Tuesday, June 29, 2010

शराब व सिगरेट नहीं पीते, नमाज़ पढ़ते हो, दाढ़ी रखते हो, तुम दहशतगर्द हो
अज़ीज़ बर्नी

दास्ताने जुल्मो सित्म, जो कल शुरू की गई थी, अधूरी है अभी। आज भी और कल भी इसी को जारी रहना है, लेकिन कश्मीर में जो कल प्रदर्शन के दौरान हुआ, उसे भी एकदम से अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह विवरण तो कल के बाद जब एक बार फिर कश्मीर पर मेरे लेखों का सिलसिला शुरू होगा, तो इस तरह के प्रदर्शनों, उनके कारणों औैर प्रदर्शनों में मृत व घायल होने वालों पर भी चर्चा होगी। मगर आज यह लिखना आवश्यक लगा कि राष्ट्रीय मीडिया ने कल हुई हिंसा की जो तस्वीर प्रस्तुत की हैै वह बिल्कुल एक ही तरफा नज़र आती है। कई अख़बारों ने तो तस्वीरों के कैप्शन में यह भी लिखा है कि किस तरह जम्मू कश्मीर में पुलिस और सी.आर.पी.एफ पर अलगाव वादियों के द्वारा हमले किए जा रहे हैं। क्या कल का प्रदर्शन अलगाववाद की मांग को लेकर था या पुलिस और सी.आर.पी.एफ के द्वारा पिछले दिनों जो बच्चे मारे गए, उनके विरोध में कश्मीरियों के ग़मो गुस्से को प्रकट करता था। इसके अलावा ध्यान देने योग्य यह भी है कि जब हम मरने वालों और घायलों की संख्या को देखते हैं तो उनमें कौन अधिक हैं। अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार ‘द एशियन एज’ में प्रकाशित समाचार के अनुसार इस प्रदर्शन में 150 लोग घायल हुए, जिनमें से केवल 31 पुलिस व सी.आर.पी.एफ के जवान थे, अर्थात 119 प्रदर्शनकारी घायल हुए, जबकि मरने वालों में दोनों तजम्मुल भट(17) और आसिफ हसन (9) वर्ष के थे। यदि प्रदर्शनकारी हिंसा पर आमादा थे, जैसा कि तस्वीरों में दिखाया गया है तो क्या मरने वालों और घायलों की संख्या प्रदर्शनकारियों की अधिक हो सकती थी? जबकि दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दर्जन भर अंग्रेज़ी और हिन्दी समाचारपत्र जो मेरी नज़रों के सामने से गुज़रे, उनमें एक भी तस्वीर ऐसी नहीं थी, जब प्रदर्शनकारी हिंसा का शिकार हो रहे हों। यदि उन पर हमले नहीं हुए तो फिर मरने वालों और घायलों में उनकी संख्या अधिक क्यों है? हमारा विचार है कि यदि तस्वीर को सही ढ़ग से प्रस्तुत करेंगे तो हालात अधिक ख़राब होते चले जाएगें। बहरहाल इस बारे में मुझे अभी बहुत कुछ लिखना है, फिलहाल कोलकाता परेज़िडेंसी जेल में बंद अब्दुल्ला की वह दास्तान, जिसे कुल शुरू किया गया थाः
इतने में कमरे में एसपी साहब तशरीफ़ ला चुके थे। कोलकाता वालों ने कहा कि सबूत तो हमारे पास अभी कुछ नहीं है, परंतु कोलकाता में है और हमने तारिक़ अख़्तर को कोलकाता में पकड़ा है और उसका कहना है कि यह अबदुल्ला उसका साथी है। तो एसपी ने कहा कि पहले हमारी फोन के द्वारा तारिक़ से बात कराओ तब मैं आगे कुछ बोलूंगा। थोड़ी सी झिझक के बाद वह लोग तैयार हो गए और कोलकाता में अपने लोगों से सम्पर्क करके तारिक़ अख़्तर को सेंट्रल लोकअप से निकाल कर एसपी से फोन पर उसका सम्पर्क कराया गया। एसपी के फोन का स्पीकर आॅन था। तारिक़ की आवाज़ कमरे में गूंज रही थी।
