Thursday, June 24, 2010

‘‘कश्मीर’’ बटवारे की हक़ीक़त का ‘‘आईना’’ है
अज़ीज़ बर्नी

जम्मू कश्मीर राज्य के कुछ अत्यधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ इस समय मेरे हाथों में हैं। जिनमें शामिल है उस समय के जम्मू कश्मीर राज्य के महाराजा हरि सिंह का लार्डमाउंट बेटन को गवर्नर जनरल भारत के तौर पर लिखा गया वह पत्र जिसमें कश्मीर की आपातकालीन परिस्थितियों का उल्लेख है। यह पत्र 26 अक्तूबर 1947 को लिखा गया था। अर्थात स्वतंत्रता प्राप्ति के केवल दो माह 12 दिन बाद। अब यह प्रश्न मस्तिष्क में पैदा हो सकता है कि महाराजा हरि सिंह की बातचीत पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ां से चल रही थी तो भारत में महात्मा गांधी या भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से क्यों नहीं। क्या स्वतंत्रता के बाद लगभग ढाई महीने का समय गुज़र जाने पर भी लार्ड माउंट बेटन ही इस हद तक सक्षम थे कि भारत से सहायता प्राप्त करने के लिए एक राज्य का महाराजा न तो राष्ट्र पिता आज़ादी के मसीहा महात्मा गांधी से सहायता मांगने को इतना महत्व देता है और न पंडित जवाहर लाल नेहरू से, बहरहाल ऐसे तमाम विषयों पर बातचीत जारी रहेगी। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। शेख़ मुहम्मद अब्दुल्ला द्वारा 5 फरवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की मीटिंग में किए गए भाषण के प्रमुख उद्धरण। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के भारत पाक से संबंध आयोग के द्वारा 1948 में स्वीकृत किया गया प्रस्ताव और जम्मू व कश्मीर कान्स्टिट्यूट असेम्बली में 5 नवम्बर 1951 को शेख़ मुहम्मद अब्दुल्ला के आरम्भिक भाषण के महत्वपूर्ण उद्धरण।

बारी बारी से हम इन तमाम दस्तावेज़ और इन सबके अतिरिक्त ऐतिहासिक महत्व की अन्य जानकारियां अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करेंगे। ताकि उस समय के हालात को अच्छी तरह समझा जा सके और आज जो स्थिति है उसका जायज़ा लेते समय भी यह हमारे मस्तिष्क में रहे कि देश विभाजन के तुरंत बाद के हालात क्या थे, आज की स्थिति क्या है और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। इसलिए इस कड़ी में पहला महत्वपूर्ण दस्तावेज़ जो हम आज प्रकाशित करने जा रहे हैं वह है महाराजा हरि सिंह के द्वारा ‘लार्ड माउंट बेटन’ को लिखा गया पत्र। देखिए इतिहास के पन्नों में दर्ज यह तहरीर फिर इसके बाद हमारे लेख का सिलसिला जारी रहेगा।

दिनांक 26 अक्तूबर 1947

मेरे प्रिय लार्ड माउंट बेटन

मुझे महामहिम को बताना है कि मेरे राज्य में आपातकालीन स्थिति पैदा हो गई है और मैं आपकी सरकार से तुरंत सहायता की प्रार्थना करता हूं। जैसा कि महामहिम को ज्ञात है कि जम्मू व कश्मीर राज्य भारत या पाकिस्तान डोमिनियन (Dominion) में सम्मिलित नहीं हुआ है। भौगोलिक दृष्टि से मेरा राज्य दोनों डोमिनियन से संबद्ध है। दोनों के ही साथ उसके महत्वपूर्ण, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। इसके अतिरिक्त मेरे राज्य की सीमा सोवियत रिपब्लिक और चीन से मिली हुई है। अपने विदेशी मामलों के संबंध में भारत और पाकिस्तान दोनों डोमिनियन इन तथ्यों को अनदेखा नहीं कर सकते।

मैं यह तय करने के लिए समय चाहता हूं कि मुझे किस डोमिनियन में शामिल होना चाहिए या फिर यह दोनों डोमिनियन और मेरे राज्य के पक्ष में बेहतर नहीं है और उचित है कि स्वतंत्र रहा जाए। यह अवश्य है कि दोनों के साथ मैत्रिपूर्ण और निकट के संबंध हों।

इस सिलसिले में मैंने भारत और पाकिस्तान डोमिनियन से मेरे राज्य के साथ जूं का त्यूं रहने से संबद्ध समझौते Standstill agreement के लिए सम्पर्क किया है। पाकिस्तान सरकार ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया है। भारत डोमिनेंट मेरे राज्य के प्रतिनिधियों के साथ वार्ता करना चाहती है। उपरोक्त परिस्थितियों के मद्द्नज़र मैं बातचीत के लिए व्यवस्था नहीं कर सका हूं। परंतु पाकिस्तानी सरकार राज्य के अंदर पोस्ट और टेलीग्राफ़ की व्यवस्था को चला रही है।

