Thursday, March 31, 2011

एकजुट हो जाओ! इससे पूर्व कि यह आग अपने दामन तक पहुंचे!
अज़ीज़ बर्नी

भारत की धरती पर इमाम-ए-हरम का आगमन निश्चितरूप से एक मुबारक क़दम है। उनकी तीन दिवसीय यात्रा में जो भावनात्मक व धार्मिक उत्साह देखने को मिला, उसने मक्का-मदीना की याद ताज़ा कर दी। गोकि वह हमारे बीच से वापस जा चुके हैं, परंतु आज भी वातावरण में उनके आगमन की ख़ुशबू महसूस की जा सकती है। अब देखना यह है कि रसूल-ए-अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ अ॰व॰ के आगमन ने अरब की धरती पर जो रहमतों की बारिश की थी, क्या भारत में उस पवित्र धरती से आने वाले इमाम-ए-हरम क़िबला मोहतरम फ़ज़ीलतुश्शैख़ डा॰ अब्दुर्रहमान अस्सुदैस का आगमन कोई ऐसा प्रभाव छोड़ेगा, जो इस धरती पर रहने वालों की तक़दीर बदल दे। अगर यहां विशेषरूप से मुसलमानों की चर्चा की जाए तो अनुचित नहीं होगा, इसलिए कि उनकी जो आस्था इस बीच देखने को मिली, वह निश्चितरूप से यह एहसास दिलाती है कि वह इमाम-ए-हरम की इस यात्रा से अवश्य फ़ैज़याब होने का इरादा रखते हैं और अगर यह फ़ैज़ एकजुटता के रूप में देखने को मिल जाए तो क्या कहने इसलिए कि हमारी पंक्तियों में एकजुटता की कमी आज हमारी सफलता की राह में सबसे बड़ी रुकावट है। अगर इन मुबारक क़दमों की बरकत हमें एकजुटता की राह पर ले चले तो बहुत सी समस्याओं का हल देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि हमारे पास नेतृत्व की कमी है। धर्म की बात हो या राजनीति की, हमारे पास नेताओं की कमी नहीं है, परंतु उनमें से कौन राष्ट्रीय स्तर पर हम सबका मार्गदर्शन कर सके, यह प्रश्न आज भी अपनी जगह बना हुआ है। राजनीतिक नेतृत्व के बिना बहुत सी समस्याओं का हल कठिन नज़र आता हैं। धार्मिक जागरुकता की आवश्यकता हर क़दम पर है, परंतु राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हमें जिन समस्याओं का सामना है उसका रास्ता भी हमें निकालना होगा। मैंने कल के लेख में लीबिया की परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए मुस्लिम देशों को दरपेश समस्याओं की समीक्षा करने का प्रयास किया था कि किस प्रकार एक के बाद दूसरा देश सैहूनी ताक़तों का शिकार होता चला जा रहा है, यह जानने के लिए हमें अब इतिहास के दामन में झांक कर देखने की आवश्यकता नहीं है। अगर कुछ वर्षों के पीड़ादायक हालात पर भी हम नज़र डालें तो अंदाज़ा किया जा सकता है कि कितनी तेज़ी से इस्लामी देश सलीबी ताक़तों के सामने सर झुकाने के लिए मजबूर होते चले जा रहे हैं। इमाम-ए-हरम ने भारत आगमन के बाद अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अरब की धरती के बाद यह पहला अवसर है, जब मुसलमानों की इतनी बड़ी संख्या को सम्बोधित करने का अवसर पा रहा हूं। इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि निःसंदेह भारत इस्लामी देश न हो, परंतु भारत में रहने वाले मुसलमानों की आवाज़ पूरी दुनिया में सुनी जाती है और उनकी सामूहिक शक्ति अगर कोई फ़ैसला ले ले तो यह आवाज़ इतिहास बदल सकती है। आज लीबिया को बचाना इसलिए भी आवश्यक है कि अगर सैहूनी ताक़तों के क़दमों को इसी वक़्त न रोक दिया गया तो जिस तेज़ी से यह इस्लामी देशों तथा मुसलमानों को निशाना बनाते चले जा रहे हैं, शायद दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं बचेगा, जहां मुसलमानों पर उनका