Friday, October 2, 2009

मराठा ग़ैर मराठा नहीं, चुनिये सिर्फ हिन्दुस्तानी


मराठा ग़ैर मराठा नहीं, चुनिये सिर्फ हिन्दुस्तानी

मैं स्वयं को राजनीति से दूर ही रखना चाहता हूँ अभी तक इस प्रयास में सफल भी हूं मगर हालात कब क्या करवट लें कहना कठिन है। संसदीय चुनाव के बाद उपचुनाव का कोई विशेष महत्व नहीं था मगर महाराष्ट्र, हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों को निर्रथक या महत्वहीन नहीं कहा जा सकता।

इरादा नहीं था कि इन विधानसभा चुनावों के बारे में अपनी ओर से कोई राय पेश की जाये क्योंकि वह किसी के पक्ष में तो किसी के विरूद्ध जा ही सकती है इसीलिए अभी तक कुछ लिखा भी नहीं। जसवन्त सिंह जी की पुस्तक राष्ट्रीय, समाजी समस्याओं और मुठभेड़ जैसे मामलों पर लिखता रहा लेकिन पिछले कई दिनों से महाराष्ट्र विशेषतः मुम्बई और मालेगांव से पाठकों का लगातार दबाव है कि ऐसे अवसर पर चुप रहना उचित नहीं होगा इसलिए कि मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए राजनीतिक दल हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं उनके पास न तो संसाधनों की कमी है, न पैसे की, न पार्टी कार्यकर्ताओं की जबकि हमारे पाठकों को लगता है कि उनका महबूब अखबार उन्हें कोई राय बनाने में कारगर साबित हो सकता है अतः मुझे इस विषय पर लिखना ही होगा।

शायद मैं इस सबको नज़र अंदाज कर देता हालांकि यह बहुत मुश्किल होता मगर जब महाराष्ट्र के मराठी अखबार ‘‘सामना’’ जो मुम्बई से प्रकाशित होता है, जिसे शिवसेना का प्रवक्ता और बाला साहब ठाकरे की अधिवक्ता कहा जाता है ने अपने राजनीतिक प्रतिद्विवंदी और अपने ही परिवार के एक राजनीतिज्ञ राज ठाकरे को जिन्ना जैसा कहा तो खामोश रहना मुश्किल हो गया। अतः अब यह भी आवश्यक है कि लिखा जाये और यह भी आवश्यक है कि इस बीच मुम्बई में रहकर ही लिखा जाये ताकि वहां की परिस्थितियों का जायज़ा लेते हुए अपने इस किस्तवार लेख के सिलसिले को आगे बढ़ाया जा सके।

अगर शिवसेना और उसका आर्गन अखबार यह महसूस करता है कि राज ठाकरे कम से कम महाराष्ट्र के लिए या मराठों के लिए वही रोल अदा कर रहे हैं जो देश के विभाजन के समय या उससे पूर्व मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था तो हमारे लिए यह जसवन्त सिंह की पुस्तक ‘‘जिन्ना इंडपेंडेंस-पार्टिशिन इंडिया’’ से भी बड़ा धमाका है।

इसलिए कि जसवन्त सिंह ने तो केवल देश विभाजन के हालात बयान करते हुए मोहम्मद अली जिन्ना के इस सेक्यूलर किरदार को सामने रखा था जो भारत में राष्ट्रीय सद्भावना का ध्वजवाहक था, भारत और मुसलमानों को साथ लेकर चलना चाहता था, मगर बाला साहब ठाकरे के अखबार ‘‘सामना’’ ने तो यह स्पष्ट कर दिया कि मोहम्मद अली जिन्ना के सम्बन्ध में अब तक जो भी कहा जा रहा था वह सरासर गलत था।

मोहम्मद अली जिन्ना ने देश नहीं बांटा बल्कि मुसलमानों को बांटा था। अतः अगर मोहम्मद अली जिन्ना को किसी का दुश्मन ठहराया जा सकता है तो भारत का नहीं बल्कि मुसलमानों का। अभी तक तो पिछले 20 वर्षों से लिखकर और बोलकर यह बात हम कहते रहे थे कि भारत का विभाजन मुसलमानों को विभाजित करने के लिए था। इसके उत्तरदायी न हिन्दु हैं न मुसलमान बल्कि इसकी जिम्मेदार राजनीति है।

