Monday, November 24, 2008

सोचें अगर इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या की साजिश सफल हो जाती तो

मुसलामानों का किस क़दर कत्ले आम होता।

श्रीमान अडवाणी जी! यह दर्दनाक कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। बहुत कुछ लिखना बाक़ी है किंतु हम चाहते हैं की पिछले दिनों की दर्दनाक यादों की बातें भी चलती रहे और कुछ मौजूदा रहस्योद्घाटन की बात भी करते चलें। आपके प्रिय साधवी, प्रोहित, महंत पाण्डेय आदि मिशन हिंदू राष्ट्र के हेतु आपके साथियों श्री इन्द्रेश और श्री मोहन राव भागवत की बलि लेना चाहते थे। हम जानते हैं की महान कार्यों हेतु बड़े बलिदान की अव्याशकता तो होती ही है। किंतु क्या इन के बलिदान का कारण यही है के वह इस दिशा में अपने कार्यों को सही ढंग से पूर्ण नहीं कर पारहे थे अथवा इस के पीछे कोई बड़ा एजेंडा भी था.....

क्या मुस्लिम दुश्मनी का एजेंडा????

छोटे मोटे राजनितिक उद्देश्यों की प्राप्ति तो छोटे मोटे लोगों के बलिदान से ही प्राप्त हो जाती है। जैसे दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद धमाकों के बाद आतिफ व साजिद की बलि और मुफ्ती अबुल बशर एवं शाहबाज़ इत्यादि की गिरफ्तारी.....

शब्द राजनितिक उद्देश्यों और बलि पर नाराज़ न हों, ऐ टी एस की गतिविधियों को राजनीती से जोड़ने का कारनामा तो आप स्वयं ही अंजाम दे चुके हैं। अब वह राजनितिक उद्देश्य कांग्रेस के हों या आपकी पार्टी के। हाँ "शब्द" बलि हम ने आतिफ और साजिद के साथ इस लिए जोड़ा की अब तो खुले आम केन्द्र में सत्ता सीन पार्टी की सहयोगी समाजवादी पार्टी के नेता एनकाउंटर बटला हाउस को फर्जी बता रहे हैं( इस विषय पर बात चीत आगामी किस्तों में) और हमारे विश्लेषण के अनुसार शायद वह सही ही कह रहे हैं।

चलिए वापस लौटते हैं श्री इन्द्रेश और श्री मोहन राव भागवत की हत्या के षड़यंत्र पर। अभी हमें इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना लेकिन जो कुछ इस षड़यंत्र के सारोजनिक होने पर हम कहना चाहते हैं तो इस के उद्देश्य को आप भली भाँती समझ सकते हैं और निश्चय ही हमारे पाठक और भारत के अन्य नागरिक भी। 1984 में हजारों सिखों का नरसंहार तो आपको याद ही होगा और इस के कारण को भी आप भूले नहीं होंगे अर्थार्त इंदिरा गाँधी की हत्या और इस के उपरांत यह व्यक्तव्य की "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है" और ऐसा ही एक अन्य वाक्य कह कर आप के चहीते मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने हजारों निर्दोष मुसलामानों के नरसंहार का रास्ता साफ़ किया था एवं इस का तर्क प्रस्तुत किया था। इन दोनों एतिहासिक मामलों के प्रकाश में अगर हम इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या के षड़यंत्र पर सोचते हैं तो यह सोच कर दिल काँप उठता है की अगर इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या हो गई होती तो संघ परिवार इन हत्याओं का आरोप मुसलामानों पर थोपने में ज़रा भी देर नहीं करता और बहुत सम्भव हैं की पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां भी अपनी आदत के अनुसार मुसलामानों को ही शक के दाएरे में लेतीं और प्रणाम स्वरुप देश गृहयुद्ध का शिकार हो जाता। आपकी भगवा ब्रिगेड मुसलामानों के नरसंहार में लग जाती, पुलिस मूक दर्शक बनी रहती, सरकार अवाक रह जाती, वह कुछ सोचने समझने एवं कर पाने की स्थिति में नहीं होती और अगर यह चूनाव से कुछ समय पूर्व होता तो अर्थार्त अगर यह षड़यंत्र चूनाव के माहौल में रचा जाता तो समर्थन वोट आपकी पार्टी के नाम हो जाता और इस प्रकार "प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग " की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती। बहर हाल अब तो यह सम्भव नहीं है रहस्य खुल ही गया हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के समर्थन में उतर आना आपकी मजबूरी हो या व्यक्तिगत लगाव किंतु हम भारत के एक राजनितिक नेता को इतने बड़े दिल का तो मानते ही हैं की वह जनता के हर व्यक्ति के दर्द को एक ही प्रकार से महसूस करेगा। इस लिए हमने कल की दर्दनाक कहानी को जहाँ छोड़ा था, आज फिर उसी से आरम्भ करते हैं।

