Saturday, January 2, 2010

तहफ़्फ़ुज़-ए-आज़ादी के मतवालों के नाम


मेरे सामने भारत में पिछले तीन वर्षो में अर्थात 2006 से 2008 तक हुए आतंकवादी हमलों का विवरण है और पिछले चार वर्षो में अर्थात 2006 से 2009 तक पाकिस्तान में जितने बम धमाके और मौते हुयीं, उनके विवरण हैं। साथ ही मैं अध्यन कर रहा हूँ कि इस बीच डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राना ने कितनी बार और किन-किन तिथियों में भारत और पाकिस्तान का दौरा किया। साथ ही मेरी निगाह इस बीच अमेरिकी शासकों व अमेरिकी खुफ़िया एजेंसियों के अधिकारियों के भारत-पाक दौरे पर भी है। इस समय रिसर्च का विषय कुल मिलाकर 9/11 और उसके बाद इस्लामी देशों व भारत की बदलती हुई परिस्थिति है। डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राना के साथ-साथ एक और नाम ‘‘केनेथ हेवुड’’ का भी मेरे दिमाग़ में है, जिसकी फाइल इस समय मेरे सामने है। पाठकों को याद होगा कि अहमदाबाद बम धमाकों के बाद आतंकवादियों की ओर से भेजा गया ई-मेल केनेथ हेवुड के वाई.फाई सिस्टम से था और यह अमेरिकी नागरिक भी लुक आउट नोटिस जारी होने के बावजूद भारत से फ़रार होने में सफल हो गया था, जबकि इन बम धमाकों का मास्टर माइंड बता कर मुफ्ती अबुलबशर को गिरफ्तार कर लिया गया। मुफ्ती अबुलबशर की गिरफ्तारी के बाद 10 सितम्बर 2008 को मैंने भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से मिल कर देश के ताज़ा तारीन हालात उनके सामने रखे। मुसलमानों के सामने आने वाली समस्याओं का उल्लेख किया और मुफ्ती अबुलबशर के भाई अबुज़फ़र का लिखा हुआ पत्र भी प्रधानमंत्री की सेवा में पेश किया। यह तमाम विवरण उस पत्र सहित 13 सितम्बर 2008 को अपने सिलसिलेवार लेख ‘‘मुसलमानाने हिन्द..... माज़ी, हाल और मुस्तिक़बिल???’’ की 22वीं क़िस्त में प्रकाशित किए। दुर्भाग्य से उसी दिन शाम को जिस दिन यह लेख प्रकाशित हुआ दिल्ली बम धमाकों से दहल उठी और उसके एक सप्ताह के अंदर ही 19 सितम्बर 2009 को आतिफ और साजिद का संदिग्ध एन्काउंटर हुआ। आज मैं इन तमाम मामलों को फिर से उठाए जाने की आवश्यकता महसूस करता हूँ। उन दिनों में मेरे लिखे गए मेरे लेख इस समय मेरे सामने हैं और जो कुछ नए रहस्योद्घाटन अब सामने आ रहे हैं, वह भी सबके सामने हैं। अगर वास्तविकता यह सामने आती है कि भारत में होने वाले बम धमाकों के अपराधियों के रूप में जिन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया, उनके अलावा भी कुछ और लोग जो वास्तव में मास्टर माइंड हैं इस अपराध में शामिल हैं और यह भी संभव है कि वास्तविक अपराधी डेविड कोलमैन हेडली जैसे लोग ही निकलें। दरअसल हर बम धमाके के बाद मुसलमानों को आरोपित कर दिया जाना एक आम परम्परा बन गई थी और एक विशेष मानसिकता के लोग यह कहते नज़र आते थे कि सब मुसलमान आतंकवादी न सही, परन्तु सब आतंकवादी मुसलमान हैं, फिर इसके बाद मालेगांव जांच के बीच शहीद हेमन्त करकरे ने आतंकवाद का एक और चेहरा सामने रखा, अब बारी मुसलमानों की थी, वह कहने लगे कि देखो अब सामने आने लगे हैं बम धमाकों के वास्तविक अपराधी। इसके बाद 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुआ आतंकवादी हमला। स्पष्ट शब्दों में कोई कहे या न कहे, मगर ऐसे लोग भी मौजूद थे जो दबी ज़बान में हेमन्त करकरे की मौत के कारण जानना चाहते थे। अगर कुछ देर के लिए ही सही यह कल्पना हमारा ध्यान आकर्षित कर ले कि भारत में हर धमाके के बाद मुसलमानों से और मालेगांव व शहीद हेमंत करकरे की मौत को हिन्दुओं से जोड़ कर देखे जाने के पीछे यह सोच तो नहीं है कि भारत गृह युद्ध का शिकार हो जाए। कभी हिन्दु मुसलमनों को आरोपित करें, कभी मुसलमान हिन्दुओं पर दोषारोपण करें। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाते रहें। यही लोग पकड़े जाते रहे और सज़ा पाते रहें, कहीं और ज़हन जाए ही नहीं। जबकि यह षड़यंत्र बहुत गहरा हो और उनकी ओर किसी का ध्यान जाने ही न दिया जाए, जो परदे के पीछे से भारत को तबाह व बरबाद करने का षड़यंत्र रच रहे हों। अतः जब मैंने पूर्व और वर्तमान की घटनाओं की कड़ियां जोड़नी आरंभ की और अपने ही लिखे हुए पुराने लेखों को सामने रखा तो पाया कि यह पहला अवसर नहीं है जब मैंने भारत सरकार और देश की जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया हो। इससे पूर्व हैदराबाद के बम धमाकों के बाद मैंने 22 अगस्त 2008 को ‘‘हेवुड फ़रार, मुफ्ती अबुलबशर गिरफ्तार, वाह रे हमारी सरकार’’ के शीर्षक से जो कुछ लिखा, वह आज एक बार फिर पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह इसलिए भी कि काश उन्होंने इस लेख की गंभीरता को समझते हुए उसीे समय इस आवाज़ में आवाज़ मिला दी होती तो जो तथ्य अब सामने आ रहे हैं, सम्भवतः उसी समय सामने आजाते और अगर कुछ बेगुनाहों की गिरफ्तारियां जो इन बम धमाकों के सिलसिले में हुई हैं तो वह इस मानसिक और शारीरिक कष्ट से बच जाते। क़ौम के दामन पर बदनामी का दाग़ भी न लगता।