मोहम्मद अली जिन्ना का सपना था या इच्छा थी भारत पर राज करना और उस सपने को चकनाचूर करने का एक ही तरीका था कि ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा देकर मोहम्मद अली जिन्ना की आवाज़ को हमेशा-हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिया जाये हमारी इस बात को संकीर्ण सोच ठहराया जा सकता था, पक्षपातपूर्ण कहा जा सकता था, लेकिन अब जबकि लगभग वही बात इस देश की कट्टर हिन्दु मानसिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले बाला साहब ठाकरे के अखबार ‘‘सामना’’ ने कह दी तो फिर मान लीजिए कि हमने अब तक जो भी कहा या लिखा वह इतिहास की रोशनी में बयान किया गया एक कड़वा सच था जिसे निगलना मुश्किल हो रहा था।

अब आपके मन में यह सवाल पैदा हो सकता है कि देश विभाजन के सिद्धांत से बाला साहब ठाकरे के अखबार के द्वारा राज ठाकरे को जिन्ना कह देने का क्या सम्बन्ध? तो आदरणीय पाठकगण अगर आप गंभीरतापूवर्क गौर करेंगे तो यह समझना बिल्कुल मुश्किल नहीं है कि वास्तव में राज ठाकरे को मराठों के सम्बन्ध में जिन्ना ठहराकर शिवसेना ने उन ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रख दिया है जिनकी ओर हम संकेत कर रहे थे।

अगर शिवसेना यह मानती है कि मराठों के लिए राज ठाकरे मोहम्मद अली जिन्ना जैसी भूमिका निभा रहे हैं तो फिर मान लीजिए कि जिन्ना ने यही भूमिका मुसलमानों के सम्बन्ध में निभायी थी। अगर राज ठाकरे मराठियों को विभाजित कर रहे हैं तो मोहम्मद अली जिन्ना भी उस समय मुसलमानों को दो टुकड़ों में बांट
रहे थे। अतः जिसने मुसलमानों को दो टुकड़ों में बांटा हो उसे मुसलमानों का प्रतिनिधि या मार्गदर्शक कैसे ठहराया जा सकता है? उसे मुसलमानों का हितैषी, भला चाहने वाला कैसे ठहराया जा सकता है?

फिर उसके द्वारा बनाये गये देश को मुसलमानों का देश कैसे ठहराया जा सकता है? अर्थात जो आरोप आज तक शिवसेना और संघ परिवार की ओर से मुसलमानों पर लगाये जाते रहे। आज उन्हीं आरोपों के आइने में उन्हें अपना चेहरा देखने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘‘सामना’’ में राज ठाकरे को जिन्ना ठहराये जाने पर भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी उसे रद्द करने का कोई बयान नहीं आया है इसलिए कहा जा सकता है कि वह भी शिवसेना की इस सोच से सहमत है कम से कम इस मामले में तो हम शिवसेना को मुबारकबाद पेश करेंगे कि यह पहला अवसर है जब किसी हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले राजनीतिक दल के आर्गन ने अपने ही ढंग से अर्थात कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले किसी व्यक्ति को जिन्ना ठहराया है।

यह तो शिवसेना के इस बयान को देखने और समीक्षा करने का एक दृष्टिकोण था अब हम इसी सोच के दूसरे दृष्टिकोण पर बात करते हैं। वह जो स्वयं को राष्ट्रभक्त कहते हैं वह जो स्वयं को देश की राजधारा में चलने वाला ठहराते हैं और दिन रात यही ताना अल्पसंख्यकों विशेषतः मुसलमानों को देते रहते हैं, वह जो देश की अखंडता और अटूट भारत की बात करते हैं अब मराठियों की बात करना उनकी सोच का आइना है।

क्या यह भारत को धर्म-जाति, क्षेत्र और भाषा के नाम पर तोड़ डालना चाहते हैं? अगर हां तो ये कैसे भारतीय हैं, कैसे वतन से मोहब्बत करने वाले हैं जो मराठी और गैर मराठी की दुहाई देकर भारतीयों को दो टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं। क्या मराठी भारतीय नहीं हैं? क्या गैर गराठी भारतीय नहीं है? फिर प्रश्न उसी मानसिकता का जिसने भारत और पाकिस्तान को दो अलग-अलग देशों के रूप में दुनिया के नक्शे पर पहचाने जाने की शुरूआत की। आज वही अपनी राजनीति के लिए मराठी और गैर मराठी का राग अलाप रहे हैं।