* पुरूष व महिलाओं की जननांगों पर दर्दनाक तरीके से चोट लगायी जाती।

* आरोपियों के खाने में पेशाब और गन्दगी शामिल की जाती और उन के मुहँ में थूका जाता और थूकने के लिए विशेष बर्तन भी प्रयोग किए जाते। पुलिस इन सारे उत्पीड़नों से आनंद उठाती रहती।

* उत्पीडन देने वाले पुलिस वाले महिलाओं को वैश्यावृत्ति अपनाने के दबाव डालते, बारहा बार बिजली के झटके दिए जाते और पुलिस विशेष कर जननांगों पर बिजली के झटके देती।

* एक ही परिवार से सम्बन्ध रखने वाले आरोपियों को छरियाँ और बेल्ट दे कर मारने का आदेश दिया जाता।

* जब कभी महिलाएं नंगे पुरुषों को देखने से बचने के लिए अपनी आंखों पर हाथ रख लेतीं तो उन के हाथों पर ज़ोर ज़ोर से मारा जाता। उन के बाल निर्दयता से घसीटे जाते और उन्हें पुरुषों की जननांगों को घंटों देखने पर विवश किया जाता।

* छोटे बच्चों और दूध पीते बच्चों को क़ैद में डाल दिया जाता। उन पर अत्याचार और यौन हिंसा की जाती।

अत्याचार हिंदू कैदियों पर पहले भी हुआ पर खामोश रहे।

केवल मुसलमानों पर ही नहीं गैर मुस्लिमों पर भी इस से पहले अत्याचार हुए परन्तु श्री अडवानी खामोश रहे, प्रज्ञा की तरह इशु नहीं बनाया, इस का एक उदहारण निम्नलिखित है:

बांद्रा में अशोक रेस्तौरांत के मालिक राज कुमार खुर्राना समेत कई व्यक्तियों ने आत्म हत्या कर ली। पुलिस खुर्राना से कुछ सूचनाएँ प्राप्त करना चाहती थी और उन्हें बताया गया की हिरासत में लिए गए महिलाओं व पुरुषों के साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है । खुर्राना बहुत भयभीत हो गया। वह अपने घर गया, अपनी पत्नी और बच्चों को गोली से उड़ा कर स्वयं भी हत्या कर ली।

" वाइसिस" में इन घटनाओं का उल्लेख किया गया हैं:

आरोपियों ने न्यायालय में कई शपथ पत्र प्रस्तुत किए जिन में उन्होंने कहा की वह देश के सम्मानित नागरिक हैं एवं उन्हें ग़लत ढंग से फंसाया गया हैं। टाडा न्यायाधीश ने इन शपथ पत्रों को रद्द कर दिया एवं उन्होंने भारत के इतिहास में सब से भयानक ढंग से प्रताडित करने वाले एक पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही करने से भी इनकार कर दिया।

सलीम दुर्रानी का मामला

सलीम खान दुर्रानी के सम्बन्ध में कुछ अन्य तथ्य प्रकाश में आए हैं।

सलीम खान दुर्रनि इंदौर डिग्री कॉलेज का प्रथम दर्जे का छात्र, श्रेष्ठ खिलाडी, देश भक्त ( इन के दो बड़े भाई भारतीय सेना में अपनी सेवायें प्रदान कर चुके हैं) था। सालिम खान दुर्रानी को कई बार आई पी एस अधिकारी एम् एन सिंह ने पीटा, उन्हें एक हास्यास्पद मामले में फंसाया गया। कोई भी सेशन कोर्ट इस केस को खारिज कर देती, किंतु उन्हें कारागार में खुले आम प्रताडित किया गया। उसे न्यायिक हिरासत की अवधि में रात्री में गेट वे ऑफ़ इंडिया के सामने रेलिंग से बाँध दिया जाता ताकि मोटर कारें उसे कुचल दें।