((आज से लगभग एक वर्ष पूर्व 25 अगस्त 2007 को हैदराबाद के लुम्बनी पार्क और गोकुल चाट भंडार पर बम धमाका हुआ, जिसमें 42 लोग मारे गये और 60 से अधिक घायल हुए। हमने रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के 28 अगस्त 2007 के प्रकाशनों में इस शीर्षक के साथ ख़बर प्रकाशित की कि ‘‘शक की सुई आई.एस.आई और हूजी पर ही क्यों? सी.आई.ए. पर क्यों नहीं?’’। इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि हैदराबाद शहर में इन धमाकों से पूर्व अमेरिका से संबंध रखने वाले कुछ लोग उपस्थित थे, जिनमें से मुख्य रूप से एक अमेरिकी महिला थी, जिसके कुछ दिन बाद यह बम धमाके हुए। पुलिस और प्रशासन से हमारा प्रश्न था कि यदि अमेरिका की बजाय पाकिस्तान, बंग्लादेश या अफ़ग़ानिस्तान के लोग बम धमाकों से एक सप्ताह पूर्व हैदराबाद शहर में आए होते तब भी क्या राज्य सरकार उनकी उपस्थिति को इसी तरह अनदेखा करती? संभवतः नहीं। तो फिर क्या कारण था कि अमेरिकी दूतावास से संबंध रखने वाले इन व्यक्तियों पर विशेषतः उस विदेशी महिला पर नज़र नहीं रखी गई?

ऐसा ही अहमदाबाद में हुए सीरियल बम धमाकों के बाद देखने में आया कि वह अमेरिकी व्यक्ति जो नवी मुम्बई में ठहरा हुआ था और जिसके कम्प्यूटर से वह ई-मेल भेजा गया। किस तरह भारत से भागने में सफल हुआ। हम चाहते हैं पाठक एक बार फिर इस समाचार का ध्यानपूर्वक अध्यन करें और उसके बाद मुफ़्ती अबुलबशर की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर निगाह डालें ताकि अनुमान कर सकें कि किस तरह एक शातिर दिमाग़ अमेरिकी को हमारी पुलिस ने आराम से इस देश को छोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया, और किस तरह एक धार्मिक परिवार से संबंध रखने वाले अबुलबशर की गिरफ्तारी और दोष स्वीकारोक्ति का कारनामा अंजाम दिया।