एसपी ने तारिक़ से प्रश्न किया- अब्दुल्ला को कैसे जानते हो? उत्तर मिला कि वह मेरे जीजा जी की बच्चियों को ट्यूशन पढ़ाता था, वहीं मुलाक़ात हुई। एसपी ने प्रश्न किया कि तुम्हारे पास अब्दुल्ला के मदरसे का नं॰ कहां से आया, जवाब मिला कि अपने जीजा जी से लिया। एसपी ने पूछा कि क्या अब्दुल्ला जानता है कि लश्कर-ए-तैयबा के आदमी हो? तारिक़ ने कहा कि नहीं, अब्दुल्ला मेरे बारे में कुछ नहीं जानता, इसका मुझसे इस मामले में कोई ताल्लुक़ नहीं है।
फिर एसपी ने पूछा कि कोलकाता पुलिस का कहना है कि तुम ने अपने लेपटाॅप में अब्दुल्ला का नाम ले कर यह लिखा है कि में इस तंज़ीम के बारे में बात करूंगा तो ऐसा क्यों लिखा? तारिक़ ने कहा कि मैंने अपने और भी बहुत से जान पहचान वालों और रिश्तेदारों का नाम लिख रखा है कि मैं यदि उचित समझूंगा तो इनको टच करूंगा। विशेष रूप से अब्दुल्ला का नाम केवल नहीं लिखा है। एसपी ने पूछा कि क्या तुमको इस बात की उम्मीद थी कि यदि तुम अब्दुल्ला को टच करोगो तो वह ब्वदअपदबम हो जाएगा? तारिक़ ने कहा कि मैं कुछ कह नहीं सकता। फिर एसपी ने पूछा कि क्या अब्दुल्ला से तुम्हारी जिहाद के विषय पर कोई बात हुई थी? तो तारिक़ ने कहा कि कुछ विशेष नहीं हां, उसने मुस्लिम शरीफ़ की एक हदीस सुनाई थी और फिर उसने वह हदीस बयान की।
तब एसपी ने कहा कि अब्दुल्ला को तारिक़ के बारे में कुछ मालूम तो नहीं है मगर इसका इरादा लगता है, इसलिए मैं आप लोगों को इसको पूछगछ के लिए देता हूं। इसको ले जाओ। तब त्रिपाठी जी ने एसपी को कहा कि सर! यह तो जानता ही नहीं है कि तारिक़ लश्कर का आदमी है, फिर आप अब्दुल्ला को भ्ंदक व्अमत क्यों कर रहे हैं। इन लोगों के पास अब्दुल्ला को गिरफ़्तार करने का कोई कारण नहीं है। तब कोलकाता पुलिस ने कहा कि हम इसको कोई केस तो देने नहीं जा रहे हैं? केवल पूछताछ के लिए गिरफ़्तार कर रहे हैं, यदि इसके विरुद्ध कोई बात नहीं पाई गई तो हम लोग अब्दुल्ला को फ़ौरन छोड़ देंगे, तो एसपी ने कहा कि ले जाओ। यह सुनकर मेरी आंखों में आंसू आ गए। मेरी आंखों में आंसू देख कर त्रिपाठी जी की भी आंखें भर आईं और उन्होंने कहा कि मेरे बच्चे ग़म न करो यह लोग तुम्हे ले जा रहे हैं कुछ प्रश्न उत्तर के बाद यह तुम्हें छोड़ देंगे, मैंने कहा कि मेरी शिक्षा ख़राब हो जाएगी, यदि आप गिरफ़्तार करेंगे तो मेरे मदरसे वाले मुझे निकाल देंगे। तो त्रिपाठी जी ने कहा कि यह नहीं होगा। जब यह लोग तुमको छोड़ देंगे तो सीधे मेरे पास आना, मैं तुम्हें तुम्हारे मदरसे ले चलूंगा फिर तुम्हें कोई नहीं निकालेगा।
फिर इन लोगोंने ।ततमेज डमउव पर हस्ताक्षर करवाकर मुझे कोलकाता पुलिस के हवाले कर दिया। फिर मैंने बनारस वालों से गुज़ारिश की कि मुझे शैख़ुल जामिआ से बात करने दी जाए, तो उन्होंने कहा कि हम सूचना दे देंगे। दो चार दिन में तो तुम आ ही जाओगे। फिर कोलकाता वाले जोकि कुल पांच आदमी थे एक मारूती वैन टाइप की गाड़ी में जोकि प्राइवेट थी मंें बैठाकर लगभग रात 11 बजे कोलकाता के लिए रवाना हो गए। रात भर गाड़ी चलती रही। रात में वह लोग एक ढाबे पर खाना खाने के लिए रुके। इन लोगों ने शराब पी, गोश्त खाया। मेरे हाथ पैर खुले हुए थे। मैंने अपनी क़ज़ा नमाज़ पूरी की। उन लोगों ने शराब पेश की, मैंने इन्कार किया, सिगरेट दी मैंने इन्कार किया, कहा कि गोश्त खाओ, मैंने कहा कि मुझे नहीं मालूम कि यह कैसा गोश्त है? इसलिए मुझे सब्ज़ी खिला दो। तो उन लोगों ने कहा कि वास्तव में तुम आतंकवादी हो। क्योंकि तुम शराब नहीं पीते, सिगरेट नहीं पीते, सिंगल कट गोश्त नहीं खाते, लेकिन नमाज़ तो बहुत पाबंदी से पढ़ते हो और दाढ़ी भी ओसामा बिन लादेन की तरह है। मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
