Thursday, December 3, 2009

लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट के बाद.................?


लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट पेश की जा चुकी है। संसद के अंदर और बाहर हंगामा जारी है। मैंने अभी यह रिपोर्ट पढ़ी नहीं है और पढ़ने में कोई विशेष रुचि भी नहीं है, मगर पढ़ना आवश्यक है और केवल पढ़ना ही नहीं, इस रिपोर्ट का ध्यानपूर्वक अध्ययन भी आवश्यक है, लेकिन 900 पृष्ठों से अधिक पृष्ठों पर आधारित इस रिपोर्ट को पढ़ने में बड़ा समय लगेगा। और मैं समय नष्ट किए बिना भारत सरकार और देश की जनता (हिन्दू और मुसलमानों सहित) सादर निवेदन करना चाहता हूं कि क्या हमें बेहद गंभीरता के साथ वर्तमान स्थिति पर नज़र नहीं रखनी चाहिए। ज़मीनी सच्चाई क्या है?

क्या हम नहीं जानते, क्या हमें यह आशा नज़र आती है कि लिब्राहन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में जिन्हें बाबरी मस्जिद की शहादत का ज़िम्मेदार ठहराया है, उन्हें सज़ाएं दी जा सकती हैं? उन्हें गिरफ़्तार करके जेल भेजा जा सकता है? नहीं, अधिक से अधिक उन पर मुक़दमे चलाए जा सकते हैं, जो वर्षों तक चलते रहेंगे और उनकी राजनीति भी चलती रहेगी, अदालत में उनकी हर पेशी पर समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर समाचार प्रकाशित किए जाते रहेंगेे, रेडियो और टीवी पर वह छाए रहेंगे, उनके समर्थन में जगह जगह धरने और प्रदर्शन होंगे, इन सबकी तैयारियां अभी से की जा रही होंगी, अतः इस रिपोर्ट के पेश किए जाने के बाद भी क्या होगा?


कम से कम मुझे तो बिल्कुल भी यह आशा नहीं है कि बाबरी मस्जिद की शहादत के 17 साल बाद भी वास्तव में किसी एक अपराधी को सज़ा दी जा सकेगी। भले ही उसने अपना अपराध स्वीकार क्यों न कर हो।

फिर क्या आज हमारे सामने इन अपराधियों का अपराध केवल बाबरी मस्जिद को शहीद कर देना ही है? क्या केवल उन पर इस बात के लिए ही मुक़दमा चलाया जाना काफी ठहराया जा सकता है कि बाबरी मस्जिद को उनके उकसावे पर शहीद किया गया। उन्होंने जनता की भावनाओं को उग्र करने वाले भाषण दिए, बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किए जाने की साज़िशें रचीं या फिर हमें अब इस सच्चाई को भी स्वीकार करना चाहिए कि उनका अपराध एक मस्जिद को शहीद कर देना ही नहीं है, बल्कि पिछले 17 वर्षों में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद जो साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं गुजरात में हुए मुसलमानों के नरसंहार के वह सब भी शामिल रखे जाएं और बाबरी मस्जिद को शहीद करने के अपराध के साथ-साथ इस ख़ून-ख़राबे का ज़िम्मेदार भी उन्हें ठहराया जाए, यह एक ऐसा सच है जो खुली आंखों से सबको दिखाई देता है, मगर इसे साबित नहीं किया जा सकता।

शायद किसी भी राजनीतिज्ञ को सज़ा नहीं दी जा सकती, इसलिए कि पहले तो उसे अदालत की दहलीज़ तक लाना ही बहुत कठिन होगा और यदि ले भी आया गया तो यह मुक़दमे उनकी राजनीति के लिए ही काम आएंगे, इसे उनकी राजनीतिक भूमि तैयार करने के लिए साम्प्रदायिक रंग दिया जाएगा और कुछ दिन के बाद वह ससम्मान बरी होकर फिर से जनता के बीच यही साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाते दिखाई देंगे। आख़िर कब तक चलेगा यह सिलसिला? कब तक मासूम भारतीय जनता की भावनाओं से खेला जाएगा?

