Thursday, December 4, 2008

मुंबई पर आतंकवादी हमला या क्रिया की प्रतिक्रिया

"क्रिया" करकरे की जांच और "प्रतिक्रिया" करकरे की मौत

मैं आज कुछ नहीं लिखना चाहता था। जब लिखने के लिए कुछ भी न हो तब कुछ पंक्तियाँ लिखना भी बहुत कठिन होता है और जब लिखने के लिए इतना अधिक हो की कुछ पृष्ठ भी कम हों, तब भी लिखना बहुत कठिन होता है। २६ नवम्बर २००८ को जब मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ। तब मैं भारत के बाहर था। अगले दिन सुबह "साउथ एशिया मीडिया कांफ्रेंस" में हिस्स्सा लेना था, जहाँ भारत से "आजाद हिंद" कोल्कता के संपादक और पार्लिमेंट सदस्य अहमद सईद मलीहाबादी और रोजनामा "सिआसत" हैदराबाद के संपादक जाहिद खान, व आलमी सहारा उर्दू चैनल के देवेश वर्मा भी इस कांफ्रेंस में सम्मिलित थे। रात भर मैं परेशान रहा और यह तय कर पाना बहुत कठिन था की विदेशी ज़मीन पर जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया उपस्थित होगा, तो मैं इस विषय पर किस प्रकार अपने विचार प्रकट करूँगा। लेकिन मुझे अपने समाचार पात्र और अपने देश का प्रतिनिधित्व करना था। इसलिए दृष्टिकोण सामने रखना भी आवयशक था, इस लिए की मुंबई पर हुआ आतंकवादी हमला लगातार मेरे मस्तिष्क पर छाया हुआ था, अतएव मैं निश्चित समय से पहले भाषण दे कर अपने साथी शकील हसन शम्सी के मित्र मोअज्ज़म शाह के कार्यालय "मीडिया बैंक" पहुँचा और इस घटना के बाद कराची में बैठ कर जो पहला लेख लिखा उस का विषय था, "हेमंत करकरे के बाद ऐ टी एस? " तब से अब तक अर्थार्त यह लेख लिखते समय तक इस विषय पर जो कुछ लिखा है, वह इस आतंकवादी हमले में शहीद हेमंत करकरे को मस्तिष्क में रख कर ही लिखा है। आज भी मैं अपने आप को इस सोच से अलग नहीं कर पा रहा हूँ, इस लिए कुछ भी लिखना बहुत कठिन नज़र आरहा था। आख़िर आप सुब इस दिशा में क्यूँ नहीं सोच रहे हैं? येही चाहता था मैं, की आज कुछ न लिखूं और इस विषय पर जितना अधिक से अधिक अध्यन कर सकता हूँ, करूँ और आप से यह प्रार्थना करूँ की इश्वर के लिए आप सब मिल कर इस दिशा में सोचें की आख़िर ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे का इन आतंकवादी हमलों में शहीद हो जाना मात्र सहयोग था या एक गहरा षड़यंत्र?


जिस प्रकार ओपेराशन बटला हाउस के बाद लग भाग पूर्ण मीडिया केवल तथा केवल एक ही पक्ष को सामने रख रहा था, वह जो पुलिस द्वारा बयान किया जारहा था, ठीक वही वस्तुस्थिति आज फिर हमारे सामने है, जो कुछ पुलिस कह रही है, वही पूर्ण मीडिया द्वारा प्रस्तुत किया जारहा है और यह प्रचार प्रसार केवल भारत तक ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच रहा है। क्या हम यह मान लें की पूर्ण मीडिया के पास समाचारों का जो मध्यम है, वह केवल पुलिस है और पुलिस के पास इस आतंकवादी हमले के सम्बन्ध से प्रत्येक जानकारी प्राप्त होने का केवल एक ही सूत्र है और वह है उन आतंकवादी हमलों में जीवित पकड़ा गया आतंकवादी, अजमल कमाल कसाब। क्या यह सत्यवादी हरिश्चंद्र के जैसा केवल सच बोलने वाला व्यक्ति है जिसकी प्रत्येक बात पर आँख बंद कर के विश्वास कर लिया जाए। आख़िर ऐसा ही क्यूँ होता है की अधिकतर बम धमाकों या आतंकवादी हमलों के बाद सभी आतंकवादी मार दिए जाते हैं, केवल एक जीवित पकड़ में आता है व कुछ भाग जाते हैं और फिर इस एक जीवित पकड़े गए आतंकवादी को सामने रख कर पुलिस एक कहानी प्रस्तुत कर देती है और समूचा देश इस कहानी पर विश्वास कर लेता है, न अधिक जाँच पड़ताल की आव्यशकता है होती है और न किसी दुसरे दृष्टिकोण से सोचने की।


