Tuesday, November 10, 2009

एक नज़र अल्लामा इक़बाल की शिक्षा और शैक्षिक संस्थानों पर भी


9 नवम्बर मेरे बेटे सुब्रत अज़ीज़ का जन्मदिवस है। 8 नवम्बर की रात 12 बजकर 1 मिनट पर जब मैं उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दे रहा था तो मैंने उससे पूछा कि क्या तुम जानते हो क़ौमी तराना ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुसतां हमारा’’ किसने लिखा है। उसने बताया ‘‘हां, अल्लामा इकबाल की’’, फिर मैंने पूछा ‘‘क्या तुम्हें उनके जन्म की तारीख मालूम है और क्या तुम उनके बारे में इससे अधिक कुछ जानते हो?’’ वह खामोश रहा। दरअसल उस रात मैं अल्लामा इकबाल से सम्बन्धित मोहम्मद बदीउज़्ज़मा ख़ां (गया) का रिसर्च पेपर पढ़ रहा था।

मुझे नहीं मालूम यह लेखक की थेसिस का एक भाग था या उनके अध्ययन पर आधारित लेख, बहरहाल यह इस क़दर मालूमाती था कि मुझे लगा, इसे रिसर्च पेपर का नाम दिया जा सकता है।

जब मैंने अपने बेटे को बताया कि अल्लामा इकबाल का जन्म दिवस 9 नवम्बर है, तो वह बहुत खुश हुआ। मैं चाहता हूं कि अल्लामा इकबाल की जिन्दगी और उनकी शिक्षा और शिक्षण संस्थानों के बारे में जो कुछ अपने बेटे को बताया, वह सब हमारे नौजवान लड़के लड़कियां भी जानें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी इससे मार्गदर्शन हासिल कर सके। यूं भी आजकल मैं जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन के 16वें प्रस्ताव, जिसका सम्बन्ध शिक्षा तथा शिक्षण संस्थानों से है, पर लिख रहा हूं कल का लेख भी इसी विषय पर आधारित होना चाहिए था, लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा में मुजाहिदे हिन्दी अबू आसिम आज़मी के साथ जो घटना घटित हुई, उसके लिए एक दिन की प्रतीक्षा भी उचित नहीं लगी।

हालांकि ऐन वक्त पर विषय को बदल देना बहुत आसान नहीं था, इसलिए कि शाम को जन्मदिन के संक्षिप्त समारोह में कुछ मेहमानों को भी आमंत्रित किया गया था और कम से कम आज की शाम और रात का कुछ समय मैंने अपने परिवार के साथ बिताना तय किया हुआ था, फिर भी मेरे दायित्व ने मुझे यह आभास दिलाया कि अबू आसिम आज़मी के साथ जो कुछ हुआ, उसे आज ही लिखना और वन्दे मातरम के प्रश्न पर मुसलमानों को निशाना बनाकर मुस्लिम विरोधी लोग और संस्थाएं जो तूफान उठा रही थीं, समय पर उन्हें यह आइना दिखाना भी आवश्यक है कि अब राष्ट्रभाषा के अपमान पर वह क्या कहेंगे? क्या अब भी उनके शब्दों की धार उतनी ही तीव्र होगी, जितनी कि राष्ट्रगीत के मामले में थी, या फिर अब मसलेहत आड़े आएगी?

लिहाज़ा कल का लेख ‘‘यह थप्पड़ अबू आसिम आज़मी पर नहीं राष्ट्रीय भाषा पर था’’ इसी विषय पर था। अब चर्चा श्रृंद्धाजलि के साथ, अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अल्लामा इकबाल की शिक्षा और शिक्षण संस्थानों की। यह इसलिए भी समय पर है कि अगर हमारे युवक सरकारी और गैर सरकारी पाठशालाओं के धर्म विरोधी वातावरण से भयभीत होकर यह सोचने लगें कि मदरसे तो लगभग 4 प्रतिशत शिक्षा की आवश्यकता ही पूरी कर पा रहे हैं, अगर 96 प्रतिशत छात्र-छात्राए अब नए अस्तित्व में आने वाले धार्मिक शैली के संस्थानो से पहले शिक्षा ग्रहण करें तो कहां करें? तो हमारा सुझाव है कि वह अल्लामा इकबाल के जीवन को शिक्षा ग्रहण करने के मामले में मार्गदर्शन बनाएं और निर्भय होकर आगे बढ़ें।