फिर प्रश्न पैदा होगा तो क्या कुछ भी न किया जाए? क्या मुक़दमे भी न चलाए जाएं। प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है, मुक़दमे अवश्य चलाए जाएं, मगर इस रूप में कि जब सरकार कुछ महीनों के अंदर ही ‘फास्ट ट्रेक अदालत’ में मुक़दमा चलाकर उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचाने का साहस रखती हो। अगर भारत सरकार(कांग्रेस) का उद्देश भी अपने वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए इस रिपोर्ट को जनता के सामने लाना और अपराधियों पर केवल मुक़दमे क़ायम करना ही है तो फिर जनता को सिवाए हानि के इसका कोई लाभ दिखाई नहीं देता।

भारत सरकार के साथ-साथ भारत की जनता अर्थात हिन्दुओं और मुसलमानो को भी अब इस सच्चाई पर ध्यान देना होगा कि क्या उनकी मांगें पूरी हो सकती हैं? वह जिस ज़िद पर अड़े हैं क्या वह पूरी हो सकती है, क्या अपने-अपने दृष्टिकोण से जिसे वह न्याय मानते हैं क्या उसे वर्तमान स्थिति में कार्यरूप दिया जा सकता है? और अगर ऐसा प्रयास भी किया गया तो उसके लिए क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा? कितने इन्सानी जीवन कुरबान करने पड़ेंगे? यह सोचना होगा। जोश और भावनाओं की रौ में बह कर यह कहा तो जा सकता है कि राम के नाम पर या अल्लाह के नाम पर हज़ारों जानों की कुरबानी दी जा सकती है, मगर क्या यह बुद्धिमानी होगी?

क्या वास्तव में यह श्री राम और अल्लाह को प्रसन्न करने वाला क़दम होगा? आज कौनसी अदालत ऐसे किसी भी फ़ैसले को लागू करने की स्थिति में हे जो वहां मस्जिद के पुनर्माण के पक्ष में हो, या राम मंदिर के पक्ष में हो? दोनों ही स्थितियों में राष्ट्रव्यापी साम्प्रदायिक दंगों की आशंका रहेगी। तब क्या कोई ऐसा रास्ता निकालने पर ध्यान नहीं देना चाहिए, कि देश में शांति भी बनी रहे और साम्प्रदायिक सोहार्द भी बना रहे, राम मंदिर भी बने, बाबरी मस्जिद भी बने, मगर उस विवादित स्थान पर हमेशा हमेशा के लिए ही यह विवाद ख़त्म करने की नियत से कोई ऐसा राष्ट्रीय स्मार्क बने जिसका किसी विशेष धर्म से कोई संबंध न हो।


निसंदेह मुट्ठी भर हिंदू या मुसलमान ऐसे किसी भी फैसले को रद्द करने में देर नहीं लगाएंगे, इसलिए कि ऐसे किसी भी फैसले से बहुतों की राजनीतिक दुकानें बंद होने का खतरा पैदा हो जाएगा। पिछले 17 वर्षों में बल्कि इससे भी कहीं पहले से बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि के नाम पर जो राजनीति का कारोबार चल रहा है, वह फिर किस तरह जारी रहेगा? लेकिन यह ऐतिहासिक काम करने का साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर सकती है। स्थितियां बहुत हद तक इसके लिए अनुकूल हैं। संसदीय चुनावों को गुज़रे हुए अभी 7 माह भी नहीं हुए हैं, अर्थात अगला संसदीय चुनाव लगभग साढ़े 4 वर्ष दूर है।

उत्तर प्रदेश जो सबसे अधिक इस निर्णय से प्रभावित होने वाला राज्य है, वहां भी चुनावों में अभी लगभग दो वर्ष शेष हैं, अर्थात तुरंत ऐसे किसी भी निर्णय को राजनीति पर हावी होने का अवसर नहीं मिलेगा और अगर कांग्रेस अपने इस शासनकाल में ऐसा कोई निर्णय लेने का कारनामा अंजाम दे पाती है तो भारतीय राजनीति में इस सरकार का उल्लेख स्वर्ण अक्षरों में किया जाएगा। इसलिए कि कभी न कभी तो कोई एक निर्णय लेना ही होगा, आख़िर कब तक इसे यूं ही टाला जाता रहेगा। साम्प्रदायिक दंगे होते रहेंगे, बेगुनाह इन्सानों की जानें जाती रहेंगी और इन्सानी जीवन के मूल्य पर राजनीतिक तमग़े प्राप्त किए जाते रहेंगे।


