Monday, May 10, 2010

चलो आज एक नए संघर्ष की शुरूआत करें।
अज़ीज़ बर्नी

शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म ‘‘माई नेम इज़ ख़ान’’ अभी तक नहीं देखी है मैंने। बड़ी इच्छा है इस फ़िल्म को देखने की, परंतु एक साथ चार-पांच घंटे का समय निकालना कठिन हो रहा है। फ़िल्म की रिलीज़ से पूर्व शाहरुख़ ख़ान ने मुम्बई में अपने निवास स्थान ‘’मन्नत’’ पर कुछ विशेष लोगों को आमंत्रित किया था। इस अवसर पर भी मैं नहीं जा सका था तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का प्रतिनिधित्व किया था मेरे साथी शकील हसन शम्सी साहब ने मेरे बहुत से पाठकों ने फोन पर और एसएमएस के द्वारा मुझे बताया कि फिल्म ‘‘माई नेम इज़ ख़ान’’ का विषय वही है जो अधिकतर मेरे लेखों का होता है और बड़ी ख़ूबसूरती के साथ बहुत प्रभावशाली रूप में शाहरुख़ ख़ान ने इस संदेश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया’ है। मुझे यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। एक बार सीडी मंगाई, सोचा कि घर ही पर इस फ़िल्म को देखा जाए, परंतु वह सीडी पाइरेटिड थी इसलिए देख नहीं सका, हां मगर देखना ज़रूर है।

लेकिन फिल्म ‘न्यू यार्क’ के मामले में ऐसा नहीं हुआ। सारी व्यवस्तताओं के बावजूद पहली फुर्सत में मैंने यह फिल्म नोएडा के एक सिनेमा हाॅल में अपनी पत्नी के साथ जाकर देखी। क्योंकि इस फिल्म का विषय मेरी भावनाओं और संवेदनाओं से जुड़ा था और यही संवेदनाएं मुझे अपनी क़ौम की भावनाओं को समझने का सलीक़ाभी देती हैं। जब फ़िल्म ‘न्यू याॅर्क’ रिलीज़ हुई, मेरा बेटा लंदन में था। हम लोग उसके लिए काफी चिंतित रहते थे, हम यहां वह वहां और अकेला, ने देश अपना, न लोग अपने, न जाने कब क्या आकस्मिक मुसीबत खड़ी हो जाए, मैं जो लिखता रहा हूं, उससे अप्रसन्न रहने वालों की भी तो एक बड़ी संख्या है। जब सुना कि फिल्म ‘न्यू यार्क’ ऐसी कहानी पर बनी फिल्म है, जिसमें एक मुस्लिम युवक को फंसा कर आतंकवादी सिद्ध कर दिया जाता है। विश्वास कीजिए मैं और मेरी पत्नी जब यह फिल्म देख रहे थे तो अपने बेटे की कुशलता को लेकर काफी चिंतित थे। मैं महसूस कर रहा था कि रेशमा बड़ी बेचैन है। सिनेमा हाॅल से निकलने के बाद उसका पहला वाक्य यही था ‘‘अली को वापस बुला लीजिए, जो कुछ पढ़ना और सीखना है वह सब अपने देश में रह कर भी हो जाएगा, हम बाहरी लोगों पर भरोसा नहीं कर सकते’’। मैं उसकी भावनाओं को समझता था, मगर बेटे का मनोबल भी नहीं तोड़ना चहता था। न तो यह सब बताकर उसे भयभीत कर सकता था और न मैं उसे उसके शैक्षणिक मिशन से हटाना चहता था, इसलिए अपनी और अपनी पत्नी की तसल्ली के लिए दो दिन के लिए लंदन चला गया ताकि उसके साथ रह कर उसे सभी ऊंचनीच से अवगत कर सकूं। वह जिन परिस्थितियों मे रह रहा है, उसकी समीक्षा कर सकूं और ख़ुदा न करे कोई परेशानी सामने आ जाए तो ऐसी स्थिति में क्या करना है, उसे समझा सकूं। इसके कुछ दिन बाद ही मुझे भारत की राष्ट्रपति की लंदन यात्रा पर उनके मीडिया डेलिगेशन में जाने का अवसर मिला। फिर तीन दिन उसके साथ रहकर उसके हालात को समझने और अपने मन को तसल्ली देने का प्रयास किया। इस पर भी जब मां का दिल न माना तो लगभग एक माह बाद तीसरी बार मैं अपनी पत्नी के साथ लंदन जा पहुंचा। आश्चर्य की बात यह रही कि तीन महीने में यह मेरी लंदन की तीसरी यात्रा थी, मगर पहली दो यात्राओं के दौरान कस्टम क्लियरेंस के समय कोई ग़ैरमामूली जांचपड़ताल नहीं, कोई पूछताछ नहीं, मगर तीसरी बार इतनी कि पत्नी के पैरों तले से ज़मीन निकलती हुई महसूस हुई, फिर जब मैंने लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मिस्टर ब्राउन के साथ डिनर के लिए अपने नाम जारी निमंत्रण पत्र तथा इस अवसर पर भारत की राष्ट्रपति के साथ डेलिगेशन का सदस्य होने से संबंधित दस्तावेज़ दिखाए, तब जाकर हम एयरपोर्ट से बाहर निकल सके। एक सप्ताह ठहरने के बाद हम अपने बेटे को लेकर भारत वापस चले आए। विवरण निजी प्रकार का है इसलिए इससे अधिक लिखना उचित नहीं, परन्तु इतना भी लिखना आवश्यक इसलिए लगा कि मैं अपने पाठकों को इस मानसिक स्थिति का अंदाज़ा करा सकूं, जो ऐसी परिस्थितियों में मां-बाप की होती है, मैंने फिल्म ‘माई नेम इज़ ख़ान’ नहीं देखी, इसलिए कि मैं अपने बेटे को वापस भारत लेकर आ चुका था। मैंने फिल्म ‘न्यू यार्क’ देखी और सारी व्यस्तताओं के बावजूद समय निकाल कर लंदन पहुंच गया, क्योंकि अपने बेटे की कुशलता के लिए चिंतित था।

