Saturday, January 31, 2009

दृश्यावली बदल तो रही है परन्तु.......?


आप परेशान हैं के मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह का दामन थाम लिया.....! आप परेशान हैं के बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के साथ शामिल हो सकती है......! आप चिंतित हैं के क्या कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच सीटों का गठजोड़ होजायेगा.....! आप भयभीत हैं के कहीं अगली सरकार भारतीय जनता पार्टी की तो नहीं होगी......!


आप उस समय भी मानसिक तनाव का शिकार थे, जब न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर होने थे। आप क्यूँ इन सभी बातों को लेकर परेशान हो जाते हैं? बेशक यह के यह सभी हालात आप के परेशान होने का सही कारण हैं। केन्द्र में किस की सरकार बनती है, यह आप के लिए बहुत महत्त्व रखता है, किंतु क्या आप के पास कोई प्लानिंग हैं? कोई कार्ययोजना है? क्या आप ने कभी सोचा है के ऐसा कौन सा तरीका अपनाएँ के केन्द्र में जिस की भी सरकार बने वो आप के अधिकारों का ख्याल रखे, आप की सुरक्षा का ख्याल रखे, आप की बस्तियों को वो सभी सहूलतें प्राप्त हों, जिन की आप आशा करते हैं, बच्चों के लिए शिक्षा का सटीक प्रबंध हो और वो उच्चय शिक्षा प्राप्त करके समाज में एक अच्छा पद प्राप्त कर सकें। वो आई ऐ एस बनें, आई पी एस बनें, डॉक्टर, इंजिनियर और वकील बन कर देश और कौम की सेवा करें।

आप के जो भी प्रतिनिधि चुन कर संसद या असम्बली में जाएँ, वो सब आप के उच्चय भविष्य के लिए आवाज़ उठाएं। आप के लिए भी उन्नति के उतनी ही संभावनाएं हो जितनी के अन्य देशवासियों के लिए। जातिवाद या आतंकवाद के सम्बन्ध से जब जब आवाज़ उठे तो उस की स्पष्टीकरण के लिए केवल आप ही को क्यूँ चिंतित होना पड़े, ऐसा क्यूँ लगे के अगर आप सड़कों पर उतर कर यह एलान नहीं करेंगे के आप आतंकवाद के विरुद्ध हैं तो लोग आप को शक्की नज़र से देखेंगे, आप का जीना कठिन हो जायेगा और लोग आप को आतंकवाद या जातिवाद का समर्थक समझ बैठेंगे।


स्वतंत्रता के बाद अर्थात १९५२ के पहले संसद चुनाव से लेकर अप्रैल - मई २००९ में होने वाले संसद चुनाव तक क्या कभी आप स्वयं अपने चुनावी एजेंडे के साथ मैदान में उतरे हैं। चलिए मान लिया के आरम्भ के दो चार चुनाव में आप भय या हीन भावना से ग्रहस्त थे क्यूंकि बटवारे का सब से अधिक नुकसान आप ही को हुआ था, आप का शिक्षित और अमीर समुदाय पाकिस्तान चला गया था और स्वतंत्रता के तुंरत बाद होने वाले जाती वादी दंगों और बहुमत संप्रदाय की ओर से बटवारे के लिए लगने वाले आरोपों ने आप को तोड़ कर रख दिया था, आप का नेतृत्व दुर्बल हो गया था, आप के पास मौलाना अबुलकलाम आजाद के सिवा कोई ऐसा चेहरा नहीं था, जो आप के अधिकार के लिए आवाज़ उठा सके और मौलाना आजाद जो भी जितनी भी आवाज़ उठा पाते थे, सरदार पटेल की उपस्थिति में उसे कोई विशेष महत्त्व नहीं मिल पाता था। पंडित जवाहर लाल नेहरू सेकुलर मानसिकता रखते थे, किंतु सरदार पटेल को विवश करने की स्थिति में वो भी नहीं थे। यहाँ तक के महात्मा गांधी जो स्वच्छ शब्दों में अल्पसंख्यकों की हिमायत करते, मौलाना आजाद से भी आगे बढ़ कर मुसलमानों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते थे, वो भी सरदार पटेल के गृह मंत्री रहते हुए मुसलामानों को पूरा न्याय दिला पाने में सफल नहीं हो पाये यहाँ तक के उस संघर्ष में उन्हें अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ी।