अहमदाबाद बम धमाकों के मामले में संदिग्ध अमेरिकी नागरिक ‘‘हेवुड’’ के विरूद्ध तलाशी नोटिस जारी होने के बाद देश से उसके फ़रार होने की घटना की केन्द्र जांच कर रहा है, हालांकि यह बात अचंभित करने वाली है कि हेवुड लुक आउट नोटिस के बावजूद भारत छोड़ कर जाने में कैसे सफल हो गया। अमेरिकी अधिकारियों ने इस मामले में शामिल होने से इंकार किया है। प्रश्न यह भी पैदा होता है कि मुम्बई पुलिस ने लुक आउट नोटिस जारी होने के बावजूद उसका पासपोर्ट ज़ब्त क्यों नहीं किया? इमिग्रेशन विभाग से हुई इस ‘‘मानवीय भूल’’ के बाद अब गृह मंत्रालय की ख़ामोशी से यह प्रश्न और गहरा हो गया है, हालांकि आज (12.9.2008) गृह मंत्रालय ने एक बयान जारी करके लीपापोती करने का प्रयास किया है। गृह मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा कि इस मामले की जांच की जा रही है।

स्पष्ट रहे कि हेवुड का वाई.फाई सिस्टम चंद मिनिट पहले धमकी भरा ई-मेल भेजने के लिए प्रयोग किया गया था। राष्ट्र व्यापी स्तर पर तलाशी नोटिस जारी किए जाने के बावजूद हेवुड दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से फ़रार होने में सफल हो गया।

महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधी दस्ते ने पिछले तीन दिन में कई बार उसे बुलाया लेकिन वह पेश नहीं हुआ। इसे साधारण बात क्यों समझा गया? आतंकवाद निरोधी दस्ता उसका नारको टेस्ट करना चाहता था तो किया क्यों नहीं जा सका? ऐसी क्या विवशता सामने थी? एक टी.वी चैनल के अनुसार मंगलवार को अमेरिकी दूतावास ने स्पष्ट रूप से कहा कि हेवुड के भारत से जाने में हमारी कोई भूमिका नहीं थी, दूतावास ने यह भी कहा कि हेवुड अमेरिका का प्राइवेट नागरिक है। यह भी बताया जाता है कि हेवुड अमेरिकी जासूस है। क्या मान लिया जाए कि हेवुड को भारत से बाहर जाने में अमेरिका से सहायता नहीं मिली होगी। क्या दिल्ली में स्थित अमेरिकी दूतावास के अधिकारियों ने भारत की खुफ़िया एजेंसियों के अधिकारियों पर दबाव डाला और इसी वजह से वह भारत से निकल गया, पहले वह अमेरिकी दूतावास गया जिसके बाद वहां के अधिकारियों ने खुफ़िया अधिकारियों के साथ बंद कमरे में मीटिंग की। सूचना यह भी है कि हेवुड का लाई डिटेक्टर और ब्रेन मैपिंग टेस्ट किया जा चुका था?