यह बात केवल शिवसेना तक सीमित नहीं की जा सकती है इसलिए कि महाराष्ट्र में उसके साथ चुनाव लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी अगर उसके इन विचारों से सहमत नहीं, तो उसके साथ क्यों है। स्पष्ट है जब वह महाराष्ट्र में चुनाव लड़ती है तो मराठियों और गैर मराठियों के अन्तर को स्वीकार करती है और जब वह देश के अन्य राज्यों में चुनाव लड़ती है तो ‘‘हिन्दी, हिन्दु, हिन्दुस्तान’’ की बात करती है।

क्या उसे अपने इस दोहरे मापदंड पर गौर नहीं करना चाहिए? क्या वह समझती है कि भारत की जनता उसकी वास्तविकता को नहीं समझती हैं? यह पार्टी कहीं हिन्दु और मुसलमानों को विभाजित करने की बात करती है ताकि अपनी राजनीतिक ज़मीन को बचाये रखे तो कहीं अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह मराठी और गैर मराठी का नारा लगाने वालों के साथ खड़ी नज़र आती है। अब पूछना होगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से कि क्या लाल कृष्ण आडवाणी मराठी हैं? क्या नरेन्द्र मोदी मराठी हैं?

क्या राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज मराठी हैं? आज भारत भर की जनता भाजपा से यह प्रश्न कर सकती है कि उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश, राजस्थान अर्थात जब हिन्दी राज्यों से रोज़गार की तलाश में जब हमारे नौजवान मुम्बई आते हैं तो इसी मराठी और गैर मराठी के राग के चलते वह अपने ही देश में गैर हो जाते हैं उन्हें गिरी हुई नज़रों से देखा जाता है, उन्हें अत्याचार और ज्यादती का शिकार बनाया जाता है उन्हें बेइज्जत करके राज्य छोड़ देने पर विवश किया जाता है

जब हमारे एक भारतीय नागरिक को आस्ट्रेलिया में अपमानित किया जाता है तो पूरा देश उसे एक शर्मनाक घटना ठहराता है और ठहराया भी जाना चाहिए लेकिन जब इन्हीं हालात का सामना भारतीयों को अपने ही देश में गैर मराठी होने के ताने के साथ बल्कि इसे गाली भी कहा जा सकता है, से करना पड़ता है तो यह राजनीतिज्ञ ख़ामोश रहते हैं, इसलिए कि उन्हें अपनी यह ख़ामोशी अपनी राजनीति की आवश्यकता नज़र आती है।

महाराष्ट्र में चुनाव कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठजोड़ और भारतीय जनता पार्टी व शिवसेना गठजोड़ के बीच है या फिर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी, राजठाकरे की एम.एन.एस. भी इसमें कोई भूमिका अदा कर रही है? इस की समीक्षा की जा सकती है और की भी जायेगी, लेकिन इस समय हम बात सीमित रखना चाहते हैं शिवसेना की सोच, राजठाकरे को जिन्ना कहे जाने और मराठी व गैर मराठी के प्रश्न पर अतः हम बात करेंगे केवल भाजपा और शिवसेना के गठजोड़ पर।

भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट करे कि वह राजठाकरे को जिन्ना जैसा मानती है कि नहीं? भाजपा स्पष्ट करे कि क्या वह राजठाकरे को मराठी वोट के विभाजन का मोहरा मानती है कि नहीं? अगर हां तो राष्ट्र को बताए कि वह अब मोहम्मद अली जिन्ना को क्या मानती है। मराठा वोटों के विभाजन की तर्ज़ पर मुसलमान वोटों के विभाजन के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को जिम्मेदार या फिर कुछ और..........? साथ ही भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट करे कि वह मराठी और गैर मराठी के प्रश्न पर तमाम भारतीयों से क्या कहना चाहती है?

अगर वह मराठा मानुस की बात करती है तो क्या मान लिया जाये कि उसे गैर मराठी वोटों की आवश्यकता नहीं है और केवल महाराष्ट्र में नहीं पूरे भारत में कहीं भी गैर मराठी वोटों की आवश्यकता नहीं है और अगर ऐसा नहीं है तो उसे अपने गठजोड़ वाली शिवसेना और उसके नेता बाला साहब ठाकरे और उद्धव ठाकरे से कहना होगा कि वह अपनी जु़बान को लगाम दें, मराठी और गैर मराठी की बात न करें, भारतीयों को केवल भारतीय रहने दें।