क़हर न टूटे। हमें क्यों यह प्रतीक्षा रहती है कि जब कोई विरोधी शक्ति हम पर आक्रमण करेगी, हमें युद्ध का सामना होगा, तभी हम जागरुक होंगे, एकजुट होंगे। क्या आज भी हमें यह समझ लेने में कोई संशय है कि यह इस्लाम विरोधी ताक़तें हर देश के मुसलमानों की तबाही के लिए एक अलग रणनीति रखती है। मुस्लिम देशों की जनता को कभी तानाशाही का भय दिखाकर और कभी आतंकवाद में लिप्त बताकर उन पर सीधा हमला किया जाता है तो भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए अलग रणनीति बनाई जाती है। भारत में आतंकवाद बहुत जल्द धार्मिक रंग ले लेता है, इसलिए हमारे देश में जब-जब आतंकवादी हमले होते हैं, उन्हें धार्मिक चश्मे से देखने वालों की भी कमी नहीं होती। हम सभी आतंकियों में कभी साध्वी प्रज्ञा सिंह तो कभी मुफ़्ती अबुल बशर का चेहरा देखने के आदी हो गए हैं। हमने इस आतंकवाद को एक-दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्र के रूप में देखना शुरू कर दिया है। परिणामस्वरूप असल अपराधी हमारी पकड़ में आते-आते रह जाते हैं, कभी वह हमें धोखा देकर भाग जाते हैं और कभी उनके धोखे का अंदाज़ा उनके चले जाने के बहुत बाद में होता है। अमेरिकी नागरिक कैन हे वुड की गतिविधियों का अंदाज़ा हमें उसी समय हो गया था जब भारत के विभिन्न शहरों में बम धमाके हो रहे थे और वह हमारे देश में था, लेकिन हम उसे जेल की सलाख़ों के पीछे पहुंचाने में सफल नहीं हुए। डेविड कोलमैन हेडली द्वारा फैलाई गई तबाही की दास्तान इससे कहीं अधिक लम्बी है। वह अमेरिकी पासपोर्ट पर एक बदले हुए नाम तथा नागरिकता के साथ लगातार भारत और पाकिस्तान की यात्रा करता रहा, तबाही का जाल बिछाता रहा, हम अनजान रहे और जब यह रहस्य सामने आया तब हम इस हद तक बेबस और लाचार थे कि बार-बार के प्रयासों के बावजूद भी हम अपने अपराधी को अपने देश की सीमा के अंदर लाने में सफल नहीं हो सके। इन आतंकवादी हमलों ने केवल हमारे देश में निरंतर तबाही की अवस्था ही पैदा नहीं की, बल्कि हिंदू और मुसलमानों के बीच एक बड़ी खाई भी पैदा की। निःसंदेह बधाई के पात्र हैं भारत के हिंदू और मुसलमान, जिन्होंने इस षड़यंत्र को सफल नहीं होने दिया। निःसंदेह हम पूरी तरह बम धमाकों को रोकने में सफल नहीं हुए, लेकिन उन्हें इस हद तक धार्मिक रंग भी नहीं दिया जा सका कि देश में गृह युद्ध का वातावरण पैदा होता। इधर दो-ढाई वर्ष की अवधि में हमें बहुत हद तक इस आतंकवाद पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली है, परंतु अभी भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। हमें सभी घटनाओं की गहराई तक पहुंच कर उन असल चेहरों को बेनक़ाब करना होगा, यह आतंकवाद जिनके दिमाग़ों की उपज है, उनकी भारत विरोधी गतिविधियों की रणनीति क्या है। इस पर विचार करना होगा। केवल उन नामों और चेहरों को देखना ही काफ़ी नहीं होगा, जो उनमें लिप्त हैं या लिप्त दिखाई देते हैं, पर्दे के पीछे क्या है यह भी जानना आवश्यक है।
पाकिस्तान में आतंकवाद को धार्मिक रंग नहीं दिया जा सकता, बावजूद इसके कि तालिबान और लश्कर-ए-तय्यबा जैसे आतंकी संगठन पाकिस्तान की तबाही का एक बड़ा कारण बन गए हैं। इसके पीछे क्या ‘रेमंड डेविस’ जैसे अमेरिकी कूटनितिज्ञों की भी कोई भूमिका है या केवल यह पाकिस्तान के पोषित आतंकवादी हैं, जिन्हें अतीत में भारत के विरुद्ध प्रयोग करने के इरादे से फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया गया और अब वह आस्तीन का सांप बन बैठे हैं।