फिर गाड़ी चलती रही। हम केवल लघु शंका के लिए रास्ते में रुके। कल होकर दिन के दो बजे गाड़ी एक कोर्ट के कैम्पस में रुकी। बाद में पता चला कि यह ठंदोींसस ब्वनतज है। फिर इन लोगों ने मुझे वहां कुछ दूसरे पुलिस वालों को सौंप दिया। वह लोग मुझे मजिस्ट्रेट के सामने ले गए और जम्मू व कश्मीर आतंकवादी कह कर मेरा 15 दिनों का रिमांड ले लिया। (यह सब मुझे बहुत बाद में समझ में आया उस समय तो मुझे कुछ भी नहीं मालूम था।) फिर मुझे हथकड़ी लगा दी गई और कमर में मोटा सा रस्सा बांध दिया गया। फिर जब मुझे कोर्ट से निकाला गया तो मैंने देखा कि बहुत सारे मीडिया वाले खड़े थे और कैमरे से मेरी तस्वीरें उतार रहे थे और फिर मुझे धक्का दे कर एक पुलिस जीप में बैठा दिया गया था गाड़ी लाल बाज़ार पुलिस हैडक्वार्टर में आकर रुकी फिर मुझे एक कमरे में पहुंचाया गया। वहां मुझे ज़मीन पर बैठा दिया गया। हाथों में हथकड़ी थी कमर में रस्सी, जिसके एक सिरे को किसी चीज़ से बांध दिया गया था। कुछ लोग हंस रहे थे, कुछ गालियां दे रहे थे, कुछ कह रहे थे कि छोटा ओसामा है, मेरे सर से टोपी गिर गई थी, मैं हैरान व परेशान चारों ओर देख रहा था कि यह क्या हो रहा है, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिर भीड़ छटी कमरा ख़ाली हुआ। कुछ नए लोग दाख़िल हुए, मुझे पीने के लिए पानी दिया गया, चाय दी गई। फिर एक आदमी ने मुझसे प्रश्न शुरू कर दिए कि तुम तारिक़ को कैसे जानते हो? तुम कोलकाता कब और क्यों आए? तुम जमशेदपुर किसलिए गए थे और कहां ठहरे? क्या तारिक़ और तुम्हारे बीच कभी जिहाद के शीर्षक पर बातचीत हुई? पूरी बात बयान करो।
फिर मैंने बताना शुरू किया कि जब मैं दिल्ली में अहमद शहवार साहब की दो बच्चियों को ट्यूशन पढ़ाता था तो लगभग 8-10 महीनों के बाद एक दिन शाम को ट्यूशन पढ़ाते समय अहमद शहवार साहब ने अपने साले के तौर पर तारिक़ अख़्तर का परिचय करवाया जो कि जमशेदपुर का रहने वाला था। तारिक़ अख़तर ने सलाम दुआ के बाद अपनी भांजियों की शिक्षा के बारे में और मेरी शिक्षा इत्यादि के बारे में पूछा। जो कि साधारणतः पहली मुलाक़ात में एक आदमी दूसरे के बारे में पूछता है और यह बात 2003 की है।
परिचय के लगभग दो महीने बाद एक शाम मैं ट्यूशन पढ़ाकर जब पहली मंज़िल से नीचे उतरा तो ग्राउंड फ़्लोर पर बिजली की दुकान पर मैंने तारिक़ अख़्तर को बैठे देखा तो उनके ज़ोर देने पर सलाम दुआ के बाद मैं भी कुछ देर बैठ गया। मुसलमानों की दुखद स्थिति पर बातचीत होने लगी, सामने ही अंग्रेज़ी अख़्बार रखा हुआ था। उसमें चेचन लोगों के बारे में कोई लेख या समाचार था और कुछ लोगों की तस्वीरें थीं। बात चलते-चलते तारिक़ अख़्तर ने पूछा यह जो चेचनिया और बोस्निया में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है