अब जिन पर नहीं बीतती, वह शायद महसूस नहीं कर सकते कि दामन पर आतंकवाद का दाग़ किस क़दर ख़ून के आंसू रुलाता है। बहुत आसान है किसी भी अदालत के लिए तथ्य सामने आ जाने पर आतंकवाद का दाग़ झेल रहे किसी भी आरोपी को बाइज़्ज़त बरी कर देना। हम इस के लिए सभी न्यायलयों तथा न्यायधीशों के आभारी हैं, परंतु अत्यंत सम्मान और आदर के साथ उन सबकी सेवा में यह भी निवेदन कर देना चाहते हैं कि उन बाइज़्ज़त नागरिकों की आतंकवाद का आरोप लगने के बाद तथा बाइज़्ज़त बरी होने से पूर्व की मानसिक स्थिति क्या होती उसका भी अंदाज़ा किया जाए, समाज में किस प्रकार की कठिनाइयों का उन्हें सामना करना पड़ता है, फैसला करते समय अगर इस बात का भी एहसास किया जा सके तो शायद हम पीड़ितों के साथ खुल कर न्याय कर सकें। आज सुबह मैं मुम्बई न्यायालय में 26/11 के हवाले से चल रहे मुक़दमा के फैसले में जसटिस एम॰एल॰ तहलयानी द्वारा फ़हीमुद्दीन अन्सारी और बिहार के सबा अहमद को बाइज़्ज़त बरी कर दिए जाने पर फ़हीम अनसारी की पत्नी यासमीन अन्सारी के विचार पढ़ रहा था। निःसंदेह वह और उनका परिवार बहुत प्रसन्न होंगे कि फ़हीम अन्सारी को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया, परंतु जब उन्हें याद आएगी, लगभग डेढ़ वर्ष के उन दिनों की, उन हालात की, जब फ़हीम अन्सारी पर आतंकवादी होने के आरोप ने उनकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया था। वह कम खाते होंगे, वह कम सोते होंगे। एक बार घर से निकलने के लिए भी सौ बार सोचते होंगे कि ज़माने भर की निगाहों का सामना कैसे करेंगे, उन अपमान जनक और सवालिया निगाहों से स्वयं को कैसे बचाएगे जो घर से बाहर निकलते ही उनका पीछा करती नज़र आएंगी और दरवाज़े पर किसी भी अजनबी क़दमों की आहट उन्हें भयभीत कर देती होगी। क्या हमारी कोई भी अदालत उन्हें उनकी इस शर्मिंदगी और परेशानी का बदला किसी भी रूप में दे सकती है। मैं इस समय जिन विषयों पर लिख रहा हूं, वह सिलसिला पूरा होने के बाद या इस सिलसिले को देर तक चलाना मजबूरी बन गई तो उसके साथ ही जिए नए प्रश्न को उठाना चाहता हूं वह यही है कि पुलिस झूठे सुबूतों, निराधार आरोपों की बिना पर मासूम नौजवानों को गिरफ़्तार करे, एक लम्बी आरोप पत्र दाखिल करे, जिसमें झूठे गवाह और सबूत हों जिससे पहली नज़र में ही वह अपराधी नज़र आते हों, उन पर आतंकवादी होने के गंभीर आरोप लगाए, ताकि कोई उनका समर्थन करने का साहस भी न जुटा पाए। सगे संबंधी, मित्रगण भी पैरवी से दूर भागें। फिर उनमें अगर कुछ भाग्यशाली जिन्हें न्यायालय का सम्मान जनक निर्णय प्राप्त हो जाए और बाइज़्ज़त बरी हो जाएं तो क्या इस मामले को यहीं समाप्त मान लेना चाहिए। उनके बाइज़्ज़त बरी होने की ख़ुशी में उन कष्टदायक क्षणों को भूल जाना चाहिए, जिनसे गुज़रना प्रतिदिन का मामूल बन गया था। प्रश्न एक अपने बेटे का नहीं है, इसीलिए मैंने अपने बेटे के परदेस में रहने के बीच अपनी भावनाओं को लिखने की आवश्यकता महसूस की कि हर मां-बाप की भावनाओं को इसी ढंग से महसूस कर सकूं और सामने ला सकूं।