मुंबई की Crime ब्रांच टीम उसे जयपुर और टोंक ले गयीं। पुलिस वाले उन के परिवार वालों से पैसा लेते और फिर इन की माता जी के पास जा कर कहते की अगर उन्होंने और अधिक धन नहीं दिया तो उन की पुत्री का बलात्कार किया जाएगा।

मुसलमानों को प्रताडित करने के लिए मूसाद के एजेंट दुर्रानी से जुर्म कुबूल करवाने के लिए बहुत भयानक ढंग (फोर्थ डिग्री) का प्रयोग किया गया. दुर्रानी पर जो अत्याचार किया गया उस का तरीका सिर्फ़ इस्राइल की एजेन्सी मूसाद को ही मालूम है। उन्हें पैर की उँगलियों में डोर बाँध कर घसीटा जाता, जिस कारण एक नस खिंच जाती और कुछ सेकंड के लिए दिल की धड़कन बंद हो जाती। इस प्रकार से प्रताडित करने का तरीका सिर्फ़ सी आई ऐ और मूसाद को ही पता है। यह तरीका अमेरिका ने क्यूबा में स्थित खाड़ी गुंतानामो में एवं इराक के अबुगारिब कारागार में प्रयोग किया था।

सब से अधिक आश्चर्य की बात यह है की सलीम दुर्रानी को एक इस्राइली नागरिक ने कष्ट दिया। मुंबई की एक Crimes ब्रांच की प्रताड़ना सील में एक इस्राइली नागरिक क्या कर रहा था? क्या भारत सरकार मुसलमानों को प्रताडित करने हेतु असंवेधानिक रूप से मूसाद के एजेंटों का प्रयोग कर रही thi?

सलीम दुर्रानी इस मामले की गवाही देने के लिए तैयार थे किंतु कोई भी इन की सुनने वाला नहीं था।

टाडा न्यायाधीश का खुला पक्षपात इस घटना से पता चलता हैं की टाडा न्यायधीश केस के सभी मामलों में पक्षपात पूर्ण कार्यवाही कर रहा था। शपथ पत्रों पर विचार न कर के भारतीय संविधान का उलंघन कर रहा था। चूंकि यह शपथ पत्र आरोपियों की सुरक्षा से सम्बंधित थे।

टाडा १९९७ में रद्द कर दिया गया किंतु उस से पूर्व जो केस दर्ज किए गए थे उन को रद्द नहीं किया गया। सब से अधिक पक्षपातपूर्ण कार्यवाही का मामला २००५ में सामने आया " Black Friday The True Story Mumbai " प्रदर्शन के लिए प्रस्तुत की जानी थी। यह फ़िल्म झामू सुगंध ने दैनिक सन्डे मिड डे के सहयोग से बनाई थी। एस हुसैन जैदी ने इस नाम की एक पुस्तक लिखी थी जिसे २००२ में पेंगुइन कंपनी ने प्रकाशित किया था। आरोपियों को अहसास था की निर्णय से पूर्व इस फ़िल्म के प्रदर्शन से न्याय प्राप्त करने में अड़चन होगी। चूंकि इस फ़िल्म में आरोपियों को दोषी ठहराया गया था और नाम और स्थान का नाम बदले बिना ही इस फ़िल्म के प्रदर्शन का अर्थ न्यायलय के निर्णय से पूर्व निर्णय देने जैसा था एवं जनता को आरोपियों के विरुद्ध बहकाना एवं न्यायलय पर असंवैधानिक दबाव डालने जैसा था। टाडा न्यायलय के न्यायाधीश प्रमोद कोडे ने इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाने की आरोपियों की मांग को रद्द कर दिया। आरोपियों के अधिवक्ता मजीद मेमन और टाडा न्यायाधीश इस सहमति पर पहुंचे की फ़िल्म को प्रदर्शन की अनुमति उसी समय दी जायेगी जब True Story के शब्द फ़िल्म के नाम से हटा दिए जाएँ।

