मात्रा में सेना और नीम सेना के दस्ते तैनात कर दिए गए। ६ दिसम्बर १९९२ को सामान्य तौर पर यही मनहूसियत छाई हुई थी।


६ दिसम्बर १९९२ को स्थानीय पुलिस ने मस्जिद को घेर लिया और कारसेवकों को मस्जिद के चारों ओर बनाई गई रुकावटों से दूर रखने की कोशिश करते रहे। पुलिस और नीम सेना के दस्तों को पीछे धकेल कर कारसेवकों ने सभी घेरे तोड़ दिए। इस प्रकार का आरोप है के इस अवसर पर जिला मजिस्ट्रेट ने सेना और नीम सेना के दस्तों को कारसेवकों पर फाइरिंग के आदेश दिए, परन्तु जवानों ने कारसेवकों पर फाइरिंग करने से इंकार कर दिया था क्यूंकि वो उन्हें अपना भाई समझते थे। कारसेवकों ने रुकावटें हटा दीं और ज़बरदस्ती बाबरी मस्जिद में दाखिल हुए और उसे नष्ट करने में सफल हो गए। विदेशी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विशेषकर ब्रिटिश ब्रोडकास्टिंग कॉर्पोरशन टेलीविज़न (बी बी सी टी वी) ने बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की फ़िल्म और कारसेवकों को जशन मानते हुए अपनी ख़बरों में दिखाना शुरू करदिया। दोपहर ढाई बजे से ख़बरों में बाबरी मस्जिद के गिराए जाने को अहम् ख़बर के तौर पर पेश किया जाने लगा था।


बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की ख़बर का प्रभाव

बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की घटना के सिलसिले में राज्य प्रशासन और पुलिस मिशनरी को पहले से कोई जानकारी नहीं दी गई थी और न ही बाबरी मस्जिद पर हमले या गिराए जाने के बारे में कोई शक जताया गया था। कमीशन के सामने गवाही देने वाले सभी पुलिस अधिकारीयों और उस समय के मुख्य मंत्री सुधाकर राव नायक ने साफ़ साफ़ कुबूल किया के बाबरी मस्जिद का गिराया जाना एक गैर उम्मीद घटना थी। आशचर्य की बात यह है के उन सभी व्यक्तियों को बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की ख़बर टेलीविज़न खबर्नामे से मिली थी। हिन्दुस्तानी सरकार की इंटेलिजेंस एजेन्सी इस ख़बर को सरकारी तौर पर देती, उस समय तक काफ़ी देर हो चुकी थी।

पुलिस कंट्रोल रूम की लॉग बुक में पेश आने वाली घटनाओं के वायर लेस पर दिए जाने वाले संदेशों की सही विस्तार नहीं मिली है। असल में लॉग बुक में तत्काल होने वाली घटनाओं के बारे में लिखित विस्तार होता है। ६ दिसम्बर और ७ दिसम्बर १९९२ की लॉग बुक में अधिक विस्तार नहीं पाया गया।


६ दिसम्बर १९९२ बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से पहले शहर में तनाव पाया जाता था।


१०.००: चरनी रोड आंबेडकर गार्डन में १५५ लोगों का जमा होना और चेम्बूर में १२.४५ बजे भारत कैफे के नज़दीक कुछ गड़बड़ हुई थी।


११.३४: एल टी मार्ग पुलिस स्टेशन की हद में स्थापित बम्बई मुनिसिपल कारपोरेशन बिल्डिंग के नज़दीक लोहार चाल की दरगाह में गड़बड़ हुई थी।


११ से १२ बजे: कारसेवकों और विश्वहिंदू परिषद् और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने विभिन्न स्थानों पर जलसों का आयोजन किया था।


१२.३३: शिव मन्दिर दादर के सामने ३००-४०० व्यक्ति जमा हुए थे।


१४.००: भोईवाडा पुलिस की हद में एल्फिन्स्टन ब्रिज के पास एक भीड़ जमा होगई थी। बाबरी मस्जिद दोपहर १२.३० बजे गिरा दी गई और इस ख़बर को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बड़े स्तर पर पेश किया। विशेषकर बी बी सी न्यूज़ में ख़बर को बार बार पेश किया जाता रहा था।


१६.४०: धारावी में शिव सेना के स्थानीय लीडरों ने २००-३०० व्यक्तियों की एक साइकल रैली निकाली थी। रैली जातिवादी और मुस्लिम क्षेत्रों से निकाली गई और काले किल्ला पर समाप्त हुई थी, जहाँ एक सामान्य जलसे से शिवसेना के ओहदेदारों ने खिताब किया था। इस जलसे में भड़कीले भाषण दिए गए।


१९.५२: पाइधोनी की हद में इमाम बाड़ा और भिन्डी बाज़ार में एक भीड़ लग गई थी।


२०.३३: निजाम स्ट्रीट, मस्जिद क्रॉस लेन में मुस्लमान जमा होगये थे।


२०.४२: भाइकला की हद में जीजा माता लेन में ५०-६० हिंदुत्ववादी जमा थे।


२१.१०: जोगेश्वरी की हद में मीनारा मस्जिद के पास ५०० लोग पत्थर बाज़ी करने लगे और उन का निशाना पुलिस थी। पुलिस ने ताकत का प्रयोग करते हुए भीड़ को २३.२६ बजे यहाँ वहां कर दिया।


२३.३४: मांडवी टेलेफोन एक्सचेंज पैधोनी के पास भीड़ की ओर से आग लगाने की कोशिश की गई थी।


२३.४४: मीनार मस्जिद के पास पुलिस ने एक गोली चलाई और मांडवी पुलिस कुआरटर के पास भीड़ लग गई।


२३.५०: मोहम्मद अली रोड पर मोमिन मस्जिद के पास पत्थर बाज़ी हुई थी।


२३.५२: भिन्डी बाज़ार में पत्थर बाज़ी हुई और सोडा वाटर की बोत्तल फेंकी गई।


२३.५६: डोंगरी की हद में भिन्डी बाज़ार में एक ईमारत में से प्राइवेट फाइरिंग की गई।


२३.५८: डोंगरी की हद में भिन्डी बाज़ार में फाइरिंग और पत्थरबाजी हुई थी। दूसरे दिन दंगों ने पूरे शहर को अपनी लपेट में ले लिया।