Tuesday, May 18, 2010

कुछ शेष नहीं शेष के बाद
अज़ीज़ बर्नी


श्री शेष नारायण सिंह जी मूलतः इतिहास के विद्यार्थी हैं, शुरू में इतिहास के शिक्षक रहे, बाद में पत्रकारिता की दुनिया में आये... प्रिंट, रेडियो और टेलीविज़न में काम किया। इन्होंने 1920 से 1947 तक की महात्मा गांधी के जीवन के उस पहलू पर काम किया है, जिसमें वे एक महान कम्युनिकेटर के रूप में देखे जाते हैं। 1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की। अब मुख्य रूप से लिखने पढ़ने के काम में लगे हैं। उनका यह लेख ‘‘हमारी आज़ादी की विरासत का केन्द्र है देवबंद’’ मुझे इतना अच्छा लगा कि लिखते लिखते मेरा क़लम रूक गया और दिल चाहा कि मुझे इस विषय पर लिखना तो ज़रूर है, लेकिन आज तो इसी लेख को अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि मैं जो कुछ कहना चाहता हूं लगभग वही मुझसे बहतर अन्दाज़ में श्री शेष नारायण जी ने लिखा है। अब रहा सवाल मेरे लेख का तो वो आज के बाद सही। लिहाज़ा प्रस्तुत हे मौलाना नूरूल हुदा साहब की गिरफ्तारी पर लिखा गया उनका यह एतिहासिक लेखः-

दारूल उलूम देवबंद को दुश्मन की तरह पेश करने वाले साम्प्रदायिक हिंदुओं को भी यह बता देने की ज़रूरत है कि जब भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ बग़ावत हुई, देवबंद के छात्र और शिक्षक हमेशा सबसे आगे थे। इन लोगों को यह भी बता देने की ज़रूरत है कि देवबंद के स्कूल की स्थापना भी उन लोगों ने की थी जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो थे।

हाल में ही देवबंद के मौलाना नूरूल हुदा को दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर दफा 341 के तहत चार्जशीट दाख़िल की गई और उन्हें दिल्ली की एक अदालत से ज़मानत लेनी पड़ी। वे जेल से तो बाहर आ गए हैं लेकिन अभी केस ख़त्म नहीं हुआ है। उन पर अभी मुक़दमा चलेगा और अदालत ने अगर उन्हें निर्दोष पाया तो उनको बरी कर दिया जायेगा वरना उन्हें जेल की सज़ा भी हो सकती है। उनके भाई का आरोप है कि ‘यह सब दाढ़ी, कुर्ता और पायजामे की वजह से हुआ है, यानी मुसलमान होने की वजह से उनको परेशान किया जा रहा है।

हुआ यह कि मौलाना नूरूल हुदा दिल्ली से लंदन जा रहे थे। जब वे जहाज़ में बैठ गए तो किसी रिश्तेदार का फोन आया और उन्होंने अपनी खैरियत बताई और कहा कि ‘जहाज़ उड़ने वाला है और हम भी उड़ने वाले है।’ किसी महिला यात्री ने शोरगुल मचाया और कहा कि यह मौलाना जहाज़ को उड़ा देने की बात कर रहे हैं। जहाज़ रोका गया और मौलाना नूरूल हुदा को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ हुई और पुलिस ने स्वीकार किया कि बात समझने में महिला यात्री ने ग़लती की थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस ने यह पता लगा लिया था कि महिला की बेवकूफ़ी की वजह से मौलाना नूरूल हुदा को हिरासत में लिया गया था तो केस ख़त्म क्यों नहीं कर दिया गया। उन पर चार्जशीट दाख़िल करके पुलिस ने उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया है। अगर माफी न मांगे तो सभ्य समाज को चाहिए कि वह पुलिस पर इस्तगासा दायर करे और उसे अदालत के ज़रि दंडित करवाए। पुलिस को जब मालूम हो गया था कि महिला का आरोप ग़लत है तो मौलाना के ख़िलाफ दफा 341 के तहत मुक़दमा चलाने की प्रक्रिया क्यों शुरू की? इस दफ़ा में अगर आरोप साबित हो जाय तो तीन साल की बामुशक़्क़त सज़ा का प्रावधान है। इतनी कठोर सज़ा की पैरवी करने वालों के ख़िलाफ सख़्त से सख़्त प्रशासनिक और क़ानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। मामला और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि जांच के दौरान ही पुलिस को मालूम चल हो गया था कि आरोप लगाने वाली महिला झूठ बोल रही थी। इस मामले में मौलाना नूरूल हुदा, उनके परिवार वालों और मित्रों को जो मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है, सरकार को चाहिए कि उसके लिए संबंधित एअरलाइन, झूठ बोलने वाली महिला, दिल्ली पुलिस और जांच करने वाले अधिकारियों के ख़िलाफ मुक़दमा चलाए और मौलाना को मुआवज़ा दिलवाए। इस मामले में मौलाना नूरूल हुदा को मानसिक क्लेश पहुंचा कर सभी संबंधित पक्षों ने उनका अपमान किया है।