दिल्ली हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन की प्रारम्भिक जांच में पता चला कि उसके पास यात्रा के लिए ज़रूरी काग़ज़ात थे, इसलिए उसे वहां से निकलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। रविवार रात 11 बजे जेट एयर वेज़ की फ़्लाइट न. 9ॅ.230 में सवार हुआ। जेट एयर वेज़ की दिल्ली-ब्रूसेल्स-न्युयार्क फ्लाइट के लिए उसके पास कन्फर्म टिकट था। इससे पता चलता है कि भारत से निकलने की योजना पहले ही बन चुकी थी। प्रश्न यह पैदा होता है कि इस गंभीर चूक के लिए कौन उत्तरदायी है?मुम्बई पुलिस इसका आरोप दिल्ली पुलिस पर मढ़ रही है। प्रश्न यह पैदा होता है कि हेवुड की गतिविधियों की निगरानी क्यों नही की गई? ए.टी.एस को हेवुड के निकल जाने की सूचना किससे और कब मिली? जांच जारी रहने के बावजूद उसका पासपोर्ट ज़ब्त क्यों नहीं किया गया? दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आख़िर क्या हुआ? देश के तमाम हवाई अड्डो को हेवुड के विरूद्ध जारी लुक आउट नोटिस की जानकारी क्यों नही दी गई? अमरीका ने अपने देश के नागरिक क़ानून का हवाला देते हुए हेवुड के विषय में कोई भी सूचना देने से इंकार कर दिया, जिससे यह मामला काफी सनसनीपूर्ण हो गया। क्या किसी मुस्लिम देश के नागरिक के इस तरह भाग जाने को इतने ही साधारण रूप में लिया जाता?हम अबुलबशर के बचाव में कुछ भी कहना नहीं चाहते लेकिन अगर शाही इमाम जामा मस्जिद सय्यद अहमद बुख़ारी, सांसद अबूआसिम आज़मी ने आज़मगढ़ पहुंच कर अबुलबशर और उसके परिवार के निर्दोष होने का उल्लेख किया तो उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। इससे एक दिन पूर्व मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी ने भी अपने बयान में अबुलबशर के बम धमाकों में शामिल होने को अविश्वसनीय बताया था। कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि पुलिस और प्रशासन एक सोचे समझे षड़यंत्र के अंतर्गत मुसलमानों को ही दोषी ठहराता है, जिससे वास्तविक अपराधियों को न केवल बच निकलने का अवसर मिलता है बल्कि उनका उत्साहवर्धन भी होता है। परिणाम स्वरूप ऐसी अप्रिय घटनाऐं एक के बाद एक अनेक शहरों में सामने आती ही रहती हैं। जहां तक अमेरिकी नागरिक के फ़रार होने में सुविधा पहुंचाने का संबंध है तो लेखक इसका पूरी तरह अनुमान लगा सकता है। क्योंकि जब हमने हैदराबाद बम धमाकों के बाद सी.आई.ए की तरफ उंगली उठाई थी तो भारत की राजधानी नई दिल्ली में स्थित अमेरिकी दूतावास हरकत में आ गया था और उसने गहरी नाराज़गी प्रकट की थी।एक और अवसर पर अमेरिकी दूतावास की प्रतिक्रिया के बारे में विस्तार से लिख चुका हूँ। आज फिर से इस विषय में कुछ भी लिखने की बजाय मैं यह प्रश्न पुलिस प्रशासन और पाठकों पर छोड़ता हूँ कि जब इन बम धमाकों में संलिप्त होने का संदेह पहले उस अमेरिकी हेवुड पर गया तो फिर किस तरह लुक आउट नोटिस जारी होने के बावजूद हमारी पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने, उस पर नज़र रखने की बजाय उसे भारत से भागने का अवसर दिया और आज़मगढ़ के अबुलबशर को अहमदाबाद के सीरियल बम धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया और उनसे उनकी अपराध कु़बूल भी करा लिया। यह पहला अवसर नहीं है जब पठन पाठन से जुड़े किसी धार्मिक व्यक्ति या पेशइमाम को पुलिसिया आतंक का सामना करना पड़ा हो। बहुधा मुसलमान ऐसे पुलिस अत्याचारों का शिकार होते रहे हैं जबकि इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष में हमारे उलमा-ए-कराम की यादगार भूमिका रही है, जोकि इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।))

3 comments:

Saleem Khan said...

sahi kaha aapne !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

आपकी कुछ बातो से सहमती व्यक्त कर सकता हूँ, मगर क्या आप इस सच को झुटला सकते है कि कालान्तर में अमेरिका और उसकी गुप्तचर एजेंसी को को सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंस मुसलमानों और मुस्लिम शासको ने ही दिया, अपने तुच्छ स्वार्थो के लिए ! विस्वाश न हो तो इतिहास पढ़ लीजिये ज्यादा नहीं तो पिछले ६० सालो का ! बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए ?

मुग़ल जफ़र ने कहा था;

उम्र-ए-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन ,
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में !

इसलिए जनाव अभी भी वक्त है, कि हम चाहे हो हिन्दू हो या फिर मुसलमान , धर्म से ऊपर उठकर राष्ट्र हित में सोचे !

सहसपुरिया said...

किसी भी गंभीर मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए पुलिस और सरकार आतंकवाद का शोर मचा देती है. मीडिया मे शोर मचाया जाता है की आतंकी हमला होने वाला है. मगर जब हमला होता है तब इनका गुप्तचर विभाग कहाँ सोया होता है? फिर उसके बाद शुरू होता है बेगुनाहो की गिरफ्तारियो का सिलसिला, और क्रेडिट लेने की होड़ मचती है उस चक्कर मैं किसी को भी आतंकवादी बना कर उसको मीडिया के सामने पेश करके वाहवाही लूटते हैं.