मैंने आजके लेख की शुरुआत की थी इमाम-ए-हरम के भारत आगमन से और मैं आजके अपने लेख का विषय बस यही रखना चाहता हूं। उपरोक्त पंक्तियों में अन्य देशों की चर्चा इसलिए की कि हम एकजुट हो जाएं तो न केवल भारत में अपने हालात को बेहतर बना सकते हैं, बल्कि अरब देश जो एक के बाद दूसरे सैहूनी ताक़तों के शिकंजे में आते चले जा रहे हैं, उससे भी उन्हें छुटकारा दिला सकते हैं, इसलिए कि गिनती के हिसाब से मुस्लिम देशों की संख्या बहुत अधिक सही परंतु मुस्लिम आबादी के हिसाब से भारत का मुसलमान दरजनों मुस्लिम देशों की कुल आबादी से कहीं अधिक है और इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था उसे उन मुस्लिम देशों के नागरिकों से कहीं अधिक अधिकार प्रदान करती है, इस्लाम विरोधी शक्तियों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने की छूट देती है। मुझे अच्छी तरह अंदाज़ा है कि चाहते हुए भी अरब देशों की जनता मिस्र, लीबिया और बहरीन के पक्ष में आवाज़ नहीं उठा सकती। उन्हें अपने देश की परिस्थितियां इस बात की अनुमति नहीं देतीं कि वह अपने बड़ी ताक़तों की इच्छा के विरुद्ध एक क़दम भी आगे बढ़ सकें और उनके शासक किस हद तक अमेरिकी हितों का ध्यान रखते हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। हो सकता है कि उनकी अपनी यह मजबूरियां भी हों कि वह अपनी और अपने देश की भलाई इसी में महसूस करते हों कि अत्यंत ख़ामोशी के साथ शासकों की इच्छा को अपनी इच्छा समझ लिया जाए। इसलिए कि कौन दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति के साथ टकराने का साहस करे, वह भी तब जब उन्होंने हाल ही में सद्दाम हुसैन और हुसनी मुबारक का हाल देख लिया हो और लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल क़ज़्ज़्ाफ़ी का हाल देख रहे हो। लेकिन हम भारत के मुसलमान इन अर्थों में इन सबसे अधिक भाग्यशाली हैं और एक हद तक यह भी संतोष की बात कही जा सकती है कि हमारे कुछ शासक भले ही अमेरिका के प्रति दिल में सहानुभूति रखते हों, परंतु वह अरब देशों के शासकों की तरह उनकी इच्छा के ग़्ाुलाम नहीं हैं। इस बीच विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों से लीबिया के समर्थन में आवाज़ों का उठना इस बात का प्रतीक है कि वह अरब देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर ख़ुश नहीं हैं और इस हस्तक्षेप को नापसंदीदा निगाहों से देखते हैं। ऐसे मंें जब भारत के मुसलमान लगभग सभी राजनीतिक दलों को प्रिय हैं और वह उनकी भावनाओं का ध्यान रखना चाहते हैं, मैं आंतरिक समस्यओं की बात नहीं कर रहा हूं, मैं उन अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर बात कर रहा हूं जिनको सामने रख कर यह कुछ पंक्तियां लिखी जा रही हैं। ऐसे में अगर हम एकजुट होकर लीबिया के पक्ष में आवाज़ उठाएं तो हमें पूरी आशा है कि लगभग सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का हमें भरपूर समर्थन प्राप्त होगा और वह जिन्हें हम धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते, इसलिए इस श्रेणी में उन्हें शामिल नहीं किया गया। कम से कम उनसे भी यह आशा तो बिल्कुल नहीं है कि वह अमेरिका के समर्थन में आवाज़ उठाएंगे। अब देखना यह है कि हम में से