Friday, March 5, 2010

सरकार को क्यों तस्लीम (स्वीकार) ‘तस्लीमा’

8 मार्च को महिला दिवस है, अर्थात जिस दिन आप यह लेख पढ़ रहे होंगे उसके 3 दिन बाद। मुझे याद पड़ता है कि एक बार जब मैं महिला दिवस अवसर पर मुख्य अतिथि के तौर पर बोल रहा था तो हॉल पूरी तरह भरा हुआ था और लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं बुर्क़ों में थीं। स्टेज पर मेरे साथ सम्मानित वक्ताओं के अतिरिक्त कार्यक्रम के मेज़बान जलील पाशा और सांसद अज़ीज़ पाशा उपस्थित थे। मेरे लिए यह विषय कुछ अलग था, इसलिए कि आमतौर पर मेरा लिखना व बोलना क़ौमी, मिल्ली, राजनीतिक समस्याओं पर और पिछले कुछ वर्षों की बात करें तो साम्प्रदायिक सदभाव और आतंकवाद की रद्द पर ही केंद्रित रहा है लेकिन यहां मुझे महिलाओं विशेषकर मुस्लिम महिलाओं को दिमाग़ में रख कर ही बोलना था अतः जहाँ एक ओर विषय से न्याय की चिंता थी वही अपने सामने जिन बुर्क़ा पोश महिलाओं को देख रहा था उनके संबंध में भी कुछ कहना था। एक-एक शब्द तो अब याद नहीं कि हैदराबाद के जलसे में मैंने अपने उस भाषण में क्या कहा था, मगर जो ख़ास बिंदु अभी तक याद हैं वह कुछ इस तरह से है ‘मैंने इस्लाम में औरत के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा था कि रसूल-ए-अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ अपनी बेटी जनाबे फ़ातिमा के सम्मान में उठ कर खड़े हो जाया करते थे, अर्थात सीरते रसूल तमाम उम्मते मुस्लिमा को यह सबक़ देती है कि औरत का दरजा इतना सम्मानीय समझा गया है कि बाप भी अपनी बेटी के सम्मान में खड़े हो जाते हैं।’ मुस्लिम महिलाओं के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्हें घर की चार दीवारी तक सीमित रहने पर विवश किया जाता है, उनके लिए प्रगति का रास्ता लगभग बंद है, इस्लामी समाज उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देता हज़रत ख़दीजतुल कुबरा अरब की धरती पर उस युग में भी एक बड़े व्यापारी की हैसियत रखती थीं जबकि वह विधवा थीं, रसूल-ए-अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल॰ से जब आपका निकाह हुआ तो आप उनसे 15 वर्ष बड़ी थीं, इसके बावजूद अज़वाजे मुतहिरात में उनका दरजा सबसे बुलंद क़रार दिया गया है। यह ऐतिहासिक तथ्य पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अगर इस्लाम में प्रगति की राहें बंद होतीं, अगर महिलाओं को घर की चार दीवारी तक ही सीमित रखा जाता तब जनाबे ख़दीजतुल कुबरा इतनी बड़ी व्यापारी कैसे बन गईं? और अगर यह घर की चार दीवारी तक सीमित रहते हुए भी संभव हुआ तो भी इससे बड़ा कमाल और क्या हो सकता है। इसे एक महिला की प्रशासनिक योग्यता और व्यापारिक क्षमताओं का एक जीवित उदाहरण तो ठहराया ही जा सकता है। जनाबे ज़ैनब का यज़ीद के दरबार में वह ऐतिहासक ख़ुतबा जिसे सुनने के बाद यज़ीद के दरबारी भी उसके ख़िलाफ़ हो गए थे। इस्लामी समाज में महिलाओं की बोलने की क्षमता और विद्वता को प्रमाणित करता है।