वास्तव में देवबंद का दारूल उलूम प्रसिद्ध धार्मिक केन्द्र होने के साथ-साथ हमारी आज़ादी की लड़ाई की सबसे महत्वपूर्ण विरासत भी है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का जो संदेश महात्मा गांधी ने दिया था, दारूल उलूम से उसके समर्थन में सबसे ज़बरदस्त आवाज़ उठी थी। 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इक़बाल ने अलग मुस्लिम राज्य की बात की तो दारूल उलूम के विख्यात क़ानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुख़ालिफत की थी। उनकी प्रेरणा से ही बड़ी संख्या में मुसलमानों ने महात्मा गांधी की अगुवाई में नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार क़रीब 12 हज़ार मुसलमानों ने नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तारी दी थी। दारूल उलूम के विद्वानों की अगुवाई में चलने वाला संगठन जमीअतुल उलेमा-ए-हिंद आज़ादी की लड़ाई के सबसे अगले दस्ते का नेतृत्व कर रहा था। आजकल देवबंद शब्द का उल्लेख आते ही कुछ अज्ञानी प्रगतिशील लोग ऊल-जलूल बयान देने लगते हैं और ऐसा माहौल बनाते हैं गोया देवबंद से संबंधित हर व्यक्ति बहुत ही ख़तरनाक होता है और बात बात पर बम चला देता है। पिछले कुछ दिनों से वहां के फतवों पर भी मीडिया की टेढ़ी नज़र है। देवबंद के दारूल उलूम के रोज़मर्रा के कामकाज को अर्धशिक्षित पत्रकार, साम्प्रदायिक चश्मे से पेश करने की कोशिश करते हैं जिसका विरोध किया जाना चाहिए। 1857 में आज़ादी की लड़ाई में क़ौम हाजी इमादादुल्लाह के नेतृत्व में इकट्ठा हुई थी। वे 1857 में मक्का चले गए थे। उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारूल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी। यही वह दौर था जब यूरोपीय साम्राज्यवाद एशिया में अपनी जड़े मज़बूत कर रहा था। अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपी साम्राज्यवाद का विरोध सैय्यद जमालुद्दीन कर रहे थे। जब वे भारत आए तो देवबंद के मदरसे में उनका ज़बरदस्त स्वागत हुआ और अंग्रेज़ों की सत्ता को उखाड़ फैंकने की कोशिश को और ताक़त मिली। जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारूल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। आपने फ़तवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फ़तवा है कि भारत दारूल-हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फ़र्ज़ है कि अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करें। उन्होंने कहा कि आज़ादी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिन्दुओं को साथ लेकर संघर्ष करना शरीअत के लिहाज़ से भी बिल्कुल दुरूस्त है। वें भारत की पूरी आज़ादी के हिमायती थे, इसलिए उन्होंने कांग्रेस में शामिल न होने का फैसला किया। क्योंकि कांग्रेस 1885 में पूरी आज़ादी की बात नहीं कर रही थी, लेकिन उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गये। इतिहास गवाह है कि देवबंद के उलेमा दंगों के दौरान भी भारत की आज़ादी और राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े पक्षधर के रूप में खड़े रहते थे। देवबंद के बड़े समर्थकों में मौलाना शिबली नोमानी का नाम भी लिया जा सकता है। उनके कुछ मतभेद भी थे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई के मसले पर उन्होंने देवबंद का पूरी तरह से समर्थन किया। सर सैय्यद अहमद ख़ां की मृत्यु तक वे अलीगढ़ में शिक्षक रहे लेकिन अंग्रेज़ी राज के मामले में वे सर सैय्यद से अलग राय रखते थे। प्रोफेसर ताराचंद ने अपनी किताब ‘भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास’ में साफ लिखा है कि देवबंद के दारूल उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेज़ों को खदेड़ने के लिए चलाया गया था। 1857 के जिन बाग़ियों ने देवबंद में धार्मिक मदरसे की स्थापना के उनके प्रमुख उद्देश्यों में भारत की सरज़मीन से मुहब्बत भी थी। कलाम-ए-पाक और हदीस की शिक्षा तो स्कूल का मुख्य काम था लेकिन उनके बुनियादी सिद्धांतों में यह भी था कि विदेशी सत्ता ख़त्म करने के लिए जिहाद की भावना को हमेशा ज़िंदा रखा जाए। आज कल जिहाद शब्द के भी अजीबो ग़रीब अर्थ बताये जा रहे हैं। यहां इतना ही कह देना क़ाफी होगा कि 1857 में जिन बाग़ी सैनिकों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ सब कुछ दांव पर लगा दिया था वे सभी अपने आपको जिहादी ही कहते थे। यह जिहादी हिन्दू भी थे और मुसलमान भी और सबका मक़सद एक ही था विदेशी शासक को पराजित करना।