प्राप्त सूचनाओं के अनुसार ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे जब एक मीटिंग से वापस पहुंचे तो उन्हें यह सूचना दी गई की होटल ओबेरॉय पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया है, वह तुंरत होटल ओबेरॉय की ओर चले, फिर उन्हें सूचना मिली की छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया है, वह होटल ओबेरॉय से सी एस टी पहुंचे की रास्ते में ही एक और सूचना मिली की अस्पताल कामा सेंटर पर आतंकवादी हैं, और एक बार फिर वह एनकाउंटर स्पेशलिस्ट "सालसकर" तथा डिप्टी कमिशनर ऑफ़ पुलिस "अशोक काम्टे" के साथ कामा सेंटर की ओर चल पड़े और इस के लिए एक संकरे मार्ग का चुनाव कीया गया जहाँ तीन ओर से उन पर हमला किया गया और एक सूचना के अनुसार झाडियों में छुपे आतंकवादियों ने निशाना बाँध कर उन पर हमला किया, फिर उन्हें गाड़ी से नीचे फ़ेंक कर उस गाड़ी को लेकर भाग गए। तत्पश्चात रस्ते में एक स्कोडा कार को रोका, इसके चालक को नीचे उतारा और कार लेकर भाग गए।
मुंबई के इन आतंकवादी हमलों में मारे गए सभी लोग आतंकवादी हमलों का शिकार हुए हों, चाहे अंधाधुन्द फायरिंग द्वारा, हैण्ड ग्रेनेड द्वारा किए गए धमाकों में या अग्नि काण्ड में। टारगेट किल्लिंग अर्थार्त निशाना बाँध कर केवल तीन ही व्यक्तियों की हत्या की गई है और उन में भी प्रमुख हैं, मिस्टर हेमंत करकरे की जो वास्तव में आंखों की किरकिरी बन गए थे, संघ परिवार की विशेष रूप से लाल कृष्ण अडवानी, राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी की। इस दिशा में बात क्यूँ नहीं हो रही है? पुलिस और मीडिया इस दृष्टिकोण पर मौन क्यूँ है? जिस जीप में हेमंत करकरे, विजय सालसकर और अशोक काम्टे सवार थे उसमें एक कांस्टबल भी सवार था जिसे एक गोली लगी और जिसका उपचार हो रहा है। आतंकवादियों ने उस की जान लेना आवयशक नहीं समझा और स्कोडा कार के चालक पर भी उन की दयादृष्टि रही। आख़िर इन आतंकवादियों की हेमंत करकरे और शेष दो अधिकारीयों से ही क्या दुश्मनी थी? वह उन्हें ही क्यूँ रास्ते से हटाना चाहते थे? वह कौन था जो बार बार फ़ोन कर के या वायरलेस द्वारा संदेश भेज रहा था की करकरे ओबेरॉय पहुंचे? सी एस टी या कामा सेंटर, क्या प्रत्येक स्थान पर आतंकवादियों से निपटने के लिए महाराष्ट्र में केवल एक ही टीम और एक ही व्यक्ति था? यदि करकरे ओबेरॉय पहुँच गए थे तो सी एस टी और कामा सेंटर कोई दूसरी टीम जा सकती थी और यदि उन्हें सी एस टी भेज दिया गया था तो फिर वहां से कामा सेंटर जाने का निर्देश देना आवयशक क्यूँ था? यह निर्देश देने वाला कौन था? इस का पता लगना अत्याधिक आवयशक है। करकरे, सालसकर और काम्टे के शरीर पर कुल कितनी गोलियाँ लगीं? क्या गोलियाँ लगने के बाद उन के शरीर के फोटो लिए गए? अगर लिए गए तो वह कहाँ हैं? उनके शरीर में कितनी गोलियाँ लगीं, उन गोलियों की पहचान क्या है? क्या आतंकवादी हमलों में मरने वाले अन्य लोगों को भी वैसी ही गोलियाँ लगीं हैं? अर्थार्त जो आतंकवादी प्रयोग कर रहे थे। या उन्हें जो गोलियाँ लगीं वह पुलिस या