इस्लामी इतिहास से वर्तमान युग तक इस तरह की घटनाओं को अगर दर्ज किया जाए तो एक संक्षिप्त लेख में यह बिल्कुल संभव नहीं है, जबकि मुझे आज के लेख के लिए इस विषय का चुनाव इसलिए करना पड़ा कि तस्लीमा नसरीन के एक लेख का बैंगलोर के एक कन्नड़ अख़बार में प्रकाशित होना और उसके बाद पैदा हुए तनाव जिसमें 2 मौतें हुईं, और अनेक ज़़ख़मी हुए। लेख लिखे जाने तक शिमोगा और हासन में स्थिति सामान्य नहीं है। अब स्पष्ट है कि इस मामले को राजनीतिक रंग तो दिया ही जाना है, जो आग में घी का काम करेगा। कर्नाटक में सरकार भारतीय जनता पार्टी की है और पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी के पिता श्री एच॰डी॰ देवगोड़ा अपने विचार प्रकट कर ही चुके हैं। मैंने कन्नड़ में प्रकाशित इस लेख का उर्दू अनुवाद अपने बैंगलोर कार्यालय से कराकर मंगवाया ताकि समझ सकूं कि आख़िर इसमें लिखा क्या है। अभी कुछ पंक्तियां ही पढ़ी थीं कि अंदाज़ा हो गया कि तस्लीमा नसरीन ने अपने इस लेख में क्या लिखा होगा। कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने तस्लीमा नसरीम का उपन्यास ‘लज्जा’ और उसके अपने जीवन पर आधारित पुस्तक ‘द्विखंडिता’ भी पढ़ी है। जिस समय इस पुस्तक के समर्थन में भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग गोलबंद था तब मैंने इस पुस्तक के कुछ अंश अपने लेख में शामिल करते हुए समर्थन करने वालों से निवेदन किया था, विशेषतः साहित्य से जुड़ी महिलाओं से कि क्या वह अपने परिवार के व्यक्तियों के बीच बैठ कर इसे पढ़ सकती हैं? यह विचार प्रकट कर सकती हैं? इनका समर्थन कर सकती हैं? उनकी बहू या बेटी अगर इस तरह के वाक्य अदा करे तो क्या वह पसंद करेंगी? निश्चित रूप से भारतीय समाज इसकी अनुमति नहीं देता। जहां तक पर्दे का संबंध है तो बेशक इस्लाम में पर्दे का रिवाज है, मगर हज़ारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति और हिंदू महिलाओं की जीवनशैली पर निगाह डालें तो आज इतना न सही पूर्व में बहुत सीमा तक उनका चेहरा भी साढ़ी के पल्लू या दुपट्टे से ढका होता था। अगर ईसाई नन्स का लिबास आपके दिमाग़ में हो तो निःसंदेह उसे बुर्क़ा न कहें मगर सर से पैर तक उनका जिस्म भी ढका होता है। इसे जहालत कहेंगे, पिछड़ा पन, या कोई और नाम? अब यह तो उन्हें तय करना होगा जो तस्लीमा नसरीन के दृष्टिकोण के समर्थक हैं। मैंने जिस घटना का उल्लेख करते हुए अपने लेख की शुरूआत की थी, वह हैदराबाद के एक जलसे में महिला दिवस पर मेरा भाषण था। मैंने अपने सामने बैठी बुर्क़ा पोश महिलाओं पर एक नज़र डालते हुए कहा था कि जब हम उस समय से आज तक के परिदृश्य पर नज़र डालते हैं अर्थात जब यह दुनिया अस्तितव में आई तो हमें अंदाज़ा होता है कि जब औरत और मर्द को यह एहसास पैदा हुआ कि उनके शरीर के वह कौन से अंग हैं जो उन्हें एक दूसरे से अलग पहचान देते हैं तो उन्होंने पहले इन अंगों को पेड़ की छाल से छुपाना शुरू किया। यही अंतर था नर और मादा, जानवरों और इन्सानों के बीच। नर और मादा जानवरों में इतनी समझ नहीं थी, हां मगर इन्सानों के बीच उस दौर में भी इतनी समझ थी कि अपने शरीर के किस भाग को छुपाया जाना है फिर धीरे-धीरे और जागरूकता पैदा हुई तो पेड़ की छाल की जगह जानवरों की खाल ने ले ली। ज़ाहिर है कि पेड़ की छाल की तुलना में जानवरों की खाल शरीर को और अधिक और बेहतर अंदाज़ में ढक सकती थी। फिर जैसे जैसे समाज में और परिवर्तन आया, हम और विकास की राह पर आगे बढ़े, तो जानवरों की खाल की जगह कपड़ों ने ले ली, फिर यह कपड़ा अलग-अलग अंदाज़ का लिबास बनता गया। तमाम दुनिया में उच्च परम्पराओं के साथ समाज में रहने वाली महिलाओं का लिबास देखेंगे तो चाहे वह ब्रिटेन की महारानी हों या हमारे राजा-रजवाड़ों की हिंदू रानियां या आज भी हमारे गांव में जहां भारत बसता है सबके शरीर सभ्य कपड़ों से ढके मिलेंगे। मैंने यहां इस्लामी समाज का उदाहरण इसलिए नहीं दिया कि हज़रत आदम के दुनिया में आगमन को छोड़ दें तो इस्लाम तो हिंदू धर्म के बहुत बाद दुनिया में अपनाया जाने वाला धर्म है। अब अगर दुनिया के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक जिस्म के ढके जाने के तरीक़े पर निगाह डालें तो जैसे-जैसे समाज में चेतना पैदा होती गई हम सभ्य होते गए, हमारे शरीर पर लिबास बढ़ता गया, अब अगर प्रगति की पहचान फिर दौरे जहालत के लिबास की तरफ़ लौटना है तो मुझे इस सिलसिले में कुछ नहीं कहना। तय करना है उन लोगों को जो समाज को तमाम तरह की गन्दगियों से दूर रखना चाहते हैं।