आरोपियों ने इस निर्णय पर असंतोष प्रकट किया और समझा की अधिवक्ता भी इस षड़यंत्र में सम्मिलित हो गए हैं। इस कारण उन्होंने मुंबई हाई कोर्ट से संपर्क किया। हाई कोर्ट ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कई बार सुनवाई के बाद मुंबई हाई कोर्ट ने ३१ मार्च २००५ को निर्णय सुनाया की इस फ़िल्म के प्रदर्शन से आरोपी न्याय प्राप्त करने से वंचित हो सकते हैं। इस लिए न्यायलय का फ़ैसला आने तक इस फ़िल्म का प्रदर्शन न किया जाए। अब सबसे आश्चर्य जनक बात सामने आती है, जिस पुस्तक पर इस फ़िल्म की कहानी आधारित थी उस के पृष्ठ नम्बर ११ पर लेखक जैदी लिखते हैं की "मैं टाडा न्यायलय के न्यायाधीश प्रमोद कोड को विशेष रूप से धन्यवाद प्रस्तुत करता हूँ, जिन्होंने मेरा उत्साह्वृद्धन किया। उन के समर्थन से मुझे पुस्तक को पूर्ण करने में सहायता मिली"

धन्यवाद प्रस्तुत करते हुए लेखक ने कई बार इस तथ्य का उल्लेख किया की यह पुस्तक टाडा न्यायलय में सरकारी अधिवक्ता के द्वारा उल्लेख किए गए तथ्यों पर आधारित है। पृष्ठ १४ पर लेखक ने लिखा है की "पुस्तक की कहानी का बड़ा भाग वादी पक्ष के द्वारा उपलब्ध किए गए खुलासों पर आधारित है एवं सूचनाओं का प्रमुख स्त्रोत पुलिस के द्वारा दायर की गई चार्जशीट और आरोपियों के बयानों पर आधारित है" अब अगर पृष्ठ ११ एवं १४ को एक साथ पढ़ा जाए तो इस से क्या रहस्योद्घाटन होता है? यह की न्यायाधीश ने निर्णय देने से पूर्व सरकारी अधिवक्ता के दावों का समर्थन किया, जिस ने आरोपियों को कड़े दंड देने की मांग की थी।

फ़िल्म Black Friday

आरम्भ से ही आरोपियों ने कहा था की मुंबई बम धमाकों के सम्बन्ध में निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए षड़यंत्र रचा गया था। आरोपियों के विरुद्ध प्रस्तुत किए गए साक्ष्य झूठे हैं और सुप्रीम कोर्ट में खारिज कर दिए जायेंगे। उन का कहना था की Black Friday के नाम से लिखी गई पुस्तक और फ़िल्म भी इस षड़यंत्र का भाग हैं जिस के द्वारा जनता के दिलों में आरोपियों के विरुद्ध घृणा पैदा करने का प्रयास किया गया था। इस से आरोपियों के विरुद्ध बदले की भावना पैदा हो सकती थी जिस से टाडा न्यायाधीश को दंड देने में सहायता मिल सकती थी। चूंकि जाली साक्षों और चार्जशीट में कई विसंगतियों के कारण उन्हें आरोपियों को दंड देने में कठिनाई हो रही थी।

आरोपियों को टाडा जज पर विश्वास नहीं

अब आरोपियों को विश्वास हो गया है की टाडा न्यायाधीश इस बड़े षड़यंत्र का भाग हैं जिस में राजनितिग्य, पुलिस वाले, फ़िल्म मेकर और पत्रकार सम्मिलित हैं। आरोपियों को टाडा न्यायाधीश पर विश्वास नहीं है। इस पुस्तक के लेख से यह स्पष्ट होता है की इस न्यायाधीश ने सरकारी अधिवक्ता के दावों एवं सूचनाओं को सत्य के रूप में दर्ज करने हेतु लेखक का उत्साहवृद्धं किया था . मानव अधिकार समितियों, वामपंथी दलों, सी पि आई एम् एल (लिबरेशन) और तहरीके हिंद, सनातन धर्म परिषद् जैसी सेकुलर संस्थाओं ने टाडा न्यायाधीश को हटाये जाने की मांग की थी। सी पी आई एम् एल polt bureo के सदस्य अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने संविधान का उलंघन करने पर टाडा न्यायाधीश को गिरफ्तार करने की मांग की थी। उन्होंने ने मांग की की इस पुस्तक, फ़िल्म और विभिन्न अधिकारियों की भूमिका और षड़यंत्र की निष्पक्ष जांच सुप्रीम कोर्ट के द्वारा करायी जाए .......जारी

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