Monday, July 19, 2010

मुलायम सिंह की माफ़ी-सैक्युलरिज़्म की जीत
अज़ीज़ बर्नी

शीर्षक का चयन करते समय मैंने ज़रा संकोच से काम लिया। अगर मैं यूं लिखता कि मुलायम सिंह की माफ़ी ‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’ या मेरे अभियान की सफलता है तो भी ग़लत न होता, मगर यह मेरी तंगनज़री होती। दरअसल शीर्षक होना चाहिए था ‘मुलायम सिंह यादव की माफ़ी- मुसलमानों की सफलता’। हां, यही सही था, फिर भी मैंने शीर्षक दिया ‘‘मुलायम सिंह की माफी-सैक्युलरिज़्म की जीत’’, इसलिए कि मैं देश की धर्मनिर्पेक्षता को मज़बूत होते हुए देखता चाहता हूँ और मुलायम सिंह की माफी को भी इसी दृष्टिकोण से देख रहा हूँ। मेरी याददाश्त में यह पहला अवसर है कि जब मुसलमानों की मांसिक स्थिरता ने किसी बड़े राजनीतिज्ञ को इस तरह अपना स्टैंड बदलने के लिए मजबूर किया। हम मुसलमानों के राजनीति में महत्व को मन में रखते हुए इसे एक सुखद संदेश समझ सकते हैं। मेरा ख़याल है हमें खुले दिल के साथ मुलायम सिंह यादव की क्षमा याचना को स्वीकार कर लेना चाहिए ताकि वह सभी धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिज्ञ जिनके नज़दीक कभी मुसलमान रहा, मगर उनके मिज़ाज में परिवर्तन आने पर अलग हो गया, वह यह एहसास कर सकें कि उनसे कब और कहां ग़लती हुई है’ह्न’ह्न और फिर इसी तरह अपने फैसलों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर हों, साथ ही अब देखना यह भी है कि मुलायम सिंह यादव अपनी इस क्षमा याचना के बाद क्या वाक़ई फिर से मुसलमानों की समस्याओं में रुचि लेते हैं। संसद और विधानसभा में उनके प्रतिनिधित्व का इरादा रखते हैं या फिर यह अपनी घटती हुई राजनीतिक शक्ति से मजबूर होकर किया गया एक फैसला है।

पिछले संसदीय चुनाव से पूर्व मुलायम सिंह यादव ने जब कल्याण सिंह का दामन थामा तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहरा में अपने लेखों द्वारा हमने उनका घोर विरोध किया था, इसलिए कि मुलायम सिंह यादव का अतीत हमारे सामने था, जिन्हें हमने हमेशा मुसलमानों का शुभचिंतक पाया था। अचानक उनके मिज़ाज में आए परिवर्तन से हम परेशान भी थे और आश्चर्यचकित भी। कई बार हमने यह एहसास दिलाने की कोशिश की कि मुलायम सिंह यादव का माज़ी और उनकी पार्टी का धर्मनिर्पेक्ष मिज़ाज उन्हें ऐसे किसी भी क़दम की इजाज़त नहीं देता। बहुत अच्छा होता, अगर उसी समय उन्होंने अपने फैसले पर पुनर्विचार कर लिया होता, लेकिन देर से ही किया गया उनका यह एक दुरुस्त फैसला है। इतना तो वह भी समझते होंगे कि अगर इस विलम्ब का कोई नुक़्सान पहुंचा तो स्वयं उन्हें ही, मुसलमानों को नहीं। हां, अलबत्ता कांग्रेस को इसका फायदा ज़रूर हुआ। जहां तक मुसलमानों को राजनीति में अपना खोया हुआ सम्मान प्राप्त करने की बात है तो हमें लगता है कि इसके लिए धर्मनिर्पेक्ष ताक़तों का मज़बूत होना अत्यंत आवश्यक है। कांग्रेस की सारी कमियों के बावजूद उसका साथ देने के पीछे अगर कोई कारण था तो केवल यह कि साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता में आने से रोकना ज़रूरी था। कांग्रेस आज भी जहां साम्प्रदायिक ताक़तों को अकेला रोकने की हैसियत रखती है, उस पर ध्यान दिया जा सकता है, परंतु देश में धर्मनिर्पेक्षता को मज़बूत करने के लिए यह भी ज़रूरी है कि कांग्रेस के अलावा जो अन्य धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिज्ञ या राजनीतिक पार्टियां हैं, उन्हें भी कमज़ोर न होने दिया जाए। हाँ, मगर किसी हालत में भी वोट का विभाजन साम्प्रदायिक शक्तियों को मज़बूत न होने दे, इसका विशेष ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।