वोट अपने उसूलों के आधार पर, अगर वास्तव में कुछ उसूल हैं तो और अपनी पार्टी के प्रदर्शन के आधार पर अगर वह इस योग्य है तो, अवश्य मांगे और निर्णय जनता पर छोड़ दें लेकिन जनता के बीच घृणा की खाई पैदा न करें। हम उसूलों की बात करेंगे तो केवल भाजपा ही नहीं अन्य पार्टियां भी मुश्किल में पड़ जायेंगी। मगर जहां तक प्रदर्शन का सवाल है तो भारतीय जनता पार्टी या शिवसेना की खाते में क्या है वह सामने रखे।

हमारे सामने इस समय उनके जो कारनामे हैं उनमें ‘गुजरात’ है जिसे भारतीय जनता पार्टी आज़ादी के बाद से अब तक का सबसे बड़ा कारनामा ठहरा सकती है। इसलिए कि उसकी जन्मदाता ‘जनसंघ’ ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद यही रास्ता दिखाया था और अगर हम शिवसेना के प्रदर्शन पर नज़र डालें तो हमें जस्टिस श्रीकृष्णा की कमीशन की रिपोर्ट को एक बार फिर पाठकों के सामने रखना होगा इसलिए कि निःसन्देह उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया हो।

जस्टिस श्रीकृष्णा ने जिन मुजरिमों के चेहरों की निशानदही की भले ही वह आज़ाद घूम रहे हों, उन्हें कोई सज़ा न मिली हो, वह राजनीति का चोला पहनकर सम्मानित नागरिक बन गये हों, मगर महाराष्ट्र की जनता तो अच्छी तरह जानती और पहचानती है उन चेहरों को जिन्होंने हिन्दु और मुसलमानों के बीच नफरत की वह खाई पैदा की जिसे भरना आज तक कठिन हो रहा है।

निःसन्देह श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट पर कोई अमल न हुआ हो मगर जनता के पास तो अपने अमल के प्रदर्शन का एक अवसर है जो एक लोकतांत्रिक देश में उसे हर पांच वर्ष के बाद मिलता है और कभी-कभी इससे पहले भी। इस अवसर पर उसके लिए यह कठिन नहीं होता कि तय कर ले कि निर्णय किसके पक्ष में करना है?

जो धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा के नाम पर भाई से भाई को बांटना चाहते हैं जो मराठी और गैर मराठी के प्रश्न पर घृणा के बीज बो रहे हैं उनके या फिर उनके पक्ष में जो सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं, भारतीय को केवल भारतीय मानते हैं मराठी या गैर मराठी नहीं, उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय नहीं, बिहारी या बंगाली नहीं या यह सब राज्य उनकी पहचान अवश्य हो सकते हैं मगर देश की सीमाओं की तरह भारतीयों और भारतीयों के बीच बटवारे का आधार नहीं।

مراٹھا غیر مراٹھا نہیں، چنئے صرف ہندوستانی

میں خود کو سیاست سے دور ہی رکھنا چاہتا تھا، ابھی تک اس کوشش میں کامیاب بھی ہوں، مگر حالات کب کیا کروٹ لیں، کہنا مشکل ہے۔ پارلیمانی انتخابات کے بعد ضمنی انتخابات کی کوئی خاص اہمیت نہیں تھی، مگر مہاراشٹر، ہریانہ اور اروناچل پردیش کے ریاستی انتخابات کو بے معنی یا غیراہم قرار نہیں دیا جاسکتا۔ ارادہ نہیں تھا کہ ان ریاستی انتخابات کے بارے میں اپنی جانب سے کوئی رائے پیش کی جائے، کیوں کہ وہ کسی کے حق میں تو کسی کے خلاف جاہی سکتی ہے، اس لےے ابھی تک کچھ لکھا بھی نہیں۔

جسونت سنگھ جی کی کتاب قومی، ملی مسائل اور انکاؤنٹر جیسے معاملات پر لکھتا رہا، لیکن گزشتہ کئی روز سے مہاراشٹر بالخصوص ممبئی اور مالیگاؤں سے قارئین کا مسلسل اصرار ہے کہ ایسے موقع پر خاموش رہنا مناسب نہیں ہوگا، اس لےے کہ ووٹرس کو گمراہ کرنے کے لےے سیاسی جماعتیں ہر ممکن کوشش کررہی ہیں۔ ان کے پاس نہ تو ذرائع کی کمی ہے، نہ سرمایہ کی، نہ پارٹی کارکنان کی، جبکہ ہمارے قارئین کو لگتا ہے کہ ان کا محبوب اخبار انہیں کوئی رائے قائم کرنے میں کارگر ثابت ہوسکتا ہے۔