अब एक प्रश्न भारत सरकार से। तसलीमा नसरीन का भारत आना अक्सर विवादास्पद रहा है। एक विशेष वर्ग को तसलीमा नसरीन के विचारों से हमेशा परेशानी होती रही है, हमारे उलेमा-ए-कराम उसका विरोध करते रहे हैं, फिर भी हमारी सरकार तसलीमा नसरीन का स्वागत करती रही है। पश्चिमी बंगाल में तसलीमा के आगमन पर पिछले दिनों जो हंगामा हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। फिर भी भारत में उसे रहने की अनुमति दी गई, यह कौन सी नैतिक विवशता है? हमारी सरकार ही बेहतर जानती होगी। क्या एक विवादास्पद महिला को जिसे ख़ुद उसके घर, परिवार और देश ने अपने साथ रखना पसन्द नहीं किया क्या हमें उसको अपने सर आंखों पर बिठाना चाहिए? बावजूद इसके कि तसलीमा के विचारों की आज़ादी, उनके लेख, हमारे देश में हिंसा का आधार बन सकते हैं, बनते रहे हैं। अगर तसलीमा का स्वागत करना हमारी सरकार की नैतिक विवशता है तो क्या कुछ पाबंदियाँ तसलीमा पर नहीं लगायी जानी चाहिएं। उस मीडिया पर नहीं लगाई जानी चाहिए जो शांतिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने का कारण बनते है। हम इस विषय पर अधिक कुछ नहीं कहना चाहते सिवाए इसके कि जिसे अपना जीवन अपने अंदाज़ में जीना अच्छा लगता है वह उस तरह जिए लेकिन शर्त यह है कि समाज में उसका कोई ऐसा प्रभाव न पड़े कि शांति व्यवस्था ख़तरे में पड़ जाए। जहां तक बुरक़े का सम्बंध है अगर इसे एक विशेष वर्ग पसंदीदगी की नज़र से देखता है तो अन्य लोगों को इस पर आपत्ति क्यों? क्या वह नहीं देखते कि ईसाई नन्न का लिबास भी लगभग यही है? और अगर कुछ महिलाएं बुर्क़े के बिना रहना चाहती हैं, इस तरह कि समाज में कोई बुराई पैदा होने का ख़तरा न हो तो इस पर ग़लत आलोचना भी न हो। आज आवश्यकता है इस बात पर ग़ौर करने की है कि हमारे देश की ख़ुशहाली व प्रगति के लिए शांति व एकता कितनी आवश्यक है? साम्प्रदायिक सौहार्द कितना आवश्यक है? क्या केवल एक विदेशी महिला के विचारों को आधार बनाकर अपने माहौल को दूषित करना आवश्यक है?

