Friday, January 30, 2009


कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच कल्याण सिंह..........?



कांग्रेस इस दुविधा में है के उत्तर परदेश में समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़े या नहीं। इसी कारण से न तो अभी तक समाजवादी पार्टी ने सभी सीटों पर अपने उमीदवारों का एलान किया है और न ही कांग्रेस ने उत्तर परदेश के सम्बन्ध से कोई निर्णय लिया है। कारण है, कल्याण सिंह की समाजवादी पार्टी से नजदीकी।


कांग्रेस देश की सब से पुरानी और बड़ी पार्टी है। अगर कांग्रेस को राजनैतिक समुद्र कहा जाए तो भी कुछ ग़लत नहीं होगा, इस में भारतीय जनता पार्टी से सम्बन्ध रखने वाले शंकर सिंह वाघेला भी हैं और शिव सेना से सम्बन्ध रखने वाले संजय निरुपम भी। यह उदहारण तो वर्त्तमान के हैं, अगर कांग्रेस के भूत काल पर नज़र डाली जाए तो कांग्रेस के अन्दर ही संघ परिवार की प्रतिनिधित्व भी रही है और मुस्लिम लीग ने अपनी जड़ें भी कांग्रेस के प्रोत्साहन से ही जमाई हैं। मोहम्मद अली जिनाह कांग्रेस से अलग थे न सरदार पटेल। मुस्लिम लीग जो हिंदुस्तान में रह गई, वो भी सदा कांग्रेस के साथ ही शामिल रही और संघ परिवार के मन की बात कहने की ज़िम्मेदारी भी कांग्रेस का कोई न कोई लीडर उठाता रहा है, जब तक जीवित रहे सरदार पटेल और उन के बाद मुरारजी देसी और नरसिम्हा राव जैसे लोग, यह ज़िम्मेदारी निभाते रहे। कल्याण सिंह जिस बाबरी मस्जिद विवाद की देन है, इस की शुरुआत की अगर बात करें तो बाबरी मस्जिद का ताला खुलने से लेकर "शीला न्यास" तक के कांग्रेस के मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह और नारायण दत तिवारी रहे हैं, मूर्ती रखे जाने के दौर की बात मैं अभी नहीं कर रहा हूँ। बावजूद इस सब के बाबरी मस्जिद विवाद को अधिक गहराई से हम ने जाना और समझा ६ दिसम्बर १९९२ को अर्थात बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद से। उस समय क्यूंकि राज्य में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और देश के प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव, इस लिए दोनों ही इस ज़िम्मेदारी से बच नहीं सके। नरसिम्हा राव तो अब दुन्या में नहीं हैं, परन्तु जब तक वो भी जीवित रहे, न तो मुस्लमान उन्हें क्षमा कर सके और न ही कांग्रेस पार्टी को। इस लिए आज भी जब कल्याण सिंह की बात आती है तो बाबरी मस्जिद के घावों की याद ताज़ा हो जाती है, जिस के प्रमुख आरोपी वो स्वयं थे। मुलायम सिंह लाख यह कहें के कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद के शहादत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, परन्तु उन के जैसे वज़नदार लीडर की भी यह बात बेवज़न लगती है, अगर वो यह कह देते के कल्याण सिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ है और अब वो अपने पापों का प्राश्चित करने की भावना रखते हैं तो शायद मुस्लमान कुछ क्षणों के लिए इस बात पर इस लिए विश्वास कर लेता के यह वाक्य मुसलामानों के दिलों की धड़कन रहे मुलायम सिंह जी की ज़बान से निकले हैं, जिन्हें कभी वो मौलाना मुलायम सिंह भी कहता रहा है, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा। वो एक गंभीर राजनेता हैं, इन हालात के चलते वो क्या कदम उठा रहे हैं, यह तो वही खूब जानते हैं।