मौलाना रशीद अहमद गंगोही के बाद दारूल उलूम के प्रमुख मौलाना महमूद उल हसल बने। उनकी ज़िंदगी का मक़सद ही भारत की आज़ादी था। यहां तक कि कांग्रेस ने बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरी स्वतंत्रता का नारा दिया। लेकिन मौलाना महमूद उल हसन ने 1905 में ही पूर्ण स्वतंत्रता की अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत से अंग्रेज़ों को भगा देने के लिए एक मिशन की स्थापना की जिसका मुख्यालय देवबंद में बनाया गया। मिशन की शाखाएं दिल्ली, दीनापुर, अमरोट, करंजी खेड़ा और यागिस्तान में बनाई गयीं। इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हुए। लेकिन यह सभी धर्मों के लिए खुला था। पंजाब के सिख और बंगाल की क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य भी इसमें शामिल हुए। मौलाना महमूद उल हसन के बाद देवबंद का नेतृत्व मौलाना हुसैन अहमद मदनी के कंधों पर पड़ा। उन्होंने भी कांग्रेस, महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ मिलकर मुल्क की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। उन्होंने 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन का समर्थन करने का फैसला किया और उसे अंत तक समर्थन देते रहे। उन्होंने कहा कि धार्मिक मतभेद के बावजूद सभी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की स्थाना भौगोलिक तरीक़े से की जानी चाहिए। धार्मिक आधार पर नहीं, अपने इस विचार की वजह से उनको बहुत सारे लोगों, ख़ासकर पाकिस्तान के समर्थकों का विरोध झेलना पड़ा लेकिन मौलाना साहब अडिग रहे। डा. मुहम्मद इक़बाल ने उनके ख़िलाफ बहुत ही ज़हरीला अभियान शुरू किया तो मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने फारसी में एक शेर लिखकर उनको जवाब दिया कि अरब के रेगिस्तानों में घूमने वाले इंसान जिस रास्ते पर आप चल पड़े हैं, वह आपको काबा शरीफ तो नहीं ले जाएगा। अलबत्ता आप इंगलिस्तान पहंुच जाएंगे। मौलाना हुसैन अहमद मदनी 1957 तक रहे और भारत के संविधान में भी बड़े पैमाने पर उनके सुझावों को शामिल किया गया है।

ज़ाहिर है पिछले 150 वर्षों के भारत के इतिहास में देवबंद का एक अहम मुक़ाम है। भारत की शान के लिए यहां के शिक्षकों और छात्रों ने हमेशा कुर्बानियां दी हैं। अफसोस की बात है कि आज देवबंद शब्द आते ही साम्प्रदायिक ताक़तों के प्रतिनिधि ऊल-जलूल बाते करने लगते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि धार्मिक मामलों में दुनिया भर में विख्यात देवबंद को भारत की आज़ादी में उनके सबसे महत्वपूर्ण रोल के लिए भी याद किया जाए और उनके रोज़मर्रा के कामकाज को सांप्रदायिकता के चश्मे से न देखा जाए।

1 comment:

Mohammed Umar Kairanvi said...

वाकई कुछ शेष नहीं देवबंद विषय पर इस पोस्‍ट के बाद, शेष जी के इस लेख को आपने सम्‍मान देकर खुद को भी और सम्‍मानित कर लिया है

शेष जी से मुलाकात होती रहीं हैं वह वाकई वैसे ही सच्‍चे हैं जैसी उनकी तहरीरें अच्‍छी हैं जिसे यकीन न हो देख ले उनका ब्‍लाग
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