बिहार में नरेंद्र मोदी के आगमन से पूर्व नितीश कुमार के मामले में भी राय यही थी कि वह धर्मनिर्पेक्ष मिज़ाज रखते हैं और अभी भी उनसे उम्मीदें समाप्त नहीं की जानी चाहिएं, परंतु बिहार में भारतीय जनता पार्टी को किसी के सहारे भी मज़बूत होने का अवसर मिलता है तो आने वाले समय में हमें इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। अगर हम अतीत में किए गए अपने इस ग़लत फैसले की समीक्षा करें तो इस कटु तथ्य को समझने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के भारतीय जनता पार्टी का दामन थामने और मुसलमानों के सामने अपना सैक्युलर चेहरा पेश कर उसके लिए वोट मांगने और उसे सत्ता तक पहुंचाने का काम जो उन्होंने किया था, उसका ख़ामियाज़ा मुसलमान आज तक भुगत रहा है और न जाने कब तक उसे भुगतना होगा। आज कांग्रेस बेशक एक धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिक दल के रूप में शासक है, मगर भारतीय जनता पार्टी ने अपने शासनकाल में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने के समय से लेकर 2004 में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहने तक जब जब भी उसे अवसर मिला, उसने अपने ‘कम्युनल इंजीनियरिंग’ ब्वउउनदंस म्दहपदममतपदीह के फार्मूले द्वारा ब्योरोक्रेसी तथा फ़ौज समेत लगभग सभी क्षेत्रों में ऐसे तत्व दाख़िल कर दिए कि अब कोई भी सरकार अपने सभी निर्णयों को आसानी से अमली जामा नहीं पहना सकती। यह कारण है कि आज देश के गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवानी नहीं हैं, परंतु वह चाहे शिवराज पाटिल रहे हों या पी॰ चिदम्बरम, मुसलमानों के प्रति मिज़ाज में कोई विशेष तब्दीली दिखाई नहीं देती। बम धमाकों की संख्या में कमी ज़रूर आई है, मुस्लिम युवाओं को आतंकवादी बताकर एन्काउन्टर में मार दिए जाने की रफ़्तार में कमी ज़रूर आई है, परंतु यह सिलसिला समाप्त हो गया है, अब आतंकवाद के आरोप में फंसाए गए बेगुनाहों को इन्साफ़ मिलने लगा है, यह कहना बहुत कठिन है। आज भी हमारे सामने ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि कांगे्रस पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘बटला हाउस एन्कान्टर सही नहीं था और सर पर पांच गोलियां नहीं लग सकती थीं’, बावजूद इस हक़ीक़त बयानी और सभी धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों की मांगों के, सरकार ईमानदाराना जांच का फैसला नहीं ले सकी। क्या अंतर रहा पी॰ चिदम्बरम और शिवराज पाटिल में? आज भी हम डेविड कोलमैन हेडली जो भारत में सबसे बड़े आतंकवादी हमले का प्रमुख अपराधी है, उसके द्वारा इशरत जहां को लशकर-ए-तैयबा का ऐजेंट बता देने पर उसको महत्व देते हैं और यह सिद्ध करने में जुट जाते हैं कि गोया नरेंद्र मोदी सरकार जो कह रही थी वह सच था और एफबीआई तथा लशकर-ए-तैयबा का संयुक्त एजेंट जो कह रहा है वह सच है।