सड़क पर निकलने से दुर्घटना का शिकार हो सकते हैं, इस भय से स्वयं को घर की चार दीवारी में बन्द तो नहीं किया जा सकता। हां सावधानी जरूरी है।

16 वर्ष की आयु में इकबाल ने फस्र्ट डिवीज़न से मैट्रिक पास किया और इण्टरमीडिएट स्काच मिशन स्कूल से पास किया। जब अल्लामा इकबाल ने स्काच मिशन कालेज स्यालकोट में प्रवेश प्राप्त किया तो आपके पिता ने आपसे वादा लिया कि तुम शैक्षणिक जीवन में सफल होने के बाद अपने जीवन को इस्लाम के लिए समर्पित कर दोगे। इक़बाल इस संकल्प पर जीवन भर कायम रहे। 1897 में इकबाल ने पंजाब यूनिवर्सिटी से बी.ए. पास किया और अरबी विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। उसी साल एम.ए. (दर्शनशास्त्र) में प्रवेश लिया, जहां प्रोफेसर टी.डब्लयू अर्नाल्ड से सम्बन्ध स्थापित हुए। 1899 में एम.ए. की परीक्षा दी और पंजाब भर में प्रथम आए।

फरवरी 1900 को पहली बार इकबाल ने अपनी नज़्म ‘‘नाला-ए-यतीम’’ अंजुमन के मंच से गाकर सुनाई तो सुनने वाले स्तब्ध रह गये। यह दिल को छू लेने वाली नज़्म इतनी लोकप्रिय हुई कि अंजुमन की सभाओं में लोग इकबाल को सुनने के इच्छुक रहा करते थे, अल्लामा अपनी प्रभावकारी नज़्मों से सबका दिल जीत लेते थे ‘‘हिमालय’’ और ‘‘तराना-ए-हिन्दी’’ उसी ज़माने की लोकप्रिय नज्में हैं, जो उन्हीं जलसों में सुनाई गईं। जलसों की लोकप्रियता और सभाओं के महत्व का अन्दाज़ा इससे होता है कि एक जलसे में मौलाना हाली, डाक्टर नज़ीर अहमद देहल्वी, मिर्ज़ा असर गोरगानी, मियां सर मोहम्मद शफी, सर शेख अब्दुल क़ादिर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ख्वाजा हसन निज़ामी जैसे महान व्यक्ति उपस्थित थे। राजकीय कालेज से शिक्षा पूरी करके इकबाल सितम्बर 1905 को लाहौर से यूरोप रवाना हो गये।

लन्दन पहुंचकर इकबाल ने कैम्बरिज यूनिवर्सिटी के ट्रीनिटी कोंलेज में प्रवेश लिया, जहां के नियमों के अनुसार इकबाल को दोबारा बी.ए. करना पड़ा। यहां प्रोफेसर मैक.टी. गे्रट से इकबाल ने बहुत कुछ सीखा। उसके बाद इकबाल लन्दन के मशहूर कालेज ‘‘लिंकनस इन’’ में कानून की शिक्षा प्राप्त करने लगे। यह वही कालेज है जिसमें कायद-ए-आज़म ने कानून की शिक्षा प्राप्त की थी। उसके बाद इकबाल पी.एच.डी. के लिए जर्मनी गये और उसके लिए उन्होंने ‘‘फलसफा और तसव्वुफ’’ विषय चुना।

जर्मनी में निवास की इकबाल की एक विशेषता यह है कि उन्होंने केवल तीन महीने में जर्मन भाषा में इतनी योग्यता प्राप्त कर ली कि पी.एच.डी. की डिग्री के लिए मौखिक इंटरव्यू जर्मन भाषा ही में दिया और म्यूनिख़ यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में डाक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त की उसके बाद लन्दन वापस आ गये। 1 जनवरी 1923 को इकबाल को सर की उपाधि मिली। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के कुछ वर्ष पूर्व 21 अप्रैल 1938 को अल्लामा इकबाल ने इस दुनिया में अंतिम साँस ली। उनके द्वारा क़ौमी तराना ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’’ लिखने के बावजूद, पाकिस्तान समर्थक होने पर चर्चा फिर कभी।