हालांकि हमने पाकिस्तानी सरकार के साथ स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट किया है। सरकार ने मेरे राज्य को खाद्य सामग्री, नमक और तेल की सप्लाई को लगातार कम करने की बात कही है।

आफ़रीदियों, सादे वस्त्र में सैनिक और आधुनिक हथियारों के साथ लड़ाकों को पहले राज्य के पुंछ में घुसपेठ की आज्ञा दी जाती रही। फिर इसके बाद सियालकोट और अंत में हज़ारा ज़िले के रामकोट से संबंध क्षेत्र में। परिणाम यह हुआ कि राज्य की व्यवस्था के लिए सीमित संख्या में मौजूद सेना को बिखेरना पड़ा है और कई स्थानों पर एक साथ दुश्मन से सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में हत्या और लूटमार को रोक पाना मुश्किल हो रहा है। पूरे श्रीनगर को बिजली सप्लाई करने वाले माहौरा पावर हाउस को जला दिया गया है। अपहरण और बलात्कार की शिकार स्त्रियों की संख्या से मेरा दिल बहुत उदास है और यह शक्तियां मेरे राज्य की गर्मी के मौसम की राजधानी श्रीनगर पर क़ब्जे़ की नियत से राज्य में मार्च कर रही हैं और यह पूरे राज्य पर क़ब्ज़ा करने के लिए प्रारंभिक क़दम के तौर पर ऐसा कर रही हैं।

नार्थ वेस्ट फ़रंटियर के दूरदराज़ क्षेत्रों से बड़ी संख्या में क़बाइली लोगों के ट्रकों के द्वारा मंशीरा मुज़फ़्फ़राबाद रोड से घुसपैठ कराई जा रही है और जो आधुनिक हथियारों से लेस है और यह नार्थ वेस्ट फ्ऱंटियर सूबे की अस्थाई सरकार और पाकिस्तानी सरकार की जानकारी के बिना नहीं हो सकता है। मेरे राज्य के द्वारा कई बार प्रार्थना किए जाने के बावजूद मेरे राज्य में घुसपैठ रोकने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया है। यहां तक पािकस्तान रेडियो ने यह ख़बर प्रसारित कर दी कि कश्मीर में अस्थाई सरकार स्थापित की जा चुकी है। इसमें मेरे राज्य के मुसलमान या ग़ैर मुसलमान दोनों ने कोई भी भूमिका अदा नहीं की है।

जिस प्रकार की परिस्थितियां मेरे राज्य में पैदा हो रही हैं और जो आपातकालीन स्थिति पहले से मौजूद है ऐसे में भारतीय डोमिनेंट से सहायता मांगने के अलावा कोई चारा नहीं है। भारतीय डोमिनियन में मेरे राज्य के शामिल हुए बिना हमारी मांगों पर वह मदद नहीं भेज सकते हैं। इसलिए हमने ऐसा करने का निर्णय लिया है, आपकी सरकार के द्वारा स्वीकार करने के लिए विलय का सूत्र (instrument of ऑकेस्सिओन) संलग्न कर रहा हूं। दूसरा विकल्प यह है कि अपने राज्य और जनता को आज़ाद सैनिकों के हवाले छोड़ दिया जाए। इन बुनियादों पर न कोई सरकार मौजूद रह सकती है और ना ही बरक़रार रखी जा सकती है। मैं इस विकल्प को किसी भी सूरत में होने नहीं दूंगा। जब तक कि मैं राज्य का शासक हूं और अपने देश की रक्षा के लिए मेरा जीवन है।

मैं महामहिम की सरकार को यह भी बताना चाहता हूं कि यह मेरी नियत है कि तुरंत एक अस्थाई सरकार स्थापित की जाए और मैं शेख़ अब्दुल्ला को कहूं कि इस आपातकालीन स्थिति में वह मेरे प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी संभालें।

यदि मेरे राज्य को बचाना है तो श्रीनगर में तुरंत सहायता उपलब्ध कराना आवश्यक है। श्री मेनन सारे हालात से परिचित हैं। यदि किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता होगी तो वह हम करेंगे।

आपका शुभचिंतक-हरि सिंह

सःसम्मान

द पेलेस जम्मू

26 अक्तूबर 1947 को लिखे गए इस पत्र से साफ़ पता चलता है कि 14 अगस्त या 15 अगस्त को जम्मू व कश्मीर राज्य की जनता या महाराजा ने यह फै़सला नहीं किया था कि उन्हें पाकिस्तान के साथ सम्मिलित होना है या भारत के साथ। महाराजा हरि सिंह अपने पत्र में लिखते हैं कि उन्हें कोई भी अंतिम फैसला लेने के लिए और अधिक समय की आवश्यकता है। वह इस सिलसिले में विचार विमर्श में लगे हुए हैं। कि पकिस्तान के साथ विलय का फैसला किया जाए या भारत के साथ या फिर दोनों ही देशों से बेहतर संबंध बनाए रखंे और जम्मू कश्मीर राज्य अपने अलग स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रहे।