हम आज के अपने इस लेख में किसी भी तरह का कोई इशारा करने का इरादा नहीं रखते। हम सिर्फ़ राजनैतिक दृश्यावली अपने पाठकों के सामने रखना चाहते हैं, सभी उंच नीच से उन्हें आगाह करना चाहते हैं, हम हिन्दुस्तानी राजनीती का भूत काल और वर्त्तमान सामने रख कर भविष्य का अनुमान लगाने के लिए सभी के मस्तिष्क को स्वतंत्र छोड़ना चाहते हैं, सिर्फ़ उन सभी बातों की जानकारी देना हमारा उद्देश्य है, जो या तो उन के मस्तिष्क में सुरक्षित नहीं हैं या फिर उन्हें जिन की जानकारी नहीं है, ताके वो जो भी निर्णय करें, अंधेरे में रह कर न करें, किसी ग़लत फ़हमी का शिकार हो कर न करें, किसी के बहकावे में आकर न करें बलके पूरी तरह सोच विचार कर करें।


समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेट्री और प्रवकता श्री अमर सिंह जी ने कल्याण सिंह के साथ समाजवादी पार्टी के गठजोड़ की बात करते हुए कहा के यह पहला अवसर नहीं है, जब कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हुए हैं, इस से पहले भी वो समाजवादी पार्टी से दोस्ती कर चुके हैं। उन के सुपुत्र राजवीर सिंह, उत्तर परदेश सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे और कल्याण सिंह के नज़दीक समझी जाने वाली कुसुम रोय भी उस राज्य सरकार में मंत्री थीं, जिस में आज़म खान स्वयं भी मंत्री थे, जो आज कल्याण सिंह की परिस्थिति पर नाराजगी जता रहे हैं। बात ठीक है, परन्तु दृश्य कुछ अलग है, जिस समय की बात श्री अमर सिंह ने की, उस समय के दृश्य और आज के दृश्य में फर्क है। उस समय कल्याण सिंह "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" के लीडर हुआ करते थे, जो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अलग हो कर स्थापित की थी। समाजवादी पार्टी अर्थात मुलायम सिंह के राज्य में राजवीर सिंह और कुसुम रोय इसी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे। उस पार्टी ने अर्थात कल्याण सिंह ने समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर इलेक्शन नहीं लड़ा था। समाजवादी पार्टी के विरुद्ध "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" के उमीदवार मैदान में थे, यहाँ तक के कल्याण सिंह और राजवीर के विरुद्ध समाजवादी पार्टी ने अपने उमीदवार खड़े किए थे और यह उमीदवार पार्टी के गंभीर उमीदवार थे, यानी उन की उमीदवारी रस्मी या "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" को लाभ पहुँचाने की नहीं थी। हम अपने इस निरंतर लेख की अगली कड़ियों में ऐसी सभी सीटों की मात्रा + उमीदवारों को मिलने वाले वोटों का विस्तार पाठकों की सेवा में पेश करेंगे, लेकिन आज हम जो बात साफ़ करना चाहते हैं, वो यह के उस चुनाव के दौरान मुसलमानों या सेकुलर लोगों की ओर से कोई तूफ़ान इस लिए नहीं उठा था क्यूंकि चुनाव में मुलायम सिंह और कल्याण सिंह साथ साथ नहीं थे। न एक साथ वोट माँगा.........., न एक साथ एक स्टेज से भाषण दिए........, न एक दूसरे की प्रशंसा ......, न उस समय मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए मासूम और निर्दोष करार दिया........, न श्री अमर सिंह जी को कल्याण सिंह के सम्बन्ध में उस समय उन के बचाव की आस्यशाकता पड़ी। हाँ, बाद में जब समाजवादी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और उसे सरकार बनाने के लिए अधिक विधानसभा सदस्यों की आव्यशकता महसूस हुई, तब दो ही रास्ते थे या तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार उस के सहयोगियों के साथ मिल कर बन्ने दी जाती या फिर समाजवादी पार्टी सरकार बनाने की कोशिश करती। ऐसी सूरत में "राष्ट्रीय क्रांति पार्टी" यानी सदस्यों कल्याण सिंह की पार्टी का शामिल और उस के दो को मंत्रिपद से सम्मानित करने की मजबूरी को समझा जा सकता था। कम से कम ऐसी मजबूरी इस समय दिखाई नहीं दे रही है। यह साथ सहमति का साथ है, वो साथ मजबूरी का साथ था। इसी तरह कल जब साक्षी महाराज समाजवादी पार्टी के साथ आए और ६ वर्ष तक समाजवादी पार्टी की बदौलत राज्य सभा के सदस्य रह कर वापस चले गए तब भी उसे बहुत पसंद नहीं किया गया, परन्तु कोई तूफ़ान भी खड़ा नहीं हुआ।