आर्मी द्वारा प्रयोग की जाती हैं। करकरे और उन के दो साथियों की पोस्ट मोर्टेम रिपोर्ट क्या कहती है, उसे सामने क्यूँ नहीं लाया गया? अगर इन सभी प्रश्नों के उत्तर सामने आजायें तो मुंबई पर आतंकवादी हमले के राज़ से परदा हट सकता है। अभी तक इन आतंकवादी हमलों के बाद वस्तुस्थिति में जो भी परिवर्तन आया है वह यह है की २६ नवम्बर २००८ से पहले भारत में प्रत्येक ओर चर्चा का विषय था मालेगाँव जाँच प्रकरण, इस में कट्टर हिंदूवादी संघटनों का सम्मिलित होना, साध्वी, महंत और प्रोहित के लिप्त होने के प्रमाणों का सामने आना, समझौता एक्सप्रेस दुर्घटना में लेफ्टनेंट कर्नल प्रोहित का सम्मिलित नज़र आना, दयानंद पाण्डेय के लैपटॉप से संघ परिवार के इन्द्रेश और मोहन राव भागवत की हत्या के षड़यंत्र से परदा उठना, लाल कृष्ण अडवानी, राज नाथ सिंह, नरेंद्र मोदी और शिव सेना का इन आरोपियों के समर्थन में खुल कर सामने आना, शिव सेना द्वारा नयायालय ले जाते समय आरोपियों पर फूल बरसना, टी वी प्रोग्रामों में भाजपा के नेताओं का उसे सही करार देना, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के मामले को लेकर लाल कृष्ण अडवानी का प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मिलना अर्थात इन कत्तावादी संघटनों को बेनकाब कर दिए जाने के बाद यह सब ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे से बहुत नाराज़ थे और अपने जीवन के अन्तिम दिनों में हेमंत करकरे इस सच्चाई को गहराई से समझने लगे थे। भारतीय जनता पार्टी के लिए मालेगाँव बम धमाकों का सत्य और इस के साथ ही दुसरे बम धमाकों से एक के बाद एक परदे का उठना, वबाल जान बन गया था और उन्हें यह विश्वास हो चला था की यदि वस्तुस्थिति ऐसी ही रही तो आगामी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता उन्हें स्पष्ट रूप से नकार देगी और चुनाव उन के लिए कितना महत्त्व रखता है, इस का एक उदहारण यह भी है की मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद प्रधानमन्त्री जब सर्वदलीयबैठक कर रहे थे, तब लाल कृष्ण अडवानी और राज नाथ सिंह राजस्थान में अपनी पार्टी के चुनाव प्रसार में व्यस्त थे। यह वही लोग हैं जो आतंकवाद के विरुद्ध कड़े कदम उठाने की बात करते रहे हैं। क्या उन्हें लगता है की आतंकवाद के दायरे में कट्टर हिंदू संघटनों के आने का सिलसिला रुक गया है, इस लिए उन की आव्यशकता पूर्ण हो गई। मुंबई बम धमाकों के बाद हिंदू आतंकवादियों की चर्चा समाप्त हो गई इस लिए अब चुनाव का समय आते आते वह फिर अपने लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने में safal हो जायेंगे। हमें इस विषय में अभी कुछ नहीं कहना परन्तु यह अवश्य कहेंगे की शहीदों का खून रंग लाएगा ज़रूर। बात मालेगाँव की हो या मुंबई पर आतंकवादी हमलों की, सच्चाई तो एक न एक दिन सामने आएगी ही, फिर तय होगा की मुंबई पर आतंवादी हमला पाकिस्तान और लश्करे तयबा की क्रिया थी या पहले की तरह एक्शन का रेअच्शन, क्रिया की प्रतिक्रिया। क्रिया करकरे की जाँच और प्रतिक्रिया करकरे की शहादत।