बाद में किस तरह तस्वीर बदलती गई इसका उल्लेख हम अगली क़िस्तों में करेंगे। परंतु जिन आपातकालीन परिस्थितियों का विवरण लार्ड माउंट बेटन को लिखे गए इस पत्र में महाराजा हरि सिंह ने किया है, वह आपातकालीन परिस्थितियां थीं। कश्मीर पर क़बाइलियों का आक्रमण। जिस एक घटना ने कश्मीर की स्थिति और विचार की दिशा को बिल्कुल बदल डाला वह यही क़बाइलियों का आक्रमण था। इस आक्रमण की बुनियाद क्या थी, किसके इशारे पर, किन उद्देश्यों को दृष्टि में रख कर यह आक्रमण किया गया था, यह जानने के लिए हमें फिर 60-62 वर्ष पुराने इतिहास के दामन में झांक कर देखना होगा, परंतु इतना तो स्पष्ट है कि इस आक्रमण के बावजूद जम्मू व कश्मीर राज्य के महाराजा भारत या पाकिस्तान में विलय का अंतिम फैसला नहीं कर पाए थे और दोनों देशों में से किसी से भी संबंधों में इतनी कड़वाहट नहीं थी कि बातचीत का सिलसिला बंद हो गया हो। राज्य की परिस्थितियों को बेहतर बनाने के प्रयास में महाराजा हरि सिंह भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ ही संपर्क में थे और यह सिलसिला 26 अक्तूबर यानी इस पत्र के लिखे जाने के बाद भी जारी रहा। अपनी इस बात के प्रमाण के लिए हम और अधिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ इन्शाअल्लाह अपनी आइंदा क़िस्तों मंे प्रकाशित करेंगे।

हम किसी भी परिणाम पर पहुंचने या किसी परिणाम की ओर संकेत करने से पहले यह निर्णय पाठकगणों पर छोड़ते हैं कि वह पहले इस क़िस्तवार लेख के द्वारा तमाम ऐतिहासिक सच्चाइयों का अध्ययन करें और फिर परिणाम निकालें कि आज कश्मीर की जो स्थिति है जो आतंक की माहौल है, जो ख़ून में डूबी हुई झीलें हैं, जो पहाड़ों से ऊंचे मानवीय शवों के ढेर हैं जहां अब वातावरण में गीत नहीं गूंजते, अब वहां गोलियों और बम धमाकों की आवाज़ें और इन्सानी चीख़ें सुनाई देती हैं। आख़िर विनाशकारी परिस्थितियों के लिए कौन कितना ज़िम्मेदार है यह सारे का सारा सच आहिस्ता आहिस्ता हर दिन आपकी नज़रों के सामने आता रहेगा, परंतु एक बात जो सभी अच्छी तरह जानते हैं और जिस पर बहुत अधिक चर्चा व परिचर्चा की गुंजाइश नहीं है वह यह है कि भारत के विभाजन को द्विय राष्ट्रीय सिद्धांत के तहत बताया जाता रहा है। पिछले 61 वर्षों से इस एक बात को तमाम दिमाग़ों में बैठाने की कोशिश की जाती रही कि भारत विभाजन धार्मिक बुनियादों पर अमल में आया। यदि यही सच था..... यदि यही सच है...... तो कश्मीर का सवाल और भी पेचीदा व महत्वपूर्ण हो जाता है। जम्मू कश्मीर राज्य में उस समय भी मुसलमानों की संख्या अधिक थी और आज भी मुसलमान बहुसंख्यक हैं। 80 प्रतिशत मुसलमानों की जनसंख्या वाले राज्य में भी यदि धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान में सम्मितल होने का फैसला नहीं किया तो फिर यह दावा अपने आप में कमज़ोर हो जाता है कि भारत का बटवारा धार्मिक बुनियादों पर हुआ था इसलिए कि जम्मू व कश्मीर राज्य की सीमाएं पाकिस्तान से मिलती थीं, कोई भौगोलिक कठिनाई इसके सामने नहीं थी और यदि इसका कारण यह मान लिया जाए कि निःसंदेह अधिक जनसंख्या मुसलमानों की थी, परंतु जम्मू व कश्मीर राज्य की व्यवस्था महाराजा हरि सिंह के अधीन थी और उनकी राय पाकिस्तान के साथ विलय के पक्ष में नहीं थी तब भी यह प्रश्न अपनी जगह बना रहता है, इसलिए कि यदि बटवारा धार्मिक बुनियादों पर था, हिंदू मुस्लिम जनता की इच्छाओं के अनुसार था तो राजाओं, महाराजाओं या नवाबों का कोई भी फैसला अंतिम फैसला नहीं हो सकता था और क्या राज्य के महाराजा के इस फैसले के विरुद्ध राज्य की जनता ने बग़ावत की, पाकिस्तान के साथ सम्मिलित होने पर ज़ोर दिया। हम इस क़िस्तवार लेख की अगली क़िस्तों में यह भी स्पष्ट कर देंगे कि अंततः यह फैसला तो जनता को ही करना था कि वह क्या चाहती है और उसकी राय क्या थी......?

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