बहरहाल इरादा था कि आज का लेख 30वें अधिवेशन के 16वें प्रस्ताव से जुड़ा होगा, मगर महाराष्ट्र विधानसभा में राष्ट्रभाषा का जो अपमान किया गया है उस पर भी नई स्थितियों की रोशनी में बात की जायेगी, मगर शायद आज फिर जगह कम पड़ जाये, इन दोनों विषयों पर अपनी बात कहने के लिए, क्योंकि कल की व्यस्तता ने मुझे इतना अवसर नहीं दिया कि मैं अपनी डाक, जिसमें ई-मेल पर प्राप्त होने वाले पत्र भी शामिल थे, का अध्यन कर सकता।

लिहाज़ा आज कुछ समय निकालकर जब मैं उन सब पत्रों पर नज़र डाल रहा था तो अपने ई-मेल की डाक में मुझे जनाव अज़ीमुल्लाह सिद्दीकी कासमी का पत्र भी प्राप्त हुआ, लिहाज़ा मैं समझता हूं कि इस पत्र को हूबहू प्रकाशित कर दिया जाये, हां मगर मैंने उसमें एडिटिंग के नाम पर इतना अवश्य किया है कि उन यूनिवर्सिटियों के नामों को हटा दिया है, जिनका उल्लेख किया गया है, वह इसलिए कि सम्बन्धित संस्थान तथा वहां शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र-छात्राओं के लिए पीड़ा पहुंचाने वाला और आपत्तिजनक न हो और वह पत्र लिखने वाले से नाराज़ न हो जाएं और हां मैं इस सिलसिले में लिखे गये अपने उस आपत्तिजनक शब्द ‘‘तालिबानी’’ को वापस लेता हूं बल्कि माफी चाहता हूं ऐसे किसी भी वाक्य के लिए, जिससे किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची हो, परन्तु निवेदन बस इतना सा है कि हम सबकी निगाह में कौम का सर ऊंचा रखने और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य निजी सोच और स्वाभिमान से बहुत ऊपर हो। और अब वह पत्र.........

जनाब अज़ीज़ बर्नी साहब! अस्सलामुअलेकुम
सबसे पहले मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन के विभिन्न प्रस्तावों पर चर्चा का जो सिलसिला आपने आरंभ किया है और उस सम्बन्ध में विभिन्न बिन्दुओं तथा पक्षों को उजागर करने का प्रयास किया है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। एक अच्छे और लोकतांत्रिक समाज में इस तरह की चर्चा और टिप्पणियां अच्छी निगाहों से देखी जानी चाहिएं, विशेष रूप से उन समस्याओं पर जिनका सम्बन्ध पूरे समुदाय से हो और पूरा समाज ऐसी गलतियों से खंडित और कभी कभी अपने अस्तित्व की रक्षा की समस्याओं से जूझ रहा हो तो उन गलतियों को चिन्हित किया जाना आवश्यक है।

हम सब चूंकि मुसलमान हैं, हमारे सामने कुरआन, हदीस और अल्लाह के रसूल स.अ.व की जिन्दगी है, उनके स्पष्ट संदेश हैं, उन संदेशों के अनुसार ही जीवन यापन करने के हम पाबन्द हैं, हमारे जीवन का कोई भी क्षेत्र अगर इस्लामी शिक्षा के विरूद्ध है तो हमें अल्लाह की पकड़ से गाफिल नहीं रहना चाहिए। जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के सामने भी यही पहलू तमाम पहलुओं से ऊपर है। अपने प्रस्तावों में जमीअत ने जहां आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है वहीं मुसलमानों से अपील की है कि वह ऐसे संस्थान स्थापित करें, जहां धामिर्क वातावरण में शिक्षा दी जा सके। जमीअत ने आधुनिक संस्थानों को धर्म विरोधी घोषित नहीं किया है बल्कि उन संस्थानों के वातावरण को धर्म विरोधी करार दिया है, जहां पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण किया जाता है।