बहरहाल हम चर्चा कर रहे थे मुलायम सिंह यादव की खुले दिल के साथ मुसलमानों से माफ़ी मांगने की। तो हम अत्यंत आदर के साथ उनकी सेवा में यह निवेदन करना चाहते हैं कि अब समय बदल गया है, अब हम वादों और भावनाओं के सहारे फैसला लेने का सिलसिला बंद कर चुके हैं और केवल इस बात के लिए कि अमुक व्यक्ति या पार्टी ने साम्प्रदायिक शक्तियों से टकराने की घोषणा की है, अब हमारे साथ खड़े होने का कारण नहीं बन सकता। राजनीति में ळपअम ंदक ज्ंाम यानी इस हाथ ले, और उस हाथ दे, का चलन अब पूरी तरह आम हो गया है, इसे स्पष्ट शब्दों में ‘सौदा’ भी कहा जा सकता है इसलिए हम भी मुलायम सिंह यादव के सामने ऐसी ही कुछ शर्तें रखें तो बेजा न होगा कि अगर उन्हें हमारा समर्थन दरकार है, वह अपनी खोई हुई राजनीतिक शक्ति को फिर से प्राप्त करने के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहते हैं तो चुनावों के बाद वह मुसलमानों के लिए क्या करेंगे, यह तो बहुत बाद की बात है, उन्हें अभी तय करना होगा कि क्या आज वह मुसलमानों का उतने ही खुले दिल से साथ देने के लिए तैयार हैं जितने खुले दिल से उन्हांेंने माफ़ी मांगी है या फिर केवल यह एक राजनीतिक रणनीति है, जैसा कि उनके कुछ विरोधी कह रहे हैं। क्या वह संसद में मुसलमानों की समस्याओं पर आवाज़ उठाने का फैसला लेने के लिए तैयार हैं? कश्मीर में आतंकवाद की आड़ लेकर जो रक्तपात किया जा रहा है, 9 वर्श तक के बच्चों को मार दिया जा रहा है, क्या उनकी पार्टी संसद में इसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए तैयार है? अमरनाथ यात्रा जो लालकृष्ण आडवानी की रथ यात्रा की तर्ज़ पर फिर से साम्प्रदायिक घृणा का कारण बनती नज़र आ रही है, क्या वह और उनकी पार्टी इस मामले में हक़ीक़त को बेनक़ाब करने का इरादा रखती है? जिस तरह एक के बाद दूसरा संघ परिवार का कारनामा सामने आने लगा है, आतंकवाद में जिन हिंदु साम्प्रदायिक संगठनों के नाम सामने आने लगे है,ं क्या मुलायम सिंह और उनकी पार्टी संसद के भीतर और बाहर उनके विरुद्ध आवाज़ उठाने का इरादा रखते हैं? बटला हाउस सहित अन्य एन्काउन्टर या बम धमाकों में लिप्त होने का आरोप लगाकर जिन बेगुनाह युवकों को जेल की सलाख़ों के पीछे डाल दिया गया है, क्या उन्हें न्याय दिलाने का इरादा रखते हैं? बेशक अगर उनमें से कुछ वाक़ई गुनहगार हैं तो उन्हें सज़ा दिलाने से भी परहेज़ न करें। (विवरण हम उपलब्ध करेंगे।) मुसलमानों के शैक्षणिक संस्थानों को आतंकवाद का अड्डा बताने का जो अभियान संघ परिवार ने शुरू किया है, क्या उसकी प्रतिरक्षा में वह और उनकी पार्टी खड़े होने का इरादा रखती है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि मुसलमानों के धार्मिक मदरसे और उनके कार्यों से वह भलीभांति अवगत हैं और इन मदरसों नेे कई बार निस्वार्थ भाव से उनका साथ दिया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के मायनाॅरेटी कैरेक्टर का मामला अभी भी लंबित है, क्या वह संसद में अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करके इन संस्थानों को उनका वाजिब अधिकार दिलाने में कर सकते हैं? अगर इस जैसे तमाम प्रश्नों का जवाब वह सच्चे दिल से ‘हां’ में देते हैं तो, वह इस समुदाय से सकारात्मक रवैये की उम्मीद कर सकते हैं, वरना माफ़ी के कुछ वाक्य कितने कारगर होने चाहिए, इसका अंदाज़ा वह स्वयं कर सकते हैं।