हम जानते हैं कि यदि राज ठाकरे जैसे एक मामूली राजनीतिज्ञ को गिरफ़्तार करने का प्रयास महाराष्ट्र के अंदर तूफान बरपा कर देता है, मुम्बई में सैंकड़ों गाड़ियों को तोड़ दिया जाता है, अगर बाल ठाकरे के लिए एक अप्रिय वाक्य किसी न्यूज़ चैनल को हानि पहुंचाने का कारण बन सकता है तो फिर पिछले 50 वर्षों से साम्प्रदायिक राजनीति के झण्डा बरदारों पर मुक़दमा चलाने और सज़ा देने का निर्णय कितना कठिन साबित हो सकता है। निसंदेह इस वाक्य के साथ यह दुखद स्थिति भी पैदा हो सकती है कि तब तो किसी राजनीतिज्ञ को किसी भी बड़े से बड़े अपराध के बावजूद सज़ा नहीं दी जा सकती। हां सच तो यही है चाहे कितना ही कष्टदायक क्यों न हो।

क्योंकि हर राजनीतिक दल ने अपने कार्यकर्ताओं के रूप में अपने सुरक्षा दस्ते बना लिए हैं जो हर हाल में अपने स्वामी को बचाना ही अपना उत्तरदायित्व समझते हैं। चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े, उनके द्वारा की जाने वाली तोड़-फोड़, आगज़नी, ख़ूनख़राबा सब कुछ क्षमा योग्य है। क़ानून उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता, पहले तो किसी की गिरफ्तारी होती ही नहीं और अगर होती भी है तो उसे कोई सज़ा नहीं होती।

मैं अभी लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट की समीक्षा पेश नहीं कर रहा हूं, हां मगर इस रिपोर्ट के संदर्भ में बात अवश्य कर रहा हूं। इसलिए कि आख़िर इस रिपोर्ट में ऐसा क्या होगा जिसका जनता को पता नहीं है। अधिक से अधिक कुछ नामों का इज़ाफा होगा, ऐसे कुछ सुबूत होंगे, एसे कुछ गवाहों को उल्लेख होगा जिससे कि यह साबित हो सके कि यह वही लोग हैं जो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए उत्तरदायी हैं, फिर इसके बाद क्या होगा? मेरा प्रश्न तो यही है कि आख़िर सब कुछ सुबूतों के साथ प्राप्त हो जाने पर भी क्या उनको सज़ाएं दी जा सकेंगी? गुजरात में मुसलामनों के नरसंहार के बाद अदालत ने नरेन्द्र मोदी को ‘नीरो’ तक कहा।

तमाम केन्द्रीय नाजनीतिज्ञों ने नरेन्द्र मोदी के अपराध को चिन्हित किया, मगर क्या नरेन्द्र मोदी पर कोई मुक़दमा चला? क्या यह आशा की जा सकती है कि ठोस सुबूत मिल जाने पर भी नरेन्द्र मोदी को कोई सज़ा दी जा सकेगी? हमने माना कि लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम एक नया रहस्योदघाटन है, मगर लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, बाल ठाकरे, उमा भारती, विनय कटियार जैसे नाम किसकी ज़बान पर नहीं थे। कौन नहीं जानता कि यह लोग केवल बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए ही उत्तरदायी नहीं हैं, बल्कि इसके बाद होने वाले साम्प्रदायिक दंगो के लिए भी उत्तरदायी हैं, जिनमें हज़ारों निर्दोष लोगों की जानें गईं।