لہٰذا مجھے اس موضوع پر لکھنا ہی ہوگا، شاید میں اس سب کو نظرانداز کردیتا، حالانکہ یہ بہت مشکل ہوتا،مگر جب مہاراشٹر کے مراٹھی اخبار ’’سامنا‘‘جو ممبئی سے شائع ہوتاہے، جسے شیوسینا کا ترجمان اور بالا صاحب ٹھاکرے کی زبان قرار دیا جاتا ہے، نے اپنے سیاسی حریف اور اپنے ہی خاندان کے ایک سیاستداں راج ٹھاکرے کو جناح جیسا کہا تو خاموش رہنا مشکل ہوگیا، لہٰذا اب یہ بھی ضروری ہے کہ لکھا جائے اور یہ بھی ضروری ہے کہ اس درمیان ممبئی میں رہ کر ہی لکھا جائے تاکہ وہاں کے حالات کا جائزہ لیتے ہوئے اپنے اس قسط وار مضمون کے سلسلہ کو آگے بڑھایا جاسکے۔

اگر شیوسینا اور اس کا ترجمان اخبار یہ محسوس کرتا ہے کہ راج ٹھاکرے کم از کم مہاراشٹر کے لےے یا مراٹھوں کے لےے وہی رول ادا کررہے ہیں، جو تقسیم وطن کے وقت یا اس کے پہلے محمد علی جناح نے کیا تھا تو ہمارے نزدیک یہ جسونت سنگھ کی کتاب ’’جناح، انڈیاـپارٹیشنـانڈیپنڈنس‘‘ سے بھی بڑا دھماکہ ہے، اس لےے کہ جسونت سنگھ نے تو صرف تقسیم وطن کے حالات بیان کرتے ہوئے محمد علی جناح کے اس سیکولر کردار کو سامنے رکھا تھا، جو ہندوستان میں قومی یکجہتی کا علمبردار تھا، ہندو اور مسلمانوں کو ساتھ لے کر چلنا چاہتا تھا، مگر بالا صاحب ٹھاکرے کے اخبار ’’سامنا‘‘ نے تو یہ واضح کردیا کہ محمد علی جناح کے تعلق سے اب تک جو بھی کہا جارہا تھا، وہ سراسر غلط تھا۔

محمد علی جناح نے ملک نہیں بانٹا، بلکہ مسلمانوں کو بانٹا تھا، لہٰذا اگر محمدعلی جناح کو کسی کا دشمن قرار دیا جاسکتا ہے تو ہندوستان کا نہیں، بلکہ مسلمانوں کا۔ ابھی تک تو گزشتہ 20برس سے لکھ کر اور بول کر یہی بات ہم کہتے رہے تھے کہ ہندوستان کا بٹوارہ مسلمانوں کی تقسیم کے لےے تھا۔ اس کے ذمہ دار نہ ہندو ہیں نہ مسلمان، بلکہ اس کی ذمہ دار سیاست ہے۔ محمد علی جناح کا خواب تھا یا خواہش تھی ہندوستان پر حکومت کرنااور اس خواب کو چکناچور کرنے کا ایک ہی طریقہ تھا کہ زمین کا ایک چھوٹا سا ٹکڑا دے کر محمد علی جناح کی آواز کو ہمیشہ ہمیشہ کے لےے خاموش کردیا جائے۔

ہماری یہ بات ہماری تنگ نظری قرار دی جاسکتی تھی، اسے ہماری جانبدارانہ سوچ کہا جاسکتا تھا، لیکن اب جبکہ تقریباً وہی بات اس ملک کی کٹر ہندوذہنیت کی ترجمانی کرنے والے بالاصاحب ٹھاکرے کے اخبار ’’سامنا‘‘ نے کہہ دی تو پھر مان لیجئے کہ ہم نے اب تک جو بھی کہا یا لکھا وہ تاریخ کی روشنی میں بیان کیا گیا ایک کڑوا سچ تھا، جسے نگلنا مشکل ہورہا تھا۔ اب آپ کے ذہن میں یہ سوال پیدا ہوسکتا ہے کہ تقسیم وطن کی فلاسفی سے بالاصاحب ٹھاکرے کے اخبار کے ذریعہ راج ٹھاکرے کو جناح کہہ دینے کا کیا تعلق؟ تو قارئین حضرات اگر آپ سنجیدگی سے غور فرمائیں گے تو یہ سمجھنا قطعی مشکل نہیں ہے کہ دراصل راج ٹھاکرے کو مراٹھوں کے تعلق سے جناح قرار دے کر شیوسینا نے ان تاریخی حقائق کو سامنے رکھ دیاہے، جن کی طرف ہم اشارہ کررہے تھے۔