2 comments:

Unknown said...

Dear readers,
kindly read these to different versions of THE MOVIE called KASAB, TRUTH & LIES made by india's Saffron elements.

read yourself. A LIER{INDIA's SAFFRON BUREAUCRACY} always contradict itself

LINK1: http://www.dnaindia.com/report.asp?newsid=1210947

{From petty thief in Multan to terror face in India
PTI
Tuesday, December 02, 2008 16:59 IST




MUMBAI: The involvement of Mohammad Amjad Amir Iman, a Lashker-e-Taiba cadre, in the Mumbai terror attacks has once again brought to fore that terror groups in
Pakistan were hiring people with weak economic and social background.

Iman, 21, when captured from Chowpatty after the Wednesday's audacious attack, told interrogators that he had started his career as a petty thief in Lahore, where he was
staying with his brother after dropping out from school in 2000.

Thereafter, Iman shuttled between his brother's home and his parents' house till 2005.


He had a fight with his family members and started working as a daily wage earner but later shifted to a small-time criminal gang during which he and one of his friends came across some Jamaat-ul-Dawa members while purchasing arms from a market in Rawalpindi.

After deliberating among themselves, Iman claimed that both of them decided to join the group because the jihad training they would receive would further their future life in
crime.

During training, Iman found many youths belonging to poor families were undergoing arms training at the Lashkar camps.

They had been promised greener pastures besides paying hefty sums to their poor parents, he said.

In the training programme, he was shown films on India's alleged atrocities in Kashmir, and fiery lectures by preachers, including Lashkar chief Hafiz Mohammad Saeed's
talks, which led him to believe the Lashkar's cause was worth giving his life. }

LINK2:http://www.dnaindia.com/report.asp?newsid=1211574

[Friend’s death ‘changed’ Kasab
Poornima Swaminathan
Friday, December 05, 2008 03:48 IST



Mohammed Ajmal Kasab, the lone terrorist arrested during last week’s terror attacks, supposedly took to terrorism with a vengeance and with a “cause”, he told investigators. He told the police that he wanted to “avenge” the death of his best friend, Fayaz Ahmad, a suspected member of Jaish-e-Mohammad, who was killed in an encounter in 2005 by the Jammu and Kashmir police.


The police did not even hand over his body to his parents to perform the last rites. Kasab told the police that he was like a son to Ahmad’s parents and was infuriated since he couldn’t help them.

Officials further said that the encounter of his best friend perhaps triggered Kasab to take the extreme step. And since he was a teenager, the Lashkar-e-Tayiba cashed in on his helplessness and anger.

According to the police, Kasab and Ahmad were neighbours and grew up together. “My friend could not have been a terrorist. He was a calm and peace-loving person. He was falsely branded as a terrorist and killed,” he claimed.

During interrogation, Kasab said that his parents sent him to a local madrassa in Pakistan occupied Kashmir. It was here that he was exposed to anti-India sermons.

Hailing from an extremely poor family, Kasab claimed that his father coaxed him to join LeT in return for money.

Kasab is now worried about his family’s safety back home as he fears that the extremists will harm them. ]
Home | Mumbai

shekh aamir said...

dear readers
mumbai me 26november ko hua hamla kya sadhvi pragya and party aur unke aaqaaon ko bachane ki saazish hai?