फिर भी आज के हालात में समाजवादी पार्टी के सवभाव को भी समझना होगा। समाजवादी पार्टी का तो जन्म ही हुआ था समाजवादी विचारधारा अर्थात सोशलिज्म के दृष्टिकोण के साथ, उस दृष्टिकोण की सुरक्षा और बढ़ावे के लिए। जातिवाद बल के विरुद्ध एक राजनैतिक बल बन्ने के लिए, जबके कांग्रेस जिसे हमने राजनैतिक समुद्र का उदहारण दिया है, उस की भूमिका तो सेकुलर रही, परन्तु उस में अलग अलग सवभाव के लोग सदा रहे, इसलिए कांग्रेस का उदहारण देकर समाजवादी पार्टी के नेताओं का बचाव करना इतना वज़नदार नहीं लगता फिर कल्यासिंह, शंकर सिंह वाघेला, संजय निरुपम और छगन भुजबल के बीच अन्तर बहुत साफ़ है। हाँ, अगर कल्याण सिंह की किसी भी दूसरे राजनेता के साथ तुलना की जाती है तो वो नरेंद्र मोदी हैं। इस लिए के पहली गलती कल्याण सिंह के द्वारा हुई, अर्थात जब बाबरी मस्जिद की शहादत और उस के बाद हुआ गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार। हम ने श्री मुलायम सिंह और अमर सिंह का वो दौर अपनी आखों से देखा है, जब वो गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार पर सब से पहले वहां पहुंचे और उन के पहुँचने का मतलब सिर्फ़ घावों पर मरहम रखना या राजनैतिक एतबार से सहानुभूति प्राप्त करना नहीं था, बलके हमने अपनी आंखों से उन की तड़प और पीड़ा को महसूस किया था। उन की यही भावना ओपरेशन बटला हाउस के बाद भी देखने को मिली, जब सब से पहले उन्होंने तटस्त एन्कुएरी की बात की। प्रशनयह पैदा होता है के उन्हें अब क्या हो गया? यहाँ दो बातें गौर करने के लायक हैं, एक तो यह के एक ऐसी राजनैतिक पार्टी को, जिस का जन्म ही समाजवादी सोच के साथ हुआ, जिस का उद्देश्य जातिवाद ताक़तों को हराना था, उसे एक ऐसे व्यक्ति को गले लगाने की आव्यशकता क्यूँ महसूस हुई, उसे यह विचार ही क्यूँ आया के सरकार बनाने के लिए कल्याण सिंह भी आवयशक हैं, इस बात पर भी गौर करना होगा। दूसरे अगर समाजवादी पार्टी के लीडर आज अपनी पार्टी के मुस्लिम प्रतिनिधियों को इतना महत्त्व नहीं दे रहे हैं, जितनी के कल्याण सिंह के शामिल होने को, तो उस का कारण क्या है? क्या उन की पार्टी के यह मुस्लिम प्रतिनिधि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जिस प्रकार कल्याण सिंह के साथ रहने से उन्हें उन की बिरादरी के वोट मिल जाने का विशवास है, उन मुस्लिम प्रतिनिधियों के साथ रहने से मुस्लिम वोटों के मिल जाने का विशवास नहीं है या फिर उन का मुस्लिम वोटों पर विशवास इतना अधिक है के यह सब भी उन का दामन छोड़ कर चले जाएँ, तब भी उन्हें मुसलमानों का वोट मिलेगा ही या फिर मुस्लिम वोट उन के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है। जिस की परवाह करना अब वो आवयशक नहीं समझते।