अब हमारे सामने कल्याण सिंह और मुलायम सिंह की दोस्ती जैसा दूसरा मामला बिहार में जे.डी.यू और भारतीय जनता पार्टी की दोस्ती का है। शरद यादव ने खुल कर यह कह दिया है कि भारतीय जनता पार्टी से हमारे पूराने संबंध हैं और हम मिल कर चुनाव लड़ेंगे। निःसन्देह वह अपने राजनीतिक भविष्य को ज़हन में रख कर कोई भी निर्णय लेने के लिए आज़ाद हैं। नितीश कुमार धर्मनिर्पेक्ष रहेंगे या साम्प्रदायिक, यह निर्णय भी उन्हीं को करना है। वह नरेन्द्र मोदी और उसकी सोच के लोगों को कमज़ोर करना चाहते हैं या शक्तिशाली बनाना चाहते हैं, यह निर्णय भी उन्हें ही करना है। हमने सुपौल की एक जनसभा में लाखों की भीड़ की उपस्थिति में उन्हें संबोधित करते हुए कहा था कि हज़रत अली ने हमारे दोस्तों और दुश्मनों को पहचानने का एक फार्मूला हमारे सामने रखा है, वह यह कि हमारे तीन दोस्त हैं और तीन दुश्मन। हमारे तीन दोस्त वह हैं जो कि सीधे हमारे दोस्त हैं, दोस्तो के दोस्त हैं या हमारे दुश्मनों के दुश्मन हैं। इसी तरह हमारे तीन दुश्मन हैं, जो हमारे दुश्मन हैं, हमारे दोस्तों के दुश्मन हैं या हमारे दुश्मनों के दोस्त हैं। अब वह निर्णय स्वयं कर सकते हैं कि इस फार्मूले के तहत वह किस श्रेणी में आते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में साम्प्रदायिक शक्तियों के मज़बूत होने की हमने ही नहीं इस देश ने बड़ी हानि उठाई है। बिहार की धर्मनिर्पेक्ष ज़मीन साम्प्रदायिक शक्तियों के हवाले कर देना एक बड़ी भूल होगी, बल्कि अब तो वह समय आगया है कि जिन जिन राज्यों में साम्प्रदायिक ताक़तें ज़रा भी मज़बूत हो गई हैं, वहां उन्हें कमज़ोर करने के लिए सभी धर्मनिर्पेक्ष ताक़तों को एकजुट होना चाहिए, इसी में देश का भी भला है और भारतीय जनता का भी। अभी आईंदा चंद माह में बिहार का चुनाव हमारे सामने है। जो कुछ उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह और मुलायम सिंह के साथ को लेकर हमने निर्णय लिया, वही निर्णय नितीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक गठजोड़ को सामने रख कर बिहार में करने की आवश्यकता है। अब यह निर्णय नितीश कुमार को करना है कि वह समय रहते साम्प्रदायिक तत्वों से दूरी बना पाते हैं या फिर मुलायम सिंह यादव की तरह ठोकर खाने के बाद कोई निर्णय लेने के बारे में सोचेंगे, मगर यहां एक बात स्पष्ट कर देना अतिआवश्यक है, वह यह कि मुलायम सिंह यादव का पूरा राजनीतिक कैरियर हमारे सामने है, लगभग 25 वर्ष तक धर्मनिर्पेक्षता के अलमबरदार बने रहने, बाबरी मस्जिद को शहादत से बचाने, मुसलमानों की हर मोड़ पर प्रतिनिधित्व करने, यहां तक कि मौलाना मुलायम सिंह यादव का खिताब प्राप्त करने वाले व्यक्ति ने एक ग़लती की और ठोकर खाने के बाद क्षमा याचना कर ली। उनकी पिछली भूमिका को सामने रख कर इस माफी को स्वीकार करने में मुसलमानों को शायद इतना संकोच न हो, मगर यही बात नीतिश कुमार के मामले में नहीं कही जा सकती, इसलिए कि न तो वह मुलायम सिंह यादव की तरह धर्मनिर्पेक्षता के अलमबरदार रहे हैं और न मुसलमानों ने उन्हें कभी अपना प्रतिनिधि समझा है। उनके शासनकाल में मुसलमानों को बी.जे.पी का सहभागी होने के बावजूद अधिक शिकायतें नहीं रहीं, मगर जिस तरह अब नरेन्द्र मोदी इस राज्य में साम्प्रदायिकता फैलाते नज़र आ रहे हैं, उनके भयानक परिणामों को समझा जा सकता है, इसलिए मुसलमान नीतिश कुमार के कांधों पर सवार हो कर नरेन्द्र मोदी को ताक़तवर बनाने का निर्णय नहीं ले सकते। वह यह बात भी मन से निकाल दें कि मुसलमानों में अगड़े पिछड़े का अंतर पैदा करके वह उन्हें दो टुकड़ों में बांटने में सफल हो जाएंगे। नरेन्द्र मोदी या साम्प्रदायिक शक्तियों के सवाल पर इस विभेद का कोई अर्थ नहीं है, वे सभी आपको एक साथ खड़े नज़र आएगें। मुलायम सिंह यादव का उदाहरण आपके सामने है और अभी निर्णय का अवसर भी आपके पास है।

1 comment:

Mera Bharat - Mera Desh said...

Burney Sir,

Like always, another nice article.

thanks

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