आप के सामने सुरक्षा का जो प्रशन बटवारे के तुंरत बाद था, वही प्रशन आज भी स्थित है, परन्तु उस समय इस प्रशन का कारण था देश का बटवारा। वैसे इस बटवारे के लिए न तो देश का हिंदू जिम्मेदार था और न ही मुस्लमान, बलके उस समय की राजनीती जिम्मेदार थी, जिस प्रकार आज भी आतंकवाद के लिए न तो देश का हिंदू जिम्मेदार है और न देश का मुस्लमान, बलके इस देश की राजनीती जिम्मेदार है। राजनीती अगर चाहे तो मालेगाँव बम धमाकों के सम्बन्ध से हिंदू आतंकवादियों के चेहरे सामने आजाते हैं और राजनीती अगर चाहे तो दिल्ली, अहमदाबाद, मुंबई बम धमाकों के सम्बन्ध से मुस्लिम आतंकवादियों के चेहरे सामने आजाते हैं। सत्य क्या है, झूठ क्या है, यह समझना बहुत कठिन होता है। हिंदू और मुस्लमान घृणा का शिकार हो जाते हैं, राजनीती अपने उद्देश्य में सफल रहती है। वो सब जानते हैं के बारी बारी से राज उन्हें ही करना है, अगर वो अकेले राज करने के दावेदार नहीं बन पाते तो तय कर लेते हैं के कौन किस के साथ मिल कर सरकार बनाने का दावेदार बन सकता है, बस येही नींव होती है राजनैतिक रिश्तों के तय होने की।


आप के वोटों की मात्रा इतनी है के राजनैतिक एतबार से आप बहुत साधन संपन्न हैं, बलके सरकार बनाने और बिगाड़ने में एक महत्त्वपूर्ण रोल निभा सकते हैं और करते भी रहे हैं, परन्तु आप की कोई राजनैतिक हैसियत नहीं है। बात कड़वी है, परन्तु सत्य यह है क्यूंकि आप की कोई प्लानिंग नहीं है, आप का कोई तय किया गया एजेंडा नहीं है। न आप कभी किसी के साथ किसी प्लानिंग के तहत कुछ शर्तों के साथ जाते हैं और न ही किसी प्लानिंग के तहत अलग होते हैं। बस एक बात जो आप के साथ जुड़ गई है वो यह के आप भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध वोट देते हैं, इस लिए जो जहाँ भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध आप को आकर्षित करने के लिए आवाज़ उठाये, आप वहां उसी के साथ होलेंगे। राजनेता यही सोचते रहे हैं और वो ग़लत नहीं सोचते रहे हैं, क्यूंकि ऐसा ही होता रहा है। सब जानते हैं, इस का परिणाम क्या हुआ? भारतीय जनता पार्टी तो सचमुच आपकी शत्रु बन गई, किंतु आपका मित्र कौन बना और उस से भी अधिक अफ़सोस की बात तो यह है के अब न कोई आप की मित्रता को महत्त्व देता है और न किसी को आपकी शत्रुता की चिंता है। आप इतने टुकडों में बंट गए हैं के आप अपनी राजनैतिक हैसियत ही खो बैठे हैं। जहाँ एक सत्य यह है के आप सब एक होना चाहते हैं, एक राजनैतिक बल बनना चाहते हैं, वहीँ एक सत्य यह भी है के आप के प्रतिनिधि , चाहे वो राजनैतिक हों, समाजी या धर्मी आपस में एक नहीं होना चाहते, कम से कम अब तक का अनुभव तो यही है। खुदा करे के अब इस में कोई बदलाव आजाये। आ भी सकता है, अगर अब आप यह निशचय कर लें के आप को हर हाल में एक होना है और जो इस एकता में रुकावट बन रहे हैं या बन सकते हैं, उन से इस प्रकार दूर रहना है के उन से उन का साया भी साथ छोड़ दे।