बर्नी साहब! कभी ........... विश्वविद्यालय और ........... विश्व विद्यालय का वातावरण देख कर आएं, किस तरह बेहयाई की बीमारी आम है, कम से कम कपड़ों में नग्न युवा पीढ़ी की बहुलता, खुले तौर पर पे्रम का इज़हार यहां तक कि दिन और रात का अधिकांश हिस्सा शिक्षा के अलावा आपस की गपशप और यहां तक कि किसी पार्क में जाकर शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने की महामारी क्या धर्म विरोधी नहीं है? इस्लाम में सम्मान को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। मान सम्मान की सुरक्षा न केवल इस्लामी शिक्षा का अंग है बल्कि भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में भी इसको अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

कभी आप उन रिपोर्टों को भी पढ़िए जिनमें बड़ी बेशर्मी के साथ उन बेशर्म संस्थानों की 33 प्रतिशत लड़कियां अपने दोस्तों के साथ शारीरिक सम्बन्धों तक को भी मीडिया के सामने स्वीकार करती नज़र आएंगी, अगर यह गैर इस्लामी वातावरण नहीं है, तो फिर आप ही बतला दें कि इस सिलसिले में इस्लाम का मार्ग दर्शन क्या है, जमीअत ने उन संस्थानों में मुसलमानों को जाने से मना नहीं किया है, बल्कि स्वयं मुसलमानों से अपील की है कि वह धार्मिक वातवरण के अधुनिक संस्थान स्थापित करें। मुझे इस बात पर बहुत अफसोस है कि आपने इस्लामी वातावरण पर आपत्ति जताने में इस बात की भी परवाह नहीं की कि जो आपत्ति इस्लाम विरोधी किया करते हैं वही आपने कर डाली।

इस्लामी वातावरण में शिक्षा की अपील को तालिबानी व्यवस्था बतलाकर, इस तरह की आशा आपसे एकदम नहीं थी, आप तो मुसलमानों के सम्मान के लिए संघर्ष करते रहे हैं, इस्लाम का सर ऊंचा रखने के लिए कलम उठाया है, इसलिए इस तरह की बात अत्यन्त खेदपूर्ण है। तालिबान तो कल की पैदावार है और इस्लाम के अस्तित्व को 1500 साल बीत चुके हैं, संभव है कि तालिबान ने धार्मिक शिक्षाओं को आम करने का प्रयास किया हो मगर उनकी कार्यशैली गलत थी, कुछ लोगों की गलतियों की वजह से हर कोशिश को तालिबानी व्यवस्था करार देना यह अमरीकी जुबान है, आर.एस.एस. के बात करने की शैली है। आपके मुंह से यह शोभा नहीं देता।

मैं प्रोफेसर अख्तरउल वासे साहब का सम्मान करता हूं मगर उन्होंने अकारण अपनी बात का फैलाया है, उन्होंने जिस पहलू पर रोशनी डाली है उसका इस प्रस्ताव से कोई लेना देना नहीं है। प्रस्ताव में न तो गैर मुस्लिम से पढ़ने को मना किया है और न आधुनिक शिक्षा को नुकसान दायक करार दिया है बल्कि एक अन्य प्रस्ताव में मुसलमानों द्वारा स्थापित किये गये स्कूलों के लिए सरकार से समान पाठयक्रम बनाने की अपील की है, इसलिए प्रोफेसर साहब की बातों को अनुचित मतभेद के प्रयास की दृष्टि से देखा जा सकता है। मगर आपने इस्लामी वातावरण में शिक्षा को तालिबानी व्यवस्था से जोड़ने का प्रयास किया है, वह अत्यन्त खेदपूर्ण है, इस्लाम की व्यवस्था का तालिबानी व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस्लाम एक कदीम मज़हब है, जबकि तालिबान एक सुधारवादियों के कट्टरपंथी गिरोह का नाम है। जबकि इस्लाम में हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे आशा है कि आप आपना यह शब्द वापस ले लेंगे।

नोट: परम्परा के अनुसार मेरे इस लेख को प्रकाशन योग्य समझकर अपने कालम में स्थान अवश्य देंगे, जहां आप अपने समर्थन में अख्तर साहब को जगह दे रहे हैं तो पत्रकारिता की निष्पक्षता के अनुसार इसे भी प्रकाशित करेंगे। किसी तकलीफदेह बात के लिए क्षमा चाहता हूं।

अज़ीमुल्लाह सिद्दीक़ी क़ासमी, महपतिया, मधेपुर, मधुबनी, बिहार

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