اگر شیوسینا یہ مانتی ہے کہ مراٹھوں کے لےے راج ٹھاکرے محمد علی جناح جیسا کردار نبھارہے ہیں تو پھر مان لیجئے کہ جناح نے یہی کردار مسلمانوں کے تعلق سے نبھایا تھا۔ اگر راج ٹھاکرے مراٹھوں کو تقسیم کررہے ہیں تو محمد علی جناح بھی اس وقت مسلمانوں کو دو ٹکڑوں میں بانٹ رہے تھے، لہٰذا جس نے مسلمانوں کو دو ٹکڑوں میں بانٹا ہو، اسے مسلمانوں کا نمائندہ یا رہنما کیسے قرار دیا جاسکتا ہے؟ اسے مسلمانوں کا ہمدرد، خیرخواہ کیسے قرار دیا جاسکتا ہے؟ پھر اس کے ذریعہ بنائے گئے ملک کو مسلمانوں کا ملک کیسے قرار دیا جاسکتا ہے؟ یعنی جو الزامات آج تک شیوسینا اور سنگھ پریوار کی جانب سے مسلمانوں پر لگائے جاتے رہے،

آج انہیں الزامات کے آئینہ میں انہیں اپنا چہرہ دیکھنے کی ضرورت ہے، کیوں کہ ’’سامنا‘‘ میں راج ٹھاکرے کو جناح قرار دئےے جانے پر بھارتیہ جنتا پارٹی کی جانب سے بھی اس کے رد میں کوئی بیان نہیں آیا ہے، اس لےے کہا جاسکتا ہے کہ وہ بھی شیوسینا کی اس سوچ سے متفق ہے۔ کم از کم اس معاملہ میں تو ہم شیوسینا کو مبارکباد پیش کریں گے کہ یہ پہلا موقع ہے، جب کسی ہندوؤں کی ترجمانی کرنے والی سیاسی جماعت کے ترجمان نے اپنے دعویٰ میں اپنی ہی طرز پر یعنی کٹرہندوتو کی سیاست کرنے والے کسی شخص کو جناح قرار دیا ہے۔

یہ تو شیوسینا کے اس بیان کو دیکھنے اور تجزیہ کرنے کا ایک زاویہ تھا، اب ہم اسی سوچ کے دوسرے زاویہ پر بات کرتے ہیں۔ وہ جو خود کو وطن پرست کہتے ہیں، وہ جو خود کو ملک کے قومی دھارا میں چلنے والا قرار دیتے ہیں اور دن رات یہی طعنہ اقلیتوں بالخصوص مسلمانوں کو دیتے رہتے ہیں، وہ جو ملک کی سالمیت اور اٹوٹ بھارت کی بات کرتے ہیں، اب مراٹھوں کی بات کرنا ان کی سوچ کا آئینہ ہے۔ کیا یہ ہندوستان کو مذہب، ذات، علاقہ اور زبان کے نام پر توڑ ڈالنا چاہتے ہیں؟ اگر ہاں، تو کیسے ہندوستانی ہیں یہ… کیسے وطن سے محبت کرنے والے ہیںیہ… جو مراٹھا اور غیرمراٹھا کی دہائی دے کر ہندوستانیوں کو دو ٹکڑوں میں بانٹ دینا چاہتے ہیں۔

کیا مراٹھا ہندوستانی نہیں ہیں؟ کیا غیرمراٹھا ہندوستانی نہیں ہیں؟ پھر سوال اسی ذہنیت کا، جس نے ہندوستان اور پاکستان کو دو الگ الگ ممالک کی شکل میں دنیا کے نقشے پر پہچانے جانے کی داغ بیل ڈالی۔ آج وہی اپنی سیاست کے لےے مراٹھا اور غیرمراٹھا کا راگ الاپ رہے ہیں۔ یہ بات صرف شیوسینا تک محدود نہیں کی جاسکتی، اس لےے کہ مہاراشٹر میں اس کے ساتھ الیکشن لڑنے والی بھارتیہ جنتا پارٹی اگر اس کے ان نظریات سے اتفاق نہیں رکھتی تو اس کے ساتھ کیوں ہے؟ ظاہر ہے جب وہ مہاراشٹر میں الیکشن لڑتی ہے تو مراٹھوں اور غیرمراٹھوں کے فرق کو تسلیم کرتی ہے اور جب وہ ملک کی دیگر ریاستوں میں الیکشن لڑتی ہے تو ہندی،ہندو، ہندوستان کی بات کرتی ہے۔