उसके बारे में आपका क्या ख़्याल है। मैंने कहा चेचनिया के बारे में तो मालूम नहीं परंतु फ़लस्तीन में मुसलमानों पर बहुत अत्याचार हो रहा है। फिर थोड़ी देर बाद उसने पूछा कि जिहाद के बारे में आपका क्या दृष्टिकोण है? तो मैंने उसको मुस्लिम शरीफ़ की एक हदीस सुना दी कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने कहा है कि जिस मुसलमान के दिल में जिहाद की तमन्ना नहीं है वह फूट की मौत मरेगा। परंतु उसके साथ मैंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आज दुनिया में जिहाद के नाम पर जो हिंसक कार्यवाहियां हो रही हैं और निर्दोषों का रक्त बहाया जा रहा है, उसका इस्लाम और जिहाद से कोई लेना देना नहीं है। फिर मैंने कुरआनी आयतों और हदीसों की रोश्नी में बताया कि इस्लाम ने संसार को शांति व सुरक्षा का संदेश दिया है। मोमिन (पूर्ण रूप से धार्मिक व्यक्ति) जब नमाज़ पढ़ता है तो अपने अहम को कुचलते हुए रोज़ा रखता है, अल्लाह की ख़ुशी के लिए अन्य अच्छे कार्य करता है तो मोमिन का अपने नफ़्स (अहम) को अल्लाह के आदेशों के अधीन कर देना ही जिहाद है और यह कि जिहाद काफ़ी विस्तृत अर्थों पर आधारित है। नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने कहा है कि अत्याचार के विरुद्ध अत्याचारी और क्रूर शासक के सामने सच बात कहना सबसे श्रेष्ठ जिहाद है। फिर इसके बाद बातचीत समाप्त हो गई। क्योंकि मेरे हास्टिल का गेट बंद होने का समय निकट आ गया था। फिर इसके बाद तारिक़ से इस विषय पर मेरी कभी बातचीत नहीं हुई। फिर मैंने सानविया की शिक्षा पूर्ण करके आलमियत के लिए मरकज़ी दारुल उलूम जामिआ सल्फ़िया में दाख़िला ले लिया और दिल्ली को छोड़ दिया। इसके बाद चूंकि काफ़ी दिनों तक अहमद शहवार साहब के यहां बच्चों को पढ़ाने की वजह से कुछ निकटता हो गई थी। इसलिए बनारस आने के बाद भी कभी कभार फोन से कुशलता का तबादला हो जाता था।
2006 में जबकि मेरा आलमियत का अंतिम वर्ष था। बक़रईद की छुट्टी में मैं अपने घर बिहार गया। फिर अपनी ख़ाला और अपनी बहन से मिलने के लिए मैं तीन दिन के लिए कोलकाता आया, जहां कभी मैं बचपन में रहकर ख़ाला के पास पढ़ा करता था और मेरी यह कोलकाता आमद लगभग 17 वर्ष बाद हुई थी। फिर मैं कोलकाता से तीसरे दिन अपने एक मित्र सुफ़ियान के साथ दो तीन दिन के लिए जमशेदपुर चला गया, वह मुझे स्वयं कोलकाता लेने आया था। मैंने उससे वादा किया था कि बक़रईद की छुट्टी पर मैं उसके घर जमशेदपुर चलूंगा। क्योंकि सुफ़ियान ने कहा था कि उसके ख़ालू (मौसा जी) अब्दुलहादी अलउमरी, अध्यक्ष जमिअत-ए-अहले हदीस बृमिंघम में जमशेपुर में एक सुंदर मस्जिद बनवाई है और सुफ़ियान की इच्छा थी कि मैं वहां जुमे का एक ख़ुत्बा दूं। एक अतिरिक्त वाक्य के तौर पर बताता चलूं कि मैं अपने छात्र जीवन में प्रारंभिक दिनों से ही पाठ्य पठन और जुमे का ख़ुत्बा वग़्ौरह दिया करता हूं। दिल्ली में भी शिक्षा के दौरान प्रायः मस्जिदों में जुमा इत्यादि पढ़ाने के लिए मुझे हाफ़िज़ .................. साहब भेजा करते थे।
..........................................................(जारी)

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