हम यह सभी प्रशन इस लिए उठा रहे हैं और सभी दृश्यावली इस लिए सामने रख रहे हैं के अगर राजनैतिक लाचारी ही हमारा भाग्य है तो बेशक इसी पर चलते रहे, परन्तु सारा सत्य जान लें और अगर हम अपने भविष्य के लिए कोई प्लानिंग करना चाहते हैं तो पूर्ण राजनैतिक दृश्यावली स्वतंत्रता के बाद से वर्त्तमान तक हमारी आंखों के सामने है।



हम ने बात शुरू की थी, कांग्रेस के तंशय से और बात छेड़ दी समाजवादी पार्टी के साथ कल्याण सिंह की नजदीकी की। कारण यह था के कांग्रेस की दुविधा का कारण यही तो है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठजोड़ मुसलमानों की पहली पसंद होना चाहिए, इस लिए के मौजूदा हालात में जब जातिवाद और आतंकवाद का बोल बाला चारों ओर दिखाई दे रहा हो, तब एक ईमानदार, जिम्मेदार और सेकुलर सरकार सिर्फ़ मुसलमानों की ही नहीं, देश की सब से बड़ी आव्यशकता है, परन्तु उसी क्षण इस आव्यशकता को महसूस करने के बावजूद इस बात पर गौर करना होगा के ऐसे सभी तत्व जिन के कारण किसी भी पार्टी को जाती वादी करार दिया जाता है या जिन के चेहरे देश दुश्मन, मुस्लिम दुश्मन, जम्हूरियत दुश्मन दिखाई देते हैं, वो सेकुलर पार्टियों के साथ खड़े नज़र आने लगें तो फिर जो दुविधा कांग्रेस को अपने खेमे में दिखाई दे रही है, लग भग वही दुविधा पूरे हिंदुस्तान की मुस्लिम जनता में भी देखने को मिलेगी।



काग्रेस की लीडर श्रीमती सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी प्राकृतिक रूप से सेकुलर हैं, अभी तक उन का कोई कार्य ऐसा नहीं दिखाई देता, जिस के कारण उन्हें सेकुलर मानने में कोई कठिनाई हो, मुलायम सिंह और अमर सिंह के मामले में और कुछ भी कहा जाए परन्तु उन के सेकुलरिज्म पर प्रशन नहीं उठाया जा सकता। यहाँ तक तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ (कल्याण सिंह की नजदीकी से पहले तक) खड़े होने को देश के सेकुलरिज्म को मज़बूत होने के सिवा कुछ कहा ही नहीं जा सकता, परन्तु कांग्रेस सरकार के कार्य ने बार बार अवश्य यह सोचने पर विवश किया के कब वो मुसलमानों की हमदर्द है और कब उस के दिल से हमदर्दी निकल जाती है। जब दिल्ली धमाकों के बाद एक सप्ताह के अन्दर ही रमजान के महीने में जुम्मा के दिन एनकाउंटर के नाम पर दो मुस्लिम नौजवानों की हत्या कर दी जाती है, तब यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है के क्या सच मुच यह सरकार मुसलमानों की हमदर्द है? हम ने आज यह बात इस लिए लिखी के एनकाउंटर के नाम पर दो मुस्लिम नौजवानों की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह स्वयं जुडिशियल एन्कुएरी की बात कह कर एनकाउंटर पर पर्श्न्चिंंह लगा चुके हैं, अमर सिंह का हवाला हमने इस में पहले ही दिया है। आशचर्य की बात यह है के जब यह एनकाउंटर ही अभी संदिग्ध है तो फिर यह सरकार उस एनकाउंटर में शामिल रहे इंसपेक्टर मोहन चन शर्मा को अशोक चक्र देने का निर्णय कैसे ले सकती है जबके उन के पिछले अंसल प्लाजा एनकाउंटर को भी फर्जी करार दिया जा रहा होऔर उस के चश्म दीद गवाह बार बार यह साबित करने की कोशिश कर रहे हों के यह एनकाउंटर नहीं था, मुडभेड़ फर्जी थी, कार से निकाल कर दो नौजवानों को गोली मारी गई थी। उस समय कुछ संतोष होता है, जब महाराष्ट्र ऐ टी एस शहीद वतन हेमंत करकरे के नेतृत्व में आतंकवाद का एक दूसरा चेहरा भी सामने रखती है, परन्तु मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद फिर एक बार ज़हनों में यह प्रशन कोंदने लगता है के नरीमन हाउस की गतिविधियाँ और जिन हालात में हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालसकर शहीद हुए, वो सब सत्य सामने लाने में सरकार की रूचि क्यूँ नहीं है?