کیا اسے اپنے اس دوہرے معیار پر غور نہیں کرنا چاہےے؟ کیا وہ سمجھتی ہے کہ ہندوستانی عوام اس کی اس حقیقت کو نہیں سمجھتے ہیں؟ یہ پارٹی کہیں ہندو اور مسلمانو ںکو بانٹنے کی بات کرتی ہے تاکہ اپنی سیاسی زمین کو بچائے رکھے تو کہیں اپنے اس مقصد کو پورا کرنے کے لےے وہ مراٹھا اور غیرمراٹھا کا نعرہ لگانے والوں کے لےے ساتھ کھڑی نظر آتی ہے۔ اب پوچھنا ہوگا بھارتیہ جنتا پارٹی کے لیڈروں سے کہ کیا لال کرشن اڈوانی مراٹھا ہیں؟ کیا نریندر مودی مراٹھا ہیں؟

کیا راج ناتھ سنگھ اور سشما سوراج مراٹھا ہیں؟ آج ہندوستان بھر کے عوام بھارتیہ جنتا پارٹی سے یہ سوال کرسکتے ہےں کہ اترپردیش، مدھیہ پردیش، راجستھان یعنی تمام ہندی ریاستوں سے ذریعہ معاش کی تلاش میں جب ہمارے نوجوان ممبئی آتے ہیں تو اسی مراٹھا اور غیرمراٹھا کے راگ کے سبب وہ اپنے ہی ملک میں غیر ہوجاتے ہیں۔انہیں گری ہوئی نظروں سے دیکھا جاتا ہے، انہیں ظلم و زیادتی کا شکار بنایا جاتا ہے، انہیں بے عزت کرکے ریاست چھوڑ دینے پر مجبور کیا جاتا ہے۔ جب ہمارے ایک ہندوستانی شہری کو آسٹریلیا میں بے عزت کیا جاتا ہے تو پورا ملک اسے ایک شرمناک واقعہ قرار دیتا ہے اور دیا بھی جانا چاہے

لیکن جب انہیں حالات کا سامنا ہندوستانیوں کو اپنے ہی ملک میں غیرمراٹھا ہونے کے طعنہ کے ساتھ، بلکہ اسے گالی بھی کہا جاسکتا ہے، سے کرنا پڑتا ہے تو یہ سیاستداں خاموش رہتے ہیں، اس لےے کہ انہیں اپنی یہ خاموشی اپنی سیاست کی ضرورت نظر آتی ہے۔ مہاراشٹر میں الیکشن کانگریس اور نیشنلسٹ کانگریس کے اتحاد اور بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا اتحاد کے درمیان ہے یا پھر سماجوادی پارٹی، بہوجن سماج پارٹی، ری پبلکن پارٹی، راج ٹھاکرے کی ایم این ایس بھی اس میں کوئی رول ادا کررہی ہے؟ اس سب کا تجزیہ کیا جاسکتا ہے اور کیا بھی جائے گا،

لیکن اس وقت ہم بات محدود رکھنا چاہتے ہیں شیوسینا کی سوچ، راج ٹھاکرے کو جناح کہے جانے اور مراٹھا اور غیرمراٹھا کے سوال پر، لہٰذا ہم بات کریں گے صرف بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کے اتحاد پر۔ بھارتیہ جنتا پارٹی واضح کرے کہ وہ راج ٹھاکرے کو جناح جیسا مانتی ہے یا نہیں؟ بھارتیہ جنتا پارٹی واضح کرے کہ کیاوہ راج ٹھاکرے کو مراٹھا ووٹ کی تقسیم کا مہرہ مانتی ہے یا نہیں؟ اگر ہاں، تو قوم کو بتائے کہ وہ اب محمدعلی جناح کو کیا مانتی ہے؟ مراٹھا ووٹوں کی تقسیم کی طرز پر مسلمان ووٹوں کی تقسیم کے لے محمد علی جناح کو ذمہ دار یا پھر کچھ اور…؟