मेरा मानना है कि किसी भी अपराध में, किसी भी आरोपी के बाइज़्ज़त बरी होने के बाद इस मामले को वहीं समाप्त समझ लेना भारी भूल होगी। उसी समय एक नया मुक़दमा शुरू किए जाने की आवश्यकता है। सामाजिम कार्यक्रताओं और संगठनों को इस दिशा में प्रोत्साहन के लिए आगे आना चाहिए। पीड़ितों को निर्भय हो कर उसकी जद्दोजहद के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें न्यायालय से निवेदन करना चाहिए कि सभी सुबूतों और गवाहों के आधार पर अमुक व्यक्ति अगर बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया, कोई अपराध उस पर सिद्ध नहीं हुआ तो, फिर वह सब के सब अपराधी और दोषी क्यों नहीं हैं, जिन्होंने उसे फंसाने के लिए झूठे सुबूत और गवाह पेश किए थे। अगर उन्हें कोई सज़ा न मिले तो यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहेगा। हज़ारों फ़हीम अनसारियों और सबा अहमदों में से कोई एक-दो बरी हो गए और शेष लोगों की सुन-गुन न ली गई तो यह सिलसिला कैसे रुकेगा। हां, यदि हम सभी बाइज़्ज़त बरी हो जाने वाले आरोपियों के केस को फिर से न्यायालय में ले जाएं, न्यायालय से निवेदन करें कि उनके केस की फाइलें दोबारा खोली जाए, तलाश किया जाए कि वह झूठे गवाह कौन थे, वह झूठे प्रमाण किसने उपलब्ध कराए, पुलिस का आरोप क्या था, केस डायरी क्या थी, तैयार करने वाले कौन थे, न्यायालय में दाख़िल की गई चार्जशीट क्या थी, कौन-कौन इसमें शामिल रहे? इन सबको अदालत के कटघरे में लाया जाए, उन्हें ऐसी कठोर सज़ाएं दी जाएं कि फिर कोई किसी बेगुनाह को झूठे सबूतों और गवाहों के आधार पर अपराधी सिद्ध करने का प्रयास न करे। हमें यह भी समाज और न्यायालयों के मन में बिठाना होगा और न्यायाधीशों के सामने अत्यंत सम्मानपूर्वक ढंग से उन परिस्थितियों और घटनाओं को पेश करना होगा कि किसी एक व्यक्ति पर आतंकवाद का आरोप उसके परिवार के लोगों, उसके संबंधियों और यहां तक कि उसके पड़ोसियांें और शहर में रहने वालों तक को कितने पीड़ा भरे क्षणों से गुज़रने के लिए विवश कर देता है। इसे समझना होगा और न्याय करते समय इन बातों का भी ध्यान रखना होगा।