समाज वादी पार्टी के साथ कल्यान सिंह खड़े होगये हैं। मुलायम सिंह यादव को और कल्यान सिंह को अपने वोट बैंक पर विशवास है। उन्हें लगता है के उन के साथ चलने से उन दोनों का वोट बैंक प्रभावित नहीं होगा। आप प्रभावित हो सकते हैं, परन्तु आप प्रभावित हो कर भी क्या कर लेंगे? जो कुछ लोग आवाज़ उठाएंगे, उन को लाइन पर ले जाने के लिए इतनी अधिक और इतनी बलवान आवाजें उठेंगी और उन आवाजों में इतना सही कारण होगा के आप अचंभित रह जायेंगे। अगर इन सब से नाराज़ न भी हुए तो आप तन्शय का शिकार तो हो ही जायेंगे के खुदा जाने सही कौन है और ग़लत कौन। बस उन के लिए उतना ही पर्याप्त है, जैसे ही आपकी मानसिकता बंटी, आपका वोट बंटा और उन सब का उद्देश्य हल हो गया. आप यह प्रशन करेंगे के मुलायम सिंह के साथ कल्याण सिंह क्यूँ? कल्याण सिंह तो मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हैं तो उत्तर होगा के कांग्रेस कौन सी दूध की धूलि है, उस के पहलु में भी तो ऐसे कुछ चेहरे हैं, हो सकता है के उन्हें आप कल्याण सिंह की तरह बेदाग़ भी तो करार नहीं दे सकते. हो सकता है के कल बी जे पी की or से भी यह आवाज़ उठने लगे के कल्यान जो मस्जिद की शहादत के लिए सीधे जिम्मेदार थे, वो तो अब हमारे साथ नहीं हैं, इसलिए मुस्लमान अब हमारे नज़दीक आ सकते हैं, अधिक मात्रा में न सही, परन्तु कुछ लोग भी इस प्रोपेगंडे से प्रभावित नहीं होंगे, ऐसा आप नहीं कह सकते। क्या आप को नहीं पता के अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ की सीट से जीतने के लिए मुसलमानों का भी अच्छा खासा वोट प्राप्त करते रहे हैं। आप को लग रहा होगा के यह लेख भी आप को भ्रमित (confuse) कर रहा है, इस में किसी प्लानिंग का इशारा तो है नहीं, बलके इस से कुछ और उलझनें बढ़ रही हैं। हाँ, यह भी सही है क्यूंकि मानसिकता की पोरी जागृकता के लिए पहले उन्हें झिनझोड़ना आवयशक है। कोई भी प्लानिंग तैयार करने से पहले ऐसे सभी पहलुओं पर गौर करना आवयशक है, जो हमारे सामने हो सकते हैं, जिन बातों के द्वारा भड़काया जा सकता है। अगर उन्हें पहले ही अलग कर दिया जाए, उन पर बात ही न की जाए तो फिर चालाक राजनेताओं के लिए यह सरल हो जायेगा के वो आप में फूट पैदा करदें। अलग अलग कारणों के आधार पर आप के वोट का बटवारा करदें। कोई भारतीय जनता पार्टी का भय दिखा कर आप के वोट का दावेदार बन जाए, कोई कल्यान सिंह का चेहरा दिखा कर आप के वोट को प्रभावित करने में सफल हो जाए, कोई सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर आप में से किसी को उमीदवार बना कर आपके वोट का अधिकारी बन जाए और अन्तिम स्थिति आपके सामने यह हो के अब क्या करें? मजबूरी है, कहीं तो जाना ही है, सभी तो एक जैसे हैं। चलो इस बार उस को भी आजमा कर देख लेते हैं। क्या आपने कभी किसी डॉक्टर को ऐसी आज़माइश का अवसर दिया है के आप का बच्चा जीवन और मृत्यु के बीच साँसे ले रहा हो और आप कह दें के चलो इस बार इस डॉक्टर को आजमा कर देख लेते हैं। आज आप की कौम ऐसे ही हालात की शिकार है। अपनी सुरक्षा के लिए वो अन्तिम साँसे ले रही है। अगर आप गंभीर न हुए, आप ने होशमंदी से काम न लिया तो हमारा वजूद तो कायम रहेगा, परन्तु किसी भी प्रकार की सुरक्षा की बात भूल जाइए.....न राजनैतिक सुरक्षा........न समाजी सुरक्षा........न शिक्षण सुरक्षा........न आर्थिक सुरक्षा........और न धार्मिक सुरक्षा.......... । हाँ आज यह बात अनोखी लगेगी, परन्तु मैंने गाँव वाटोली, आदिलाबाद, आन्ध्र प्रदेश का वो उजड़ा हुआ घर जहाँ पहुँच कर स्वयं अपनी आंखों से देखा है। उस सैनिक जवान अनवर से एकांक में भेंट की है। उस की पीड़ा को समझा है, जिस के परिवार के सभी ६ व्यक्ति जिंदा जला दिए गए, उस ने जिस प्रकार चुपके से कांपती हुई ज़बान से अपने परिवार की आपबीती सुनाई, उस से यह अनुमान लगना बिल्कुल कठिन नहीं था के हमारी आज की यह लापरवाही आने वाले कल में धार्मिक सुरक्षा का प्रशन भी हमारे सामने खड़ा कर सकती है।