फिर भी कांग्रेस प्रमुख के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जिस प्रकार देश को एक सेकुलर सरकार देने की कोशिशों में व्यस्त दिखायी पड़ते हैं और निरंतर प्रय्तनशील हैं के सेकुलर पार्टियाँ एक प्लेट फॉर्म पर रहे, उसे देख कर लगता है के अभी ऐसे लोग जो देश को जातिवाद का शिकार नहीं होने देना चाहते, चिंतित हैं और सरगर्म हैं, परन्तु यह कल्याण फैक्टर कहीं न कहीं कांग्रेस की उन ५ बड़ी व्यक्तित्वों को एक राय नहीं होने दे रहा है। पाँच में हम ने श्रीमती सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को भी शामिल कर लिया है, शायद इस लिए के अभी तक समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ का निर्णय अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुँचा है।



फिर जमीनी वास्तविकता पर कुछ वाक्य सामने रखना आवयशक हैं। कल्याण सिंह जी का यह कहना के वो भारतीय जनता पार्टी को बरबाद करदेंगे, अर्थहीन है, इसलिए के ऐसा ही दावा एक बार करके वो फिर भारतीय जनता पार्टी में वापस लौट चुके हैं। उन्हें अपनी सीट जीतने के लिए भी किसी की सहायता की आव्यशकता पेश आई थीबुलंद शहर से वो सभी सबूत आज भी सामने रखे जा सकत हैं जबके यह चुनाव उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा था और बदरुल हसन जीतते जीतते हार गए थे। ऐसे ही खोखले दावे मध्य प्रदेश की मुख्य मंत्री रही उमा भरती भी करती रही हैं, परिणाम सब के सामने है और साक्षी महारह की तो बात ही क्या, तीनों का सम्बन्ध एक ही बिरादरी से है। हिंदुस्तान में तो क्या, क्षेत्रों में भी यह लोग भारतीय जनता पार्टी को हराने या ख़ुद जीतने की पोजीशन में नहीं हैं।


अब रहा प्रशन कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ लाभ या हानि का तो आज कांग्रेस की उत्तरपर्देश की पार्लिमेंट में ९ सीटें हैं, इस की पोजीशन में पहले से कुछ बढोतरी आई है. यह बढोतरी उस समय बहुत अधिक हो सकती है जब कल्याण फैक्टर का प्रभाव उन पर न पड़े। अगर कांग्रेस का ख़राब से ख़राब चित्र भी जाहें में रखा जाए तो भी कांग्रेस को १२-१० सीटें जीत लेना चाहिए कल्याण फैक्टर का प्रभाव न हो तो यह मात्रा दुगनी या उस से भी अधिक हो सकती है। समाजवादी पार्टी के साथ अगर नई सरकार बनाने का अवसर मिलता है तो उस की सहायता का पूरा विशवास होगा।......, हाँ यह अलग बात है के इस कल्याण फैक्टर के कारण अन्य राज्यों में सेकुलर समझी जाने वाली स्थानीय पार्टियों को मुसलमानों का वोट कल्याण और कांग्रेस के साथ होने की सूरत में अधिक मिल सकता है, वरना कांग्रेस वहां भी राज्य पार्टियों के मुकाबले अधिक मज़बूत हो सकती है। उत्तर परदेश में अगर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ के बाद मौजूदा सीटों की मात्रा दुगनी भी हो जाए तो अधिक से अधिक १८ सीटें उस के हिस्से में आसकती हैं, जबके इस से अधिक सीटें मुसलमानों की नाराजगी के चलते उसे बाकी हिन्दुस्तानमें खोनी पड़ सकती हैं।

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