वह सभी धार्मिक और सामाजिक संगठन जिनकी ज़ुबान पर लब्बैक कहते हुए लाखों मुसलमान इकट्ठा हो जाते हैं, क्या ऐसी समस्याओं में भी रुचि लेंगे, कोई आंदोलन चलाएंगे। मैं फिर यह निवेदन कर देना चाहूंगा कि आज अगर वह लीबिया के पक्ष में कोई आन्दोलन चलाने का फैसला करते हैं तो उसे लीबिया के पक्ष में न समझा जाए बल्कि उसे अपने पक्ष में भी समझा जाए। इसलिए कि इस्लाम विरोधी ताक़तों का निशाना इस्लामी जगत और सारे मुसलमान हैं, जिसमें आप, हम सब शामिल हैं। बात सद्दाम हुसैन की हो या कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी की, अमेरिकी मीडिया ऐसे अवसरों पर उनके अपार धन और उनके द्वारा किए जाने वाले अत्याचार को बढ़ा चढ़ाकर बताना और दिखाना आरंभ कर देता है, ताकि सारी दुनिया का ज़हन बनाया जा सके कि जिन देशों में भी उनके शासनाध्यक्षों के विरुद्ध आवाज़ उठाई जा रही है, उसका कारण उनकी तानाशाही और अपार धन का जमा कर लेना है। मैं यहां किसी का नाम नहीं लिखना चाहता, इसलिए कि भ्रष्टाचार में लिप्त सभी लोगों की सूचि को शामिल करना इस समय मेरे लिए संभव नहीं है, फिर भी यह इशारा क्या कम है कि कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी जो 41 वर्ष तक एक ऐसे देश का शासक रहा, जो पैट्रोल की दौलत से मालामाल है, उसके पास इस लम्बी शासन अवधि में जितना धन मिला, उतना तो हम ताज़ा ताज़ा कुछ गुमनाम से चेहरों के सामने आने के बाद भी देखते हैं। मैं किसी को आरोपमुक्त ठहराने का प्रयास नहीं कर रहा हूं, निवेदन केवल इतना कर देना चाहता हूं कि अगर किसी ने अपने देश की जनता के साथ न्याय नहीं किया तो उसे सत्ता से हटाने का या सज़ा देने का काम उस देश की जनता का है। अगर कोई शासक भ्रष्टाचार में लिप्त है तो उसको सज़ा देने की ज़िम्मेदारी उस देश की अदालत की है। अगर हमने अपने ऊपर विदेशी ताक़तों को इतना हावी कर लिया कि वह जब चाहें जिसके आंगन में कूद कर उसकी गर्दन पकड़ने का अधिकार प्राप्त कर लें तो फिर उनकी पकड़ से किसकी गर्दन बचेगी? पूर्व इसके कि यह आग हमारे दामन तक पहुंचे, हमें दामन फैलाकर एकजुटता की भीख मांगनी होगी, सभी मतभेदों को भुलाकर एक प्लेटफ़ार्म पर खड़ा होना होगा, आज लीबिया के पक्ष में और कल अपनी समस्याओं के समाधान के संघर्ष में, वरना आज लीबिया नहीं बचेगा और कल हम नहीं बचेंगे।

1 comment:

रज़िया "राज़" said...

विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों से लीबिया के समर्थन में आवाज़ों का उठना इस बात का प्रतीक है कि वह अरब देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर ख़ुश नहीं हैं और इस हस्तक्षेप को नापसंदीदा निगाहों से देखते हैं।
..ये ज़रुरी भी है।
2)इन आतंकवादी हमलों ने केवल हमारे देश में निरंतर तबाही की अवस्था ही पैदा नहीं की, बल्कि हिंदू और मुसलमानों के बीच एक बड़ी खाई भी पैदा की। निःसंदेह बधाई के पात्र हैं भारत के हिंदू और मुसलमान, जिन्होंने इस षड़यंत्र को सफल नहीं होने दिया।
... बेशक़।
3)पूर्व इसके कि यह आग हमारे दामन तक पहुंचे, हमें दामन फैलाकर एकजुटता की भीख मांगनी होगी, सभी मतभेदों को भुलाकर एक प्लेटफ़ार्म पर खड़ा होना होगा, आज लीबिया के पक्ष में और कल अपनी समस्याओं के समाधान के संघर्ष में, वरना आज लीबिया नहीं बचेगा और कल हम नहीं बचेंगे।
....सच कहते हैं आप!!!ये सोचने और समझने का वक़त है।