अगर इस निरंतरता का यह अन्तिम लेख होता तो मैं वो सब कुछ भी इसी समय आप के सामने रखता देता, जिस की प्रस्तावना के लिए मैंने यह कुछ लाइन लिखी हैं, परन्तु पहले मैं यह समझना चाहता हूँ के क्या वो समय आगया है के हम एक कार्ययोजना तैयार कर के आगे बढ़ सकें। क्या हम मानसिक रूप से कोई राजनैतिक निशचय लेने के लिए तैयार हैं। क्या हम में एकता आगई है, या आरही है। क्या हम पहले की तरह राजनेताओं और उन के द्वारा ड्यूटी पर लगाये जाने वालों की गुमराही का शिकार न होने का निर्णय ले चुके हैं। अगर हाँ तो वो बात की जा सकती है।


इस में कोई संदेह नहीं के पहले से बहुत बदलाव आया है। अब हम हर धमाके के बाद चिंतित तो होते हैं, विकल्प भी करते हैं और अल्लाह से दुआ भी मांगते हैं के वो कब हमारे देश को आतंकवाद के रोग से मुक्त कर सकते हैं, परन्तु अब इस प्रकार भयभीत नहीं होते के अभी कोई हमारे दरवाज़े पर दस्तक देगा और हमारे जवान बेटे को उठा कर लेजायेगा, फिर उसे आतंकवादी करार देकर लोहे की सलाखों के पीछे भेज दिया जायेगा और हम हज़ार निर्दोष होने के सबूत दे कर भी उन अपराधों का दंड भुगतने को विवश होंगे जो हम ने नहीं किए। एनकाउंटर आज भी हो रहे हैं, परन्तु अब उन पर प्रशन भी उठ रहे हैं और संतोषमय बात यह है के यह प्रशन समाज के सभी जिम्मेदार लोगों की ओर से उठाये जा रहे हैं। निशचित रूप से इस से अच्छा माहौल बनेगा। आतंकवाद का कारोबार फलफूल नहीं पायेगा और हमारे राजनेता वोटों के लिए किसी और मुद्दे की खोज में जुट जायेंगे।


माहौल में एक बदलाव यह भी आया है के राजनैतिक जागृकता पहले से कहीं अधिक दिखायी देती है। अब हम अपने राजनैतिक निर्णयों के अच्छे परिणामों पर गौर करने लगे हैं। ताज़ी राजनैतिक दृश्यावली इसी बदलाव का सबूत है। कल्यान सिंह पहले भी समाजवादी पार्टी के साथ आए थे परन्तु ऐसा हंगामा नहीं हुआ था। असम्बली के स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी के सहारे दरपर्दा भारतीय जनता पार्टी से तालमेल का आरोप पहले भी लगा था, परन्तु ऐसा शोर नहीं उठा था। छगन भुजबल, संजय निरुपम कांग्रेस में शामिल हुए और मुसलमानों ने कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। साक्षी महाराज समाजवादी पार्टी में आए और चले गए, किंतु कोई तूफ़ान न उठा। अब लगता है के हालात बदल गए हैं। अब सभी को सोचना होगा। भूत काल की दलीलें अब शायद बहुत कारआमद सिद्ध न हों। अब कोई नरेंद्र मोदी का हाथ थाम कर शायद यह न कह सके के अगर कल्यान सिंह स्वीकार्य हो सकते हैं तो नरेंद्र मोदी क्यूँ नहीं।


राजनैतिक माहौल में आया बदलाव बेशक एक संतोषजनक संदेस है, परन्तु अभी मंजिल बहुत दूर है। या तो जो कुछ जैसा चल रहा है, उसे चलने दीजिये, उसी को अपना मुकद्दर मान लीजिये। यह एक निराश सोच है। अगर मज़बूत सोच नहीं है और ज़हन किसी क्रांति के लिए तैयार नहीं है इस सच को स्वीकारना होगा। ऐसा भी न हो के जिस दामन पर कीचड उछाली, पनाह भी उसी दमन में ली जाए और अगर सचमुच स्वतंत्रता के ६१ वर्ष बाद अब मानसिक स्वतंत्रता के लिए इरादा किया जा चुका है तो फिर पहला काम अपने एकता कायम करने का होगा और जब सब एक होजायें तो फिर जहाँ भी जाएँ एक हो कर जाएँ। जो भी निर्णय लें एक हो कर लें ताके आप का निर्णय जिस के हक में भी हो उसे भी यह अहसास रहे के हाँ सभी कारणों के बावजूद हमें उन का समर्थन प्राप्त हुआ है और आप जो भी कहें हक के साथ कहें ताके जब आप को, आपका अधिकार मिले तो भीक की तरह नहीं, हमदर्दी या एहसान की तरह नहीं, बलके इस तरह जैसे के उस पर यह आवयशक था के वो आप के अधिकार आप को दे। पहला एहसान आप ने किया था उस पर अपना विशवास जता कर, उस ने तो बस विशवास को कायम रख कर अपना कर्तव्य निभाया है।

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