ساتھ ہی بھارتیہ جنتا پارٹی واضح کرے کہ وہ مراٹھا اور غیرمراٹھا کے سوال پر تمام ہندوستانیوں سے کیا کہنا چاہتی ہے؟ اگر وہ مراٹھا مانس کی بات کرتی ہے تو کیا مان لیا جائے کہ اسے غیرمراٹھا ووٹوں کی ضرورت نہیں ہے اور صرف مہاراشٹر میں ہی نہیں تمام ہندوستان میں کہیں بھی غیرمراٹھا ووٹوں کی ضرورت نہیں ہے… اور اگر ایسا نہیں ہے تو اسے اپنی اتحادی پارٹی شیوسینا اور اس کے سربراہ بالا صاحب ٹھاکرے اور اودھو ٹھاکرے کو کہنا ہوگا کہ وہ اپنی زبان کو لگام دیں۔ مراٹھا اور غیرمراٹھا کی بات نہ کریں، ہندوستانیوں کو صرف ہندوستانی رہنے دیں۔

ووٹ اپنے اصولوں کی بنیاد پر، اگر واقعی کچھ اصول ہیں تو اور اپنی پارٹی کی کارکردگی کی بنیاد پر، اگر وہ اس لائق ہے تو، ضرور مانگیں اور فیصلہ عوام پر چھوڑ دیں، لیکن عوام کے درمیان نفرت کی خلیج پیدا نہ کریں۔ ہم اصولوں کی بات کریں گے تو صرف بی جے پی ہی نہیں، دیگر پارٹیاں بھی مشکل میں پڑجائیں گی، مگر جہاں تک کارکردگی کا سوال ہے تو بھارتیہ جنتا پارٹی یا شیوسینا کے کھاتے میں کیا ہے وہ سامنے رکھے۔

ہمارے سامنے اس وقت ان کے جو کارنامے ہیں، ان میں گجرات ہے، جسے بھارتیہ جنتا پارٹی آزادی کے بعد سے اب تک کا سب سے بڑا کارنامہ قرار دے سکتی ہے، اس لے کہ اس کی جنم داتا جن سنگھ نے مہاتماگاندھی کے قتل کے بعد یہی راستہ دکھایا تھا اور اگر ہم شیوسینا کی کارکردگی پر نظرڈالیں تو ہمیں جسٹس شری کرشن کمیشن کی رپورٹ کو ایک بار پھر قارئین کے سامنے رکھنا ہوگا، اس لےے کہ بیشک اسے ٹھنڈے بستے میں ڈال دیا گیا ہو۔ جسٹس شری کرشن نے جن مجرموں کے چہروں کی نشاندہی کی، بھلے ہی وہ آزاد گھوم رہے ہوں، انہیں کوئی سزا نہ ملی ہو، وہ سیاست کا چولا پہن کر عزت دار شہری بن گئے ہوں

مگر مہاراشٹر کے عوام تو بخوبی جانتے ہےں اور پہچانتے ہےں ان چہروں کو، جنہوں نے ہندو اور مسلمانوں کے درمیان نفرت کی وہ کھائی پیدا کی، جسے پر کرنا آج تک مشکل ہورہا ہے۔ بیشک شری کرشن کمیشن کی رپورٹ پر کوئی عمل درآمد نہ ہوا ہو، مگر عوام کے پاس تو اپنے عمل کے مظاہرے کا ایک موقع ہے، جو ایک جمہوری ملک میں اسے ہر پانچ سال کے بعد ملتا ہے اور کبھی کبھی اس کے پہلے بھی۔

اس موقع پر اس کے لےے یہ مشکل نہیں ہوتا کہ طے کرلے کہ فیصلہ کس کے حق میں کرنا ہے؟ جو مذہب، ذات، علاقہ اور زبان کے نام پر بھائی سے بھائی کو بانٹنا چاہتے ہیں، جو مراٹھا اور غیرمراٹھا کے سوال پر نفرت کے بیچ بورہے ہیں، ان کے یا پھر ان کے حق میں، جو سب کو ساتھ لے کر چلنا چاہتے ہیں، ہندوستانی کو صرف ہندوستانی مانتے ہیں، مراٹھا یا غیرمراٹھا نہیں، اتربھارتیہ یادکشن بھارتیہ نہیں، بہاری یا بنگالی نہیںیا یہ سب ریاستیں ان کی شناخت ضرور ہوسکتی ہیں، مگر ملک کی سرحدوں کی طرح ہندوستانیوں اور ہندوستانیوں کے درمیان بٹوارے کی بنیاد نہیں۔

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