मैंने यह लेख कल लिखा था अर्थात से एक दिन पहले ही यह लेख आप तक पहुंच सकता था, मगर फिर यह सोच कर रोक दिया कि क्या तसलीमा नसरीन के विषय को इतना महत्व देने की आवश्यकता है कि उस पर लिखा जाए, क्यों न 2-4 दिन प्रतीक्षा कर ली जाए कि स्थितियाँ सामान्य हो जाएं, सरकार दोबारा अपने निर्णय पर ग़ौर कर ले और उचित क़दम उठाये, लेकिन आज शाम जब कोलकाता की टीपू सुल्तान शाही जामा मस्जिद के इमाम मौलाना नूरूर्रहमान बरकती व मुजददी साहब, रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के दिल्ली कार्यालय मिलने के लिए तशरीफ़ लाए और उन्होंने बताया कि इस विषय पर उन्होनें ममता बनर्जी व अन्य ज़िम्मेदार राजनीतिज्ञों से भी बात की है, जो सरकार में शामिल हैं और कल अर्थात 5 मार्च को जुमे के दिन कोलकाता में वह तसलीमा नसरीन के खि़लाफ़ एक प्रदर्शन भी करने जा रहे हैं तो मुझे लगा कि इस लेख को प्रकाशित कर ही देना चाहिए और जिस तरह यह मामला तूल पकड़ता नज़र आ रहा है उससे तो लगता है कि कुछ और लिखने की आवश्यकता पेश आ सकती है, क्योंकि भारत सरकार का इस ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है और साथ ही समाज तक यह संदेश पहुंचना भी आवश्यक है कि इसे लेकर हम किसी विवाद के शिकार न हों, जो विवादास्पद है बस उसी को विवादास्पद रहने दें, हम क्यों............................................

4 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आपकी सोच साम्प्रदायिक है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

न तो हम किसी मुस्लिम देश में रह रहे हैं और न अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक है. यदि मकबूल फिदा हुसैन को स्वतन्त्रता है तो वह तस्लीमा को क्यों नहीं. फिर यही स्वतन्त्रता डेनिश कार्टूनिस्ट के मामले में क्यों नहीं लागू होती तब आप जैसे मुस्लिमों के विचार क्यों बदल जाते हैं.

अजय यादव said...

बर्नी जी, बचपन की जूती जवानी में नहीं पहनी जा सकती...धर्म भी मानव सभ्यता के विकासक्रम में ही उपजे हैं...हर समस्या का इलाज धार्मिक किताबो में ही मत खोजिए-यह कठमुल्लापन है। कोई बच्चा, जो मुसलमान समुदाय में पैदा नहीं हुआ है, किसी बुर्के वाली महिला को जब पहली बार देखता है-बहुत कष्ट होता है यह बताने में कि वह एक महिला है। पूरी दुनियां किसी न किसी बहाने महिला विरोधी है। साथ दे सकतें हैं तो साथ दीजिए तस्लीमा का, धार्मिक किताबों में औरतों की आजादी दिखाने का आपका ढोंग नहीं चलेगा....

Anonymous said...

Dear Group Editor "Daily Sahara Urdu"
Assalam o Alaikum
Always I read your published articles weather I be in South India or North.your writing gives us a right thought.
Never mind if some negative thinker comments against your article.About Taslima... you have written very good.
Every one can understand the plight of Taslima, she is not being allowed to live in her own Nation . She was betrayed by her own country. She must have accoladed for her written book.

Tanveer Alam Qasmi.