इनमें हिन्दू भी थे, इनमें मुसलामन भी थे और भारत भर में होने वाले बम धमाके क्या इसी सोच से प्रभावित नहीं हैं? क्या मालीगांव बम धमाकों की जांच से नतीजा कुछ और निकल रहा था। शहीद हेमंत करकरे ने जिन अपराधियों की निशानदही की, क्या वह राम मंदिर आंदोलन से जुड़े दिखाई नहीं देते? क्या यह सच नहीं है कि बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए उत्तर दायी लाल कुष्ण आडवानी माली गांव बम धमाकों के अपराधियों के लिए सबसे बड़ी ढाल बन गए थे? साध्वी प्रज्ञा सिंह को बचाने के लिए उसके साथ लचीला रवैया अपनाने की बात करने के लिए वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाह कार एम॰के॰ नारायनण से भी मिले और प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह से भी, इसीलिए तो मैंने शुरू में निवेदन कर दिया था कि मैंने लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट अभी पढ़ी नहीं है और पढ़ने मैं कोई विशेष रुचि भी नहीं है, इसलिए कि मैं वर्षों से हर रोज़ दर्जनों अख़बार पढ़ता हूं उनमें छपी ख़बरों में ऐसे तमाम चेहरे साफ-साफ दिखाई देते रहते हैं। वैसे भी ऐसे तमाम कमीशनों की अब तक की रिपोर्टों का क्या हाल हुआ, यह सारा देश जानता है।

हमारी सरकारें कितनी कमज़ोर हैं, हमारी व्यवस्था कितनी कमज़ोर है, हम इस राजनीतिक ग़ुंडागर्दी के सामने कितने लाचार और बेबस हो गए हैं, यह अब कोई ढकी-छुपी बात नहीं है। महाराष्ट्र की राजनीतिक ग़ंुडागर्दी सड़कों पर भी देखने को मिली और विधान सभा में भी, क्या कर सके हम?


अब जिस समय मैं यह लेख लिख रहा हूं तो मेरी निगाहों के सामने टीवी न्यूज़ चैनलों की स्क्रीन पर संसद में होने वाला हंगामा जारी है। कारण हमारे गृहमंत्री पी॰ चिदम्बरम ने अपने बयान के बीच शब्द ‘हिन्दू आतंकवाद’ का प्रयोग क्या कर दिया, संसद में उपस्थित एक विशेष मानसिकता के लोगों के लिए यह बिल्कुल असहनीय हो गया, इसलिए कि उनकी ज़बानें मुस्लिम आतंकवाद, इस्लामी आतंकवाद कहने की आदी हैं और यही शब्द सुनने की आदत उनके कानों को पड़ गई, अतः न तो शहीद हेमंत करकरे के द्वारा दिखाया गया ‘हिन्दू आतंकवाद का चेहरा’ उन्हें बर्दाश्त हो सका, न पी॰चिदम्बरम की ज़बान से निकला ‘हिन्दू आतंकवाद’ का वाक्य।

ऐसी स्थिति में बाबरी मस्जिद की शहादत जो ‘हिन्दू आतंकवाद’ का जीता जागता इतिहास है और लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट एक दस्तावेज़ है जो ऐसे चेहरों को बेनक़ाब करती है तो फिर क्या आशा की जाए कि उनके अपराधी साबित हो जाने के बाद भी उन्हें कोई सज़ा दी जा सकेगी।

2 comments:

Mohammed Umar Kairanvi said...

आपका ब्लाग धूम मचा देगा, ऐसी गजब की जानकारियां होती हैं आपके लेख में कि नेट पर हिन्‍दी वाले हैरत में पड जायेंगे,

ब्लागवाणी लिंक पर लिंक नहीं ब्लागवाणी पसंद लिखें, यहां पाठकों को पसंद संख्‍या पर माउस क्लिक करना होता है, दूसरी बात http://chitthajagat.in/ पर भी अपने को रजिस्‍ट्ड करें वहां पहले मेम्‍बर बनना होता है फिर एक प्रक्रिया से गुजर कर बन जाता है, ब्लागवाणी पर बनना मुश्‍किल था उधर आसान है,

Mohammed Umar Kairanvi said...

आपके ब्लाग का लिंक शायद इस लिए काम नहीं कर रहा कि आपने यह layout में text में डाल दिया होगा, इस के कोड को layout के add a gadget में HTML/JavaScript में डालो फिर यहां ब्लागवाणी लिखा दिखाई देगा,