आख़िर किसी भी व्यक्ति को सज़ा देने के बाद हम जेल के अंदर क्यों रखते हैं, केवल इसीलिए न कि हम उसे समाज से अलग कर देते हैं समाज की निगाहों में उसे एक अपराधी होने का एहसास पैदा कर देते हैं, बहरहाल हम उसे जीवित तो रखते हैं, उसके खाने-पीने का ध्यान भी रखते हैं, जेल की कोठरी ही सही सिर छुपाने का स्थान देते हैं, नाम मात्र ही सही कभी-कभी स्वास्थ्य जांच भी कराते हैं, ज़रूरत पड़ने पर उसका इलाज भी कराते हैं, बस इतना ही होता है न कि हम उसे एक चार दीवारी के भीतर बंद रखते हैं और वह अपना जीवन उस अवधि तक जब तक कि बरी न किया जाए, अपराध बोध के साथ गुज़ारता है। अत्यंत ईमानदारी तथा निष्पक्षता के साथ अगर हम सोचें तो पाएंगे कि जिस क्षण हम किसी पर आतंकवाद का आरोप लगाते हैं, यह सज़ा तो उसी समय से उसके परिवार वालों को दे देते हैं। जेल से भी तंग चहारदीवारी के भीतर वह स्वयं को क़ैद कर लेने के लिए विवश हो जाते हैं। समाज से उनका संबंध उसी तरह टूट जाता है जिस तरह जेल में किसी क़ैदी का। उनसे भेंट भी कुछ इसी अंदाज़ में होती हैं, जैसे कोई मुलाक़ाती जेल के दरवाजे़े पर पहुंचता है और खाना-पीना, सोना शायद क़ैदियों से भी बदतर। अगर यह सज़ा किसी अपराध के बदले है तब तो शायद अधिक चर्चा की गुंजाइश न समझी जाए और यदि यह सज़ा किसी अपराध के बिना एक झूठे आरोप के आधार पर है तो फिर उसकी अनदेखी कर दिया जाना बहुत बड़े अन्याय को निमंत्रण देता है क्योंकि फिर यह सिलसिला रुकेगा नहीं, जब जिसे चाहा आतंकवाद के आरोप में उठा लिया। झूठे गवाह और सुबूत पेश किए, अगर साबित हो गया तो वह आतंकवादी सज़ा का पात्र, साबित न हुए तो बाइज़्ज़त बरी। बस वह इतने में ही प्रसन्न कि बरी तो हो गए। शायद किसी ने कभी यह सोचा ही नहीं कि सज़ा उनको मिलना भी ज़रूरी है, जिन्होंने उनको अपराधी ठहराने का प्रयास किया।

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